मौर्य कला
मौर्य कला का विकास भारत में मौर्य साम्राज्य के युग में (चौथी से दूसरी शदी ईसा पूर्व) हुआ। सारनाथ और कुशीनगर जैसे धार्मिक स्थानों में स्तूप और विहार के रूप में स्वयं सम्राट अशोक ने इनकी संरचना की। मौर्य काल का प्रभावशाली और पावन रूप पत्थरों के इन स्तम्भों में सारनाथ, इलाहाबाद, मेरठ, कौशाम्बी, संकिसा और वाराणसी जैसे क्षेत्रों में आज भी पाया जाता है।[१]
मौर्यकला के नवीन एवं महान रूप का दर्शन अशोक के स्तम्भों में मिलता है। पाषाण के ये स्तम्भ उस काल की उत्कृष्ट कला के प्रतीक हैं। मौर्ययुगीन समस्त कला कृतियों में अशोक द्वारा निर्मित और स्थापित पाषाण स्तम्भ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण एवं अभूतपूर्व हैं। स्तम्भों को कई फुट नीचे जमीन की ओर गाड़ा जाता था। इस भाग पर मोर की आकृतियाँ बनी हुई हैं। पृथ्वी के ऊपर वाले भाग पर अद्भुत चिकनाई तथा चमक है। मौर्यकाल के स्तम्भों में से फाह्यान ने ६ तथा युवानच्वांग ने १५ स्तम्भों का उल्लेख किया है। गुहा निर्माण कला भी इस काल में चरम पर थी। अशोक के पौत्र दशरथ ने गया से १९ मील बाराबर की पहाड़ियों पर श्रमणों के निवास के लिए कुछ गुहाएँ बनवाईं। इनकी भीतरी दीवार पर चमकीली पालिश है। लोमश ऋषि की गुफा मौर्यकाल में सम्राट अशोक के पौत्र सम्पत्ति द्वारा निर्मित हुई। यह गुफा अधूरी है। इसके मेहराब पर गजपंक्ति की पच्चीकारी अब भी मौजूद है। ऐसी पच्चीकारी प्राचीन काल में काष्ठ पर की जाती थी।
सारनाथ का मूर्ति शिल्प और स्थापत्य मौर्य कला का एक अतिश्रेष्ठ नमूना है। विनसेन्ट स्मिथ नामक प्रसिद्ध इतिहासकार के अनुसार, किसी भी देश के पौराणिक संग्रहालय में, सारनाथ के समान उच्च श्रेष्ठ और प्रशंसनीय कला के दर्शन दुर्लभ हैं क्योंकि इनका काल और शिल्प कड़ी छनबीन के बाद प्रमाणित किया गया है। मौर्य काल के दौरान मथुरा कला का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। शुंग-शातवाहन काल के काल में इस राजवंश की प्रेरणा से कला का अत्यंत विकास हुआ। बड़ी संख्या में इमारतें बनी, अन्य पौराणिक कलाएँ विकसित हुईं जो सारनाथ की पिछली पीढियों के विकास को दरशाती हैं। इस युग की मजबूत जड़ अर्ध वृत्तीय मन्दिर वाली उसी पीढ़ी की नींव पर टिकी है। कला क्षेत्र में विख्यात भारत-सांची विद्यालय मथुरा का एक अनमोल केन्द्र कहा जाता है। जिसकी अनेक छवियां इन विद्यालयों में आज भी देखने को मिलती हैं।[२]