राष्ट्र संघ

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राष्ट्र संघ
राष्ट्र संघ का प्रतीक
राष्ट्र संघ का प्रतीक
मुख्यालय जिनेवा, स्विट्जरलैंड
सदस्य वर्ग
अधिकारी भाषाएं अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, और स्पेनी
अध्यक्ष महासचिव
जालस्थल {{{जालस्थल}}}

राष्ट्र संघ (लीग ऑफ़ नेशन्स) पेरिस शान्ति सम्मेलन के परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्ववर्ती के रूप में गठित एक अन्तरशासकीय संगठन था। 28 सितम्बर 1934 से 23 फरवरी 1935 तक अपने सबसे बड़े प्रसार के समय इसके सदस्यों की संख्या 58 थी। इसके प्रतिज्ञा-पत्र में जैसा कहा गया है, इसके प्राथमिक लक्ष्यों में सामूहिक सुरक्षा द्वारा युद्ध को रोकना, निःशस्त्रीकरण, तथा अन्तरराष्ट्रीय विवादों का बातचीत एवं मध्यस्थता द्वारा समाधान करना शामिल थे।[१] इस तथा अन्य सम्बन्धित सन्धियों में शामिल अन्य लक्ष्यों में श्रम दशाएँ, मूल निवासियों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार, मानव एवं दवाओं का अवैध व्यापार, शस्त्र व्यपार, वैश्विक स्वास्थ्य, युद्धबन्दी तथा यूरोप में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा थे।[२] राष्ट्र संघ के उद्देश्य एक आपसी विवाद सुलझाना शिक्षा की व्यवस्था करना दो सभी राष्ट्रों के भौतिक व मानसिक सहयोग ओपन देना 3:00 पर शांति समझौते के द्वारा सौंपे गए कर्तव्य को पूरा करना राशन के राशन के तीन प्रमुख अंग थे असेम्बली काउंसिल सचिवालय इसके अलावा इसके 201 अंक थे अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन राष्ट्र संघ की स्थापना के उद्देश्य तो विश्व समुदाय के अच्छे थे लेकिन यह माँ शक्तियों के असहयोग और मनमानी गतिविधियों के कारण मात्र एक औपचारिक संगठन ही बनकर रह गया अपने उद्देश्य में इसे सफलता संघ के पीछे कूटनीतिक दर्शन ने पूर्ववर्ती सौ साल के विचारों में एक बुनियादी बदलाव का प्रतिनिधित्व किया। चूंकि संघ के पास अपना कोई बल नहीं था, इसलिए इसे अपने किसी संकल्प का प्रवर्तन करने, संघ द्वारा आदेशित आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने या आवश्यकता पड़ने पर संघ के उपयोग के लिए सेना प्रदान करने के लिए महाशक्तियों पर निर्भर रहना पड़ता था। हालाँकि, वे अक्सर ऐसा करने के लिए अनिच्छुक रहते थे।

प्रतिबन्धों से संघ के सदस्यों को हानि हो सकती थी, अतः वे उनका पालन करने के लिए अनिच्छुक रहते थे। जब द्वित्तीय इटली-अबीसीनिया युद्ध के दौरान संघ ने इटली के सैनिकों पर रेडक्रॉस के मेडिकल तंबू को लक्ष्य बनाने का आरोप लगाया था, तो बेनिटो मुसोलिनी ने पलट कर जवाब दिया था कि “संघ तभी तक अच्छा है जब गोरैया चिल्लाती हैं, लेकिन जब चीलें झगड़ती हैं तो संघ बिलकुल भी अच्छा नहीं है”.[३]

1920 के दशक में कुछ आरम्भिक विफलताओं तथा कई उल्लेखनीय सफलताओं के बाद 1930 के दशक में अन्ततः संघ धुरी राष्ट्रों के आक्रमऩ को रोकने में अक्षम सिद्ध हुआ। मई 1933 में, एक यहूदी फ्रांज बर्नहीम ने शिकायत की कि ऊपरी सिलेसिया के जर्मन प्रशासन द्वारा एक अल्पसंख्यक के रूप में उसके अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा था जिसने यहूदी-विरोधी कानूनों के प्रवर्तन को कई वर्ष तक टालने के लिए जर्मनों को प्रेरित किया था, जब तक कि 1937 में सम्बन्धित सन्धि समाप्त नहीं हो गई, उसके बाद उन्होंने संघ के प्राधिकार का आगे पुनर्नवीकरण करने से इंकार कर दिया और यहूदी-विरोधी उत्पाड़न को पुनर्नवीकृत कर दिया। [४]

हिटलर ने दावा किया कि ये धाराएँ जर्मनी की सम्प्रभुता का उल्लंघन करती थी। जर्मनी संघ से हट गया, जल्दी ही कई अन्य आक्रामक शक्तियों ने भी उसका अनुसरण किया। द्वित्तीय विश्व युद्घ की शुरुआत से पता चला कि संघ भविष्य में युद्ध न होने देने के अपने प्राथमिक उद्देश्य में असफल रहा था। युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसका स्थान लिया तथा संघ द्वारा स्थापित कई एजेंसियाँ और संगठन उत्तराधिकार में प्राप्त किए।

संघ के स्रोत

एक कार्ड जिसके केंद्र में राष्ट्रपति विल्सन की गंभीर मुद्रा में एक श्वेत-श्याम तस्वीर है जो चारों ओर किनारों पर अंकित राष्ट्र संघ के लिए उनके महत्त्व को दर्शाती है।
A commemorative card depicting President of the United States Woodrow Wilson and the "Origin of the League of Nations"

राष्ट्रों के एक शांतिपूर्ण समुदाय की अवधारणा की रूपरेखा तो बहुत पहले 1795 में बह गई थी, जब इम्मानुअल कैण्ट की परपेचुअल पीसः ए फिलोसोफिकल स्केच[५] में एक राष्ट्रों के संघ के विचार की रूपरेखा रखी थी, जो राष्ट्रों के बीच संघर्षों को नियंत्रित करे और शांति को प्रोत्साहित करे.साँचा:sfn वहीं कैंट ने एक शांतिप्रिय विश्व समुदाय की स्थापना के लिए तर्क दिया कि यह इस अर्थ में नहीं होगा कि कोई वैश्विक सरकार बने, बल्कि इस आशा के साथ कि प्रत्येक राष्ट्र खुद को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करेगा, जो अपने नागरिकों का सम्मान करे और विदेशी पर्यटकों का एक तर्कसंगत साथी प्राणी के रूप में स्वागत करे. यह इस युक्तिकरण में है कि स्वतंत्र राष्ट्रों का एक संघ होगा जो वैश्विक रूप से एक शांतिपूर्ण समाज को प्रोत्साहित करेगा, इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय समुदायों के बीच एक अनवरत शांति कायम हो सकेगी.[६]

सामूहिक सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए यूरोप समारोह में उत्पन्न अंतर्राष्ट्रीय सहयोग नेपोलियन युद्धों के बाद उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय राष्ट्रों के बीच यथास्थिति को बनाए रखने और युद्ध को टालने के लिए विकसित हुआ।साँचा:sfnसाँचा:sfn इस अवधि में पहले जिनेवा सम्मेलन में भी युद्ध के दौरान मानवीय सहायता के लिए कानून स्थापित होने तथा 1899 और 1907 के अंतर्राष्ट्रीय हेग सम्मेलन में युद्ध के बारे में तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों के शांतिपूर्ण हल के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का विकास हुआ।साँचा:sfnसाँचा:sfn

शांति कार्यकर्ताओं विलियम हैंडल क्रीमर और फ्रेड्रिक पासी ने 1889 में राष्ट्र संघ के पूर्ववर्ती अंतर्संसदीय संघ (आईपीयू (IPU)) का गठन किया था। यह संगठन विस्तार में अंतर्राष्ट्रीय था जिसमें 24 देशों की संसदों के एक तिहाई सदस्य शामिल थे, जो 1914 तक आईपीयू (IPU) के सदस्यों के रूप में कार्यरत थे। इसका उद्देश्य सरकारों को अंतरराष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्ण तरीकों और मध्यस्थता के माध्यम से हल करने के लिए प्रोत्साहित करना था और सरकारों द्वारा अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की प्रक्रिया को निखारने के लिए वार्षिक सम्मेलन आयोजित किए गए। आईपीयू (IPU) की संरचना में एक अध्यक्ष की अध्यक्षता में एक परिषद शामिल थी जो बाद में राष्ट्रसंघ की संरचना में भी परिलक्षित हुई। [७]

बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में यूरोप की महाशक्तियों के बीच गठबंधन के माध्यम से दो शक्ति केंद्र उभरे थे। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ होने के समय ये गठबंधन प्रभावी हुए थे, जिसके कारण यूरोप की सभी बड़ी शक्तियां इस युद्ध में शामिल हो गई थी। औद्योगिक राष्ट्रों के बीच यूरोप में यह पहला बड़ा युद्ध था और यह पहला मौका था कि पश्चिमी यूरोप में औद्योगीकरण के् परिणामों (उदाहरण के लिए व्यापक स्तर पर उत्पादन) को युद्ध को समर्पित किया गया था। इस औद्योगिक युद्ध के परिणामस्वरूप हताहतों की संख्या अभूतपूर्व थी, जहं 85 लाख सशस्त्र सेनाओं के सलस्य मारे गए थे और अनुमानतः 2 करोड़ 10 लाख लोग घायल हुए थे तथा करीब एक करोड़ नागिरक मारे गए थे।साँचा:sfnसाँचा:sfn

1918 में जब तक युदध समाप्त हुआ युद्ध ने बहुत गहरे प्रभाव छोड़े थे, पूरे यूरोप में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तंत्रों को प्रभावित किया था तथा उप महाद्वीप को मनोवैज्ञानिक और शारीरिक क्षति पहुंचाई थी। साँचा:sfn दुनिया भर में युद्ध विरोधी भावना उभरी, प्रथम विश्व युद्ध को “सभी युद्धों का अंत करने वाला युद्ध” बताया गया था।साँचा:sfnसाँचा:sfn पहचाने गए कारणों में हथियारों की दौड़, गठबंधन, गुप्त कूटनीति और संप्रभु राष्ट्र की स्वतंत्रता शामिल थे जिनकी वजह से वे अपने हित में युद्ध में गए थे। इनके उपचारों के रूप में एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन की रचना को देखा गया जिसका उद्देश्य निरस्त्रीकरण, खुली कूटनीति, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, युद्ध छेड़ने के अधिकार पर रोक तथा ऐसे दंड जो युद्ध को राष्ट्रों के लिए अनाकर्षक बना दे, था।साँचा:sfn

जबकि प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था फिर भी, बहुत सी सरकारों और समूहों ने पहले से ही युद्ध की पुनरावृत्ति को रोकने की दृष्टि से, जिस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय संबंध चल रहे थे, उनको बदलने की योजनाएं बनाना शुरू कर दिया था।साँचा:sfn संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति वूड्रो विल्सन और उनके सलाहकार कर्नल एडवर्ड एम हाउस ने उत्साह से प्रथम विश्व युद्ध में देखे गए रक्तपात की पुनरावृत्ति को रोकने के एक माध्यम के रूप में संघ के विचार को प्रोत्साहित किया और संघ बनाना विल्सन के चौदह सूत्री शांति कार्यक्रम का केंद्र था।साँचा:sfn विशेष रूप से अंतिम बिंदु में प्रावधान थाः "बड़े और छोटे राष्ट्रों के लिए समान रूप से राजनीतिक स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता की परस्पर गारंटी देने के उद्देश्य से विशिष्ट कानूनों के अंतर्गत राष्ट्रों का एक महासंघ बनाया जाना चाहिए.”[८]

अपने शांति सौदे की विशेष शर्तों का मसौदा तैयार करने से पूर्व विल्सन ने यूरोप की भू-राजनैतिक स्थिति का आकलन करने के लिए जो भी जानकारी आवश्यक हो उसे संकलित करने के लिए कर्नल हाउस के नेतृत्व में एक दल का गठन किया। जनवरी 1918 के आरंभ में विल्सन ने हाउस को वॉशिंगटन बुलाया और दोनों पूर्ण गोपनीयता के साथ गहन मंत्रणा में लग गए, 8 जनवरी 1918 को राष्ट्रपति द्वारा अनजान कांग्रेस को राष्ट्र संघ पर पहला भाषण दिया गया।[९]

विल्सन की संघ के लिए अंतिम योजनाएं दक्षिण अफ्रीकी प्रधानमंत्री यैन क्रिस्टियन स्मट्स से अत्यधिक प्रभावित थी। 1918 में स्मट्स ने राष्ट्र संघः एक व्यावहारिक सुझाव शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था। एप एस क्राफोर्ड द्वारा लिखी स्मट्स की आत्मकथा के अनुसार विल्सन ने स्मट्स के “विचार और शैली दोनों” को अपनाया था।साँचा:sfn

8 जुलाई 1919 को, वुडरो विल्सन संयुक्त राज्य अमेरिका लौटे और उनके देश के संघ में प्रवेश के लिए अमेरिकी लोगों का समर्थन सुनिश्चित करने के लिए एक देशव्यापी अभियान में लग गए। 10 जुलाई 10 को, विल्सन ने सीनेट को संबोधित करते हुए घोषणा की कि "एक नई भूमिका और एक नई जिम्मेदारी इस महान राष्ट्र के सामने आई है, जिसको हम आशा करते हैं कि हम सेवा और उपलब्धि के और उच्च स्तर तक ले जाएंगे.” सकारात्मक स्वागत, खास कर रिपब्लिकनों की तरफ से, अति दुर्लभ.[१०]

प्रथम विश्व युद्ध के बाद स्थाई शांति कायम करने के लिए बुलाए गए पेरिस शांति सम्मेलन ने 25 जनवरी 1919 को राष्ट्र संघ बनाने के प्रस्तावसाँचा:lang-frसाँचा:lang-de का अनुमोदन कर दिया। साँचा:sfn राष्ट्र संघ के नियमों का मसौदा एक विशेष आयोग द्वारा तैयार किया गया था और वरसाई की संधि के भाग। द्वारा संघ की स्थापना हुई। 28 जून 1919 को साँचा:sfnसाँचा:sfn उन 31 राष्ट्रों सहित जिन्होंने तिहरे अटांट की ओर से युद्ध में भाग लिया था या संघर्ष के दौरान शामिल हुए थे, सहित 44 राष्ट्रों ने नियमों पर हस्ताक्षर किए। विल्सन के संघ को स्थापित करने और बढ़ावा देने के प्रयासों के बावजूद जिसके लिए उन्हें अक्टूबर 1919 में नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया था,साँचा:sfn संयुक्त राज्य अमेरिका संघ में शामिल नहीं हुआ। अमेरिकी सीनेट में विपक्ष, खासकर रिपब्लिकन राजनीतिज्ञों हेनरी कैबो लॉज और विलियम ई बोराह दोनों ने साथ मिल कर विल्सन के समझौता करने से इंकार करने पर, यह सुनिश्चित किया कि अमेरिका को इस कानून को पारित नहीं करना चाहिए।

संघ की पहली परिषद बैठक वरसाई संधि के प्रभावी होने के छः दिन बाद 16 जनवरी 1920 को पेरिस में हुई। साँचा:sfn नवंबर में संघ का मुख्यालय जिनेवा स्थानांतरित किया गया जहां 15 नवम्बर 1920 को इसकी पहली आम सभा की बैठक हुई,साँचा:sfn इसमें 41 राष्ट्रों के प्रतिनिधि उपस्थित थे।

भाषाएं एवं चिह्न

राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएं फ्रांसीसी, अंग्रेजीसाँचा:sfn और स्पैनिश (1920 से) थीं। संघ ने एस्पेरान्तो को अपने कामकाज की भाषा बनाने और इसके उपयोग को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करने के बारे में सोचा था, किंतु दोनों में से कोई सा विकल्प कभी अपनाया नहीं गया।साँचा:sfn 1921 में लॉर्ड रॉबर्ट सेसिल ने प्रस्ताव रखा कि सदस्य देशों के सरकारी स्कूलों में एस्पेरांतो को शुरू किया जाए और इसकी जांच के लिए एक रिपोर्ट अधिकृत की गई।साँचा:sfn जब दो वर्ष बाद रिपोर्ट प्रस्तुत की गई तो इसमें विद्यालयों में एस्पेरान्तो के शिक्षण की सिफारिश की गई थी, इस प्रस्ताव को 11 प्रतिनिधियों ने स्वीकार कर लिया।साँचा:sfn सर्वाधिक कड़ा विरोध फ्रांसीसी प्रतिनिधि गैब्रियल अनॉटू की ओर से आया, आंशिक रूप से फ्रांसीसी भाषा को बचाने के लिए जिसके लिए उसने तर्क दिया कि वह पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय भाषा थी।साँचा:sfn इस विरोध का मतलब यह हुआ कि उस अनुभाग को जिसमें स्कूलों में एस्पेरांतो को स्वीकार किया गया था, छोड़कर रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया।साँचा:sfn

राष्ट्र संघ का न तो कोई आधिकारिक झंडा था और न लोगो. एक आधिकारिक चिह्न अपनाने के लिए प्रस्ताव 1920 में संघ की शुरुआत में किए गए थे किंतु सदस्य राष्ट्र कभी सहमति पर नहीं पहुंच सके। [११] जरूरत पड़ने पर राष्ट्र संघ के संगठनों ने विभिन्न झंडों और लोगो (या किसी का भी नहीं) का अपने अभियानों में उपयोग किया।[११] 1929 में एक डिजाइन खोजने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता आयोजित की गई थी, जो चिह्न देने में फिर से असफल रही। [११] इस विफलता का एक कारण यह रहा होगा कि सदस्य राष्ट्रों को यह डर था कि इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन की शक्ति कहीं उनकी अपनी शक्ति से अधिक न हो जाए.[११]

अंत में, 1939 में, एक अर्द्ध आधिकारिक चिह्न उभर कर आया: एक नीले पंचभुज के अंदर दो पंचकोणीय सितारे.[११] वे पृथ्वी के पांच महाद्वीपों और पांच नस्लों के प्रतीक थे।[११] शीर्ष पर एक धनुष तथा नीचे अंग्रेजी (लीग ऑफ नेशन्स) तथा प्रांसीसी (Société des Nations) में नाम दर्शाया गया था।[११] इस झंडे का उपयोग 1939 और 1940 में न्यू यॉर्क विश्व मेले की इमारत पर किया गया था।

संघ के पास एक बहुत सक्रिय डाक विभाग था। बड़ी संख्या में मुख्यालय से, विशेष एजेंसियों से और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में डाक भेजी जाती थी। कई मामलों में विशेष लिफाफों या अधिमुद्रित डाक टिकटों का उपयोग किया गया।[१२]

प्रधान अंग

]], जिनेवा, 1929 से इसके बड़े सफेद कोर्ट ऑफ इंटरनेशनल जस्टिस तक]] और राष्ट्र संघ के नेता

संघ के मुख्य संवैधानिक अंग थे: श्रम संगठन.

नियम कमोबेश तकनीकी चरित्र के उपलक्षित होते थे। इसलिए, संघ की अनेक एजेंसियां और आयोग थे।

सभा

सभा में संघ के सभी सदस्यों के प्रतिनिधि शामिल थे। प्रत्येक राष्ट्र को तीन प्रतिनिधियों तक अनुमति थी और मताधिकार एक था।[१३] सभा की बैठक जेनेवा में हुई और 1920 में इसके प्रारंभिक सत्रों के बादसाँचा:sfn इसके सत्र साल में एक बार सितंबर में होते थे।[१३] एक सदस्य के अनुरोध पर सभा का विशेष सत्र बुलाया जा सकता था, बशर्ते सदस्यों का बहुमत सहमति दे देता.

सभा के विशेष कार्यों में नए सदस्यों का प्रवेश, परिषद के गैर-स्थायी सदस्यों के आवधिक चुनाव, स्थाई न्यायालय के न्यायाधीशों की परिषद के चुनाव और बजट का नियंत्रण शामिल थे। व्यवहार में सभा संघ की गतिविधियों की सामान्य निदेशक शक्ति बन गई थी।

परिषद

संघ परिषद सभा के क्रियाकलापों का निदेशन करने वाले एक कार्यकारी निकाय के रूप में कार्य करती थी।साँचा:sfn परिषद चार स्थायी सदस्यों (ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और जापान) तथा चार अस्थायी सदस्यों, जो कि सभा द्वारा तीन साल के लिए निर्वाचित किए जाते थे।साँचा:sfn पहले चार गैर-स्थायी सदस्य थे बेल्जियम, ब्राजील, ग्रीस और स्पेन. संयुक्त राज्य अमेरिका को पांचवां स्थाई सदस्य माना जाता था लेकिन अमेरिकी सीनेट ने 19 मार्च 1920 को वरसाई संधि की पुष्टि के विरोध में मतदान किया, इस प्रकार अमेरिका को संघ में शामल होने से रोक दिया।

परिषद की संरचना तदनंतर कई बार बदलती रही थी। 22 सितम्बर 1922 को गैर स्थायी सदस्यों की संख्या पहली बार चार से बढ़ कर छह हुई है तथा 8 सितंबर 1926 को बढ़कर नौ होगई। जर्मनी की वर्नर डैंकवर्ट ने अपने गृह राष्ट्र जर्मनी पर संघ में शामिल होने के लिए दबाव डाला और वह 1926 में शामिल हो भी गया। जर्मनी परिषद का पांचवां स्थायी सदस्य बना, परिषद के सदस्यों की कुल संख्या पंद्रह हो गई। बाद में, जर्मनी और जापान दोनों के संघ को छोड़ देने के बाद, अस्थायी सीटों की संख्या नौ से बढ़ा कर ग्यारह कर दी गई।

परिषद की बैठकें औसतन एक साल में पांच बार तथा असाधारण सत्र जरूरत पड़ने पर होता था। 1920 और 1939 के बीच कुल 107 सार्वजनिक सत्र आयोजित किए गए थे।

अन्य निकाय

संघ अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय और अंतरराष्ट्रीय दबाव की समस्याओं से निपटने के लिए बनाई गई कई अन्य एजेंसियों तथा आयोगों के कार्यों का पर्यवेक्षण करता था। इन में शामिल थे निरस्त्रीकरण आयोग, स्वास्थ्य संगठन, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, जनादेश आयोग, अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक सहयोग पर आयोग (यूनेस्को (युनेस्को) का पूर्ववर्ती), स्थायी केंद्रीय अफीम बोर्ड, शरणार्थी आयोग और दासता आयोग.

इन में से कई संस्थानों को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ को स्थानांतरित कर दिया गया के लिए, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, अंतर्राष्ट्रीय न्याय का स्थायी न्यायालय, (अंतर्राष्ट्रीय न्याय न्यायालय के रूप में) और स्वास्थ्य संगठन (संगठन स्वास्थ्य पुनर्गठन के रूप में विश्व) सभी बने संयुक्त राष्ट्र के संस्थान.

अंतरराष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय

अंतरराष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय के लिए नियम द्वारा प्रदान किया गया था, लेकिन इसके द्वारा स्थापित नहीं किया गया। परिषद और सभा ने अपने संविधान की स्थापना की। इसके न्यायाधीश परिषद और सभा द्वारा चुने गए थे और इसका बजट सभा द्वारा प्रदान किया जाता था। न्यायालय की संरचना में ग्यारह न्यायाधीशों और चार उप-न्यायाधीशों को नौ साल के लिए निर्वाचित किया गया था। संबंधित पक्षों द्वारा प्रस्तुत किए गए किसी भी अंतरराष्ट्रीय विवाद को सुनने और फैसला करने में न्यायालय सक्षम रहा था। परिषद या सभा की ओर से भेजे गए किसी भी विवाद या प्रश्न पर यह अपना परामर्शी मत दे सकता था। कोर्ट कुछ व्यापक परिस्थितियों में दुनिया के सभी देशों के लिए खुला था। तथ्य संबंधी प्रश्नों के साथ ही कानून के प्रश्न भी प्रस्तुत किये जा सकते थे।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ (ILO)) का गठन 1919 में वरसाई संधि के भाग तेरह के आधार पर किया गया था और यह संघ के संचालन का हिस्सा बन गया।साँचा:sfn

आईएलओ में हालांकि वही सदस्य थे जो संघ में थे और सभा के बजट नियंत्रण के अधीन यह अपने ही शासकीय निकाय, अपने स्वयं के आम सम्मेलन और अपने स्वयं के सचिवालय के साथ एक स्वायत्त संगठन था। इसका संविधान संघ से अलग था, इसमें न केवल सरकारों को बल्कि कर्मचारी एवं श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधियों को प्रतिनिधित्व दिया गया था।

इसके पहले निदेशक अल्बर्ट थॉमस थे।साँचा:sfn आईएलओ ने पेंट में सीसा मिलाए जाने को सफलतापूर्वक प्रतिबंधित किया थासाँचा:sfn और अनेक देशों को आठ घंटे का कार्य दिवस और अड़तालीस घंये का सार्य सप्ताह अपनाने के लिए कायल किया था। इसने बालश्रम खत्म करने, कार्यस्थलों पर महिलाओं के अधिकारों में वृद्धि करने तथा जहाजकर्मियों के कारण होने वाली दुर्घटनाओं के लिए जहाज मालिकों को जिम्मेदार ठहराने के काम भी किए। साँचा:sfn संगठन 1946 में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक एजेंसी बन कर संघ के समाप्त होने के बाद भी अस्तित्व में बना रहा। [१४]

स्वास्थ्य संगठन

संघ के स्वास्थ्य संगठन के तीन निकाय थे, संघ के स्थाई अधिकारियों से युक्त एक स्वास्थ्य ब्यूरो, एक चिकित्सा विशेषज्ञों से युक्त कार्यकारी खंड आम सलाहकार परिषद या सम्मेलन और एक स्वास्थ्य समिति. समिति का उद्देश्य जांच आयोजित करना, संघ के स्वास्थ्य कार्यों के संचालन की निगरानी करना और परिषद में प्रस्तुत करने के लिए काम तैयार करवाना था।साँचा:sfn इस निकाय ने कुष्ठ रोग, मलेरिया तथा पीले बुखार को, बाद वाले दोनों के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय मच्छर उन्मूलन अभियान शपरू करके, समाप्त करने पर ध्यान केंद्रित किया। स्वास्थ्य संगठन ने संघ सोवियत सरकार के साथ भी सन्निपात की महामारी को रोकने के लिए बीमारी के बारे में बड़ा शिक्षा अभियान आयोजित करके सफलतापूर्वक काम किया था।साँचा:sfn

Alt = एक दर्जन से अधिक बच्चों की एक पंक्ति दूरी में फैली हुई है।. वे लकड़ी के करघों को पकड़े बैठे हैं जिनमें से प्रत्येक में से दो धागे निकले हुए हैं। एक आदमी उनके पीछे कुछ लकड़ी के ढांचों के सामने खड़ा है।

बौद्धिक सहयोग पर समिति

राष्ट्र संघ ने अपने निर्माण के बाद से ही अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक सहयोग के सवाल पर गंभीरता से ध्यान समर्पित किया था। पहली सभा (1920 दिसम्बर) ने सिफारिश की थी कि परिषद बौद्धिक कार्य के अंतरराष्ट्रीय संगठन को लक्ष्य करके कार्रवाई करे. परिषद ने द्वितीय सभा की पांचवीं समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को अपनाया और अगस्त 1922 में जिनेवा में बौद्धिक सहयोग पर एक प्रतिष्ठित समिति को आमंत्रित किया।

समिति के काम के कार्यक्रम में शामिल थे: बौद्धिक जीवन की स्थितियों में जांच, जिन देशों का बौद्धिक जीवन खतरे में था उनको सहायता, बौद्धिक सहयोग के लिए राष्ट्रीय समितियों का गठन, अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक संगठनों के साथ सहयोग, बौद्धिक संपदा की रक्षा, अंतर - विश्वविद्यालय सहयोग, के संरक्षण के साथ सहयोग के लिए राष्ट्रीय समितियों के निर्माण के लिए सहायता, ग्रन्थसूची के काम और प्रकाशनों के अंतरराष्ट्रीय विनिमय का समन्वय, पुरातात्विक अनुसंधान के क्षेत्र में और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग.

स्थायी केन्द्रीय अफीम बोर्ड

संघ औषधि व्यापार को विनियमित करना चाहता था और उसने अफीम तथा इसके उप-उत्पादों के उत्पादन, निर्माण, व्यापार और खुदरा में मध्यस्थता करने वाले दूसरे अंतर्राष्ट्रीय अफीम सम्मेलन द्वारा शुरू की गई सांख्यिकीय नियंत्रण प्रणाली की निगरानी करने के लिए स्थाई केंद्रीय अफीम बोर्ड की स्थापना की। बोर्ड ने नशीली दवाओं के वैध अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए आयात प्रमाणपत्र तथा निर्यात प्राधिकरण की प्रणाली स्थापित की। साँचा:sfn

नानसेन पासपोर्ट का एक नमूना

दासता आयोग

दास आयोग ने दुनिया भर में गुलामी और गुलाम व्यापार के उन्मूलन की मांग की और मजबूरन वेश्यावृत्ति के विरूद्ध संघर्ष किया।साँचा:sfn इसकी मुख्य सफलता वैधानिक राष्ट्रों में सरकारों द्वारा उन देशों में गुलामी समाप्त करने के लिए दबाव डाला जाना था। संघ ने सन 1926 में सदस्यता की एक शर्त के रूप में इथियोपिया से एक प्रतिबद्धता प्राप्त कि की वह गुलामी को समाप्त करेगा और लाइबेरिया के साथ जबरन श्रम और अंतर-आदिवासी गुलामी को समाप्त करने के लिए कार्य किया।साँचा:sfn

यह सिएरा लियोन में 200,000 दासो को मुक्त करने में सफल हुआ और अफ्रीका में बेगार की प्रथा रोकने के प्रयास में दास व्यापारियों के खिलाफ संगठित छापे डाले। साँचा:category handler[<span title="स्क्रिप्ट त्रुटि: "string" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।">citation needed] यह तंगान्यिका रेलवे निर्माण में कार्यरत श्रमिकों की मृत्यु दर को 55% से 4% तक कम करने में सफल रहा। गुलामी, वेश्यावृत्ति और महिलाओं और बच्चों की तस्करी पर नियंत्रण रखने के लिए रिकॉर्ड बना कर रखा गया।साँचा:sfn

शरणार्थी आयोग

फ्रिद्त्जोफ़ नानसें के नेतृत्व में शरणार्थियों के लिए आयोग उनकी स्वदेश वापसी की देखरेख सहित शरणार्थियों के हितों की देखरेख और, जब आवश्यक हो पुनर्वास की व्यवस्था करता था।साँचा:sfn प्रथम विश्व युद्ध के अंत में रूस भर में बीस से तीस लाख पूर्व युद्ध बंदी फैले हुए थे,साँचा:sfn आयोग की स्थापना के दो वर्षों के भीतर, सन 1920 तक, इसने 425,000 लोगों को उनके घर लौटने में मदद की थी।साँचा:sfn इसने 1922 में तुर्की में शरणार्थी संकट से निपटने के लिए शिविरों की स्थापना की, के साथ बीमारी और भूख को रोकने में देश की सहायता की। इसने नानसें पासपोर्ट स्थापित किया जो शरणार्थियों के लिए पहचान का साधन था।साँचा:sfn

महिलाओं की कानूनी स्थिति के अध्ययन के लिए समिति

महिलाओं की कानूनी स्थिति के अध्ययन के लिए गठित समिति ने पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति की जांच करने की मांग की। यह अप्रैल 1938 में बनाई गई थी और 1939 के शुरू में भंग कर दी गई। समिति के सदस्यों में शामिल थे- ममे. पी. बस्तिद (फ्रांस), एम डी रुएल्ले (बेल्जियम) ममे. अंका गोद्जेवाक (यूगोस्लाविया), श्री एच.सी. गुत्रिज (ग्रेट ब्रिटेन) मल्ले. कर्स्टन हेस्सेल्ग्रें (स्वीडन),[१५] सुश्री डोरोथी केन्योन (संयुक्त राज्य अमेरिका), एम. पॉल सेबस्त्यें (हंगरी) और सचिवालय श्री ह्यूग मैक् कीनन वुड़ (ग्रेट ब्रिटेन)।

सदस्यगण

1920-1945 वर्षों में दुनिया का एक नक्शा, जो इसके इतिहास के दौरान राष्ट्र संघ के सदस्यों को दिखाता है।

संघ के 42 संस्थापक सदस्यों में से, 23 (या 24, स्वतंत्र फ्रांस की गिनती) तब तक संघ के सदस्य बने रहे, जब तक यह 1946 में भंग नहीं कर दिया गया था। स्थापना वर्ष में छह अन्य राज्य शामिल हो गए, जिनमें से केवल दो संघ के अस्तित्व के दौरान सदस्य बने रहे। बाद के वर्षों में अतिरिक्त 15 देश संघ में शामिल हो गए।

28 सितम्ब 1934 (जब इक्वाडोर शामिल हुआ था) और 23 फ़रवरी 1935 (जब पराग्वे ने सदस्यता वापस ले ली) के बीच सदस्य देशों की संख्या सबसे अधिक 58 हो गई थी। इस समय तक, केवल कोस्टा रिका (22 जनवरी1925), ब्राजील (14 जून1926), जापान का साम्राज्य (27 मार्च 1933) और जर्मनी (19 सितम्बर 1933) ने न्यून राजनयिक शक्तियों की वजह से नुकसान का हवाला देते हुए अपनी सदस्यता वापस ले ली थी।

सोवियत संघ केवल 18 सितंबर 1934 को सदस्य बना,साँचा:sfn क्योंकि वह जर्मनी के विरोध (जिसने एक वर्ष पूर्व सदस्यता छोड़ दी थी)[१६] में शामिल हुआ और 14 दिसम्बर 1939साँचा:sfn को संघ से फिनलैंड के खिलाफ आक्रामकता के लिए निष्कासित कर दिया। [१६] सोवियत संघ निष्कासन में, संघ ने अपने स्वयं के नियमों को तोड़ दिया; परिषद के 15 में से केवल 7 सदस्यों ने निष्कासन के लिए मतदान किया (ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, बोलीविया, मिस्र, दक्षिण अफ्रीका और डोमिनिकन गणराज्य), जो कि संघ के घोषणा पत्र के अनुसार वोटों के लिए आवश्यक बहुमत के नियम के अनुसार नहीं था। इनमें से तीन सदस्यों (दक्षिण अफ्रीका, बोलीविया और मिस्र) को परिषद के सदस्यों के रूप में मतदान के एक दिन पूर्व चुना गया था।[१६] यह संघ के अंतिम कृत्यों में से एक था, इससे पहले कि यह व्यावहारिक रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के कारण कार्य करना[१७] बंद कर दिया। साँचा:sfn

मिस्र संघ से जुड़ने वाला (26 मई 1937) अंतिम राज्य था। संघ की स्थापना के बाद सबसे पहले सदस्यता वापस लेने वाला राज्य, 22 जनवरी 1925 को कोस्टा रिका था; जो 16 दिसम्बर 1920 में शामिल हुआ था, इससे यह संघ का सदस्य बनने के बाद सबसे तेजी से सदस्यता वापस लेने वाला राज्य बन गया। संघ के अंतिम सदस्य सदस्य के रूप में उसके विघटन से पहले 30 अगस्त 1942 को सदस्यता वापस लेने वाला राज्य लक्जमबर्ग था। ब्राजील सदस्यता छोड़ने वाला पहला संस्थापक सदस्य था (14 जून 1926) था और हैती सबसे अंतिम (अप्रैल 1942)।

इराक, जो कि सन 1932 में संघ में शामिल हुआ, जो ऐसा पहला राष्ट्र था जिसके पास संघ से जुड़ने का जनादेश था।साँचा:sfn

जनादेश

प्रथम विश्व युद्ध के अंत में, मित्र देश अफ्रीका में पूर्व जर्मनी के कालोनियों और प्रशांत क्षेत्र में और ऑटोमान साम्राज्य के कई गैर-तुर्की प्रांतों के निपटान के सवाल का सामना कर रहे थे। शांति सम्मेलन ने यह सिद्धांत अपनाया कि इन प्रदेशों को विभिन्न सरकारों द्वारा संघ की ओर से - अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षण के अधीन राष्ट्रीय जिम्मेदारी की एक प्रणाली द्वारा प्रशासित किया जाना चाहिए। इस योजना को जनादेश प्रणाली के रूप में परिभाषित किया गया, जिसे "दस की परिषद" द्वारा 30 जनवरी 1919 को लागू कर, उसे राष्ट्र संघ को प्रेषित किया गया।

राष्ट्र संघ के जनादेश, राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र के अनुच्छेद 22 के तहत स्थापित किए गए थे। स्थायी जनादेश आयोग ने राष्ट्र संघ के जनादेश की निगरानी का कार्य किया और विवादित क्षेत्रों में जनमत संग्रह का कार्य करवाया ताकि उस प्रदेश के निवासी इस बात का निर्णय कर सकें कि वे किस देश में शामिल होना पसंद करेंगे।

ए जनादेश

ए जनादेश (पुराने ऑटोमान साम्राज्य के कुछ हिस्सों पर लागू थे) 'निश्चित समुदाय थे' जो

...reached a stage of development where their existence as independent nations can be provisionally recognised subject to the rendering of administrative advice and assistance by a Mandatory until such time as they are able to stand alone. The wishes of these communities must be a principal consideration in the selection of the Mandatory.[१८]

Article 22, The Covenant of the League of Nations

बी जनादेश

बी जनादेश पूर्व जर्मन कालोनियों पर लागू किया गया जिसकी जिम्मेदारी संघ ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद ली। इनको 'लोगों' के रूप में वर्णित किया गया जिन्हें संघ ने कहा

...at such a stage that the Mandatory must be responsible for the administration of the territory under conditions which will guarantee freedom of conscience and religion, subject only to the maintenance of public order and morals, the prohibition of abuses such as the slave trade, the arms traffic and the liquor traffic, and the prevention of the establishment of fortifications or military and naval bases and of military training of the natives for other than police purposes and the defence of territory, and will also secure equal opportunities for the trade and commerce of other Members of the League.[१८]

Article 22, The Covenant of the League of Nations

सी जनादेश

दक्षिण पश्चिम अफ्रीका और दक्षिण प्रशांत द्वीप समूह को संघ के कुछ सदस्यों द्वारा सी जनादेश के तहत प्रशासित किया गया। इनको 'राज्य क्षेत्र' के रूप में वर्गीकृत किया गया

...which, owing to the sparseness of their population, or their small size, or their remoteness from the centres of civilisation, or their geographical contiguity to the territory of the Mandatory, and other circumstances, can be best administered under the laws of the Mandatory as integral portions of its territory, subject to the safeguards above mentioned in the interests of the indigenous population."[१८]

Article 22, The Covenant of the League of Nations

अनिवार्य पॉवर्स

कुछ प्रदेश अनिवार्य शक्तियों जैसे कि, फिलिस्तीन के जनादेश के मामले में ब्रिटेन और दक्षिण पश्चिम अफ्रीका के मामले में दक्षिण अफ्रीकी संघ, अनिवार्य शक्तियों द्वारा नियंत्रित थे, जब तक उन प्रदेशों को स्वशासन के योग्य नहीं समझा गया। चौदह जनादेश क्षेत्र थे, जो यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, बेल्जियम, न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और जापान -छह अनिवार्य शक्तियों के मध्य विभाजित किये गये थे। इराकी साम्राज्य, जो 3 अक्टूबर 1932 को संघ में शामिल हुआ एक अपवाद था। ये क्षेत्र द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सके थे, एक ऐसी प्रक्रिया जो कि सन 1990 तक समाप्त नहीं हुई थी। संघ के पतन के बाद, शेष बचे जनादेशों में से अधिकतर संयुक्त राष्ट्र के ट्रस्ट प्रदेश बने।

जनादेश के अलावा, संघ ने स्वयं 15 वर्षों तक सार बेसिन के क्षेत्र पर शासन किया। जब तक कि इसे एक जनमत संग्रह के बाद जर्मनी को लौटा नहीं दिया गया और दंज़िग का मुक्त शहर (अब गदानास्क, पोलैंड) 15 सितम्बर 1939 से 1 नवम्बर 1920 तक संघ शासन के अधीन रहा।

क्षेत्रीय विवाद हल करना

प्रथम विश्व युद्ध के बाद की परिस्थिति ने कई मुद्दों को देशों के बीच सुलझाने के लिए छोड़ दिया, जिसमें देशों के सीमाओं की वास्तविक स्थिति और कोई विशेष क्षेत्र किस देश में शामिल होगा आदि। इन प्रश्नों में से अधिकांश विजयी मित्र शक्तियों के संबद्ध सुप्रीम परिषद जैसे निकायों के द्वारा संभाले गए। मित्र राष्ट्र विशेष रूप से मुश्किल मामलों को लेकर ही संघ में जाते थे। इसका तात्पर्य यह है कि,1920 के पहले तीन वर्षों के दौरान संघ ने युद्ध के परिणामस्वरूप हुई उथलपुथल को हल करने में अल्प भूमिका निभाई थी। संघ ने अपने प्रारंभिक वर्षों में उन प्रश्नों पर विचार किया जो पेरिस शांति संधियों द्वारा नामित थे।साँचा:sfn

जैसे-जैसे संघ का विकास होता गया, वैसे-वैसे इसकी भूमिक भी विस्तृत होती गई और 1920 के दशक के मध्य तक, यह अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों का केंद्र बन गया। यह परिवर्तन संघ और गैर सदस्यों के बीच के संबंधों में देखा जा सकता था। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस, तीव्र गति से संघ के साथ कार्य कर रहे थे। 1920 की दूसरी छमाही के दौरान, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी सभी राष्ट्र संघ का उपयोग अपने राजनयिक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कर रहे थे और उनके विदेश सचिवों में से प्रत्येक ने इस अवधि के दौरान जिनेवा में संघ की बैठकों में भाग लिया। उन्होंने संघ की व्यवस्था का उपयोग संबंधों को बेहतर बनाने और अपने मतभेदों को व्यवस्थित करने के लिए किया।साँचा:sfn

ऊपरी सिलेसिया

1921 में ऊपरी सिलेसिया में जनमत संग्रह से पोलिश पोस्टर. कहता है: "माँ मुझे याद रखना. पोलैंड के लिए वोट देना"

मित्र देशों द्वारा ऊपरी सिलेसिया के क्षेत्रीय विवाद को हल करने में असमर्थ रहने पर उन्होंने इस समस्या को संघ को निर्दिष्ट किया।साँचा:sfn प्रथम विश्व युद्ध के बाद, पोलैंड ने ऊपरी सिलेसिया, जो कि प्रशिया का हिस्सा रहा था, पर अपना दावा किया। वर्साई की संधि ने ऊपरी सिलेसिया में एक जनमत संग्रह कराने की सिफारिश की, ताकि यह तय किया जा सके कि क्षेत्र का कौन सा भाग जर्मनी या पोलैंड का हिस्सा होना चाहिए। जर्मन अधिकारियों के रुख के बारे में शिकायतों ने दंगों को जन्म दिया जो अंततः पहले दो सिलेसियन विद्रोह (1919 और 1920) का कारण बना। एक जनमत संग्रह 20 मार्च 1921 को संपन्न हुआ जिसमें 59.6% (500000 के आसपास) वोट जर्मनी में शामिल होने के पक्ष में डाले गये, परन्तु पोलैंड ने दावा किया कि उसके आसपास की स्थितियां उचित नहीं थी। इसके परिणामस्वरुप सन 1921 में तीसरा सिलेसियन विद्रोह हुआ।साँचा:sfn 12 अगस्त 1921, को संघ को मामले को सुलझाने के लिए कहा गया, तब संघ और परिषद् ने स्थिति के अध्ययन के लिए बेल्जियम, ब्राजील, चीन और स्पेन के प्रतिनिधियों के साथ एक आयोग का गठन किया।साँचा:sfn समिति ने सिफारिश की कि उच्च सिलेसिया को जनमत संग्रह में दिखाई गई प्राथमिकताओं के अनुसार पोलैंड और जर्मनी के बीच विभाजित किया जाना चाहिए और दोनों पक्षों को दोनो क्षेत्रों के बीच बातचीत का ब्यौरा परस्पर तय करना चाहिए। उदाहरण के लिए, दोनों क्षेत्रों की आर्थिक और औद्योगिक अंतर्निर्भरता को देखते हुए क्या माल को स्वतन्त्रतापूर्वक सीमा से गुजरने देना चाहिए। साँचा:sfn सन 1921 के नवंबर में जेनेवा में जर्मनी और पोलैंड के बीच बातचीत करने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया गया। पांच बैठकों के पश्चात एक अंतिम समझौता हुआ, जिसमें अधिकांश क्षेत्र जर्मनी को दिए गए थे लेकिन पोलिश क्षेत्र में खनिज संसाधनों की बहुलता और बहुत सारे उद्योगों से युक्त अनुभाग थे। जब यह समझौता सन 1922 के मई में सार्वजनिक किया गया तब जर्मनी में तीव्र असंतोष की लहर दौड़ गई, लेकिन संधि को तब भी दोनों देशों द्वारा मान्यता दी गई थी। इस समझौते ने क्षेत्र में शांति कायम रखी, जब तक कि द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ नहीं हो गया।साँचा:sfn

अल्बानिया

सन 1919 में हुए पेरिस शांति सम्मेलन के दौरान अल्बानिया की सीमाओं का निर्धारण नहीं किया गया था और इसका निर्णय संघ के करने के लिए छोड़ दिया गया था, परन्तु सन 1921 के सितम्बर तक भी इसका निर्धारण नहीं किया गया। यूनानी सैनिकों द्वारा सैन्य अभियान के नाम पर अल्बानियाई इलाके में बार बार घुसपैठ के कारण अस्थिर स्थिति पैदा हुई जबकि दूसरी तरफ देश के सुदूर उत्तरी भाग में युगोस्लावियन फौजें अल्बानियाई आदिवासियों के साथ संघर्ष के बाद व्यस्त थीं। संघ ने क्षेत्र की विभिन्न शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हुए एक आयोग भेजा और सन 1921 के नवंबर में संघ ने निर्णय लिया कि अल्बानिया की सीमायें, तीन छोटे बदलावों के साथ जो कि यूगोस्लाविया के पक्ष में थी, के बाद वैसी ही रहेंगी जैसी कि वे सन 1913 में थी। यद्यपि विरोध के तहत, युगोस्लावियन फौजें कुछ सप्ताह बाद ही पीछे हट गईं। साँचा:sfn

अल्बानिया की सीमायें एक बार पुन: अंतरराष्ट्रीय संघर्ष का कारण बनीं जब इतालवी जनरल एनरिको तेल्लिनी और उसके चार सहायकों की 24 अगस्त 1923 को एक हमले में हत्या कर दी गई, जब वे यूनान और अल्बानिया के बीच नई नवनिर्धारित सीमा का सीमांकन करने जा रहे थे। इस घटना से इतालवी नेता बेनिटो मुसोलिनी नाराज हो गया और उसने मांग की कि इस घटना की जांच के लिए एक आयोग स्थापित किया जाना चाहिए और इसकी जाँच की कार्यवाही पांच दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिए। जांच के परिणाम चाहे जो भी हों, मुसोलिनी ने जोर देकर कहा कि यूनान की सरकार को इसकी क्षतिपूर्ति के रूप में इटली को पाँच करोड़ लीरा देने चाहिएं. यूनानियों ने कहा कि वे जब तक यह साबित नहीं हो जाता है कि यह अपराध यूनानियों के द्वारा किया गया था तब तक वे क्षतिपूर्ति की राशि का नहीं भुगतान नहीं करेंगे। साँचा:sfn

मुसोलिनी ने यूनानी द्वीप कोर्फू को जीतने के लिए एक युद्धपोत भेजा और इतालवी सेना ने 31 अगस्त 1923 को कोर्फू पर कब्जा कर लिया। यह संघ के घोषणा पत्र की अवहेलना थी, अत: यूनान ने स्थिति से निपटने के लिए राष्ट्र संघ में अपील की। हलांकि, मित्र राष्ट्र (मुसोलिनी के जिद्द करने पर) इस बात पर सहमत हुए कि राजदूतों का सम्मेलन विवाद का समाधान खोजने के लिए जिम्मेदार होगा, क्योंकि यह सम्मेलन ही था, जिसने जनरल टिलानी को नियुक्त किया था। संघ की परिषद ने विवाद की जांच की, लेकिन अपने निष्कर्षों को राजदूतों की परिषद को अंतिम निर्णय पारित करने के लिए सौप दिया। सम्मलेन ने संघ की अधिकांश सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और यूनान पर इटली को 50 मिलियन लीरा की राशि क्षतिपूर्ति के रूप में देने के लिए दवाब डाला, इसके वाबजूद कि जिन्होंने अपराध किया था उनकी खोज नहीं की जा सकी। साँचा:sfn मुसोलिनी विजेता के रूप में कोर्फू को छोड़ने में सक्षम था।

आलैंड द्वीप

आलैंड स्वीडन और फिनलैंड के बीच के मार्ग में करीब 6500 के आसपास द्वीपों का एक समूह है। द्वीप में विशेष रूप से स्वीडिश बोलने वाले लोगों की आबादी हैं, परन्तु सन 1809 में स्वीडन ने अपने दोनों द्वीप फिनलैंड और आलैंड साम्राज्यवादी रूस के हाथों खो दिया। सन 1917 के दिसम्बर में, रूसी अक्टूबर क्रांति की उथलपुथल के दौरान, फिनलैंड ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और अधिकांश आलैंड द्वीप वासियों का विचार पुन: स्वीडन में शामिल होने का थासाँचा:sfn. हालंकि फिनिश सरकार ने, महसूस किया है कि यह द्वीप उनके नए राष्ट्र का हिस्सा हो सकता हैं, क्योंकि सन 1809 में, रूसियों ने फिनलैंड के ग्रैंड डच में आलैंड को शामिल किया था। सन 1920 तक, विवाद ऐसे स्तर पर पहुंच गया था कि युद्ध का खतरा मंडराने लगा था। ब्रिटिश सरकार ने संघ की परिषद को समस्या स्थान्तरित कर दी, लेकिन फिनलैंड ने संघ को हस्तक्षेप नहीं करने दिया, क्योंकि वह इसे आंतरिक मामला मानता था। संघ ने एक लघु समिति का गठन किया, जो इस बात का निर्णय लेती कि संघ को मामले की जाँच करनी चाहिए या नहीं। सकारात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त होने पर एक तटस्थ समिति का गठन किया गया।साँचा:sfn जून 1921 में, संघ ने अपने निर्णय की घोषणा की, जिसके अनुसार द्वीप समूह फिनलैंड के अंग बने रहेंगे, परन्तु द्वीपवासियों की सुरक्षा की गारंटी पर, जिसमें असैन्यीकरण का शर्त भी शामिल थी। स्वीडन के अनिच्छुक सहमति के साथ, संघ के माध्यम से सीधे संपन्न होने वाला यह पहला यूरोपीय अंतरराष्ट्रीय समझौता था।साँचा:sfn

= हैती

हैती गणराज्य एक संक्रमणकालीन राजनीतिक इकाई थी जो कि औपचारिक रूप से 7 सितंबर से 1938 से 29 जून 1939 तक अस्तित्व में थी, जो कि सीरिया के फ्रेंच जनादेश के तहत अलेक्जेंड्रिया के संजाक का प्रदेश थी। राष्ट्र संघ के निरीक्षण के अधीन, तुर्की गणराज्य ने 29 जून 1939 को इस प्रदेश पर कब्जा कर लिया और तुर्की हैती प्रांत (एर्ज़ीं, दोर्त्योल, हस्सा के जिलों को छोड़कर) में बदल दिया।

मेमल

मेमेल का बंदरगाह शहर (जो अब क्लैपेडा के नाम से जाना जाता हैं) और आसपास के क्षेत्र, जो मुख्य रूप से जर्मन जनसंख्या से भरी हुई थी, वर्साई की संधि के अनुच्छेद 99 के अनुसार मित्र राष्ट्रों से संबद्ध नियंत्रण के अधीन थी। फ्रेंच और पोलिश सरकारें मेमेल को एक अंतरराष्ट्रीय शहर के रूप में परिवर्तित करना चाहती थी जबकि लिथुआनिया उस क्षेत्र पर अधिकार करना चाहता था। 1923 तक, इस क्षेत्र के नियंत्रण के बारे में कोई निर्णय नहीं लिया गया था, जिससे उत्साहित होकर लिथुआनियाई बलों ने जनवरी 1923 में आक्रमण करके बंदरगाह को अपने अधिकार में ले लिया। मित्र राष्ट्रों द्वारा लिथुआनिया के साथ समझौता करने में असफल होने पर, उन्होंने इस विषय को राष्ट्र संघ को सौंप दिया। दिसम्बर 1923 में संघ परिषद ने जांच के लिए एक जांच आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने मेमेल को लिथुआनिया को सौंपने और क्षेत्र को स्वायत्त अधिकार देने का फैसला किया। इस क्लैपेडिया सम्मलेन को संघ की परिषद् द्वारा 14 मार्च 1924 को और फिर मित्र देशों और लिथुआनिया द्वारा अनुमोदित किया गया।साँचा:sfn

मोसुल

संघ ने 1926 में मोसुल के पूर्व प्रांत ऑटोमान के नियंत्रण को लेकर इराक साम्राज्य और तुर्की गणराज्य के बीच चल रहे विवाद को हल किया था। ब्रिटिश के अनुसार, जिन्हें 1920 में इराक पर राष्ट्र संघ ए-जनादेश दिया गया था और इसलिए इराक के विदेश मामलों में उसका प्रतिनिधित्व करते थे, मोसुल इराक का था; दूसरी तरफ नये तुर्की गणराज्य ने इस प्रांत के अपना ऐतिहासिक केंद्रीय स्खल होने का दावा किया। बेल्जियम, हंगरी और स्वीडन के सदस्यों के साथ एक राष्ट्र संघ जांच आयोग को 1924 में इस क्षेत्र के अध्ययन के लिए भेजा गया था जिसने पाया कि मोसूल के लोग तुर्की का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे और यदि उनसे चुनने को कहा जाता तो वे इराक को चुनते.साँचा:sfn सन् 1925 में आयोग ने सिफारिश की कि यह क्षेत्र इराक का हिस्सा रहेगा, इस शर्त के साथ कि कुर्दिश आबादी के स्वायत्त अधिकार सुनिश्चित करने के लिए अगले 25 वर्ष तक इराक पर ब्रिटिश के पास जनादेश रहेगा. संघ परिषद ने सिफारिश को स्वीकीर कर लिया और 16 दिसम्बर 1925 को मोसूल इराक को देने का फैसला किया। हालांकि 1923 में लूसाने की संधि में तुर्की ने राष्ट्र संघ की मध्यस्थता स्वीकार कर ली थी, इसने परिषद के अधिकार पर संघ द्वारा प्रश्नचिह्न लगाने के फैसले को नामंजूर कर दिया। मामला अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय को भेज दिया गया, जिसने निर्णय दिया कि यह परिषद का सर्वसमेमत फैसला था जिसको स्वाकार किया जाना चाहिए। बहरहाल, ब्रिटेन, इराक और तुर्की ने 5 जून 1926 को एक अलग संधि की पुष्टि की, जिसने संघ के निर्णय का अधिकांशतः पालन किया और मोसूल इराक को दे दिया। इस बात पर सहमति हुई तथापि, कि इराक 25 साल के अंदर फिर से संघ की सदस्यता के लिए आवेदन कर सकता है और यह कि सदस्यता स्वीकार होते ही जनादेश समाप्त हो जाएगा.साँचा:sfnसाँचा:sfn

विल्नियस

प्रथम विश्व युद्ध के बाद, पोलैंड और लिथुआनिया दोनों ने अपनी स्वतंत्रता वापस प्राप्त की लेकिन वहाँ देशों के बीच सीमाओं के बारे में असहमति थी।साँचा:sfn पोलिश-सोवियत युद्ध के दौरान लिथुआनिया ने सोवियत संघ के साथ शांति संधि पर हस्ताक्षर किया जिसे लिथुआनिया सीमाओं से बाहर रखा था। इस समझौते ने विल्नियस शहर पर नियंत्रण दिया (साँचा:lang-lt, साँचा:lang-pl), लिथुआनिया के लिये उसकी पुरानी लिथुआनियाई राजधानी, जो देश की सरकारी सीट बन गयी थी।साँचा:sfn लिथुआनिया और पोलैंड के बीच बढ़े हुए तनाव ने डर जगाया कि वे युद्ध करेंगे, तथा 7 अक्टूबर 1920 को संघ ने एक छोटी बातचीत के साथ युद्धविराम किया।साँचा:sfn युद्ध के युग के दौरान विल्नियस शहर की अधिकांश आबादी पोलिश थे तथा 9 अक्टूबर 1920 को जनरल जेलिगोव्स्की ने पोलिश सेना बल के साथ शहर का ज़िम्मा लिया और दावा किया कि लिथुआनिया की केन्द्र सरकार अब उनके अधीन थी।साँचा:sfn

लिथुआनिया ने संघ की सहायता का अनुरोध किया और बदले में संघ परिषद ने क्षेत्र से पोलैंड की वापसी का आह्वान किया। पोलिश सरकार ने संकेत दिया कि वे संघ की आज्ञापालन करेंगे, लेकिन छोड़ने की बज़ाय, इसने अधिक पोलिश सैनिकों के साथ शहर को मजबूत बनाया। साँचा:sfn इसने लीग को यह फैसला करने के लिए उकसाया कि विल्नियस का भविष्य एक जनमत संग्रह में अपने निवासियों द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए और पोलिश बलों को हट जाना चाहिये तथा लीग द्वारा आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय बल द्वारा बदला जाना चाहिये। फ्रांस और ब्रिटेन सहित कई लीग देशों ने अंतरराष्ट्रीय बल के भाग के रूप में क्षेत्रों में सैन्य दलों को भेजना शुरू किया। लिथुआनिया और पोलैंड के बीच दुश्मनी 1920 के अंत में फिर से बढ़ गयी लेकिन 1921 की शुरूआत में, पोलिश सरकार ने एक शांतिपूर्ण निपटारा तलाशना शुरू कर दिया। क्षेत्र के लिए लीग की योजना का समर्थन करने, पोलिश सैन्य दलों को हटाने, तथा जनमत संग्रह के साथ सहयोग करने के लिये सहमत हुए. लीग को हालांकि अब लिथुआनिया और सोवियत संघ, जिसने लिथुआनिया में किसी भी अंतरराष्ट्रीय बल का विरोध किया था, से विरोध का सामना करना पड़ा. लीग ने मार्च 1921 में जनमत संग्रह और अंतरराष्ट्रीय बल के लिये बनायी गयी योजनाओं को रद्द किया तथा दो पक्षों के बीच बातचीत से मसला हल करने के लिये वापस आया।साँचा:sfn विल्नियस और आसपास के क्षेत्रों पर औपचारिक रूप से मार्च 1922 में पोलैंड ने कब्ज़ा किया था और 14 मार्च 1923, को संबद्ध सम्मेलन ने विल्नियस को पोलैंड के साथ छोड़ते हुए लिथुआनिया और पोलैंड के बीच सीमा तय की। साँचा:sfn लिथुआनियाई अधिकारियों ने निर्णय स्वीकार करने से इनकार कर दिया, तथा 1927 तक पोलैंड के साथ आधिकारिक तौर पर युद्ध की अवस्था में रहे। साँचा:sfn जब तक 1938 में पोलैंड ने अल्टीमेटम नहीं दे दिया, लिथुआनिया ने पोलैंड के साथ राजनयिक संबंध पुनर्स्थापित नहीं किए, युद्ध समाप्त नहीं किया तथा पड़ौसी के साथ वास्तविक सीमाओं को स्वाकर नहीं किया।साँचा:sfn

कोलंबिया और पेरू

पेरू के हमले का जवाब देती कोलंबियाई सेना

वहाँ 20वीं सदी के शुरूआत में कोलंबिया और पेरू के बीच में कई सारे सीमा विवाद थे, तथा 1922 में, उनकी सरकारों ने उन विवादों को सुलझाने के लिये सॉलोमन-लोज़ानो संधि पर हस्ताक्षर किए। साँचा:sfn इस संधि के रूप में, कोलम्बिया को अमेज़न नदी का उपयोग करने देने के साथ, सीमा शहर लेटीका तथा उसके आसपास के क्षेत्र को पेरू से कोलम्बिया तक सत्तान्तरित कर दिया गया।साँचा:sfn 1 सितम्बर 1932 को पेरूविअन रबर तथा चीनी उद्योगों के व्यापारिक नेता जो अपनी भूमि खो चुके थे जब क्षेत्र को कोलंबिया के हवाले कर दिया गया था जिसने लेटीका का एक सशस्त्र अधिग्रहण का आयोजन किया।साँचा:sfn सबसे पहले, पेरू सरकार ने सैन्य अधिग्रहण को नही पहचाना लेकिन पेरू के राष्ट्रपति लुइस सांचेज़ सिरो ने कोलंबिया के पुनः कब्ज़ा करने का विरोध किया। पेरू सेना ने लेटीका पर कब्ज़ा कर लिया, जिसके परिणामस्वरूप दो देशों के बीच सशस्त्र संघर्ष हुआ।साँचा:sfn महीनों के कूटनीतिक खींचतान के बाद, राष्ट्र संघ द्वारा की गई मध्यस्थता को सरकार ने स्वीकार किया, तथा उनके प्रतिनिधियों ने संघ की परिषद से पहले अपने मामलों प्रस्तुत किया। एक अल्पकालीन शांति समझौता, जिस पर मई 1933 में दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षर किया गया और जिसे विवादित क्षेत्र पर नियंत्रण मानते हुए द्विपक्षीय वार्ता की तैयारी के साथ संघ को प्रदान किया गया।साँचा:sfn मई 1934 में, एक अंतिम शांति समझौते पर हस्ताक्षर किया गया, जिसके परिणामस्वरूप लेटीका की कोलंबिया वापसी हुई, 1932 के आक्रमण के लिये पेरू की औपचारिक माफी, लेटीका के आसपास के क्षेत्रों का असैन्यीकरण, अमेज़न तथा पुतुमायो नदियों पर मुफ्त नौवहन, तथा गैर-आक्रामकता की एक एक प्रतिज्ञा.

सार

सार एक प्रांत था जो प्रशिया तथा रेनिश पेलेटीनेट के भागों से बना था, जिसको स्थापित किया गया तथा वर्सेलीज़ की संधियों द्वारा संघ के काबू में रखा गया। यह निर्धारित करने के लिए कि क्या इस क्षेत्र को जर्मनी या फ्रांस से संबंध रखना चाहिये, पंद्रह साल के संघ शासन के बाद एक जनमत संग्रह आयोजित किया गया था। जब 1935 में जनमत संग्रह आयोजित किया गया था, 90.3 प्रतिशत वोट जर्मनी के समर्थन में आयासाँचा:sfnसाँचा:sfn. 17 जनवरी 1935 को संघ परिषद द्वारा जर्मनी के साथ क्षेत्रों के पुनः एकीकरण को अनुमोदित किया गया।

और शांति सुरक्षा

क्षेत्रीय विवादों के अलावा, संघ ने देशों के बीच (और देश के अंदर भी) अन्य संघर्षों में हस्तक्षेप करने की प्रयास भी किया। इसकी सफलताओं में उसके अफीम के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और यौन दासता का मुकाबला करने के प्रयास तथा शरणार्थियों खासकर 1926 की अवधि में तुर्की में, की दुर्दशा कम करने के उसके कार्य शामिल थे। इस बाद वाले क्षेत्र में उसके नवाचारों में से एक था 1922 में नानसेन पासपोर्ट शुरू करना, जो कि शरणार्थियों के लिए पहला अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त कार्ड था। संघ की अनेक सफलताएं इसकी विभिन्न एजेंसियों और आयोगों के द्वारा पूर्ण की गई थीं।

ग्रीस और बुल्गारिया

अक्टूबर 1925 में यूनान और बुल्गारिया की सीमा पर संतरियों के बीच हुई घटना के बाद दोनों देशों के बीच लड़ाई शुरू हो गई।साँचा:sfn प्रारंभिक घटना के तीन दिन के बाद ग्रीक सैनिकों ने बुल्गारिया पर आक्रमण कर दिया। बुल्गेरियाई सरकार ने सैनिकों को केवल सांकेतिक प्रतिरोध करने का आदेश दिया और संघ पर विश्वास करते हुए कि वह इस विवाद को सुलझाएगा, सीमा क्षेत्र से दस से पंद्रह हजार लोगों को खाली करवा दिया। साँचा:sfn संघ ने वास्तव में यूनानी आक्रमण की निंदा की और यूनानियों की वापसी और बुल्गारिया को मुआवजा देने की मांग की। यूनान ने पालन किया, लेकिन उसके साथ किए गए व्यवहार और कोर्फू की घटना के बाद इटली के साथ किए गए व्यवहार में असमानता के बारे में शिकायत की।

लाइबेरिया

अमेरिकी स्वामित्व वाले विशाल फायरस्टोन रबड़ बागान में जबरन मजदूरी के आरोपों तथा दास व्यापार के अमेरिकी आरोपों के बाद लाइबेरियाई सरकार ने राष्ट्र संघ से जांच शुरू करने को कहा.साँचा:sfn जांच के लिए गठित आयोग को संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका और लाइबेरिया द्वारा संयुक्त रूप से नियुक्त किया गया था।साँचा:sfn 1930 में, संघ की एक रिपोर्ट में पुष्टि की गई कि दास प्रथा तथा जबरन मजदूरी प्रचलित थी। रिपोर्ट में कई सरकारी अधिकारियों को बंधुआ मजदूरों की बिक्री में शामिल पाया गया था और सिफारिश की गई कि उनको हटा कर उनकी जगह यूरोपीय या अमेरिकी लगाए जाएं. लाइबेरियन सरकार ने दास प्रथा और जबरन मजदूरी को गैरकानूनी घोषित कर दिया और अमेरिका की सहायता मांगी, यह ऐसा कदम था जिसने लाइबेरिया के अंदर गुस्सा पैदा कर दिया जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रपति चार्ल्स डी बी किंग तथा उनके उप-राष्ट्रपति को त्यागपत्र देना पड़ा.साँचा:sfn[१९] तब संघ ने धमकी दी कि जब तक सुधारों को लागू नहीं किया जाता लाइबेरिया पर एक न्यासिता की स्थापना कर दी जाएगी. राष्ट्रपति एडविन बार्क्ले का ध्यान इन सुधारों को लागू करने पर केंद्रित हो गया।साँचा:category handler[<span title="स्क्रिप्ट त्रुटि: "string" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।">citation needed]

मुक्देन हादसा

18 सितंबर 1931 शेनयांग में प्रवेश करती जापानी सेनाएं

मुक्देन का हादसा, जिसे "मंचूरियन हादसा" या "सुदूर पूर्वी संकट" के रूप में भी जाना जाता हैं, संघ की बड़ी असफलताओं में से एक था, जिसने संगठन से जापान की वापसी के लिए उत्प्रेरक के रूप में काम किया। एक सहमति पट्टे की शर्तों के अधीन जापानी सरकार को यह अधिकार प्राप्त था कि वह दक्षिणी मंचूरियन रेलवे के आस पास के क्षेत्रों में अपनी सेना को तैनात रखे, जो कि चीनी क्षेत्र के मंचूरिया प्रदेश से होकर जाने वाला दोनों देशों के बीच एक प्रमुख व्यापार मार्ग था।साँचा:sfn सन 1931 के सितम्बर में मंचूरिया के एक आक्रमण के बहाने जापानी क्वांगतुंग सेनासाँचा:sfnसाँचा:sfn के अधिकारीयों और सैनिकों के एक दल ने रेलवे के कुछ भाग को थोडा क्षतिग्रस्त कर दिया। साँचा:sfnसाँचा:sfn हालाँकि, जापानी सैनिकों ने दावा किया कि रेलवे का विध्वंस चीन के सैनिकों ने किया हैं और इसके स्पष्ट प्रतिशोध में (नागरिक सरकार के आदेशसाँचा:sfn के विपरीत कार्य करते हुए) मंचूरिया के सम्पूर्ण क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। उन्होंने इस क्षेत्र का नामकरण मंचुको किया और 9 मार्च 1932, को एक कठपुतली सरकार चीन के पूर्व महाराजा पु यी के नेतृत्व में स्थापित की। साँचा:sfn अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, इस नये देश को केवल इटली और जर्मनी की सरकारों द्वारा ही मान्यता दी गई थी, जबकि दुनिया के बाकी देश अभी भी मंचूरिया को कानूनी तौर पर चीन का ही हिस्सा मानते थे। सन 1932 में, जापान की वायु और जल सेना ने चीन के शंघाई शहर पर बमवर्षा की, जिसने 28 जनवरी की घटना को चिंगारी प्रदान किया।

राष्ट्र संघ चीन की सरकार से अनुरोध करने के लिए सहमत हो गया, परन्तु लम्बी समुद्री यात्रा के कारण संघ के सदस्यों को मामले की जाँच करने में विलम्ब हो गया। वहां पहुँचने पर अधिकारियों को चीनी दावों का सामना करना पड़ा कि जापान द्वारा किया गया आक्रमण अवैध था, जबकि जापानियों का कहना था कि ऐसा उन्होंने क्षेत्र में शांति-सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए किया हैं। जापान की संघ में उच्च पहुँच के वाबजूद, लिटन द्वारा पेश रिपोर्ट ने जापान को आक्रामक सिद्ध कर दिया और मांग की कि मंचूरिया चीन को वापस लौटा दिया जाये. इससे पहले कि रिपोर्ट पर विधानसभा द्वारा मतदान कराया जाता, जापान ने चीन में आगे बढ़ने की अपनी मंशा की घोषणा कर दी। सन 1933 में रिपोर्ट विधानसभा में 42-1 के बहुमत से पारित (केवल जापान ने प्रस्ताव के खिलाफ वोट दिया) हुई, परन्तु चीन से अपनी सेना हटाने के बजाय, जापान ने संघ से अपनी सदस्यता वापस ले ली।

घोषणा -पत्र के अनुसार, राष्ट्र संघ को जापान पर आर्थिक प्रतिबंध लगा कर उसका जवाब देना चाहिए था, या सैन्य एकत्र कर उसके विरूद्ध युद्ध की घोषणा करनी चहिये थी। हालांकि इनमें से कोई भी कार्यवाही की नहीं गई। आर्थिक प्रतिबंध का खतरा लगभग बेकार ही हो गया था क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका राष्ट्र संघ सदस्य नहीं था। किसी भी प्रकार का आर्थिक प्रतिबंध संघ अपने सदस्य राज्यों पर आरोपित करता था वह अप्रभावी हो जाता था, क्योंकि जब एक सदस्य राष्ट्र को दुसरे सदस्य राष्ट्र के साथ व्यापार करने के लिए प्रतिबंधित किया जाता था तो वह संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित कर लेता था। राष्ट्र संघ एक सेना इकट्ठा कर सकता था, लेकिन ब्रिटेन और फ्रांस जैसे प्रमुख शक्तियां भी अपने-अपने मामलों में उलझी हुई थी, जैसे कि अपने व्यापक साम्राज्य पर नियंत्रण, विशेषकर प्रथम विश्व युद्घ के उथल-पुथल के बाद. इसलिए मंचूरिया को जापान के नियंत्रण में छोड़ दिया गया, जब तक कि सोवियत संघ की लाल सेना ने उस क्षेत्र पर कब्जा नहीं जमा लिया और उसे द्वितीय विश्व युद्घ के बाद चीन को वापस लौटा दिया।

चाको युद्ध

राष्ट्र संघ सन 1932 में बोलीविया और पराग्वे के मध्य दक्षिणी अमेरिका के शुष्क ग्रान चाको क्षेत्र को लेकर हुए युद्ध को रोकने में नाकाम रहा। हालांकि इस क्षेत्र आबादी कम थी, यंहा परागुवे नदी बहती हैं जो कि दो में से एक चारों तरफ से भूमि से घिरे देश को अटलांटिक महासागरसाँचा:sfn से जोडती थी और इसके सम्बन्ध में वहाँ भी अटकलें भी थी कि चाको पेट्रोलियम समृद्ध प्रदेश हैं, जो बाद में गलत साबित हुई। साँचा:sfn सन 1920 के उतरार्द्ध में सतत रूप से सीमा पर होने वाली झड़प, अंतत: 1932 में पूर्ण युद्ध का कारण बनी, जब बोलीविया की सेना ने पराग्वे के पितिंयांतुता झील के किनारे स्थित फोर्ट कार्लोस एंटीनियो लोपेज पर आक्रमण कर दिया। साँचा:sfn पराग्वे ने राष्ट्र संघ में अपील किया, परन्तु राष्ट्र संघ ने कोई कार्यवाही नहीं की और इसके बदले पैन अमेरिका सम्मेलन ने मध्यस्थता की पेशकश की। यह युद्ध दोनों पक्षों के लिए एक आपदा के समान था, जिसमें बोलीविया, जिसकी आबादी तीस लाख के करीब थी, के हताहतों की संख्या 57,000 और पराग्वे जिसकी आबादी दस लाख थी, के हताहतों की संख्या 36000 थी।साँचा:sfn इस युद्ध ने दोनों देशों को आर्थिक संकट के कगार पर ला खड़ा किया। कुछ समय बाद बातचीत के जरिये 12 जून 1935 को युद्ध-विराम घोषित हुआ। पराग्वे ने अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था।साँचा:sfn इसे 1938 के संघर्ष विराम के द्वारा मान्यता प्राप्त हुई जिसमें पराग्वे को उत्तरी चाको का तीन-चौथाई भाग प्राप्त हुआ।

अबीसीनिया पर इतालवी आक्रमण

दूसरे इतालवी-अबीसीनियाई युद्ध में लड़ने के लिए 1935 में इतालवी सैनिकों की भर्ती

अक्टूबर 1935 में, इतालवी तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी ने अबीसीनिया (इथोपिया) पर आक्रमण करने के लिए 400000 सैनिकों को भेजा.साँचा:sfn मार्शल पिएत्रो बदोग्लियो ने सन 1935 के नवंबर से अभियान का नेतृत्व किया। उसने बमबारी करने, रासायनिक हथियारों जैसे कि मस्टर्ड गैस का उपयोग करने और लक्ष्य के विरूद्ध पानी की आपूर्ति को विषाक्त करने, जिसमें असुरक्षित गावँ और चिकित्सा सुविधाएँ शामिल थी, का आदेश दिया। साँचा:sfnसाँचा:sfn आधुनिक इतावली सेना ने अत्यंत पिछड़ी अबीसीनिया की सेना को आसानी से हरा दिया और मई 1936 में अदीस अबाबा पर अधिकार करते हुए सम्राट हेल सेलासी को भागने पर मजबूर का दिया। साँचा:sfn

राष्ट्र संघ ने इटली की आक्रामकता की निंदा की और सन 1935 के नवंबर में आर्थिक प्रतिबंध लगाये, लेकिन वे प्रतिबन्ध काफी हद तक अप्रभावी थे, क्योंकि वे तेल की बिक्री पर प्रतिबंध नहीं लगा सके या स्वेज नहर (ब्रिटेन द्वारा नियंत्रित) को बंद नहीं किया गया।साँचा:sfn स्टेनली बाल्डविन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने बाद में कहा कि कोई भी सैन्य रूप से इतना सक्षम नहीं था कि वह इटली के आक्रमण का मुकाबला कर सके। [२०] सन 1935 के अक्टूबर में अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने हाल ही में पारित तटस्थता अधिनियम को लागू किया और हथियारों और गोला - बारूद की बिक्री पर दोनों पक्षों पर व्यापार प्रतिबंध लगा दिया, परन्तु विद्रोही इटली के साथ उसने "नैतिक व्यापार प्रतिबंध" में थोड़ी ढील दी, जिसमें व्यापार की अन्य वस्तुयें शामिल थी। पहले 5 अक्टूबर और बाद में 4 जुलाई 1936 को संयुक्त राज्य अमेरिका को अपने प्रयासों में आशातीत सफलता प्राप्त हुई और उसने तेल और अन्य सामग्री के निर्यात को सामान्य शांतिकाल के स्तर तक पहुंचा दिया। साँचा:sfn राष्ट्र संघ के प्रतिबंधों को 4 जुलाई 1936 में उठा लिया गया, लेकिन उस समय तक इटली अबीसीनिया के शहरी क्षेत्रों पर नियंत्रण प्राप्त कर चुका था।साँचा:sfn

सन 1935 के दिसम्बर में, होअरे -लावेल संधि ब्रिटिश विदेश मंत्री सैमुएल होअरे और फ्रांस के प्रधानमंत्री पियरे लावेल द्वारा अबीसीनिया के संघर्ष को समाप्त करने का एक प्रयास था, जिसमें देश को दो भागों में विभाजित करने का प्रस्ताव था, - एक इतालवी क्षेत्र और एक अबीसीनिया का क्षेत्र. मुसोलिनी इस संधि के लिए सहमत हो गया था, लेकिन लेकिन सौदे की खबर लीक हो गई, फलत: फ्रांसिसी और ब्रिटिश जनता ने इसका कड़ा विरोध किया और इस संधि को अबीसीनिया के विक्रय का प्रस्ताव कहा. होअरे और लावेल को उनके पदों से इस्तीफा देने को मजबूर किया गया और ब्रिटिश और फ्रांसीसी दोनों सरकारें अपने - अपने संबंधित लोगों से अलग हो गई।साँचा:sfn सन 1936 के जून से पहले, हालांकि राज्य के एक प्रमुख व्यक्ति के द्वारा राष्ट्र संघ के विधानसभा को संबोधित करने काकोई परम्परा नहीं थी, हेल सिलासी, इथियोपिया के सम्राट ने अपने देश की रक्षा करने में सहयोग के लिए सभा से मदद के लिए अपील की। [२१]

यही स्थिति जापान के साथ भी थी, अबीसीनिया के संकट से निपटने में प्रमुख शक्तियों उत्साह उनकी इस धारणा के कारण नहीं था कि इस गरीब और सुदूर देश का भाग्य जो कि गैर यूरोपीय लोगों का निवास स्थान था, उनकी केन्द्रीय रुचि का विषय नहीं हो सकता हैं।साँचा:category handler[<span title="स्क्रिप्ट त्रुटि: "string" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।">citation needed] इसके अतिरिक्त, इससे यह भी स्पष्ट होता है कि कैसे राष्ट्र संघ अपने सदस्यों के स्वार्थ से प्रभावित हो सकता है;साँचा:sfn प्रतिबंध के बहुत कठोर नहीं होने का कारण मुसोलिनी और जर्मन तानाशाह हिटलर के संभावित गठबंधन बनाने को लेकर ब्रिटेन और फ्रांस का भय भी था।साँचा:sfn

स्पेन के गृह युद्ध

17 जुलाई 1936 को, स्पेनिश सेना ने राज्य-विप्लव शुरू किया, जिसके कारण स्पेनिश रिपब्लिकनों (स्पेन की वामपंथी सरकार) और राष्ट्रवादियों (रूढिवादी, कम्यूनिस्ट-विरोधी विद्रोही जिनमें स्पेनिश सेना के अधिकतर अधिकारी शामिल थे) के बीच एक लम्बी अवधि का सशस्त्र संघर्ष शुरू हुआ।साँचा:sfn अल्वारेज डेल वायो, विदेशी मामलों के स्पेनिश मंत्री, ने सितंबर 1936 में संघ से अपनी प्रादेशिक अखण्ड़ता और राजनीतिक स्वतंत्रता की रक्षा हेतु शस्त्रों की मांग की। तथापि, संघ के सदस्यों ने, स्पेनिश गृह युद्ध में न तो हस्तक्षेप किया और न ही विदेशी हस्तक्षेप को रोका. हिटलर और मुसोलिनी ने निरंतर जनरल फ़्रांसिस्को फ़्रैंको के राष्ट्रवादी विद्रोहियों को अपना समर्थन जारी रखा और सोवियत संघ ने स्पेनिश गणतंत्रवादियों को समर्थन दिया। फरवरी 1937 में, संघ ने अंततः विदेशी राष्ट्रीय स्वयंसेवकों के हस्तक्षेप पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

दूसरा चीन-जापान युद्ध

सम्पूर्ण 1930 के दशक में क्षेत्रीय संघर्षों को भड़काने के लम्बे रिकॉर्ड़ के बाद, जापान ने 7 जुलाई 1937 को चीन पर पूर्ण धावा बोल दिया। 12 सितंबर को, चीनी प्रतिनिधि, वेलिंगटन कू, ने संघ से एक अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप की अपील की। पश्चिमी राष्ट्र जापान के विरूद्ध उनके संघर्ष में चीन के हमदर्द थे, विशेषकर उनके शंघाई की अटल सुरक्षा के लिए, एक शहर जहां विदेशियों की बड़ी संख्या थी। तथापि, संघ एक निर्णायक वक्तव्य जिसने चीन को “आत्मिक समर्थन” दिया, के अलावा किसी व्यवहारिक उपाय का प्रबंध करने में अक्षम रहा। 4 अक्टूबर को, संघ स्थगित हो गया और इस विषय को नौ शक्ति संधि सम्मेलन को हस्तांतरित कर दिया गया।

निरस्त्रीकरण और द्वितीय विश्व युद्ध के रास्ते में असफलताएं

संघ के प्रसंविदा के अनुच्छेद आठ ने संघ को कार्य दिया कि “शस्त्रीकरण को उस निम्नतम बिन्दु तक सीमित रखें जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी हो और अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का सामान्य क्रिया द्वारा प्रवर्तन हो सके.”[२२] संघ की समय एवं उर्जा का अधिकांश भाग निरस्त्रीकरण को समर्पित था, हालांकि कई सदस्य सरकारें अनिश्चयी थी कि क्या इतना व्यापक निरस्त्रीकरण प्राप्त किया जा सकता है या यहां तक कि यह वांछनीय था कि नहीं। साँचा:sfn मित्र राष्ट्र भी वर्साय की संधि से बाध्य थे कि निरस्त्र करने के लिए प्रयास करें एवं पराजित राष्ट्रों पर जो शस्त्र प्रतिबंध लागू किए गए हैं उन्हें विश्वव्यापी निरस्त्रीकरण की दिशा में एक प्रथम प्रयास के रूप में वर्णित किया गया।साँचा:sfn संघ प्रसंविदा ने संघ को प्रत्येक राज्य के लिए एक निरस्रीकरण योजना तैयार करने के लिए निर्दिष्ट किया परंतु परिषद ने इस जिम्मेदारी को 1926 में गठित विशेष आयोग को 1932-34 के विश्व निरस्त्रीकरण सम्मेलन की तैयारी करने के लिए सौंप दिया। साँचा:sfn निरस्त्रीकरण को लेकर संघ के सदस्यों में भिन्न-भिन्न दृषिटिकोण थे। फ्रांसीसी अपने शस्त्रों को इस गारंटी के बिना कम करने के लिए अनिच्छुक थे कि उनपर आक्रमण होने पर सैनिक सहायता मिले। पोलेण्ड़ एवं चेकोस्लोवाकिया ने पश्चिम की तरफ से असुरक्षित महसूस किया और चाहते थे कि संघ द्वारा आक्रामक कार्यवाही एवं उन्हें निशस्त्र करने से पहले सदस्यों को मजबूत बनाया जाए.साँचा:sfn इस गारंटी के बिना वे अपने शस्त्रों को कम नहीं करेंगे क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि जर्मनी से आक्रमण का खतरा बहुत ज्यादा था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी द्वारा पुर्नशक्ति प्राप्त करने से आक्रमण का खतरा और बढ़ गया, विशेषकर जब हिटलर ने सत्ता प्राप्त की और 1933 में जर्मनी का चांसलर बना विशेष रूप में जर्मनी द्वारा वर्साय की संधि को उलटने के प्रयास एवं जर्मन सेना के पुर्ननिर्माण के कारण फ्रांस निरस्त्रीकरण के लिए अनिच्छुक होता गया।साँचा:sfn

विश्व निरस्त्रीकरण सम्मेलन 1932 में जेनेवा में राष्ट्रसंघ द्वारा बुलाया गया जिसमें 60 राष्ट्रों के प्रतिनिधि थे। सम्मेलन के शुरू में शस्त्रों के विस्तार पर एक वर्ष का विराम लगाने का प्रस्ताव दिया गया, जिसे बाद में कुछ महीने बढ़ाया गया।साँचा:sfn निरस्त्रीकरण आयोग ने फ्रांस, इटली, जापान एवं ब्रिटेन से प्रारंभिक सहमति ले ली कि वो अपनी नौ सेनाओं के आकार में कटौती करें। केलॉग-ब्रायण्ड समझौता, जिसे आयोग ने 1928 में सम्पन्न कराया, युद्ध को गैर-कानूनी घोषित करने के अपने उद्देश्य में असफल हो गया। अंततः, आयोग 1930 के दशक में जर्मनी इटली, एवं जापान के द्वारा सैनिक तैयारी को रोकने में असफल रहा। संघ उन सभी बड़ी घटनाओं पर अधिकांशतया शांत रहा जिसके कारण द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ यथा- राइनलैंण्ड का हिटलर द्वारा पुनः-सैन्यीकरण, ऑस्ट्रिया के सुडेटनलैण्ड एवं एंसक्लूस पर कब्जा, जिसकी वर्साय संधि ने मनाही की थी। वास्तव में, संघ के सदस्यों ने स्वयं को पुनः-सैन्यीकृत किया। 1933 में जापान ने संघ के निर्णय को मानने की बजाय आसानी से इससे अलग हो गया, जैसा कि जर्मनी ने 1933 में किया (फ्रांस एवं जर्मनी के बीच में शस्त्र समता स्थापित करने में समझौता करा पाने में विश्व निरस्त्रीकरण सम्मेलन की असफलता को बहाना बनाकर) और इटली ने 1937 में. डेन्जिंग में संघ कमिश्नर शहर पर जर्मन दावे पर विचार करने में असमर्थ थे, जो 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के छिड़ने में महत्वपूर्ण कारण बना। साँचा:category handler[<span title="स्क्रिप्ट त्रुटि: "string" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।">citation needed] संघ का अंतिम महत्वपूर्ण कार्य था सोवियत संघ का दिसम्बर 1939 में निलंबन जब इसने फिनलैण्ड पर आक्रमण किया।

सामान्य कमजोरियों

पुल में अंतराल बोर्ड पर लिखा है "इस राष्ट्र संघ पुल को संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा डिजाइन किया गया था"

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पंच मैगजीन से कार्टून, 10 दिसम्बर 1920, अमेरिका द्वारा खाली छोड़ी गई जगह का उपहास किया जब वह राष्ट्रसंघ में शामिल नहीं हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारंभ ने दर्शाया कि संघ अपने प्रारंभिक उद्देश्य में असफल रहा, जो भविष्य में किसी विश्वयुद्ध को टालता. इस असफलत के लिए विविध कारक जिम्मेवार थे, जिसमें बहुत सारा संगठन के भीतर के सामान्य कमजोरियों से जुड़ा था। अतिरिक्त रूप से, अमेरिका द्वारा संघ में शामिल होने की मनाही ने संगठन की शक्ति को सीमित किया।साँचा:category handler[<span title="स्क्रिप्ट त्रुटि: "string" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।">citation needed]

उत्पत्ति और संरचना

संघ का एक संगठन के रूप में उद्भव प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के लिए किए जा रहे शांति प्रयासों के हिस्से के रूप में मित्र राष्ट्रों द्वारा किया गया और इसलिए इसे “विजेताओं के संघ” के रूप में देखा गया।[२३]साँचा:sfn इसने संघ को वर्साय की संधि से भी बांध दिया, जिससे जब संधि अप्रतिष्ठित एवं अलोकप्रिय हो गया, यह राष्ट्रसंघ में भी प्रतिबिम्बित हुआ।

संघ की तथाकथित तटस्थता ने इसे अनिर्णय के रूप में अभिव्यक्त किया। इसे अपने नौ सदस्यों, बाद में चलकर पंद्रह परिषद सदस्यों का सर्वसम्मत वोट किसी अधिनियम को पारित करने के लिए चाहिए; अतः निर्णयात्मक एवं प्रभावी कार्य असंभव नहीं तो मुश्किल था। यह अपने निर्णयों पर आने में धीमा भी था क्योंकि कुछ निर्णयों में संपूर्ण सभा की सर्वसम्मत मंजूरी आवश्यक थी। यह समस्या मुख्यतया इस वास्तविकता से निकली कि राष्ट्रसंघ के मुख्य सदस्य इस संभावना को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे कि उनकी नियति अन्य देशों द्वारा तय की जाएगी और इसलिए इसके परिणामस्वरूप, सर्वसम्मत वोट को लागू करके अपने को वीटो की शक्ति दी।

वैश्विक प्रतिनिधित्व

संघ में प्रतिनिधित्व अक्सर एक समस्या थी। हालांकि इसका अभीष्ट सभी राष्ट्रों को शामिल करना था, कई कभी शामिल नहीं हुए, या उनकी संघ के साथ साझेदारी बहुत छोटी थी। सर्वाधिक उल्लेखनीय अनुपस्थिति अमेरिका की संघ में भूमिका की संभाव्यता को लेकर थी, न केवल वह विश्व शांति एवं सुरक्षा को सुरक्षित करता बल्कि संघ का वित्त प्रबंध भी करता. संघ के निर्माण के पीछे अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन प्रेरक बल थे और इसके आकार को मजबूती से प्रभावित किया लेकिन अमेरिकी सिनेट ने 19 नवम्बर 1919 को इसमें शामिल न होने का मत दिया। साँचा:sfn रूथ हेनिंग ने सुझाव दिया कि यदि अमेरिका संघ का सद्स्य होता तो, इसने फ्रांस एवं ब्रिटेन को भी पृष्ठ-समर्थन दिया होता, संभवतया फ्रांस ज्यादा सुरक्षित महसूस करता एवं ऐसा प्रोत्साहन फ्रांस एवं ब्रिटेन को जर्मनी के संबंध में ज्यादा सहयोग करने देता एवं इससे नाजी पार्टी का उदय कम संभव होता। साँचा:sfn इसके विपरीत, हेनिंग स्वीकार करते हैं कि यदि अमेरिका संघ का सदस्य होता, इसका यूरोपीय शक्तियों के साथ युद्ध में उलझने की अनिच्छा एवं आर्थिक प्रतिबंधों को अधिनियमित करने से अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का सामना करने में संघ की क्षमता को बाधित किया होता। साँचा:sfn अमेरिका में सरकार की संरचना ने भी इसकी सद्स्यता को समस्यापूर्ण बनाया होता क्योंकि संघ में इसके प्रतिनिधिगण अमेरिकी कार्यकारी शाखाओं की तरफ से इसकी विधाई शाखाओं की पूर्व अनुमति के बिना कोई निर्णय नहीं लिया गया होता। साँचा:sfn

जनवरी 1920 में, जब संघ शुरू हुआ, जर्मनी को शामिल होने की अनुमति नहीं थी क्योंकि इसे प्रथम विश्व युद्ध में आक्रामक के रूप में देखा गया था। सोवियत रूस भी प्रारंभ में संघ से बहिष्कृत था, क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के विजेताओं को कम्युनिस्ट विचार पसंद नहीं था। संघ तब और कमजोर हो गया जब 1930 के दशक में महत्वपूर्ण शक्तियों ने इसका साथ छोड़ दिया। जपान ने स्थायी सदस्य के रूप में परिषद में शुरू किया, लेकिन 1933 में तब हट गया जब संघ ने इसके चीन के मंचूरिया क्षेत्र पर आक्रमण का विरोध किया।साँचा:sfn इटली ने भी परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में शुरू किया लेकिन 1937 में हट गया। संघ ने जर्मनी को 1926 में सदस्य के रूप में स्वीकार किया, इसे “शंति प्रेमी देश” माना, लेकिन एडोल्फ हिटलर 1933 में जब सत्ता में आया तो जर्मनी को इससे अलग कर लिया।साँचा:sfn

सामूहिक सुरक्षा

एक अन्य महत्वपूर्ण कमजोरी सामूहिक सुरक्षा के विचार, जो संघ का अधार था एवं वैयक्तिक राष्ट्रों के बीच अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के बीच अंतर्विरोध से विकसित हुआ था।साँचा:sfn सामुहिक सुरक्षा प्रणाली जिसे संघ ने प्रयुक्त किया, का अर्थ था कि राष्ट्रों के लिए आवश्यक था कि वे उन राज्यों के खिलाफ कार्यवाही करें जिन्हें वे मित्र मानते हैं और इस तरीके से उन राज्यों का समर्थन जिनके साथ सामान्य घनिष्ठता नहीं थी, उनके राष्ट्रीय हितों को खतरा हो सकता है।साँचा:sfn यह कमजोरी अबीसीनिया संकट के समय स्पष्ट हो गई जब ब्रिटेन एवं फ्रांस को संतुलित प्रयत्न करने पड़े ताकि यूरोप में सुरक्षा बनाए रखी जा सके, जिसे उन्होंने यूरोप में “आंतरिक व्यवस्था के शत्रु के खिलाफ व्यवस्था बनाए रखने के लिए” अपने लिए बनाया था,साँचा:sfn जिसमें इटली के समर्थन ने प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें अबीसीनिया को संघ का सद्स्य बनाए रखने की बाध्यता थी।साँचा:sfn

23 जून 1936 को अबीसीनिया के खिलाफ इटली के युद्ध अभियान को रोकने में संघ के प्रयासों के असफल होने पर, ब्रिटिश प्रधानमंत्री स्टेनले बाल्डविन ने हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा कि सामूहिक सुरक्षासाँचा:quote

अंततः, ब्रिटेन एवं फ्रांस दोनों ने एडोल्फ हिटलर के अधीन जर्मन सैनिकवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण तुष्टिकरण के पक्ष में सामूहिक सुरक्षा कीअवधारणा को त्याग दिया। साँचा:sfn

अमनपसंदवाद और निरस्त्रीकरण


28 जुलाई 1920, पंच पत्रिका का कार्टून, संघ की कमज़ोरी देखकर व्यंग्य कस रहा है।]] राष्ट्र संघ के पास अपनी एक सशस्त्र सेना की कमी थी और यह अपने संकल्पो को लागू करने के लिये महान शक्तियों पर निर्भर थी, जिसके वे बहुत खिलाफ थे।साँचा:sfn संघ के दो सबसे महत्वपूर्ण सदस्य, ब्रिटेन और फ्रांस, प्रतिबंधों के खिलाफ थे तथा संघ की ओर से सैन्य कार्रवाई करने के लिये और अधिक खिलाफ थे। प्रथम विश्व युद्ध के तुरंत, दोनों देशों की सरकारों तथा आबादी में शांतिवाद एक मज़बूत शक्ती थी। ब्रिटिश परंपरावादी विशेष रूप से संघ पर उत्साहहीन थे तथा सरकार में, संगठन की भागीदारी के बिना समझौता वार्ता करने के इच्छुक थे।साँचा:category handler[<span title="स्क्रिप्ट त्रुटि: "string" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।">citation needed]

इसके अलावा, संघ द्वारा ब्रिटेन, फ्रांस और इसके अन्य सदस्यों के लिए निरस्त्रीकरण की वकालत जबकि उसी समय सामूहिक सुरक्षा की वकालत का मतलब था कि संघ अपने आपको सशक्त साधनों द्वारा धोखे से वंचित कर रही है जिसके द्वारा इसके अधिकार को बरकरार रखा जाएगा.

अगर संघ को अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करने के लिए देशों को मजबूर करना था, तो इसे लागू करने के लिये रॉयल नेवी तथा फ्रेंच सेना की आवश्यकता होगी।

जब ब्रिटिश कैबिनेट ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान संघ की अवधारणा के बारे में चर्चा की, तब केबिनेट सचिव, मौरिस हेंकी, ने विषय पर एक ज्ञापन भेजा.

उसने यह कहते हुए शुरू किया: "आम तौर पर मुझे ऐसा लगता है कि ऐसी कोई योजना हमारे लिए खतरनाक है, क्योंकि यह सुरक्षा का बोध करायेगा जो पूरी तरह से काल्पनिक है।साँचा:sfn इसने ब्रिटिशों के समझौता की पवित्रता में युद्ध पूर्व विश्वास पर भ्रांतिमूलक रूप से हमला किया और दावे के साथ समाप्त किया।

साँचा:quote

विदेश कार्यालय मंत्री सर आयर क्रो ने भी ब्रिटिश कैबिनेट को एक ज्ञापन लिखा जिसमें वह दावा कर रहे हैं कि "एक गंभीर संघ और अनुबंध" बस "दूसरी संधियों की तरह एक संधि" मात्र होगी : "ऐसा क्या है वहां जो यह सुनिश्चित करे कि यह दूसरी संधियों की तरह नही टूटेगी?". आक्रमणकारियों के खिलाफ "आम कार्रवाई की प्रतिज्ञा" के प्रति क्रो ने संदेह व्यक्त किया क्योंकि उनका विश्वास था कि अलग अलग राज्यों की कार्रवाई अभी भी राष्ट्रीय हितों और शक्ति संतुलन के द्वारा निर्धारित की जायेगी. उन्होने संघ के आर्थिक प्रतिबंधों के प्रस्ताव की आलोचना की क्योंकि यह निष्प्रभावी होगा तथा यह "एक वास्तविक सैन्य प्रमुखता का प्रश्न था". क्रो ने चेतावनी दी थी कि यूनिवर्सल निरस्त्रीकरण एक व्यावहारिक असम्भवता थी।साँचा:sfn

मृत्यु और विरासत

जेनेवा में राष्ट्र संघ का सभा भवन

जैसे कि यूरोप में स्थिति बिगड़कर युद्ध में तबदील हुई, कानूनी तौर पर संघ जारी रखने तथा ऑपरेशन में आई मंदी को आगे बढाने की अनुमती देने के लिये 30 सितम्बर 1938, तथा 14 दिसम्बर 1939 को सदन ने पर्याप्त शक्ति महासचिव को हस्तांतरित की। साँचा:sfn जबतक द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ, संघ के मुख्यालय, पैलेस ऑफ पीस, करीब 6 साल के लिये अनधिकृत रहे। साँचा:sfn

1943 के तेहरान सम्मेलन पर, संघ: अमेरिका की जगह एक नया ढाँचा बनाने के लिये संबद्ध शक्ति में सहमती हुई। कई संघ गुटों, जैसे कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, ने कार्य करना ज़ारी रखा तथा फलतः अमेरिका के साथ सम्बद्ध हुआ।[१४] अमेरिका की संरचना इसे संघ से अधिक प्रभावी बनाने के इरादे से हुई थी।

देशों के संघ की अंतिम बैठक 12 अप्रैल 1946 को जेनेवा में आयोजित की गई। 34 देशों के प्रतिनिधियों ने सदन में भाग लिया।साँचा:sfn यह सत्र स्वयं संघ के तरलीकरण से संबंधित है: 1946 में लगभग 22,000,000 डॉलर मूल्य की संपत्ति अमेरिका को दी गयी थी,[२४] जिसमें पैलेस ऑफ पीस तथा संघ के अभिलेखागार शामिल हैं, आरक्षित निधि उन देशों को वापस कर दी गयी जिन्होने इसकी आपूर्ति की थी तथा संघ का ऋण चुकाया गया।साँचा:sfn अंतिम सभा के लिये एक भाषण के दौरान भीड़ के अहसास को रॉबर्ट सेसिल द्वारा संक्षेप में बताया जाता है जब उन्होंने कहा:

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प्रस्ताव जिसने संघ को भंग कर दिया वह सर्वसम्मति से पारित हुआ: "अपने मामलों के तरलीकरण के उद्देश्यओ को छोड़कर राष्ट्र संघ अस्तित्व बनाये रखने के लिये समाप्त हो जायेगा."[२५] जिस दिन सत्र बंद किया गया उसके अगले दिन को प्रस्ताव संघ की समाप्ति की तारीख के रूप में तय करता है। 19 अप्रैल 1946 को, सदन के अध्यक्ष, नोर्वे के कार्ल जे.हेम्ब्रो, ने घोषणा की " 21वां तथा राष्ट्र संघ की जनरल सभा का अंतिम सत्र समाप्त हुआ।"[२४] परिणामस्वरूप, 20 अप्रैल 1946 को मौजूद होने के लिये राष्ट्र संघ समाप्त हुई। [२६]

प्रोफेसर डेविड केनेडी ने सुझाव दिया कि संघ एक एक अनूठा पल है जब कानून के तरीकों तथा राजनीति के रूप में प्रथम विश्व युद्ध का विरोध करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मामले "संस्थापित" किये गये थे।साँचा:sfn विश्व युद्ध द्वितीय में प्रमुख मित्र राष्ट्र (ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ्रांस, अमेरिका, गणतंत्र चीन) संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बने; इन नई "महान शक्तियों" ने, संघ परिषद को दर्पण बनाते हुए महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव प्राप्त किया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के निर्णय संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों पर बाध्यकारी हैं, हालांकि, संघ काउंसिल के विपरीत, सर्वसम्मति निर्णयों की आवश्यकता नही होती. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों को भी अपने महत्वपूर्ण हितों को संरक्षित करने के लिये एक कवच दिया जाता है, जिसने संयुक्त राष्ट्र को कई मामलों में निर्णयात्मक ढंग से काम करने से रोका है।

इसी प्रकार, संयुक्त राष्ट्र के पास उसकी स्वयं की स्थायित्व सशस्त्र सेना नही है, लेकिन अपने सदस्यों को सशस्त्र हस्तक्षेप में योगदान करने के लिये बुलाने में संयुक्त राष्ट्र संघ से ज्यादा सफल रहा है, जैसे कोरियाई युद्ध के दौरान तथा पूर्व यूगोस्लाविया में शान्ति बनाये रखने वाले के रूप में. कुछ मामलों में आर्थिक प्रतिबंध पर भरोसा करने के लिये संयुक्त राष्ट्र को मजबूर किया गया है। दुनिया के देशों से सदस्यों को आकर्षित करने में संयुक्त राष्ट्र संघ से ज्यादा सफल रहा है, जो इसे ज्यादा प्रतिनिधिक बना रहा है।साँचा:category handler[<span title="स्क्रिप्ट त्रुटि: "string" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।">citation needed]

इन्हें भी देखें

नोट्स

  1. राष्ट्र संघ के नियम http://avalon.law.yale.edu/20th_century/leagcov.asp स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  2. अनुच्छेद 23 देखें, साँचा:cite web, साँचा:cite web और माइनर्टी राइट्स सन्धियाँ.
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  8. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  9. वूड्रो विल्सन / अगस्टे हेक्शेर / पृष्ठ 470
  10. वूड्रो विल्सन के प्रेसीडेंसी / केंड्रिक ए. क्लेमेंट्स / 189
  11. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
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  15. पूर्ण जीवनी के लिए, sv:Kerstin Hesselgren देखें (स्वीडन में).
  16. साँचा:languageicon इगोर पिकैलोव. वेलिकाजा ओबोल्गननाजा वोजना स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
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  19. डब्ल्यू.ई. बर्ग हार्ड्ट डू बोइस, "लाइबेरिया, द संघ एंड यूनाईटेड स्टेट्स," इन फॉरेन अफेर्स, खंड 11, संख्या. 4 जुलाई 1933, 682-95
  20. साँचा:cite book
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  23. गोरोडेट्सकी में आई.ई. जॉर्जी चिचेरिन उद्धृत 1994 पृष्ठ.26
  24. "संघ ऑफ़ नेशंस एंड्स, गिव्स वे टू न्यू यू.एन.", साइराक्युज़ हेराल्ड-अमेरिकन, 20 अप्रैल 1946, पृष्ठ 12
  25. राष्ट्र संघ के प्रस्ताव, स्कॉट में उद्धृत 1973, पृष्ठ 404
  26. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।

सन्दर्भ

आगे पढ़ें

  • बैसेट, जॉन स्पेन्सर. द लीग ऑफ़ नेशंस: अ चैप्टर इन वर्ल्ड पॉलिटिक्स 1930.
  • एगर्टन, जॉर्ज डब्ल्यू., ग्रेट ब्रिटेन एंड द क्रिएशन ऑफ़ द संघ ऑफ़ नेशंस: स्ट्रेटजी, पॉलिटिक्स, एंड इंटरनैशनल ऑर्गनाइज़ेशन, 1914-1919 उत्तर केरोलिना प्रेस के विश्वविद्यालय, 1978
  • गिल, जॉर्ज, (1996) द संघ ऑफ़ नेशंस फ्रॉम 1929 टू 1946: फ्रॉम 1929 टू 1946 . एवरी प्रकाशन समूह. ISBN 0-89529-637-3
  • केली, निगेल और लेसी, ग्रेग (2001) "आधुनिक विश्व इतिहास" हिनेमैन एजुकेशनल प्रकाशक, ऑक्सफोर्ड
  • कैनेडी, पॉल: द पार्लिएमेंट ऑफ़ मैन: द पास्ट, प्रेजेंट, एंड फ्यूचर ऑफ़ द यूनाईटेड नेशंस (2006)
  • कुएह्ल, वॉरेन एफ. और लीन के. डून, कीपिंग द कॉवनन्ट: अमेरिकन इंटरनैशनलिस्ट्स एंड द संघ ऑफ़ नेशंस, 1920–1939 1997
  • मैलिन, जेम्स सी. द युनाईटेड स्टेट्स आफ्टर द वर्ल्ड वॉर 1930. पीपी 5-82. ऑनलाइन
  • मारब्यू, एम. (2001)। "ला सोसाइटी डेस नेशंस". प्रेसेस यूनवर्सिटैर्स डे फ्रांस. ISBN 2-13-051635-1
  • फिल, ए (1976)। "डेर वॉकरबंड".
  • वॉल्टर्स, एफ. पी., राष्ट्र संघ का इतिहास खंड 2 ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस. 1952
  • वॉल्श, बेन (1997)। आधुनिक विश्व इतिहास. जॉन मर्रे (प्रकाशक) लिमिटेड. ISBN 0-7195-7231-2.
  • वूड्रो विल्सन, हैमिल्टन फोली द्वारा संकलित; वूड्रो विल्सन केस फॉर द संघ ऑफ़ नेशंस, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस, प्रिंसटन 1923 समकालीन किताब की समीक्षा
  • ज़िमर्न, अल्फ्रेड; द संघ ऑफ़ नेशंस एंड द रुल ऑफ़ लॉ, 1918–1935 1936

बाहरी कड़ियाँ

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