सत्यार्थ प्रकाश

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सत्यार्थ प्रकाश  
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लेखक महर्षि दयानन्द सरस्वती
देश भारत
भाषा हिन्दी
प्रकाशक स्टार प्रेस बनारस[१]
प्रकाशन तिथि १८७५

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सत्यार्थ प्रकाश आर्य समाज का प्रमुख ग्रन्थ है जिसकी रचना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने १८७५ ई में हिन्दी में की थी।[१]ग्रन्थ की रचना का कार्य स्वामी जी ने उदयपुर में किया। लेखन-स्थल पर वर्तमान में सत्यार्थ प्रकाश भवन बना है। [२] प्रथम संस्करण का प्रकाशन अजमेर में हुआ था। उन्होने १८८२ ई में इसका दूसरा संशोधित संस्करण निकाला। अब तक इसके २० से अधिक संस्करण अलग-अलग भाषाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।

सत्यार्थ प्रकाश की रचना का प्रमुख उद्देश्य आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार था। इसके साथ-साथ इसमें ईसाई, इस्लाम एवं अन्य कई पन्थों व मतों का खण्डन भी है। उस समय हिन्दू शास्त्रों का गलत अर्थ निकाल कर हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को बदनाम करने का षड्यन्त्र भी चल रहा था। इसी को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द ने इसका नाम सत्यार्थ प्रकाश (सत्य + अर्थ + प्रकाश) अर्थात् सही अर्थ पर प्रकाश डालने वाला (ग्रन्थ) रखा।

सत्यार्थ प्रकाश का प्रयोजन

समाज सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती की इस रचना का मुख्य प्रयोजन सत्य को सत्य और मिथ्या को मिथ्या ही प्रतिपादन करना है।

यद्यपि हिंदू जीवन व्यक्ति और समाज, दोनों को समक्ष रखकर चलता है, तो भी हिन्दुओं में प्रायः देखा जाता है कि समष्टिवादी की अपेक्षा व्यक्तिवादी प्रवृत्ति अधिक है। ध्यान में लीन उपासक के समीप यदि इसी समाज का कोई व्यक्ति तड़प भी रहा हो तो वह उसे ध्यानभंग का कारण ही समझेगा। यह कदापि नहीं कि वह भी उसी समाज का एक अंग है। फिर उन्नीसवीं सदी में अँग्रेजी सभ्यता का बहुत प्राबल्य था। अँग्रेजी प्रचार के परिणामस्वरूप हिन्दू ही अपनी संस्कृति को हेय मानने और पश्चिम का अन्धानुकरण करने में गर्व समझने लगे थे। भारतीयों को भारतीयता से भ्रष्ट करने की मैकाले की योजना के अनुसार हिन्दुओं को पतित करने के लिये अँग्रेजी शिक्षा प्रणाली पर जोर था। विदेशी सरकार तथा अँग्रेजी समाज अपने एजेण्ट पादरियों के द्वारा ईसाइयत का झण्डा देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फहराने के लिये करोड़ों रुपये खर्च कर रहे थे। हिन्दू अपना धार्मिक एवं राष्ट्रीय गौरव खो चुके थे। 144 हिन्दू प्रति दिन मुसलमान बन रहे थे और ईसाई तो इससे कहीं अधिक। पादरी रंगीला कृष्ण और सीता का छिनाला जैसी सैकड़ों गन्दी पुस्तिकाएँ बाँट रहे थे। इन निराधार लांछनों का उत्तर देने के बजाय ब्रह्म समाज वालों ने उलटे राष्ट्रीयता का ही विरोध किया। वेद आदि की प्रतिष्ठा करना तो दूर, भर पेट उनकी निन्दा की।

स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज और सत्यार्थ प्रकाश के द्वारा इन घातक प्रवृत्तियों को रोका। उन्होंने यहाँ तक लिखा - "स्वराज्य (स्वदेश) में उत्पन्न हुए (व्यक्ति) ही मन्त्री होने चाहिये। परमात्मा हमारा राजा है। वह कृपा करके हमको राज्याधिकारी करे।" इसके साथ ही उन्होंने आर्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रखर प्रेम और वेद, उपनिषद आदि आर्य सत्साहित्य तथा भारत की परम्पराओं के प्रति श्रद्धा पर बल दिया। स्व-समाज, स्व-धर्म, स्व-भाषा तथा स्व-राष्ट्र के प्रति भक्ति जगाने तथा तर्क प्रधान बातें करने के कारण उत्तर भारत के पढ़े लिखे हिन्दू धीरे-धीरे इधर खिंचने लगे जिससे आर्य समाज सामाजिक एवं शैक्षणिक क्षेत्रों में लोकप्रिय हुआ।

सत्यार्थ प्रकाश की संरचना

सत्यार्थ प्रकाश में चौदह समुल्लास (अध्याय)[१] हैं। इसमें इन विषयों पर विचार किया गया है - बाल-शिक्षा, अध्ययन-अध्यापन, विवाह एवं गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास-राजधर्म, ईश्वर, सृष्टि-उत्पत्ति, बंध-मोक्ष, आचार-अनाचार, आर्यावर्तदेशीय मतमतान्तर, ईसाई मत तथा इस्लाम। इसकी भाषा के सम्बन्ध में दयानन्द जी ने सन् 1882 में इस ग्रन्थ के दूसरे संस्करण में स्वयं यह लिखा - "जिस समय मैंने यह ग्रन्थ बनाया था, उस समय.संस्कृत भाषण करने और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण मुझको इस भाषा (हिन्दी) का विशेष परिज्ञान न था। इससे भाषा अशुद्ध बन गई थी। अब इसको भाषा-व्याकरण-अनुसार शुद्ध करके दूसरी बार छपवाया है।"

नीचे की तालिका में सत्यार्थ प्रकाश के प्रत्येक समुल्लास में वर्णित विषय इंगित के गए हैं:[३][४]

समुल्लास वर्ण्य विषय
प्रथम ईश्वर के ओंकारादि नामों की व्याख्या
द्वितीय सन्तानों की शिक्षा
तृतीय ब्रह्मचर्य, पठनपाठन व्यवस्था, सत्यासत्य ग्रन्थों के नाम और पढ़ने-पढ़ाने की रीति
चतुर्थ विवाह और गृहस्थाश्रम का व्यवहार
पञ्चम वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम की विधि
षष्ट राजधर्म
सप्तम वेद एवं ईश्वर
अष्टम जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय
नवम विद्या, अविद्या, बन्ध और मोक्ष की व्याख्या
दशम आचार, अनाचार और भक्ष्याभक्ष्य विषय
एकादशम आर्य्यावर्त्तीय मतमतान्तर का खण्डन मण्डन
द्वादशम चार्वाक, बौद्ध और जैन मत
त्रयोदशम ईसायत (बाइबल)
चतुर्दशम मुसलमानों का मत (कुरान)

संस्करण

स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना १८७५ में मूलतः हिन्दी में की थी। प्रथम संस्करण में कुछ छूट गया था और भाषा एवं प्रिन्टिंग की गलतियाँ थीं, इसलिए उन्होने इसका दूसरा संशोधित संस्करण १८८२ में निकाला। उसके बाद बड़ी तेजी से अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में इसके संस्करण प्रकाशित किए गए। इस समय सत्यार्थ प्रकाश २३ भाषाओं में अनूदित हो चुकी है।

S.No. भाषा लेखक/अनुवादक प्रकाशन वर्ष
हिन्दी (प्रथम संस्करण) स्वामी दयानन्द सरस्वती (लेखक) 1875 (अजमेर में)
१ क हिन्दी (द्वितीय संस्करण) स्वामी दयानन्द सरस्वती (लेखक) 1882
अंग्रेजी (अलग-अलग विद्वानों द्वारा ४ अनुवाद)

डॉ चिरंजीव भारद्वाज (अनुवादक) मास्टर दुर्गा प्रसाद (अनुवादक) पं गंगाप्रसाद उपाध्याय (अनुवादक) वन्देमातरम रामचन्द्र राव (अनुवादक)

1906, 1908, 1946, 1988

संस्कृत पण्डित शंकरदेव पाठक 1924 (प्रथम संस्करण)
4 उर्दू

1. आत्माराम अमृतसरी, भक्त रायमल तथा नौनिहाल 2. जीवनदास पेन्शनर, 3. पंडित चमूपति, 4. मेहता राधाकृष्ण

1.1898 2.1899 3.1939 4.1905

5 सिन्धी जीवनलाल आर्य 1912
6 पंजाबी आत्माराम अमृतसरी 1899
7 बंगाली 1. मोतीलाल भट्टाचार्य 2. शंकरनाथ 3. गौरमोहनदेव वर्मन 1.1901 2.1911 3.???
8 मराठी 1. श्रीदास विद्यार्थी 2. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर 3. स्नातक सत्यव्रत 4. श्रीपाद जोशी 1.1907 2.1926 3.1932 4.1990
9 तेलुगु 1.A. सोमनाथ राव "उपदेशक" 2. पं गोपदेव शास्त्री 1.1933 2.???
10 तमिल 1. एम आर जम्बूनाथन 2. कन्नैया (कन्हैया?) 3. सुधानद भारती 1.1926 2.1935 3.1974
11 मलयालम 1. ब्रह्मचारी लक्ष्मण (मूलतः पं वेदबन्धु शर्मा द्वारा) 2. आचार्य नरेन्द्र भूषण 1.1933 2.1978
12 गुजराती 1. मंचा शंकर, जयशंकर द्विवेदी 2. मायाशंकर शर्मा 3. दिलीप वेदालङ्कार 1.1905 2.1926 3.1994
13 कन्नड 1. भास्कर पन्त 2. सत्यपाल स्नातक 3. सुधाकर चतुर्वेदी 1.1932 2.1955 3.1974
14 नेपाली दिलूसिंह राई 1879
15 जर्मन 1. डॉ दौलतराम देवग्राम, बोरिखेल (मियाँवाली), 2. आर्य दिवाकर 1. 1930, 2. 1983
16 स्वाहिली
17 ओड़िया 1. श्रीवत्स पण्डा 2. लक्ष्मीनारायण शास्त्री 1.1927 2.1973
18 असमिया परमेश्वर कोटि 1975
19 अरबी कालीचरण शर्मा ???
20 बर्मी कित्तिमा ???
21 चीनी डॉ चाउ 1958
22 थाई
23 फ्रांसीसी लुइ मोरिन 1940

मुख्य सन्देश

इसके मुख्य संदेश पारम्परि्क हिन्दू रीति से अलग और कहीं-कहीं विरूद्ध भी हैं। ये इस प्रकार हैं -

  • ओ३म् परमात्मा का निज नाम है। सत्य होने की वजह से ब्रह्म, सर्वत्र व्यापक होने की वजह से विष्णु, कल्याणकारी होने से शिव, सारी प्रजा के उत्पादक होने की वजह से गणपति और प्रजापति, दुष्टदमन होने से रूद्र तथा सोम, अग्नि इत्यादि उसी एक परमात्मा के नाम हैं।
  • परमात्मा को कोई रंग या स्वरूप नहीं है। ईश्वर कोई अवतार, पैगम्बर या मसीहा नहीं भेजता। अपने कर्मों के कारण ही कोई आदरणीय बनता है। राम और कृष्ण आदरणीय महापुरुष थे, लेकिन इश्वरावतार नहीं। परमात्मा सर्वआनन्दमय - सच्चिदानन्द हैं।
  • देव का अर्थ होता है देने वाला (दान या कृपा) - अतः ऋषि, मुनि या कोई नदी जो कईयों का कल्याण करे, सूर्य, नक्षत्र आदि देव[५] हैं। लेकिन उपासना ईश्वर की ही करनी चाहिए जो इन सबो का कर्ता है। इसी से एकमात्र ईश्वर का ही नाम महादेव है। वेद मंत्रों को भी देव कहा गया है क्योंकि उनके आत्मसात करने से कल्याण होता है।
  • वर्ण व्यवस्था गुण और कर्म को लेकर होती है - जन्म से नहीं। राजा का बेटा आवश्यक नहीं कि क्षत्रिय ही हो। ये उसके बल, पराक्रम, इन्दि्रजित और कल्याणकारी गुण पर निर्भर है। इत्यादि..
  • मूर्तिपूजा वेदों (और उपनिषदों) में कहीं नहीं है। मूर्ति पूजन से लोग मूर्तिआश्रित हो जाते हैं और पुरुषार्थ के लिए प्रेरित नहीं रहते। सिर्फ पुरुषार्थ से ही जीवों का कल्याण हो सकता है।
  • जीव (आत्मा, पुरुष), प्रकृति और परमात्मा तीनों एक दूसरे से पृथक हैं। परमात्मा जीवों पर नियंत्रण नहीं करता - लोग अपने कार्य के लिए स्वतंत्र हैं। परिणाम अपने कार्य के अनुसार ही होगा - परमात्मा की ईच्छा के अनुसार नहीं।
  • मोक्ष प्राप्ति के लिए अष्टांग योग, उत्तम कर्म, पवित्रता, यज्ञ (पदार्ध यज्ञ, दान, त्याग और निष्काम कर्म) सत्य का साथ और मिथ्या को दूर छोड़ना, विद्वान पुरुषों का संग, विवेक (सत्य और असत्य का विवेचन) इत्यादि कर सकते हैं।
  • ईश्वर उपासना करने से अपराध क्षमा नहीं करता - कई हिन्दू (और इस्लामी तथा अन्य) मतों में ईश्वर पूजन के लिए ये प्रसतुत किया जाता है पर पुस्तक के अनुसार ईश्वर सिर्फ सत्यज्ञान दे सकता है। अपराध क्षमा करना (जैसे हरि या बिसमिल्लाह बोलकर) ईश्वर जैसे न्यायकारी शक्ति के अनुकूल नहीं है।
  • श्राद्ध, तर्पण आदि कर्म जीवित श्रद्धापात्रों (माता पिता, पितर, गुरु आदि) के लिए होता है, मृतकों के लिए नहीं।
  • तीर्थ दुख ताड़ने का नाम है - किसी सागर या नदी-सरोवर में नहाने का नहीं। इसी प्रकार आत्मा के (मोक्ष पश्चात) सुगम विचरण को स्वर्ग और पुनर्जन्म के बंधन में पड़ने को नरक कहते है - ऐसी कोई दूसरी या तीसरी दुनिया नहीं है।
  • इस्लाम और ईसाई धर्मों का खण्डन - कोई पैग़म्बर या मसीहा नहीं भेजा जाता है। ईश्वर को अपना सामर्थ्य जताने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वो सच्चिदानंद है। स्वर्ग, नरक, जिन्न आदि का भी खण्डन।

प्रभाव

स्वामी दयानन्द का मत कई (अन्ध) विश्वासों और मतों का खण्डन करना और वेदों के मत को पुनःप्रकाश में लाने का था। इसलिए कई बार उन्हें प्रचलित हिन्दू , जैन, बौद्ध, इस्लामी और ईसाई मतों की मान्यताओं का खण्डन करना पड़ा। अवतारवाद, शंकराचार्य को शिव का अवतार, राम और कृष्ण को विष्णु नामक सार्वभौम का अवतार मानने वाले कई थे। इसी प्रकार तीर्थ, बालविवाह और जन्म संबंधी जाति (वर्ण व्यवस्था का नया रूप) जैसी व्यवस्थाओं का उन्होंने सप्रमाण खण्डन किया। इससे कई सुधार हिन्दू समाज में आए। कई विश्वास इस्लामी समाज का भी बदला। कुछ इस प्रकार हैं -

  • सत्यार्थप्रकाश और ऋषि दयानन्द की जीवनी स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारियों की प्रिय पुस्तक बनी। एक अंग्रेज विद्वान शेरोल ने यहाँ तक कहा कि सत्यार्थप्रकाश ब्रिटिश सरकार कि जड़ें उखाड़ने वाला ग्रंथ है। वस्तुतः सत्यार्थप्रकाश उस समय कि कालजयी कृति थी और इस  कालजयी कृति में अंग्रेजों का विरोध भी था जिससे अंग्रेज सरकार को काफी नुकसान हुआ।
  • हिन्दुओ के धर्मान्तरण पर रोक लगी और मुसलमानों, ईसाई आदि विधर्मियों की शुद्धि (घर वापसी ) हुई।
  • श्रीकृष्ण के ऊपर लगाए हुए गंदे आरोप और लांछन दूर हुए एवं श्रीकृष्ण का यथार्थ  सत्यस्वरूप प्रकाशित हुआ।  
  • सत्यार्थप्रकाश ने स्त्री-जाति को  पैरों से उठाकर जगदम्बा के सिंहासन पर बैठा दिया।  
  • मूर्तिपूजा का स्वरूप बदल गया , पहले मूर्ति को ही  ईश्वर मान चुके थे , अब मूर्तिपूजक भाई बंधू  मूर्तिपूजा  की विभिन्न मनोहारी  व्याख्याएं करने का असफल प्रयास करते हैं।  
  • विनायक दामोदर सावरकर के शब्दों में,  "सत्यार्थप्रकाश ने हिन्दू जाति कि ठंडी रगों में उष्ण रक्त का संचार किया। "
  • सत्यार्थप्रकाश से हिन्दी भाषा का महत्व बढ़ा।
  • अकेले सत्यार्थप्रकाश ने अनेकों क्रन्तिकारी और समाज सुधारक पैदा कर दिए।
  • सत्यार्थप्रकाश ने वेदों का महत्त्व बढ़ा दिया, वेद कि प्रतिष्ठा को हिमालय कि चोटी पर स्थापित कर दिया।
  • सत्यार्थप्रकाश का प्रभाव विश्वव्यापी हुआ , बाइबिल , कुरान , पुराण , जैन आदि सभी ग्रंथो की बातें बदल गयी , व्याख्याएं बदल गयी। सत्यार्थप्रकाश ने धर्म के क्षेत्र में मानो सम्पूर्ण पृथ्वी पर हलचल मचा दी हो।
  • फरवरी १९३९ में कलकत्ता से छपने वाले एपिफेनी वीकली में स्वर्ग और नरक की अवधारणी बदली। साप्ताहिक पत्र लिखता है - "What are hell and heaven? ..Hell and heaven are spiritual states; heaven is enjoyment of the presence of God, and Hell Banishment from it". इस पर आर्य विचारधारा (सत्यार्थ प्रकाश जिसकी सबसे प्रमुख पुस्तक है) का प्रभाव दिखता है।
  • कुरान के भाष्य 'फ़तह उल हमीद' (प्रशंसा से जीत) ने मुसलमानों के कब्र, पीर या दरगाह निआज़ी को ग़लत बताया। इसी पर मौलाना हाली ने मुसलमानों की ग़ैरमुसलमानों की मूर्ति पूजा पर ऐतराज जताते हुए कहा कि मुसलमानों को नबी को खुदा मानना और मज़ारों पर जाना भी उचित नहीं है।
  • पुराणों, साखियों, भागवत और हदीसों की मान्यता घट गई है। उदाहरणार्थ, जबलपुर में सन् १९१५ में आर्य समाजियों के साथ शास्त्रार्थ में मौलाना सनाउल्ला ने हदीसों से पल्ला झाड़ लिया।[६]

हिन्दी साहित्य में सत्यार्थ प्रकाश

यद्यपि स्वामी दयानन्द की मातृभाषा गुजराती थी और संस्कृत का इतना ज्ञान था कि संस्कृत में धाराप्रवाह बोल लेते थे, तथापि इस ग्रन्थ को उन्होंने हिन्दी में रचा। कहते हैं कि जब स्वामी जी 1872 में कलकत्ता में केशवचन्द्र सेन से मिले तो उन्होंने स्वामी जी को यह सलाह दी कि आप संस्कृत छोड़कर हिन्दी बोलना आरम्भ कर दें तो भारत का असीम कल्याण हो। तभी से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा हिन्दी हो गयी और शायद इसी कारण स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश की भाषा भी हिन्दी ही रखी। स्वामी जी पूरे देश में घूम-घूमकर शास्त्रार्थ एवं व्याख्यान कर रहे थे। इससे उनके अनुयायियों ने अनुरोध किया कि यदि इन शास्त्रार्थों एवं व्याख्यानों को लिपिबद्ध कर दिया जाय तो ये अमर हो जायेंगे। सत्यार्थ प्रकाश की रचना उनके अनुयायियों के इस अनुरोध के कारण ही सम्भव हुई।

हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने अपने ग्रंथों में सत्यार्थ प्रकाश को हिंदी के उन प्रारंभिक ग्रंथों में माना है, जिनके गद्य की शैली को बाद में सभी ने परम्परा के रूप में ग्रहण किया। सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन से पहले हिंदी गद्य की भाषा ब्रजभाषा और अवधी से बहुत अधिक प्रभावित थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में माना है कि 1868 से 1893 का कालखंड हिंदी गद्य के विकास का समय था। डॉ. चंद्रभानु सीताराम सोनवणे ने हिंदी गद्य साहित्य में लिखा है कि सत्यार्थ प्रकाश आधुनिक हिंदी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ है। हिन्दी को नई चाल में ढालने में स्वामी दयानन्द सरस्वती का स्थान भारतेंदु हरिश्चंद्र से कम नहीं है।[७]

सन्दर्भ

  1. साँचा:cite book
  2. 136 साल पहले उदयपुर में लिखा गया था आधुनिक हिंदी का पहला ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’
  3. सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका
  4. साँचा:cite web
  5. इसमें शतपथ ब्राह्मण में लिखे उस वाक्य का प्रमाण दिया जाता है, त्रस्तिंशत देवा... - जिसका अर्थ होता हैं तैतीस प्रकार के देव, यानि भला करने वाले। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, प्राण, अपान, उदान समेत दस रूद्र, आत्मा और विद्युत (इन्द्र नाम से) इनको तैेतीस प्रकार (कोटि) के देव कहा गया है। तथापि इनकी उपासना का निषेध है, उपासना सिर्फ हम सबको बनाने वाले ईश्वर की करनी चाहिए। ध्यान दीजिये कि प्रचलित समाज आत्मा को ईश्वरकृत माना जाता है, पर आर्य समाज आत्मा को ईश्वर कृति नहीं मानता है।
  6. सत्यार्थ प्रकाश क्या और क्यों। राजेन्द्र जिज्ञासु। पृष्ठ ४७
  7. 136 साल पहले उदयपुर में लिखा गया था आधुनिक हिंदी का पहला ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’

बाहरी कड़ियाँ

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