पल्लव कला

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पल्लव कला एक प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय कला हैं। पल्लव की वास्तुकला से चार प्रमुख कला की शैलियां विकसित हुईं- (१) महेंद्रवर्मन शैली (२) मामल्ल शैली (३) राजसिंह शैली (४) अपराजित शैली|

महेंद्रवर्मन शैली- महेंद्रवर्मन शैली का विकास ६०० ई. से ६३५ ई. तक हुआ। इसके अंतर्गत महेंद्रवर्मन प्रथम के शासन में स्तम्भ युक्त मंडप बने। ये साधारण हॉल के समान है जिनकी पीछे की दिवार में एक कोठरियां बनाई गई हैं। हॉल के प्रवेश द्वार स्तंभ पंक्तियों से बनाए गए हैं। यह वस्तुएं पहाड़ियों को काट काट कर बनाई गई हैं। इसलिए इंहें गुहा मंदिरों की कोटि में रखा जाता हैं।

मामल्ल शैली- इस शैली का प्रमुख केंद्र मामल्लपुरम था। मामल्ल शैली के मंडप अपने स्थापत्य के लिए भी प्रसिद्ध हैं। पहाड़ी की चट्टानों पर गंगावतरण, शेषशायी विष्णु, महिषासुर वध,वराह अवतार और गोवर्धन धारण के दृश्य बड़ी सजीवता और सुंदरता के साथ उत्कीर्ण किए गए हैं। मामल्ल शैली के रथ 'सप्त पैगोड़ा'के नाम से प्रख्यात हैं। रथों में कुछ की छत पिरामिड के आकार की है और कुछ के ऊपर शिखर हैं।

राजसिंह शैली- इस शैली का सर्वप्रथम उदाहरण 'शोर मंदिर' हैं। पल्लव कला की प्रमुख विशेषताएँ- सिंह स्तंभ, मंडप के सुदृढ़ स्तंभ, शिखर, चार दिवारी और उसमें भीतर की ओर बने हुए छोटे-छोटे कक्ष, अलंकरण इत्यादि| यह शैली कैलाश मंदिर में पाई जाती हैं। इस शैली का और भी अधिक विकसित मंदिर बैकुंठ पेरुमाल का हैं। इसमें गर्भ ग्रह मंडप और प्रवेशद्वार सभी एक दूसरे से संबंध हैं।

अपराजित शैली- इस शैली का प्रमुख उदाहरण बाहूर का मंदिर है। पल्लव कला की इन शैलियों ने मंदिर कला के विकास में बढ़ा योगदान दिया। इनकी अनेक विशेषताएं दक्षिण पूर्वी एशिया में भी पहुंची| वृहत्तर भारत पर पल्लव कला का प्रभाव हैं।