कुन्दमाला

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कुन्दमाला एक संस्कृत नाटक है। दिङ्नाग इस नाटक के रचयिता माने जाते हैं। यह राम के उत्तर जीवन पर आधारित है जहां वे लोक अपवाद के कारण सीता का त्याग कर देते हैं। कुन्दमाला में प्राप्त आन्तरिक प्रमाणों से यह प्रतीत होता है कि कुन्दमाला के रचयिता कवि (दिङ्नाग) दक्षिण भारत अथवा श्रीलंका के निवासी थे।

बर्नेल को कुन्दमाला की पाण्डुलिपि, तंजौर महल के ग्रंथालय के कूड़े के ढेर से प्राप्त हुई थी।

कर्ता

दिंनाग को सामान्यत: कुंदमाला का कर्ता माना गया है मैसूर पांडुलिपि में यही नाम मिलता है। वल्लभदेव की सुभाषितवली का यहीं मत हैं। श्री पी पी एस शास्त्रीजी का मत है कि यह कृति धीरनाग की है जिसका उल्लेख तंजौर की हस्तप्रतियों में हैं। उनके अनुसार दिंनाग भूलवश समझा गया होगा। लेकिन कृष्णकुमार शास्त्री अनुसार धीरनाग भूलवश लिखा गया होगा। रामचन्द्र और गुणभद्र की कृति नाट्यदर्पण अनुसार यह वीरनाग की कृति है। प्रसन्नसाहित्यरत्नाकर ग्रंथ का यहीं मत है। श्रीधरदास सदुक्तिकर्णामृत अनुसार इसके कर्ता रविनाग हैं।

स्थान

तंजौर की प्रति में लेखक ने अनूपराधा और मैसूर की प्रति में लेखक ने अरालपुरा उल्लेख किया हैं। विद्वानो के मतानुसार यह स्थान श्रीलंका अथवा दक्षिण भारत का होगा।

समय

कुंदमाला का प्रथम उल्लेख ११ वीं सदी के नाट्यदर्पण हैं। एवं आनन्दवर्धन के महानाटक में कुंदमाला का एक श्लोक मिलता है इस कृति का समय आठवीं सदी है इसलिए कुंदमाला आठवीं सदी या उसके पहले की कृति हैं। मल्लिनाथ की मेधदूत की अनुसार दिंनाग कालिदास के प्रतिद्वंदि थे। सिंहली इतिहास के अनुसार कुमारदास कालिदास के साथ चिता में जल गये थे जिनका समय ५ वीं सदी था इसलिए कुंदमाला के लेखक ५ वीं सदी के थे।

कथासार

  • प्रथम अंक - नाटक का प्रारंभ गणेश एवं शिव की प्रार्थना से होता हैं। सूत्रधार नटी के साथ बात करता है तभी वह सीता त्याग का करूण दृश्य देखता है। तभी रंगमंच पर लक्ष्मण सीता को गंगा किनारे का मार्ग दिखाते हैं। वो सीता से कहते है कि राम ने उनका त्याग कर दिया है। सीता को आधात लगता है और लक्ष्मण उन्हें त्यागकर चला जाता है। तभी वाल्मीकी ऋषि आकर सीता को अपने आश्रम ले जाते है। सीता गंगा की प्रतिज्ञा करती है कि यदि उन्हें सुखपूर्वक प्रसव होगा तो वे गंगा को कुंद पुष्पों की माला अर्पित करेगी।
  • द्वितीय अंक - वेदवती और यज्ञवती के संवाद से ज्ञात होता है कि सीता ने दो बालकों जन्म दिया जिनका नाम कुश एवं लव हैं l यहां वे राम के बारे में बात करती है कि उन्होंने नैमिषारण्य में अश्वमेध का आयोजन किया है।वेदवती बाद में सीता से मिलती है और सीता के दुःख का कारण राम को बताती हैं किंतु सीता के मनोभव जानकर कहा कि शीघ्र ही उन्हें अश्वमेध यज्ञ के कारण राम दर्शन देंगे।
  • तृतीय अंक - राम लक्ष्मण के साथ गोमती तट पर विहार कर रहे कि राम को सीता प्रवाहित कुंदमाला मिलती है राम गोमती के किनारे पदचिह्न देखकर अनुमान करते है कि सीता यहीं किसी स्थान पर हैं। राम और लक्ष्मण लताकुंज में आराम करते है , सीता भी लताकुंज में पुष्प चुन रही थी और वहां राम को देखकर सीता छुप जाती हैं और चुपके से राम की बात सुनती है किंतु बाद में आश्रम मर्यादा का विचार कर वहाँ से चली जाती है।
  • चतुर्थ अंक - वेदवती यज्ञवती से कहेती हैं कि तिलोतमा सीता बनकर राम की परीक्षा लेंगीं परंतु कौशिक वेदवती की बात सुन लेता है। आश्रमस्रियां वाल्मीकि से निवेदन करती है कि अश्वमेध यज्ञ के कारण पुरुष नैमिषारण्य विचरण कर रहे तो वे पुस्करिणी कैसे स्नान करे सो वाल्मीकि उन्हें वरदान देते है कि स्नान के समय उन्हें कोई नहीं देख पायेगा।

सीता पुष्करिणी के जल में हंस देख रही है तभी राम वहाँ आते है l वाल्मीकि के वर के कारण राम सीता को नहीं उसके प्रतिबिंब को देखते है और मूर्छित हो जाते है। सीता अपनी शाल से उन्हें हवा देती है। राम जागकर उस शाल की खींच लेते है और अपनी शाल फेंकते है ; सीता राम की शाल लेकर वहाँ से चली जाती है। तभी राम का मित्र कौशिक कहेता है कि शायद यह तिलोतमा की माया थीं लेकिन राम कहेते है कि कोई स्त्री उन्हें वस्त्राचंल से हवा नहीं दे सकती।

  • पंचम अंक - राम अपने दरबार में रामायण गायन का आयोजन करते हैं। लव और कुश दरबार में आते हैं। सिंहासन पर बैठे राम उन दोनों को अपनी गोद में बैठाते है तभी कौशिक कहता है कि इन्हें सिंहासन से उतार दे क्योंकी रघुकुल के अतिरिक्त जो बेठेगा उसके शीश के टुकडें हो जायेगा परंतु लव-कुश को कुछ नहीं हुआ l राम सोचते है कि संभवत यह दोनों सीता की संतान है।
  • षष्ठ अंक - लव और कुश दशरथ विवाह से सीता निर्वासन की कथा सुनाते है परंतु उन्हें आगे की कथा ज्ञात नहीं थीं इसलिए राम कण्व को बुलाते है वह राम को बताते है कि लव कुश उनके पुत्र है। राम, लव और कुश मुर्छित हो जाते हैं। वाल्मीकि सीता के साथ वहाँ आकर उन्हें जगाते हैं। वाल्मीकि राम पर क्रोधित होते है और सीता से कहते है कि अपनी पवित्रता का प्रमाण देते हैं। पृथ्वी दिव्य रूप लेकर सीता की पवित्रता प्रतिपादित करती है अंत में राम सीता और उनके पुत्रों को स्वीकार कर लेते है और भरतवाक्य द्वारा नाटक का अंत होता है।