नागार्जुन

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नागार्जुन
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नागार्जुन (30जून 1911साँचा:efn- 5 नवम्बर 1998) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में यात्री उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र के साथ मिलकर एकमेक हो गया।

जीवन-परिचय

नागार्जुन का जन्म १९११ ई० की ज्येष्ठ पूर्णिमासाँचा:efn  को वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था। यह उन का ननिहाल था। उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। नागार्जुन के बचपन का नाम 'ठक्कन मिसर' था।[१] गोकुल मिश्र और उमा देवी को लगातार चार संताने हुईं और असमय ही वे सब चल बसीं। संतान न जीने के कारण गोकुल मिश्र अति निराशापूर्ण जीवन में रह रहे थे। अशिक्षित ब्राह्मण गोकुल मिश्र ईश्वर के प्रति आस्थावान तो स्वाभाविक रूप से थे ही पर उन दिनों अपने आराध्य देव शंकर भगवान की पूजा ज्यादा ही करने लगे थे। वैद्यनाथ धाम (देवघर) जाकर बाबा वैद्यनाथ की उन्होंने यथाशक्ति उपासना की और वहाँ से लौटने के बाद घर में पूजा-पाठ में भी समय लगाने लगे। "फिर जो पाँचवीं संतान हुई तो मन में यह आशंका भी पनपी कि चार संतानों की तरह यह भी कुछ समय में ठगकर चल बसेगा। अतः इसे 'ठक्कन' कहा जाने लगा। काफी दिनों के बाद इस ठक्कन का नामकरण हुआ और बाबा वैद्यनाथ की कृपा-प्रसाद मानकर इस बालक का नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया।"[२]

गोकुल मिश्र की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रह गयी थी। वे काम-धाम कुछ करते नहीं थे। सारी जमीन बटाई पर दे रखी थी और जब उपज कम हो जाने से कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं तो उन्हें जमीन बेचने का चस्का लग गया। जमीन बेचकर कई प्रकार की गलत आदतें पाल रखी थीं। जीवन के अंतिम समय में गोकुल मिश्र अपने उत्तराधिकारी (वैद्यनाथ मिश्र) के लिए मात्र तीन कट्ठा उपजाऊ भूमि और प्रायः उतनी ही वास-भूमि छोड़ गये, वह भी सूद-भरना लगाकर। बहुत बाद में नागार्जुन दंपति ने उसे छुड़ाया।

ऐसी पारिवारिक स्थिति में बालक वैद्यनाथ मिश्र पलने-बढ़ने लगे। छह वर्ष की आयु में ही उनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता (गोकुल मिश्र) अपने एक मात्र मातृहीन पुत्र को कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहाँ, इस गाँव--उस गाँव आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही इन्हें पिता की लाचारी के कारण घूमने की आदत पड़ गयी और बड़े होकर यह घूमना उनके जीवन का स्वाभाविक अंग बन गया। "घुमक्कड़ी का अणु जो बाल्यकाल में ही शरीर के अंदर प्रवेश पा गया, वह रचना-धर्म की तरह ही विकसित और पुष्ट होता गया।"[१]

वैद्यनाथ मिश्र की आरंभिक शिक्षा उक्त पारिवारिक स्थिति में लघु सिद्धांत कौमुदी और अमरकोश के सहारे आरंभ हुई। उस जमाने में मिथिलांचल के धनी अपने यहां निर्धन मेधावी छात्रों को प्रश्रय दिया करते थे। इस उम्र में बालक वैद्यनाथ ने मिथिलांचल के कई गांवों को देख लिया। बाद में विधिवत संस्कृत की पढ़ाई बनारस जाकर शुरू की।[२] वहीं उन पर आर्य समाज का प्रभाव पड़ा और फिर बौद्ध दर्शन की ओर झुकाव हुआ। उन दिनों राजनीति में सुभाष चंद्र बोस उनके प्रिय थे। बौद्ध के रूप में उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को अग्रज माना। बनारस से निकलकर कोलकाता और फिर दक्षिण भारत घूमते हुए लंका के विख्यात 'विद्यालंकार परिवेण' में जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। राहुल और नागार्जुन 'गुरु भाई' हैं। लंका की उस विख्यात बौद्धिक शिक्षण संस्था में रहते हुए मात्र बौद्ध दर्शन का अध्ययन ही नहीं हुआ बल्कि विश्व राजनीति की ओर रुचि जगी और भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन की ओर सजग नजर भी बनी रही। १९३८ ई० के मध्य में वे लंका से वापस लौट आये।[३] फिर आरंभ हुआ उनका घुमक्कड़ जीवन। साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ नागार्जुन राजनीतिक आंदोलनों में भी प्रत्यक्षतः भाग लेते रहे। स्वामी सहजानंद से प्रभावित होकर उन्होंने बिहार के किसान आंदोलन में भाग लिया और मार खाने के अतिरिक्त जेल की सजा भी भुगती। चंपारण के किसान आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया। वस्तुतः वे रचनात्मक के साथ-साथ सक्रिय प्रतिरोध में विश्वास रखते थे। १९७४ के अप्रैल में जेपी आंदोलन में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था "सत्ता प्रतिष्ठान की दुर्नीतियों के विरोध में एक जनयुद्ध चल रहा है, जिसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी की ही नहीं, कर्म की हो, इसीलिए मैं आज अनशन पर हूँ, कल जेल भी जा सकता हूँ।"[४] और सचमुच इस आंदोलन के सिलसिले में आपात् स्थिति से पूर्व ही इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर काफी समय जेल में रहना पड़ा।

१९४८ ई० में पहली बार नागार्जुन पर दमा का हमला हुआ और फिर कभी ठीक से इलाज न कराने के कारण[५] आजीवन वे समय-समय पर इससे पीड़ित होते रहे। दो पुत्रियों एवं चार पुत्रों से भरे-पूरे परिवार वाले नागार्जुन कभी गार्हस्थ्य धर्म ठीक से नहीं निभा पाये और इस भरे-पूरे परिवार के पास अचल संपत्ति के रूप में विरासत में मिली वही तीन कट्ठा उपजाऊ तथा प्रायः उतनी ही वास-भूमि रह गयी।[२]

लेखन-कार्य एवं प्रकाशन

नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। काशी में रहते हुए उन्होंने 'वैदेह' उपनाम से भी कविताएँ लिखी थीं। सन् 1936 में सिंहल में 'विद्यालंकार परिवेण' में ही 'नागार्जुन' नाम ग्रहण किया।[६][७] आरंभ में उनकी हिन्दी कविताएँ भी 'यात्री' के नाम से ही छपी थीं। वस्तुतः कुछ मित्रों के आग्रह पर १९४१ ईस्वी के बाद उन्होंने हिन्दी में नागार्जुन के अलावा किसी नाम से न लिखने का निर्णय लिया था।[८]

नागार्जुन की पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी जो १९२९ ई० में लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित 'मिथिला' नामक पत्रिका में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी रचना 'राम के प्रति' नामक कविता थी जो १९३४ ई० में लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक 'विश्वबन्धु' में छपी थी।[९]

नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष (सन् 1929 से 1997) तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य -- सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। मैथिली एवं संस्कृत के अतिरिक्त बाङ्ला से भी वे जुड़े रहे। बाङ्ला भाषा और साहित्य से नागार्जुन का लगाव शुरू से ही रहा। काशी में रहते हुए उन्होंने अपने छात्र जीवन में बाङ्ला साहित्य को मूल बाङ्ला में पढ़ना शुरू किया। मौलिक रुप से बाङ्ला लिखना फरवरी 1978 ई० में शुरू किया और सितंबर 1979 ई० तक लगभग ५० कविताएँ लिखी जा चुकी थीं।[१०] कुछ रचनाएँ बँगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं। कुछ हिंदी की लघु पत्रिकाओं में लिप्यंतरण और अनुवाद सहित प्रकाशित हुईं। मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। कालिदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और 'मेघदूत' प्रिय पुस्तक।[११] मेघदूत का मुक्तछंद में अनुवाद उन्होंने १९५३ ई० में किया था। जयदेव के 'गीत गोविंद' का भावानुवाद वे 1948 ई० में ही कर चुके थे।[१२] वस्तुतः १९४४ और १९५४ ई० के बीच नागार्जुन ने अनुवाद का काफी काम किया। बाङ्ला उपन्यासकार शरतचंद्र के कई उपन्यासों और कथाओं का हिंदी अनुवाद छपा भी। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'पृथ्वीवल्लभ' का गुजराती से हिंदी में अनुवाद १९४५ ई० में किया था।[१३] १९६५ ई० में उन्होंने विद्यापति के सौ गीतों का भावानुवाद किया था। बाद में विद्यापति के और गीतों का भी उन्होंने अनुवाद किया।[१२] इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्यापति की 'पुरुष-परीक्षा' (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया था जो 'विद्यापति की कहानियाँ' नाम से १९६४ ई० में प्रकाशित हुई थी।[१४]

प्रकाशित कृतियाँ

कविता-संग्रह-
  1. युगधारा -१९५३
  2. सतरंगे पंखों वाली -१९५९
  3. प्यासी पथराई आँखें -१९६२
  4. तालाब की मछलियाँ[१५] -1974
  5. तुमने कहा था -1980
  6. खिचड़ी विप्लव देखा हमने -1980
  7. हजार-हजार बाँहों वाली -1981
  8. पुरानी जूतियों का कोरस -१९
  9. रत्नगर्भ -1984
  10. ऐसे भी हम क्या! ऐसे भी तुम क्या!! -१९८५/1985
  11. आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने -१९८६/1986
  12. इस गुब्बारे की छाया में -१९९०/1990
  13. भूल जाओ पुराने सपने -१९९४
  14. अपने खेत में -१९९७
प्रबंध काव्य-
  1. भस्मांकुर -१९७०
  2. भूमिजा
उपन्यास-
  1. रतिनाथ की चाची -१९४८
  2. बलचनमा -१९५२
  3. नयी पौध -१९५३
  4. बाबा बटेसरनाथ -१९५४
  5. वरुण के बेटे -१९५६-५७
  6. दुखमोचन -१९५६-५७
  7. कुंभीपाक -१९६० (१९७२ में 'चम्पा' नाम से भी प्रकाशित)
  8. हीरक जयन्ती -१९६२ (१९७९ में 'अभिनन्दन' नाम से भी प्रकाशित)
  9. उग्रतारा -१९६३
  10. जमनिया का बाबा -१९६८ (इसी वर्ष 'इमरतिया' नाम से भी प्रकाशित)[१६]
  11. गरीबदास -१९९० (१९७९ में लिखित)
संस्मरण-
  1. एक व्यक्ति: एक युग -१९६३
कहानी संग्रह-

आसमान में चन्दा तैरे -१९८२

आलेख संग्रह-
  1. अन्नहीनम् क्रियाहीनम् -१९८३
  2. बम्भोलेनाथ -१९८७
बाल साहित्य-
  1. कथा मंजरी भाग-१ -१९५८
  2. कथा मंजरी भाग-२ -
  3. मर्यादा पुरुषोत्तम राम -१९५५ (बाद में 'भगवान राम' के नाम से तथा अब 'मर्यादा पुरुषोत्तम' के नाम से प्रकाशित)
  4. विद्यापति की कहानियाँ -१९६४
मैथिली रचनाएँ-
  1. चित्रा (कविता-संग्रह) -१९४९
  2. पत्रहीन नग्न गाछ (") -१९६७
  3. पका है यह कटहल (") -१९९५ ('चित्रा' एवं 'पत्रहीन नग्न गाछ' की सभी कविताओं के साथ ५२ असंकलित मैथिली कविताएँ हिंदी पद्यानुवाद सहित)
  4. पारो (उपन्यास) -१९४६
  5. नवतुरिया (") -१९५४
बाङ्ला रचनाएँ-

मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा -१९९७ (देवनागरी लिप्यंतर के साथ हिंदी पद्यानुवाद)

संचयन एवं समग्र-
  • नागार्जुन रचना संचयन - सं०-राजेश जोशी (साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली से)
  • नागार्जुन : चुनी हुई रचनाएँ -तीन खण्ड (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
  • नागार्जुन रचनावली -२००३, सात खण्डों में, सं० शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से)

नागार्जुन पर केंद्रित विशिष्ट साहित्य

  1. नागार्जुन का रचना-संसार - विजय बहादुर सिंह (प्रथम संस्करण-1982, संभावना प्रकाशन, हापुड़ से; पुनर्प्रकाशन-2009, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
  2. नागार्जुन की कविता - अजय तिवारी, (संशोधित संस्करण-2005) वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
  3. नागार्जुन का कवि-कर्म - खगेंद्र ठाकुर (प्रथम संस्करण-2013, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नयी दिल्ली से)
  4. जनकवि हूँ मैं - संपादक- रामकुमार कृषक (प्रथम संस्करण-2012 {'अलाव' के नागार्जुन जन्मशती विशेषांक का संशोधित पुस्तकीय रूप}, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
  5. नागार्जुन : अंतरंग और सृजन-कर्म - संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान {'नया पथ' के नागार्जुन जन्मशती विशेषांक का संशोधित पुस्तकीय रूप}, (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से)
  6. आलोचना सहस्राब्दी अंक 43 (अक्टूबर-दिसंबर 2011), संपादक- अरुण कमल
  7. तुमि चिर सारथि यात्री नागार्जुन आख्यान तारानंद वियोगी (मैथिली से अनुवाद-केदार कानन, अविनाश) (पहले 'पहल' पुस्तिका के रूप में फिर अंतिका प्रकाशन, दिल्ली से)
  8. युगों का यात्री नागार्जुन की जीवनी तारानंद वियोगी (रज़ा पुस्तकमाला के तहत राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित)

पुरस्कार

  1. साहित्य अकादमी पुरस्कार -1969 (मैथिली में, 'पत्र हीन नग्न गाछ' के लिए)
  2. भारत भारती सम्मान (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा)
  3. मैथिलीशरण गुप्त सम्मान (मध्य प्रदेश सरकार द्वारा)
  4. राजेन्द्र शिखर सम्मान -1994 (बिहार सरकार द्वारा)
  5. साहित्य अकादमी की सर्वोच्च फेलोशिप से सम्मानित
  6. राहुल सांकृत्यायन सम्मान पश्चिम बंगाल सरकार सेे

हिन्दी अकादमी पुरस्कार

समालोचना

नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना-संसार के गहन अवगाहन, बौद्ध एवं मार्क्सवाद जैसे बहुजनोन्मुख दर्शन के व्यावहारिक अनुगमन तथा सबसे बढ़कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ा़व तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है। उनका ‘यात्रीपन’ भारतीय मानस एवं विषय-वस्तु को समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है। मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान भी उनके लिए इसी उद्देश्य में सहायक रहा है। उनका गतिशील, सक्रिय और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है। नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि हैं। [१७] उन्होंने आज़ादी के पहले और बाद में भी कई बड़े जनांदोलनों में भाग लिया था। 1939 से 1942 के बीच बिहार में किसानो के एक प्रदर्शन का नेतृत्व करने की वजह से जेल में रहे। आज़ादी के बाद लम्बे समय तक वो पत्रकारिता से भी जुड़े रहे। [१८] जन संघर्ष में अडिग आस्था, जनता से गहरा लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना, ये तीन गुण नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी घुले-मिले हैं। निराला के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इतने छंद, इतने ढंग, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है। पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ इस्तेमाल करने और नए काव्य कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय कवि हैं। उनके कुछ काव्य शिल्पों में ताक-झाँक करना हमारे लिए मूल्यवान हो सकता है। उनकी अभिव्यक्ति का ढंग तिर्यक भी है, बेहद ठेठ और सीधा भी। अपनी तिर्यकता में वे जितने बेजोड़ हैं, अपनी वाग्मिता में वे उतने ही विलक्षण हैं। काव्य रूपों को इस्तेमाल करने में उनमें किसी प्रकार की कोई अंतर्बाधा नहीं है। उनकी कविता में एक प्रमुख शैली स्वगत में मुक्त बातचीत की शैली है। नागार्जुन की ही कविता से पद उधार लें तो कह सकते हैं-स्वागत शोक में बीज निहित हैं विश्व व्यथा के।[१९] भाषा पर बाबा का गज़ब अधिकार है। देसी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के अनेकों स्तर हैं। उन्होंने तो हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है। जैसा पहले भाव-बोध के संदर्भ में कहा गया, वैसे ही भाषा की दृष्टि से भी यह कहा जा सकता है कि बाबा की कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीवंत है। बाबा ने छंद से भी परहेज नहीं किया, बल्कि उसका अपनी कविताओं में क्रांतिकारी ढंग से इस्तेमाल करके दिखा दिया। बाबा की कविताओं की लोकप्रियता का एक आधार उनके द्वारा किया गया छंदों का सधा हुआ चमत्कारिक प्रयोग भी है।[२०]

समकालीन प्रमुख हिंदी साहित्यकार उदय प्रकाश के अनुसार "यह जोर देकर कहने की ज़रूरत है कि बाबा नागार्जुन बीसवीं सदी की हिंदी कविता के सिर्फ 'भदेस' और मात्र विद्रोही मिजाज के कवि ही नहीं, वे हिंदी जाति के सबसे अद्वितीय मौलिक बौद्धिक कवि थे। वे सिर्फ 'एजिट पोएट' नहीं, पारंपरिक भारतीय काव्य परंपरा के विरल 'अभिजात' और 'एलीट पोएट' भी थे।"[२१] उदय प्रकाश ने बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व-निर्माण एवं कृतित्व की व्यापक महत्ता को एक साथ संकेतित करते हुए एक ही महावाक्य में लिखा है कि "खुद ही विचार करिये, जिस कवि ने बौद्ध दर्शन और मार्क्सवाद का गहन अध्ययन किया हो, राहुल सांकृत्यायन और आनंद कौसल्यायन जैसी प्रचंड मेधाओं का साथी रहा हो, जिसने प्राचीन भारतीय चिंतन परंपरा का ज्ञान पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत जैसी भाषाओं में महारत हासिल करके प्राप्त किया हो, जिस कवि ने हिंदी, मैथिली, बंगला और संस्कृत में लगभग एक जैसा वाग्वैदग्ध्य अर्जित किया हो, अपनी मूल प्रज्ञा और संज्ञान में जो तुलसी और कबीर की महान संत परंपरा के निकटस्थ हो, जिस रचनाकार ने 'बलचनमा' और 'वरुण के बेटे' जैसे उपन्यासों के द्वारा हिंदी में आंचलिक उपन्यास लेखन की नींव रखी हो जिसके चलते हिंदी कथा साहित्य को रेणु जैसी ऐतिहासिक प्रतिभा प्राप्त हुई हो, जिस कवि ने अपने आक्रांत निजी जीवन ही नहीं बल्कि अपने समूचे दिक् और काल की, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों और व्यक्तित्व पर अपनी निर्भ्रांत कलम चलाई हो, (संस्कृत में) बीसवीं सदी के किसी आधुनिक राजनीतिक व्यक्तित्व (लेनिन) पर समूचा खण्डकाव्य रच डाला हो, जिसके हैंडलूम के सस्ते झोले में मेघदूतम् और 'एकाॅनमिक पाॅलिटिकल वीकली' एक साथ रखे मिलते हों, जिसकी अंग्रेजी भी किसी समकालीन हिंदी कवि या आलोचक से बेहतर ही रही हो, जिसने रजनी पाम दत्त, नेहरू, बर्तोल्त ब्रेख्ट, निराला, लूशुन से लेकर विनोबा, मोरारजी, जेपी, लोहिया, केन्याता, एलिजाबेथ, आइजन हावर आदि पर स्मरणीय और अत्यंत लोकप्रिय कविताएं लिखी हों -- ... बीसवीं सदी की हिंदी कविता का प्रतिनिधि बौद्धिक कवि वह है...।"[२२]

टिप्पणियाँ

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इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. नागार्जुन : मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990 पृष्ठ-13.
  2. नागार्जुन : मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990 पृष्ठ-15.
  3. नागार्जुन : मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990 पृष्ठ-16.
  4. नागार्जुन : मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990 पृष्ठ-17.
  5. नागार्जुन : मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990 पृष्ठ-19.
  6. नागार्जुन रचना संचयन, संपादक- राजेश जोशी, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-327.
  7. नागार्जुन का रचना-संसार, विजय बहादुर सिंह, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2014, पृष्ठ-30.
  8. नागार्जुन रचनावली, खण्ड-1, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-XI.
  9. नागार्जुन रचनावली, खण्ड-1, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-VI.
  10. नागार्जुन रचनावली, खण्ड-3, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-VIII.
  11. नागार्जुन रचनावली, खण्ड-1, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-XIV.
  12. नागार्जुन रचनावली, खण्ड-3, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-IX.
  13. नागार्जुन रचनावली, खण्ड-1, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-VII.
  14. नागार्जुन रचनावली, खण्ड-7, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-V-VI.
  15. "1974 ई० में 'तालाब की मछलियाँ' नाम से एक संग्रह प्रकाशित हुआ था। उस संकलन में मात्र आठ असंकलित रचनाओं के अलावा अधिकांश रचनाएँ 'युगधारा' और 'सतरंगे पंखोंवाली' की ही थीं। 1980 के बाद 'युगधारा' और 'सतरंगे पंखोंवाली' के पुनर्मुद्रित होने से 'तालाब की मछलियाँ' नामक संग्रह का नया संस्करण नहीं किया गया और उसमें संकलित उन रचनाओं को जो 'युगधारा' और 'सतरंगे पंखोंवाली' की नहीं थीं, अन्य संग्रहों में ले लिया गया।" द्रष्टव्य- नागार्जुन रचनावली, खण्ड-1, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-XIII.
  16. नागार्जुन रचनावली, खण्ड-5, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-VI.
  17. साँचा:cite web
  18. साँचा:cite web
  19. साँचा:cite webसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
  20. साँचा:cite web
  21. ईश्वर की आंख, उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2017, पृष्ठ-207-8.
  22. ईश्वर की आंख, उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2017, पृष्ठ-208.

बाहरी कड़ियाँ


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