अरुंधति राय

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अरुंधति राय
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अरुंधति राय 2013 में
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मृत्यु स्थान/समाधिसाँचा:br separated entries
व्यवसायलेखिका और समाजसेवी
राष्ट्रीयताभारतीय
अवधि/काल1997 – ਹੁਣ ਤੱਕ
उल्लेखनीय कार्यsद गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स
उल्लेखनीय सम्मानबुकर पुरस्कार (1997)

हस्ताक्षर

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सुज़ेना अरुंधति राय (जन्म: 24 नवंबर, 1961) अंग्रेजी की एक लेखिका और समाजसेवी हैं।[१] इसने कुछेक फ़िल्मों में भी काम किया है। "द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स" के लिये बुकर पुरस्कार प्राप्त अरुंधति राय ने लेखन के अलावा नर्मदा बचाओ आंदोलन समेत भारत के दूसरे जनांदोलनों में भी हिस्सा लिया है।उनकी अनूदित पुस्तकें न्याय का गणित,आहत देश,कठघरे में लोकतंत्र है। हाल ही में उनकी पुस्तक "द डॉक्टर एंड द सेंट: द अंबेडकर-गांधी डिबेट" (अंग्रेजी:The Doctor and the Saint: The Ambedkar-Gandhi Debate) चर्चा में है जिसका हिन्दी अनुवाद प्रोफेसर रतनलाल ने "एक था डॉक्टर एक था सन्त" के नाम से किया है।

आरंभिक जीवन

शिलौंग में 24 नवम्बर 1961 को अरुंधति राय का जन्म, केरल की सीरियाई ईसाई माता, मेरी रॉय व कलकत्ता के निवासी बंगाली हिंदू पिता, राजीब रॉय के घर हुआ। जब वे दो वर्ष की थीं, तब उनके माता-पिता का विवाह-विच्छेद हो गया और वो अपनी माता और भाई के साथ केरल आ गयीं। उनकी माता महिला अधिकार अंडोलंकारी थीं व उनके पिता चाय बाग़ान प्रबंधक थे। अरुंधती ने अपने जीवन के प्रारंभिक दिन केरल में गुज़ारे। [२]

उसके बाद उन्होंने आर्किटेक्ट की पढ़ाई दिल्ली से की। अपने करियर की शुरुवात उन्होंने अभिनय से की। मैसी साहब फिल्म में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई। इसके अलावा कई फिल्मों के लिये पटकथायों भी उन्होंने लिखीं। जिनमें In Which Annie Gives It Those Ones (1989), Electric Moon (1992) को खासी सराहना मिली। १९९७ में जब उन्हें उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के लिये बुकर पुरस्कार मिला तो साहित्य जगत का ध्यान उनकी ओर गया। हाल ही में उनकी पुस्तक "The Doctor and the saint:the ambedkar-Gandhi Debate" पुस्तक चर्चा में है जिसका हिन्दी अनुवाद भी "एक था डॉक्टर एक था सन्त" के नाम से प्रोफेसर रतनलाल जी ने है किया गया है काफ़ी चर्चा में है।

क्रांतिकारी विचार

अमरीकी साम्राज्यवाद से लेकर, परमाणु हथियारों की होड़, नर्मदा पर बाँध निर्माण आदि कई स्थानीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करती रही हैं अरुंधति राय. लेकिन अब उनका मानना है कि कम से कम भारत में अहिंसक विरोध प्रदर्शनों और नागरिक अवज्ञा आंदोलनों से बात नहीं बन रही है।

संसदीय व्यवस्था का अंग बने साम्यवादियों और हिंसक प्रतिरोध में भरोसा रखने वाले माओवादियों की विचारधाराओं में फंसी अरुंधति स्वीकार करती हैं कि वो गांधी की अंधभक्त नहीं हैं। उन्हीं के शब्दों में- "आख़िर गांधी एक सुपरस्टार थे। जब वे भूख-हड़ताल करते थे, तो वह भूख-हड़ताल पर बैठे सुपरस्टार थे। लेकिन मैं सुपरस्टार राजनीति में यक़ीन नहीं करती. यदि किसी झुग्गी की जनता भूख-हड़ताल करती है तो कोई इसकी परवाह नहीं करता."

अरुंधति का मानना है कि बाज़ारवाद के प्रवाह में बहते चले जा रहे भारत में विरोध के स्वरों को अनसुना किया जा रहा है। जनविरोधी व्यवस्था के ख़िलाफ़ न्यायपालिका और मीडिया को प्रभावित करने के प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। उन्होंने कहा, "मैं समझती हूँ हमारे लिए ये विचार करना बड़ा ही महत्वपूर्ण है कि हम कहाँ सही रहे हैं और कहाँ ग़लत. हमने जो दलीलें दी वे सही हैं।.. लेकिन अहिंसा कारगर नहीं रही है।"

न्यायपालिका

न्यायपालिका की अवमानना के आरोप में संक्षिप्त क़ैद काट चुकी अरुंधति का स्पष्ट कहना है कि वह हथियार उठाने वाले लोगों की निंदा नहीं करतीं। उन्होंने रॉयटर्स को इंटरव्यू में कहा, "मैं ये कहने की स्थिति में नहीं हूँ कि हर किसी को हथियार उठा लेना चाहिए, क्योंकि मैं ख़ुद हथियार उठाने को तैयार नहीं हूँ... लेकिन साथ ही मैं उनलोगों की निंदा भी नहीं करना चाहती जो प्रभावी होने के दूसरे तरीकों का रुख़ कर रहे हैं।"

अपने इस विचार को उन्होंने गार्डियन को दिए साक्षात्कार में थोड़ा और स्पष्ट किया- "मेरे लिए किसी को हिंसा का उपदेश देना अनैतिक होगा, जब तक मैं ख़ुद हिंसा पर उतारू नहीं हो जाती। लेकिन इसी तरह, मेरे लिए विरोध प्रदर्शनों और भूख-हड़तालों की बात करना भी अनैतिक होगा, जब मैं घिनौनी हिंसा से सुरक्षित हूँ। मैं निश्चय ही इराक़ियों, कश्मीरियों या फ़लस्तीनियों को ये नहीं कह सकती कि वे सामूहिक भूख-हड़ताल करें तो उन्हें सैन्य क़ब्ज़े से मुक्ति मिल जाएगी. नागरिक अवज्ञा आंदोलन सफल होते नहीं दिख रहे।"

रविवार को दिये साक्षात्कार में वे कहती हैं-"हमारी जो संसदीय राजनीति है, उसमें अभी हर पार्टी के दस-दस पंद्रह-पंद्रह सिर है। जो बंगाल में वामपंथ बोलते हैं, वही नंदीग्राम में लोगों को अपने घरों से भगा रहे हैं, महाराष्ट्र वाले आदिवासी का साथ दे रहे हैं। वही भाजपा, जो यहां एसईजेड बनाना चाहती है, पश्चिम बंगाल में उसके खिलाफ बोलती है। हम सब एक ऐसे पागलखाने में घूम रहे हैं, जहां किसी की एक ही शक्ल नहीं है।"

अरुंधति को सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा अहिंसक जनांदोलनों को नज़रअंदाज़ किए जाने का व्यक्तिगत अनुभव नर्मदा आंदोलन से जुड़ कर हुआ। उनका कहना है कि नर्मदा आंदोलन एक गांधीवादी आंदोलन है जिसने वर्षों तक हर लोकतांत्रिक संस्थान के दरवाज़े पर दस्तक दी, लेकिन इससे जुड़े कार्यकर्ताओं को हमेशा अपमानित होना पड़ा। किसी भी बाँध को नहीं रोका गया, उल्टे बाँध निर्माण सेक्टर में नई तेज़ी आई।

पुरस्कार

  • 1997 में द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग के लिए बुकर पुरस्कार।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ


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