वास्तुकला
भवनों के विन्यास, आकल्पन और रचना की, तथा परिवर्तनशील समय, तकनीक और रुचि के अनुसार मानव की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने योग्य सभी प्रकार के स्थानों के तर्कसंगत एवं बुद्धिसंगत निर्माण की कला, विज्ञान तथा तकनीक का संमिश्रण वास्तुकला (आर्किटेक्चर) की परिभाषा में आता है।
इसका और भी स्पष्टकीण किया जा सकता है। वास्तुकला ललितकला की वह शाखा रही है और है, जिसका उद्देश्य औद्योगिकी का सहयोग लेते हुए उपयोगिता की दृष्टि से उत्तम भवननिर्माण करना है, जिनके पर्यावरण सुसंस्कृत एवं कलात्मक रुचि के लिए अत्यन्त प्रिय, सौंदर्य-भावना के पोषक तथा आनन्दकर एवं आनन्दवर्धक हों। प्रकृति, बुद्धि एवं रुचि द्वारा निर्धारित और नियमित कतिपय सिद्धान्तों और अनुपातों के अनुसार रचना करना इस कला का संबद्ध अंग है। नक्शों और पिण्डों का ऐसा विन्यास करना और संरचना को अत्यन्त उपयुक्त ढँग से समृद्ध करना, जिससे अधिकतम सुविधाओं के साथ रोचकता, सौन्दर्य, महानता, एकता और शक्ति की सृष्टि हो से यही वास्तुकौशल है। प्रारम्भिक अवस्थाओं में, अथवा स्वल्पसिद्धि के साथ, वास्तुकला का स्थान मानव के सीमित प्रयोजनों के लिए आवश्यक पेशों, या व्यवसायों में-प्राय: मनुष्य के लिए किसी प्रकार का रक्षास्थान प्रदान करने के लिए होता है। किसी जाति के इतिहास में वास्तुकृतियाँ महत्वपूर्ण तब होती हैं, जब उनमें किसी अंश तक सभ्यता, समृद्धि और विलासिता आ जाती है और उनमें जाति के गर्व, प्रतिष्ठा, महत्त्वाकाँक्षा और आध्यात्मिकता की प्रकृति पूर्णतया अभिव्यक्त होती है।
परिचय
प्राचीन काल में वास्तुकला सभी कलाओं की जननी कही जाती थी। किन्तु वृत्ति के परिवर्तन के साथ और संबद्ध व्यवसायों के भाग लेने पर यह समावेशक संरक्षण की मुहर अब नहीं रही। वास्तुकला पुरातन काल की सामाजिक स्थिति प्रकाश में लानेवाला मुद्रणालय भी कही गई है। यह वहीं तक ठीक है जहाँ तक सामाजिक एवं अन्य उपलब्धियों का प्रभाव है। यह भी कहा गया है कि वास्तुकला भवनों के अलंकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जहाँ तक ऐतिहासिक वास्तुकला का सम्बन्ध है, यह अंशत: सत्य है। फिर वास्तुकला सभ्यता का साँचा भी कही गई है। जहाँ तक पुरातत्वीय प्रभाव है, यह ठीक है किन्तु वास्तुकला के इतिहास पर एक संक्षिप्त दृष्टिपात से यह स्पश्ट हो जाएगा कि मानव के प्राचीनतम प्रयास शिकारियों के आदिकालीन गुफा-आवासों, चरवाहों के चर्म-तम्बुओं और किसानों के झोपड़ों के रूप में देख पड़ते हैं। नौका-आवास और वृक्षों पर बनी झोपड़ियाँ पुराकालीन विशिष्टताएँ हैं। धार्मिक स्मारक बनाने के आदिकालीन प्रयास पत्थर और लकड़ी की बाड़ के रूप में थे। इन आदिकालीन प्रयासों में और उनके सुधरे हुए रूपों में सभी देशों में कुछ न कुछ बातें ऐसी महत्वपूर्ण और विशिष्ट प्रकार की हैं कि बहुत दिन बाद की महानतम कला कृतियों में भी वे प्रत्यक्ष हैं।
युगों के द्रुत विकासक्रम में वास्तुकला विकसी, ढली और मानव की परिवर्तनशील आवश्यकताओं के - उसकी सुरक्षा, कार्य, धर्म, आनन्द और अन्य युगप्रर्वतक चिह्नों, अनुरूप बनी। मिस्र के सादे स्वरूप, चीन के मानक अभिकल्प-स्वरूप, भारत के विदेशी तथा समृद्ध स्वरूप, मैक्सिको के मय और ऐजटेक की अनगढ़ महिमा, यूनान के अत्यन्त विकसित देवायतन, रोमन साम्राज्य की बहुविध आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाले जटिल प्रकार के भवन, पुराकालीन आडम्बरहीन गिरजे, महान् गाथिक गिरजा भवन और चित्रोपम दुर्ग, तुर्की इमारतों के उत्कृष्ट विन्यास एवं अनुपात और यूरोपीय पुनरुत्थान के भव्य वास्तुकीय स्मारक ऐतिहासिक वास्तु के सतत विकास का लेखा प्रस्तुत करते हैं। ये सब इमारतें मानव विकास के महान युगों की ओर इंगित करती हैं, जिनमें वास्तुकला जातीय जीवन से अत्यधिक सम्बन्धित होने के कारण उन जातियों की प्रतिभा और महत्त्वाकांक्षा का, जिनकी उनके स्मारकों पर सुस्पष्ट छाप हैं, दिग्दर्शन कराती हैं।
प्रत्येक ऐतिहासिक वास्तु की उपलब्धियाँ मोटे तौर से दो मूलभूत सिद्धान्तों से निश्चित की जा सकती हैं, एक जो संकल्पना में अन्तर्निहित है और दूसरा जो सर्वोच्च विशिष्टता का द्योतक है। मिस्री वास्तु में यह युगोत्तरजीवी विशाल और भारी स्मारकों द्वारा व्यक्त रहस्यमयता है, असीरियाई, बेबींलोनी और ईरानी कला में, यह शस्त्रशक्ति और विलासी जीवन था, यूनानी कला में यह निश्चयात्मक आयोजना और संशोधित दृष्टिभ्रम था जिसके फलस्वरूप सादगी और परिष्कृत पूर्णता आई। रोमनों में यह भव्यता, आनंद एवं शक्ति का प्रेम था जिसके फलस्वरूप विलक्षण वैज्ञानिक निर्माण हुआ। पुराकालीन ईसाइयों में यह ईसामसीह की सच्ची सादगी और गौरव व्यक्त करनेवाले गिरजाघरों के निर्माण के प्रति भारी उत्साह के रूप में था; गाथिक निर्माताओं में यह संरचना यांत्रिकी के ज्ञान से युक्त उत्कट शक्ति थी; इतालवी पुनरुद्धार में यह उस युग की विद्वत्ता थी। बौद्ध और हिन्दू वास्तुकला का उत्कृष्ट गुण उसका आध्यात्मिक तत्त्व है, जा उसके विकास में आद्योपान्त प्रत्यक्ष है। मुसलमानी वास्तुकला में अकल्पनीय धन सम्पदा, ठाट और विशाल भूखंड पर उसका प्रभुत्व झलकता है; जबकि भारत का भीमकाय अफगानी वास्तु उस शासन की आक्रामक प्रवृत्ति प्रकट करता है; किन्तु मुगल स्मारक उत्कृष्ट अनुपात मुगलों के और कृति सम्बन्धी प्रेम को दर्शाने में श्रेष्ठ हैं तथा भारत की गर्मी में उनका जीवन भलीभाँति व्यक्त करते हैं। इस प्रकार भूतकालीन कृतियों में हम देखते हैं कि चट्टनों, ईटों और पत्थरों में मूर्त वे विचार ही हैं जो उपर्युक्त और विश्वसनीय ढँग से किसी न किसी रूप में गौरव के शिखर पर पहुँची हुई सभ्याताओं की तत्कलीन धर्म सम्बन्धी या अन्य जागृति व्यक्त करते हैं।
इन तमाम सालों में वास्तुकला सामयिक चेतना पर्यावरण तथा स्थानीय पृष्ठभूमि के सामंजस्य में विकसित हुई। आज भी हम प्रतिभावान व्यक्तियों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त स्वरूप टटोलते रहते हैं। आज कुछ ऐसे वास्तुक हैं जो भूत का अनुसरण करने में ही सन्तुष्ट हैं कुछ अन्य हैं जो विदेशी ढँग का अनुकरण करने का प्रयास करते हैं। बहुत थोड़े से ऐसे हैं जो अपने समय, गति और राष्ट्रीय दृष्टिकाण के अनुरूप वास्तु का विकास करते का प्रयास कर रहे हैं। इस छोटे से वर्ग का प्रयास नया संघात प्रस्तुत करने का है, जो मनुष्य का नए विचार सोचने और धारण करने की प्रेरणा देता है। इस प्रकार से हमारे युग के भवन निर्माण करने का प्रयास करते हैं और बाद में ये ही भवन शरीर और मस्तिष्क के स्वस्थ विकास को प्रोत्साहत करके जाति का निर्माण करेंगे।
इसके अतिरिक्त हम देखते हैं कि वास्तुकला कभी कभी ज्ञात उपयोगिता सम्बन्धी आवश्यकताओं और उसकी निर्माण पद्धतियों से आगे भी बढ़ जाती है। वास्तुकला में ही कल्पना की विशुद्ध सृष्टि, जब सारे दृष्टिकोण के व्यापक अवरोध के साथ व्यक्त होती है, तब पूर्णता के शिखर पर पहुँचने में समर्थ होती हैं, जैसे यूनान में जूस के सिर से एथीना की, या भारत में स्वयम्भू की उपमा।
इसमें सन्देह नहीं कि वास्तुकला का आधार इमारतें हैं, किन्तु यह इमारतें खड़ी करने के अतिरिक्त कुछ और भी हैं जैसे कविता गद्य रचना के रचना के अतिरिक्त कुछ और भी है। मीठे स्वर में गाए जाने पर कविता प्रभावशाली होती ही है, किन्तु जब उसके साथ उपयुक्त संगीत और लययुक्त नृत्य चेष्टाएँ भी होती हैं तब वह केवल मनुष्य के हृदय की और विभिन्न इन्द्रियों को ही आकर्षित नहीं करती अपितु इनके गौरवपूर्ण मेल से निर्मित सारे वातावरण से ही उसे अवगत कराती है। इसी प्रकार वास्तुकल्पनाएँ, दार्शनिक गतिविधियों से, काव्यमय अभिव्यक्तियों से और सम्मिलित लयात्मक, संगीतात्मक तथा वर्णात्मक अर्थों से परिपूर्ण होती हैं और ऐसी उत्कृष्ट वास्तुकृतियाँ मानव के अन्तर्मानस को छूती हुई सभी प्रकार से उसकी प्रशंसा का पात्र होती हैं और फिर विश्वव्यापी ख्याति अर्जित करती हैं। सर्वसम्मत महान् वास्तुकृतियों की यह प्रशस्ति चिरस्थायी होती है और भावी पीढ़ियों को प्रेरणा देती है।
यह सत्य है कि वास्तुकला के प्रयोगों में बहुत अस्थिरता रही है, जिससे अगणित शैलियाँ प्रकट हो गई हैं। किन्तु उन शैलियों से किसी वास्तुक को क्या प्रयोजन? या उनका उसके युग से क्या सम्बन्ध? सच तो यह है कि वास्तुकला न कोई पंथ है न शैली, वरन् यह तो विकास का अटूट क्रम है। इसलिए वास्तुक को शैलियों से विशेष प्रयोजन नहीं, जैसे बदलते हुए फैशन से किसी महिला की पोशाक का कोई सम्बन्ध नहीं। इस विषय में फ्रैंकलायड राइट ने कहा है कि वास्तुकला की परिधि इधर उधर हटती रहती है, उसका केन्द्र नहीं बदलता।
आधुनिक वास्तुकला का और व्यापक अर्थों में, वास्तुकला का विकास विन्यास की संरचनात्मक आवश्यकताओं और उपलब्ध सामग्री की सौन्दर्य सम्भावनाओं द्वारा प्रस्तुत प्रतिबन्धों की उपस्थिति में सुन्दरता के लिए खोज और संघर्ष के फलस्वरूप हुआ है। जब इनके फलस्वरूप किसी रचना की सृष्टि होती है, तब ऐसा लगता है कि आज की वास्तुकला भारी रचनाओं और आवृत्तियों के रूप में व्यक्त मूर्तिकला ही है। यदि इस सन्दर्भ में देखे तो वास्तुकला व्यक्ति के अपने सर्जक मन की सम्पूर्ण एवं सुविकसित रचना होनी चाहिए, जो स्वयम्भू के उच्च स्तर तक पहुँचती है।
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- सम्पूर्ण वास्तुशास्त्र (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ भोजराज द्विवेदी)
- वास्तुशिल्प और सभ्यता (कल्पना)
- The architects' handbook (Google Booka By Quentin Pickard)
- वास्तुशास्त्र जानकारी