इस्लाम का इतिहास

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

मुहम्मद साहब का जन्म 570 ईस्वी में मक्का में हुआ था। उस समय के बहुत सारे अरब अल्लाह के साथ-साथ उसकी तीन बेटियों की भी पूजा करते थे। ये देवियां थीं: अल-लात,[१] मनात और अल-उज्ज़ा।[२] इन तीनों देवियों का मंदिर मक्का के आस-पास ही स्थित था और तीनों की काबा के भीतर भी पूजा होती थी। सारे अरब के लोग इन तीनों देवियों की पूजा करते थे। लगभग 613 इस्वी के आसपास मुहम्मद ने लोगों को अपने ज्ञान का उपदेशा देना आरंभ किया था। इसी घटना का इस्लाम का आरंभ जाता है। हालाँकि इस समय तक इसको एक नए धर्म के रूप में नहीं देखा गया था। परवर्ती वर्षों में मुहम्म्द स्० के अनुयायियों को मक्का के लोगों द्वारा विरोध तथा मुहम्म्द साहब के मदीना प्रस्थान जिसे हिजरत नाम से जाना जाता है मदीना से ही इस्लाम को एक धार्मिक सम्प्रदाय माना गया। मुहम्मद के जीवन काल में और उसके बाद जिन-जिन प्रमुख लोगों ने अपने आपको पैगंबर घोषित कर रखा था वो थे, मुसलमा,[३] तुलैहा, अल-अस्वद, साफ़ इब्न सैय्यद,[४] और सज़ाह[५]

अगले कुछ वर्षों में कई प्रबुद्ध लोग मुहम्मद स्० (पैगम्बर नाम से भी ज्ञात) के अनुयायी बने। उनके अनुयायियों के प्रभाव में आकर भी कई लोग मुसलमान बने। इसके बाद मुहम्मद साहब ने मक्का वापसी की और बिना युद्ध किए मक्काह फ़तह किया और मक्का के सारे विरोधियों को माफ़ कर दिया गया। इस माफ़ी की घटना के बाद मक्का के सभी लोग इस्लाम में परिवर्तित हुए। पर पयम्बर (या पैगम्बर मुहम्मद) को कई विरोधों और नकारात्मक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा पर उन्होंने हर नकारात्मकता से सकारात्मकता को निचोड़ लिया जिसके कारण उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में जीत हासिल की।

उनकी वफात के बाद अरबों का साम्राज्य और जज़्बा बढ़ता ही गया। अरबों ने पहले मिस्र और उत्तरी अफ्रीका पर विजय हासिल की और फिर बैजेन्टाइन तथा फारसी साम्राज्यों को हराया। यूरोप में तो उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली पर फारस में कुछ संघर्ष करने के बाद उन्हें जीत मिलने लगी। इसके बाद पूरब की दिशा में उनका साम्राज्य फेलता गया। सन् 1200 तक वे भारत तक पहुँच गए।

पैग़म्बर मुहम्मद साहब

साँचा:main

मुहम्मद साहब का जन्म 570 ई. में "मक्का"(सऊदी अरब) में हुआ। उनके परिवार का मक्का के एक बड़े धार्मिक स्थल पर प्रभुत्व था। उस समय अरब में यहूदी, ईसाई धर्म और बहुत सारे समूह जो मूर्तिपूजक थे क़बीलों के रूप में थे। मक्का में काबे में इस समय लोग साल के एक दिन जमा होते थे और सामूहिक पूजन होता था। आपने ख़ादीजा नाम की एक विधवा व्यापारी के लिए काम करना आरंभ किया। बाद (५९५ ई.) में २५ वर्ष की उम्र में उन्हीं(४० वर्ष की पड़ाव) से शादी भी कर ली। सन् ६१३ में आपने लोगों को ये बताना आरंभ किया कि उन्हें परमेश्वर से यह संदेश आया है कि ईश्वर एक है और वो इन्सानों को सच्चाई तथा ईमानदारी की राह पर चलने को कहता है। उन्होंने मूर्तिपूजा का भी विरोध किया। पर मक्का के लोगों को ये बात पसन्द नहीं आई।

मदीने का सफ़र

मुहम्मद साहब को सन् ६२२ में मक्का छोड़कर जाना पड़ा। मुस्लमान इस घटना को हिजरत कहते हैं और यहां से इस्लामी कैलेंडर हिजरी आरंभ होता है। अगले कुछ दिनों में मदीना में उनके कई अनुयायी बने तब उन्होंने मक्का वापसी की और मक्का के शासकों को युद्ध में हरा दिया। इसके बाद कई लोग उनके अनुयायी हो गए और उनके समर्थकों को मुसलमान कहा इस दौरान उन्हें कई विरोधों तथा लड़ाईयाँ लड़नी पड़ी। सबसे पहले तो अपने ही कुल के चचेरे भाईयों के साथ बद्र की लड़ाई हुई - जिसमें 313 लोगों की सेना ने करीब 900 लोगों के आक्रमण को परास्त किया। इसके बाद अरब प्रायद्वीप के कई हिस्सों में जाकर विरोधियों से युद्ध हुए। उस समय मक्का तथा मदीना में यहूदी व कुछ ईसाई भी रहते थे। पर उस समय उनको एक अलग धर्म को रूप में न देख कर ईश्वर की एकसत्ता के समर्थक माना जाता था।

मक्का वापसी

हजरत मुहम्मद मक्कह वापस हुवे। लोगों को ऐसा लग रहा था कि बड़ा युद्ध होगा, लैकिन कोई युद्ध नहीं हुआ , लोग शांतिपूर्वक ही रहे, और मुहम्मद साहब और उन्के अनुयाई मक्काह में प्रवेश किया। इस तरह मक्काह बिना किसी युद्ध के स्वाधीन होगया। मुहम्मद साहब की मक्का वापसी इस्लाम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी जिससे एक सम्प्रदाय के रूप में न रह कर यह बाद में एक धर्म बन गया।

सन् 632 में उनकी वफात हो गयी। उस समय तक सम्पूर्ण अरब प्रायद्वीप इस्लाम के सूत्र में बंध चुका था।

खिलाफत

सन् 632 में जब पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु हुई मुस्लिमों के खंडित होने का भय उत्पन्न हो गया। कोई भी व्यक्ति इस्लाम का वैध उत्तराधिकारी नहीं था। यही उत्तराधिकारी इतने बड़े साम्राज्य का भी स्वामी होता। इससे पहले अरब लोग बैजेंटाइन या फारसी सेनाओं में लड़ाको के रूप में लड़ते रहे थे पर खुदकभी इतने बड़े साम्राज्य के मालिक नहीं बने थे। इसी समय ख़िलाफ़त की संस्था का गठन हुआ जो इस बात का निर्णय करता कि इस्लाम का उत्तराधिकारी कौन है। मुहम्म्द साहब के दोस्त अबू बकर को मुहम्मद का उत्तराधिकारी घोषित किया गया।

उमय्यद

साँचा:main चौथे ख़लीफ़ा अली मुहम्मद साहब के फ़रीक (चचेरे भाई) थे और उन्होंने मुहम्मद साहब की बेटी फ़ातिमा से शादी की थी। पर इसके बावजूद उनके खिलाफ़त के समय तीसरे खलीफा उस्मान के समर्थकों ने उनके खिलाफत को चुनौती दी और अरब साम्राज्य में गृहयुद्ध छिड़ गया। सन् 661 में अली की हत्या कर दी गई और उस्मान के एक निकट के रिश्तेदार मुआविया ने अपने आप को खलीफा घोषित कर दिया। इसी समय से उमेय्यद वंश का आरंभ हुआ। इसका नाम उस परिवार पर पड़ा जिसने मक्का के इस्लाम के समक्ष समर्पण से पहले मुहम्म्द साहब के साथ लड़ाई में प्रमुख भूमिका निभाई थी।

जल्द ही अरब साम्राज्य ने बैजेंटाइन साम्राज्य और सासानी साम्राज्य का रूप ले लिया। खिलाफ़त पिता से बेटे को हस्तांतरित होने लगी। राजधानी दमिश्क बनाई गई। उमयदों ने अरबों को साम्राज्य में बहुत ही तरज़ीह दी पर अरबों ने ही उनकी आलोचना की। अरबों का कहना था कि उम्मयदों ने इस्लाम को बहुत ही सांसारिक बना दिया है और उनमें इस्लाम के मूल में की गई बातें कम होती जा रही हैं। इन मुस्लिमों ने मिलकर अली को इस्लाम का सही खलीफा समझा। उन्हें लगा कि अली ही इस्लाम का वास्तविक उत्तराधिकारी हो सकते थे।

अब्बासी

अब्बासियों का सन् १२४४ का सिक्का

सन् 940 में एक अबू मुस्लिम नाम के एक फ़ारसी (ईरानी) मुस्लिम परिवर्तित ने उमय्यदों के खिलाफ एक विशाल जनमानस तैयार किया। उसने खोरासान (पूर्वी ईरान) में उम्मयदों के ख़िलाफ विद्रोह कर दिया। खोरासान में पहले से ही अरबों की उपस्थिति के खिलाफ नाराज़गी थी अतः उसको बड़े पैमाने पर जन समर्थन मिला। उसने यह कहकर लोगों को उम्म्यदों के खिलाफ सावधान किया कि वे लोग इस्लाम के सही वारिस नहीं हैं और वे सत्ता का दुरुपयोग कर रहे हैं। उमय्यदों का विलासिता पूर्ण जीवन-शैली ने इनको और भी भड़काया। सन् 949-950 के बीच उम्मयदों द्वारा भेजे गए सैनिकों को हरा दिया और इसके बाद अपना एक नया खलीफा घोषित कर दिया - अबुल अब्बास।

अब्बास, मुहम्म्द के वंश से ही था पर अली के अलावे एक दूसरे भाई के द्वारा मुहम्मद साहब से जुड़ा था। पर उससे अबु इस्लाम की लोकप्रियता देखी नहीं गई और उसने अबु को फाँसी पर लटका दिया। इससे लोगों में अब्बास के खिलाफ रोष फैल गया। जिन लोगों को अब्बास पर भी भरोसा नहीं हुआ वे शिया बने - आज ईरान की 92 % जनता शिया है। हाँलांकि अब्बास और उसके वंशजों ने बगदाद में अपनी राजधानी बनाकर अगले लगभग 500 सालों तक राज किया। अब्बासियों के समय में ईरानियों को भी साम्राज्य में भागीदारी मिली। हाँलांकि वे किसी धार्मिक ओहदे पर नहीं रहे पर स्थापत्य तथा कविता जैसी कलाओं में अच्छे होने की वजह से ईरानियों को शासन का सहयोग मिला। ध्यान रहे कि कई मध्यकालीन इस्लामी विचारक, ज्योतिषी और कवि इसी समय पैदी हुए थे। उमर ख़य्याम (12वीं सदी) ने ज्योतिष विद्या में पूर्वी ईरान में एक अद्वितीय ऊँचाई छुई - एक नए पंचांग का आविष्कार किया। उन्होंने कविताओं की रुबाई शैली में महारत हासिल की और विज्ञान में कई योग दान दिए - जिसमें बीजगणित और खनिज-शास्त्र भी शामिल हैं। फ़िरदौसी (11वीं सदी, महमूद गज़नी के पिता का दरबारी) जैसे फ़ारसी कवि और रुमी (जन्म १२१५) जैसे सूफी विचारक इसी समय पैदा हुए थे। हाँलांकि इनमें से अधिकतर को बग़दाद से कोई आर्थिक-वृत्ति नहीं मिली थी पर इस में इस्लाम के धर्मशास्त्रियों की दखल का न होना ही एक बड़ा योगदान था।

इस समय निस्संदेह रूप से पूरे इस्लामी साम्राज्य को, जो स्पेन से भारत तक फैला था, एक सैनिक नायक के अन्दर रखना मुश्किल था। इसलिए बग़दाद सिर्फ धार्मिक मुख्यालय रहा और स्थानीय शासक सैनिक रूप से स्वतंत्र रहे। पूर्वी ईरान में जहाँ सामानी और उसके बाद ग़ज़नवी स्वतंत्र रहे वहीं मध्य तथा पश्चिम में सल्जूक तुर्क शक्तिशाली हो गए। धर्मयुद्धों के समय (1098-1270) भी बग़दाद ने कोई बड़ी सफलता लेने में नाकामी दिखाई। वहीं सत्ता से बाहर सहे उमय्यदों के वंशजों ने स्पेन में सन् ९२९ में अपनी एक अलग ख़िलाफ़त बना ली जो बग़दाद का इस्लामी प्रतिद्वंदी बन गया। १२५८ में मंगोलों की तेजी से बढ़ती शक्ति ने बग़दाद को हरा दिया और शहर को लूट लिया गया। लाखों लोग मारे गए और इस्लामी पुस्तकालयों को जला दिया गया। उस समय मंगोल मुस्लिम नहीं थे लेकिन अगले १०० सालों में वे मुस्लिम बन गए।

शिया इस्लाम

साँचा:main

बगदाद में अब्बासियों की सत्ता तेरहवीं सदी तक रही। पर ईरान और उसके आसपास के क्षेत्रों में अबु इस्लाम के प्रति बहुत श्रद्धा भाव था और अब्बासियों के खिलाफ रोष। उनकी नजर में अबू इस्लाम का सच्चा पुजारी था और अली तथा हुसैन इस्लाम के सच्चे उत्ताधिकारी। इस विश्वास को मानने वालों को शिया कहा गया। अली शिया का अर्थ होता है अली की टोली वाले। इन लोगों की नज़र में इन लोगों (अली, हुसैन या अबू) ने सच का रास्ता अपनाया और इनको शासकों ने बहुत सताया। अबू इस्लाम को इस्लाम के लिए सही खलीफा को खोजकर भी फाँसी की तख़्ती को गले लगाना पड़ा। उसके साथ भी वही हुआ जो अली या इमाम हुसैन के साथ हुआ। अतः इस विचार वाले शिया कई सालों तक अब्बासिद शासन में रहे जो सुन्नी थे। इनको समय समय पर प्रताड़ित भी किया गया। बाद में पंद्रहवीं सदी में साफावी शासन आने के बाद शिया लोगों को इस प्रताड़ना से मुक्ति मिली।

विस्तार

अफ्रीका और यूरोप

मिस्र में इस्लाम का प्रचार तो उम्मयदों के समय ही हो गया था। अरबों ने स्पेन में सन् 710 में पहली बार साम्राज्य विस्तार की योजना बनाई। धीरे-धीरे उनके साम्राज्य में स्पेन के उत्तरी भाग भी आ गए। दसवीं सदी के अन्त तक यह अब्बासी खिलाफत का अंग बन गया था। इसी समय तक सिन्ध भी अरबों के नियंत्रण में आ गया था। सन् 1095 में पोप अर्बान द्वितीय ने धर्मयुद्दों की पृष्टभूमि तैयार की। ईसाईयों ने स्पेन तथा पूर्वी क्षेत्रों में मुस्लिमों का मुकाबला किया। येरूसेलम सहित कई धर्मस्थलों को मुस्लिमों के प्रभुत्व से छुड़ा लिया गया। पर कुछ दिनों के भीतर ही उन्हें प्रभुसत्ता से बाहर निकाल दिया गया।

भारतीय महाद्वीप

साँचा:main आधुनिक अफ़गानिस्तान के इलाके में (जो उस समय अब्बासी सासन का अंग था) गजनी का महमूद शक्तिशाली हो रहा था। इस समय तक इस्लाम का बहुत प्रचार भारतीय उपमहाद्वीप में नहीं हो पाया था। ग्यारहवीं सदी के अन्त तक उनकी शक्ति को ग़ोर के शासकों ने कमजोर कर दी थी। ग़ोर के महमूद ने सन् 1192 में तराईन के युद्ध में दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया। इस युद्ध के अप्रत्याशित परिणाम हुए। गोरी तो वापस आ गया पर अपने दासों (ग़ुलामों) को वहाँ का शासक नियुक्त कर आया। कुतुबुद्दीन ऐबक उसके सबसे काबिल गुलामों में से एक था जिसने एक साम्राज्य की स्थापना की जिसकी नींव पर मुस्लिमों ने लगभग 900 सालों तक राज किया। दिल्ली सल्तनत तथा मुगल राजवंश उसी की आधारशिला के परिणाम थे।

तीसरे खलीफा उथमान ने अपने दूतों को चीन के तांग दरबार में भेजा था। तेरहवीं सदी के अन्त तक इस्लाम इंडोनेशिया पहुँच चुका था। सूफियों ने कई इस्लामिक ग्रंथों का मलय भाषा में अनुवाद किया था। पंद्रहवीं सदी तक इस्लाम फिलीपींस पहुँच गया था।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

साँचा:reflist