वल्लभाचार्य

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Shri mahaprabhuji
अखण्ड भूमण्डलाचार्य जगद्गुरु महाप्रभु श्रीमद वल्लभाचार्य जी

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चित्र:Vallabh hadwriting.JPG
The Handwritten note of Vallabhacharya in telugu in the 'Bahi' of one shri Narottam- a brahman priest in Gaya

श्रीवल्लभाचार्यजी (1479-1531) भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधारस्तंभ एवं पुष्टिमार्ग (pushtimarg) के प्रणेता थे। उनका प्रादुर्भाव विक्रम संवत् 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्रीलक्ष्मणभट्टजी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से हुआ। यह स्थान वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर के निकट चम्पारण्य है। उन्हें वैश्वानरावतार (अग्नि का अवतार) कहा गया है। वे वेदशास्त्र में पारंगत थे। वर्तमान में इसे वल्लभसम्प्रदाय या पुष्टिमार्ग(pushtimarg) सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है। और वल्लभसम्प्रदाय वैष्णव सम्प्रदाय अन्तर्गत आते हैं।

महाप्रभु वल्लभाचार्य के सम्मान में भारत सरकार ने सन 1977 में एक रुपये मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया था।

दीक्षा

श्रीरूद्रसंप्रदाय के श्रीविल्वमंगलाचार्यजी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षर गोपालमन्त्र की दीक्षा दी गई। त्रिदण्ड सन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्रतीर्थ से प्राप्त हुई। विवाह पंडित श्रीदेवभट्टजी की कन्या- महालक्ष्मी से हुआ और यथासमय दो पुत्र हुए- श्री गोपीनाथ व श्रीविट्ठलनाथ। भगवत्प्रेरणावश वे ब्रज में गोकुल पहुंचे और तदनन्तर ब्रजक्षेत्र स्थित गोव‌र्धन पर्वत पर अपनी गद्दी स्थापित कर शिष्य पूरनमल खत्री के सहयोग से उन्होंने संवत् 1576 में श्रीनाथ जी के भव्य मंदिर का निर्माण कराया। वहां विशिष्ट सेवा-पद्धति के साथ लीला-गान के अंतर्गत श्रीराधाकृष्ण की मधुरातिमधुर लीलाओं से संबंधित रसमय पदों की स्वर-लहरी का अवगाहन कर भक्तजन निहाल हो जाते।

मत

श्रीवल्लभाचार्यजी के मतानुसार तीन स्वीकार्य तत्त्‍‌व हैं- ब्रह्म, जगत् और जीव। ब्रह्म के तीन स्वरूप वर्णित हैं- आधिदैविक, आध्यात्मिक एवं अंतर्यामी रूप। अनंत दिव्य गुणों से युक्त पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को ही परब्रह्म स्वीकारते हुए उनके मधुर रूप एवं लीलाओं को ही जीव में आनंद के आविर्भाव का स्रोत माना गया है। जगत् ब्रह्म की लीला का विलास है। संपूर्ण सृष्टि लीला के निमित्त ब्रह्म की आत्म-कृति है।

सिद्धान्त

भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह को पुष्टि कहा गया है। भगवान के इस विशेष अनुग्रह से उत्पन्न होने वाली भक्ति को 'पुष्टिभक्ति' कहा जाता है। जीवों के तीन प्रकार हैं- पुष्टि जीव जो भगवान के अनुग्रह पर निर्भर रहते हुए नित्यलीला में प्रवेश के अधिकारी बनते हैं), मर्यादा जीव [जो वेदोक्त विधियों का अनुसरण करते हुए भिन्न-भिन्न लोक प्राप्त करते हैं] और प्रवाह जीव [जो जगत्-प्रपंच में ही निमग्न रहते हुए सांसारिक सुखों की प्राप्ति हेतु सतत् चेष्टारत रहते हैं]।

भगवान् श्रीकृष्ण भक्तों के निमित्त व्यापी वैकुण्ठ में [जो विष्णु के वैकुण्ठ से ऊपर स्थित है] नित्य क्रीड़ाएं करते हैं। इसी व्यापी वैकुण्ठ का एक खण्ड है- गोलोक, जिसमें यमुना, वृन्दावन, निकुंज व गोपियां सभी नित्य विद्यमान हैं। भगवद्सेवा के माध्यम से वहां भगवान की नित्य लीला-सृष्टि में प्रवेश ही जीव की सर्वोत्तम गति है।

प्रेमलक्षणा भक्ति उक्त मनोरथ की पूर्ति का मार्ग है, जिस ओर जीव की प्रवृत्ति मात्र भगवद्नुग्रह द्वारा ही संभव है। श्री मन्महाप्रभु वल्लभाचार्यजी के पुष्टिमार्ग [अनुग्रह मार्ग] का यही आधारभूत सिद्धांत है। पुष्टि-भक्ति की तीन उत्तरोत्तर अवस्थाएं हैं-प्रेम, आसक्ति और व्यसन। मर्यादा-भक्ति में भगवद्प्राप्ति शमदमादि साधनों से होती है, किंतु पुष्टि-भक्ति में भक्त को किसी साधन की आवश्यकता न होकर मात्र भगवद्कृपा का आश्रय होता है। मर्यादा-भक्ति स्वीकार्य करते हुए भी पुष्टि-भक्ति ही श्रेष्ठ मानी गई है। यह भगवान में मन की निरंतर स्थिति है। पुष्टिभक्ति का लक्षण यह है कि भगवान के स्वरूप की प्राप्ति के अतिरिक्त भक्त अन्य किसी फल की आकांक्षा ही न रखे। पुष्टिमार्गीय जीव की सृष्टि भगवत्सेवार्थ ही है- भगवद्रूप सेवार्थ तत्सृष्टिर्नान्यथा भवेत्। प्रेमपूर्वक भगवत्सेवाभक्ति का यथार्थ स्वरूप है-भक्तिश्च प्रेमपूर्विकासेवा। भागवतीय आधार (कृष्णस्तु भगवान स्वयं) पर भगवान कृष्ण ही सदा सर्वदासेव्य, स्मरणीय तथा कीर्तनीय हैं-

सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो ब्रजाधिपः।
तस्मात्सर्वात्मना नित्यं श्रीकृष्णः शरणं मम।

ब्रह्म के साथ जीव-जगत् का संबंध निरूपण करते हुए उनका मत था कि जीव ब्रह्म का सदंश[सद् अंश] है, जगत् भी ब्रह्म का सदंश है। अंश एवं अंशी में भेद न होने के कारण जीव-जगत् और ब्रह्म में परस्पर अभेद है। अंतर मात्र इतना है कि जीव में ब्रह्म का आनंदांश आवृत्त रहता है, जबकि जड़ जगत में इसके आनन्दांश व चैतन्यांश दोनों ही आवृत्त रहते हैं।

श्रीशंकराचार्य के अद्वैतवाद केवलाद्वैत के विपरीत श्रीवल्लभाचार्य के अद्वैतवाद में माया का संबंध अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण और जीव-जगत को उसके कार्य रूप में वर्णित कर तीनों शुद्ध तत्वों का ऐक्य प्रतिपादित किए जाने के कारण ही उक्त मत शुद्धाद्वैतवाद कहलाया (जिसके मूल प्रवर्तक आचार्य श्री विष्णुस्वामीजी हैं)।

प्रमुख ग्रन्थ

श्री वल्लभाचार्य ने अनेक भाष्यों, ग्रंथों, नामावलियों, एवं स्तोत्रों की रचना की है, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित ये सोलह सम्मिलित हैं, जिन्हें ‘षोडश ग्रन्थ’ के नाम से जाना जाता है –

१. यमुनाष्टक
२. बालबोध
३. सिद्धान्त मुक्तावली
४. पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद
५. सिद्धान्तरहस्य
६. नवरत्नस्तोत्र
७. अन्तःकरणप्रबोध
८. विवेकधैर्याश्रय
९. श्रीकृष्णाश्रय
१०. चतुःश्लोकी
११. भक्तिवर्धिनी
१२. जलभेद
१३. पंचपद्यानि
१४. संन्यासनिर्णय
१५. निरोधलक्षण
१६. सेवाफल

आपका शुद्धाद्वैत का प्रतिपादक प्रधान दार्शनिक ग्रन्थ है - अणुभाष्य [ब्रह्मसूत्र भाष्य अथवा उत्तरमीमांसा]। इनके अतिरिक्त आप द्वारा प्रणीत कई अन्य ग्रन्थ, जैसे - ‘तत्वार्थदीपनिबन्ध’, ‘पुरुषोत्तम सहस्रनाम’, ‘पत्रावलम्बन’, ‘पंचश्लोकी’, पूर्वमीमांसाभाष्य, भागवत पर सुबोधिनी टीका आदि भी प्रसिद्ध हैं। ‘मधुराष्टक’ स्तोत्र में आपने भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप, गुण, चरित्र, लीला आदि के माधुर्य को अत्यंत मधुर शब्दों और भावों से निरूपित किया है।

मान्यताएं:-

  • पुष्टिमार्ग:- क्योंकि प्रभु केवल उनकी ही कृपा से सुलभ है। प्रभु को किसी दिए गए सूत्र द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है – वह केवल प्राप्य है यदि वह प्राप्त करना चाहता है!
  • रुद्र सम्प्रदाय:-रुद्र सम्प्रदाय क्योंकि श्री वल्लभ के पिता की शुरुआत उस सम्प्रदाय में हुई थी क्योंकि इस पंक्ति में ज्ञान सबसे पहले रुद्र यानी भगवान शिव को दिया गया था।
  • शुद्धा अद्वैत:- जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड ब्रह्म की अभिव्यक्ति है। यह दर्शन ब्रह्मांड के निर्माण की व्याख्या करने के लिए केवल “ब्राह्मण” पर निर्भर करता है और यह “माया” की अवधारणा पर निर्भर नहीं है। इसलिए, यह “शुद्धा” है। ब्रह्म सत्य है, ब्रह्माण्ड (ब्राह्मण का स्वयं का निर्माण होना) भी सत्य है, आत्मा (जीव) ब्रह्म का एक अंश है। इसलिए, यह “अद्वैत” है।
  • ब्रह्मवाद:-ब्रह्माण्ड में सभी का स्रोत और कारण है। कहीं भी, किसी भी धर्म में अद्वैतवाद का सबसे शुद्ध रूप है। विशिष्ट रूप से, यह एकमात्र दर्शन है जो बताता है, स्पष्ट रूप से, कि सब कुछ, बिल्कुल सब कुछ, बिल्कुल सही है जिस तरह से यह है। सब कुछ प्रभु की आत्मा के साथ है और जैसा कि भगवान अनंत रूप से परिपूर्ण है, सब कुछ परिपूर्ण है!

षोडश ग्रन्थों की टीकाएँ तथा हिंदी अनुवाद

महाप्रभु वल्लभाचार्य के षोडश ग्रंथों पर श्री हरिराय जी, श्री कल्याण राय जी, श्री पुरुषोत्तम जी, श्रीरघुनाथ जी आदि अनेक विद्वानों द्वारा संस्कृत भाषा में टीकाएं उपलब्ध हैं। सर्वसाधारण के लिए भाषा की जटिलता के कारण ग्रंथों और टीकाओं के मर्म को समझना कठिन रहा है, किन्तु श्री वल्लभाचार्य के ही एक विद्वान वंशज गोस्वामी राजकुमार नृत्यगोपालजी ने प्रत्येक ग्रन्थ की समस्त टीकाओं को न केवल एक जगह संकलित किया है, बल्कि पुष्टिमार्ग के भक्तों तथा अनुयायियों के लाभ के लिए उनका हिंदी अनुवाद भी सुलभ कराया है। क्लिष्ट टीकाओं के हिंदी अनुवाद के साथ अधिक स्पष्टता के लिए उन्होंने प्रत्येक ग्रन्थ पर अपनी स्वयं की टीका भी की है। ये सभी टीकाएँ सोलह पुस्तकों के रूप में छपी हैं। निम्न तालिका में श्री वल्लभाचार्य के ग्रंथों की संग्रहीत टीकाओं के साथ ही श्री राजकुमार नृत्यगोपालजी की टीका का उल्लेख है।[१]

  • चतुःश्लोकी – मध्या टीका, २००२
  • भक्तिवर्धिनी – संयुक्ता टीका, २००२
  • सिद्धान्त-रहस्यम् – दिशा टीका, २००२
  • अन्तःकरणप्रबोधः – अरुणा टीका, २००३
  • विवेकधैर्याश्रयः – आलोका टीका, २००३
  • कृष्णाश्रयस्तोत्रम् – संगिनी टीका, २००४
  • नवरत्नम् – गोपालकेतिनी टीका, २००५
  • निरोधलक्षणम् - मनोज्ञा टीका, २००७
  • सेवाफलम् - अनुस्यूता टीका, २००९
  • पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेदः – मेखला टीका, २०१०
  • श्री यमुनाष्टकम् – श्री टीका, २०११
  • जलभेदः तथा पंचपद्यानि - मनोज्ञा टीका, २०११
  • संन्यासनिर्णयः - ज्ञापिनी टीका, २०१२
  • बालबोधः – बोधिका टीका, २०१२
  • सिद्धान्तमुक्तावली – प्राची टीका, २०१३

शिष्य परम्परा

श्री वल्लभाचार्यजी के चौरासी शिष्यों के अलावा अनगिनत भक्त, सेवक और अनुयायी थे। उनके पुत्र श्रीविट्ठलनाथजी (गुसाईंजी) ने बाद में उनके चार प्रमुख शिष्यों - भक्त सूरदास, कृष्णदास, परमानन्द दास और कुम्भनदास, तथा अपने स्वयं के चार शिष्यों - नन्ददास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी तथा चतुर्भुजदास, जो सभी श्रेष्ठ कवि तथा कीर्तनकार भी थे, का एक समूह स्थापित किया जो “अष्टछाप” कवि के नाम से प्रसिद्ध है। सूरदासजी की सच्ची भक्ति एवं पद-रचना की निपुणता देख अति विनयी सूरदासजी को भागवत् कथा श्रवण कराकर भगवल्लीलागान की ओर उन्मुख किया तथा उन्हें श्रीनाथजीके मन्दिर की की‌र्त्तन-सेवा सौंपी। उन्हें तत्व ज्ञान एवं लीला भेद भी बतलाया-श्रीवल्लभगुरू तत्त्‍‌व सुनायो लीला-भेद बतायो [सूरसारावली]। सूर की गुरु के प्रति निष्ठा दृष्टव्य है- भरोसो दृढ इन चरनन केरो। श्रीवल्लभ-नख-चंद्र-छटा बिनु सब जग मांझ अंधेरो॥ श्रीवल्लभके प्रताप से प्रमत्त कुम्भनदासजी तो सम्राट अकबर तक का मान-मर्दन करने में नहीं झिझके- परमानन्ददासजी के भावपूर्ण पद का श्रवण कर महाप्रभु कई दिनों तक बेसुध पड़े रहे। मान्यता है कि उपास्य श्रीनाथजी ने कलि-मल-ग्रसित जीवों का उद्धार हेतु श्रीवल्लभाचार्यजी को दुर्लभ आत्म-निवेदन-मन्त्र प्रदान किया और गोकुल के ठकुरानी घाट पर यमुना महारानी ने दर्शन देकर कृतार्थ किया।

आसुरव्यामोह लीला

विक्रम संवत् 1587, आषाढ शुक्ल तृतीया (सन 1531) को उन्होंने अलौकिक रीति से इहलीला संवरण कर सदेह प्रयाण किया, जिसे 'आसुरव्यामोह लीला' कहा जाता है। वैष्णव समुदाय उनका चिरऋणी है।

सन्दर्भ

  1. “श्रीमद्वल्लभाचार्य द्वारा प्रणीत षोडश ग्रंथों की मूल सहित संस्कृत टीकाओं का संकलन, हिन्दी अनुवाद तथा सरलीकरण टीका (16 पुस्तकों में)”, गोस्वामी राजकुमार नृत्यगोपालजी, “चरणाट”, ठाकुर विलेज, कांदिवली (पू.), मुम्बई-४००१०१ (महाराष्ट्र)

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