त्रिदोष
आयुर्वेद के सन्दर्भ में वात, पित्त, कफ इन तीनों को दोष कहते हैं। ध्यातव्य है कि यहाँ यहां "दोष" शब्द का अर्थ सामान्य भाषा में प्रचलित ‘विकार’ नहीं है। इसी प्रकार, "त्रिदोष" का अर्थ- वात, पित्त, कफ की विकृति या विकार नहीं है। आयुर्वेद में कहा गया है कि "दुषणात दोषाः, धारणात धातवः", अर्थात वात, पित्त व कफ जब दूषित होते है तो रोग उत्पन्न कर देते हैं तथा जब वे समत्व अर्थात अपनी स्वाभाविक अवस्था में रहते हैं तो सप्त धातु व शरीर को धारण करते व संतुलित रखते हैं।
दूसरे शब्दों में, आयुर्वेद में शरीर की मूल धारक शक्ति को व शरीर के त्रिगुणात्मक (वात, पित्त, कफ रूप) मूलाधार को ‘त्रिदोष’ कहा गया है। इसके साथ 'दोष' शब्द इसलिए जुड़ा है कि सीमा से अधिक बढ़ने या घटने पर यह स्वयं दूषित हो जाते हैं तथा धातुओं को दूषित कर देते हैं।
आयुर्वेद साहित्य में शरीर के निर्माण में दोष, धातु और मल को प्रधान माना है और कहा गया है कि 'दोषधातुमल मूलं हि शरीरम्' , अर्थात दोष, धातु और मल - ये शरीर के तीन मूल हैं। आयुर्वेद का प्रयोजन शरीर में स्थित इन दोष, धातु एवं मलों को साम्य अवस्था में रखना जिससे स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य बना रहे तथा दोष धातु मलों की असमान्य अवस्था होने पर उत्पन्न विकृति या रोग की चिकित्सा करना है। शरीर में जितने भी तत्व पाए जाते हैं, वे सब इन तीनों में ही अंतर्निहित हैं। इनमें भी दोषों का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
त्रिदोष शरीर की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण, अथवा शरीर के स्तम्भ माने जाते हैं। इसके पश्चात शरीर को स्वास्थ बनाए रखने और रोगों को समझने एवं उनकी चिकित्सा के लिए भी त्रिदोषों को समझना बहुत आवश्यक है। इन तीनों दोषों के सम होने से ही शरीर स्वस्थ रहना संभव है। परन्तु जब इनकी सम अवस्था में किसी प्रकार का विकार या असंतुलन आ जाता है तो रोग जन्म ले लेता है।
शरीरगत् दोष
वात, पित्त, कफ - ये तीन शारीरिक दोष माने गये हैं। ये दोष असामान्य आहार-विहार से विकृत या दूषित हो जाते है इसलिए इसे 'दोष' कहा जाता है। शरीरगत् अन्य धातु आदि तत्व इन्हे दोषों के द्वारा दूषित होता है। इन तीनो दोषों को शरीर का स्तम्भ कहा जाता है। इनके प्राकृत अवस्था एवं सम मात्रा ही शरीर को स्वस्थ रखता है, यदि इनका क्षय या वृद्धि होती है, तो शरीर में विकृति या रोग उत्पन्न हो जाती है।
पंचमहाभूतों से दोषों की उत्पत्ति
- 1. सृष्टि में व्याप्त वायु महाभूत से शरीरगत वात दोष की उत्पति होती है,
- 2. अग्नि से पित्त दोष की उत्पत्ति होती है,
- 3. जल तथा पृथ्वी महाभूतों से कफ दोष की उत्पति होती है।
अर्थात शरीर रक्त आदि धातु से निर्मित होता है एवं मल शरीर को स्तंभ की तरह सम्हाले हुये हैं। दोष, धातु, मल प्राकृतिक रूप से रहकर उचित आहार-विहार करने वाल शरीर धारण करते है। शरीर की क्षय, वृद्धि, शरीरगत् अवयवो द्रव्यों की विकृति, आरोग्यता-अनारोग्यता, इन दोष धातु मलों पर ही आधारित है यद्यपि शरीर के लिए दोष धातु मल तीनों प्रधान द्रव्य है फिर भी शारीरिक क्रिया के लिए वातादि दोषों के अधिक क्रियाशील होने से शरीर में दोष वर्ग की प्रधानता रहती है।
- रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यमरोगता
- (दोषों की विषमता ही रोग है और दोषों का साम्य आरोग्य है।)
तीनों दोषों में सर्वप्रथम वात दोष ही विरूद्ध आहार-विहार से प्रकुपित होता है और अन्य दोष एवं धातु को दूषित कर रोग उत्पन्न करता है। वात दोष प्राकृत रूप से प्राणियों का प्राण माना गया है। आयुर्वेद शास्त्र में शरीर रचना, क्रिया एवं विकृतियों का वर्णन एवं भेद और चिकित्सा व्यवस्था दोषों के अनुसार ही किया जाता है।
वात दोष के पांच भेद
- 1- प्राण वात
- 2- समान वात
- 3- उदान वात
- 4- अपान वात
- 5- व्यान वात
पित्त दोष के पांच भेद
- 1- साधक पित्त
- 2- भ्राजक पित्त
- 3- रंजक पित्त
- 4- आलोचक पित्त
- 5- पाचक पित्त
कफ दोष के पांच भेद
- 1- क्लेदन कफ
- 2- अवलम्बन कफ
- 3- श्लेष्मन कफ
- 4- रसन कफ
- 5- स्नेहन कफ
सन्दर्भ ग्रन्थ
- चरक संहिता
- सुश्रुत संहिता
- वाग्भट्ट
- चिकित्सा चन्द्रोदय (हरिदास वैद्य, मथुरा)