दुलारे लाल भार्गव

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दुलारे लाल भार्गव (जन्म - संवत् 1956 में वसंत पंचमी -- 06 सितम्बर 1975 ) हिन्दी के प्रचारक, प्रकाशक तथा कवि थे। मुंशी नवल किशोर के वंश में जन्में दुलारे लाल भार्गव की पहचान इस मायने में अलग थी कि नवल किशोर का प्रेस जहां उर्दू की बेहतरी को समर्पित था, दुलारे लाल ने हिन्दी की प्रतिष्ठा को अपने जीवन का एकमेव ध्येय बना लिया था। वे हिन्दी के प्रथम प्रकाशक, प्रचारक ही नहीं, वर्ष 1920 से 30 तक सम्पादक के रूप में भी अग्रणी रहे। उन्होने लखनऊ से प्रकाशित 'माधुरी' मासिक पत्रिका का सम्पादन और स्वयं की मासिक पत्रिका 'सुधा' का प्रकाशन व सम्पादन किया।

सोलह वर्ष की छोटी उम्र से ही हिन्दी लेखन, कविकर्म, सम्पादन और प्रकाशन से जुड़कर उन्होंने युवावस्था में ही, कम से कम अपनी कर्मभूमि लखनऊ और उसके आसपास के क्षेत्र में, इतनी प्रतिष्ठा अर्जित कर ली थी कि विरोधियों की ईर्ष्या के पात्र बन सके।

निराला उन्हें ‘साहित्य का देवता’ कहा करते थे। उनके घर पर उसके समकालीन कवियों व लेखकों के इतने बड़े-बड़े जमावड़े होते रहे कि लोग उसे ‘कवियों का तीर्थ’ कहने लगे हों और खुद कवि ने उसका नाम ‘कवि कुटीर’ रख डाला। अपने समय की दो बेहद महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ‘माधुरी’ और ‘सुधा’ को शिखर पर पहुंचाने में उनके अप्रतिम योगदान को लेकर बहुत से लोग उन्हें लखनऊ की हिंदी पत्रकारिता के पितामहों में से एक भी मानते हैं। उन्हें ‘हिंदी का दूसरा बिहारी’ भी कहा जाता है।

ब्रजभाषा के अपने समय के कवियों में उन्हें पहली पंक्ति में गिना जाता था। उनकी रची ‘दुलारे दोहावली’ ने ‘हिंदी के दूसरे बिहारी’ की पहचान उन पर कुछ इस तरह चस्पा की कि फिर वह छूटने को ही नहीं आई। दुलारे लाल, निराला के मुक्त छंदों के कतई हिमायती नहीं थे। 1923 में उन्होंने हिंदी की कीर्ति पताका फहराने के ही उद्देश्य से अपने चाचा विष्णु नारायण भार्गव के साथ मिलकर लखनऊ से ‘माधुरी’ नाम की पत्रिका प्रकाशित की, जिसने देखते ही देखते कीर्ति के नए शिखर छू लिए।

इससे उत्साहित होकर उन्होंने 1927 में ‘विविध विषय-विभूषित, साहित्य-सम्बन्धी’ सचित्र ‘सुधा’ मासिक निकाला तो मुंशी प्रेमचंद उसके सह-संपादक थे और पंडित रूपनारायण पाण्डेय सहयोगी। यह मासिक साहित्यिक दृष्टि से इतना शिष्ट, कलापूर्ण और मर्यादित था कि बड़े से बड़ा लेखक व कवि उसमें रचनाएँ छपने पर गर्व का अनुभव करता था। उन्होंने लालबहादुर शास्त्री, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, गोपालसिंह नेपाली, इलाचंद्र जोशी और मिश्रबंधुओं समेत अनेक दिग्गजों के सहयोग से अपनी पत्नी के नाम पर गंगा पुस्तकमाला शुरू की तो उसकी मार्फत भगवतीचरण वर्मा, विश्वम्भरनाथ ‘कौशिक’, डा रामकुमार वर्मा, सूर्यकांन् त्रिपाठी ‘निराला’, मुंशी प्रेमचन्द, अमृतलाल नागर व सुमित्रानन्दन पंत जैसे साहित्यकारों की पुस्तकें छापकर उनको प्रकाश में ले आए और प्रतिष्ठित होने में मदद की।

उनकी ब्रजभाषा में लिखी 'दुलारे दोहावली' पर ओरछा नरेश से प्रथम 'देव पुरस्कार' मिला था। देव पुरस्कार ओरछा नरेश सवाई महेन्द्र महाराजा वीर सिंह देव ने शुरू किया था, जो ब्रजभाषा और खड़ी बोली के सर्वश्रेष्ठ नये काव्यग्रंथों पर दिया जाता था। उन्होने अनेक हिन्दी प्रेमियों, गंगा-पुस्तकमाला के सहयात्री साहितयकारों और पतरकारों, आचार्य चतुरसेन, बद्रीनाथ भट्ट, निराला, प्रेमचन्द्र, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, डॉ. रामकुमार वर्मा, क्षेमेचन्द्र सुमन, श्रीनाथ सिंह, मिश्रबन्धु, रूप नारायण पाण्डेय, ज्ञानचनदर जैन, शिवसिंह 'सरोज' आदि को आश्रय दिया। उन्होने ही सर्वप्रथम 'माधुरी' पत्रिका के माधयम से 'तुलसी संवत' को परचलित किया। उर्दू साहित्य की भी आजीवन सेवा करते रहे । 'माधुरी' में उर्दू साहित्य पर भी सामग्रियाँ प्रकाशित होती थीं। उन्होने आकाशवाणी लखनऊ में हिन्दी साहित्यिक कार्यक्रमों की शृंखला प्रारम्भ करायी थी।

साधारण चूड़ीदार पाजामा, अचकन और टोपी दुलारे लाल की मनपसंद पोशाक थी। वे अन्तिम समय तक अपनी साइकिल पर साहित्य की चिन्ता में बेचैन से घूमा करते थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वे जहाँ भी जाते हैं, उनकी ख्याति उनसे पहले पहुँच जाती है।

लखनऊ में कवि सम्मेलनों की परंपरा भी उन्होंने ही डाली। उनका अंतिम कवि सम्मेलन 1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की विजय के उपलक्ष्य में रवीन्द्रालय के सभागार में हुआ था, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी उपस्थित थीं।

06 सितम्बर 1975 को अचानक दिल के दौरे से दुलारे लाल का निधन हुआ तो वे ‘ब्रजभाषा रामायण’ की रचना में लगे हुए थे।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ