मांडव्यपुर के प्रतिहार

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मांडव्यपुर के प्रतिहार, जिन्हें मंडोर के प्रतिहार के नाम से भी जाना जाता है, प्राचीन भारत के उत्तरवर्ती काल में एक राजवंश था जिसके शासकों ने सामंतों की तरह वर्तमान राजस्थान के कुछ हिस्सों पर शासन किया। 6ठीं से 9वीं सदी के बीच इन्होने पहले मांडव्यपुर (वर्तमान मंडोर) को अपनी राजधानी बनाया और बाद में मेदांतक (वर्तमान मेड़ता) से शासन किया। कक्कूक इस वंश का अंतिम शासक था जिसके बाद यह क्षेत्र गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य के अधीन आ गया।

मण्डौर राजस्थान के जोधपुर जिले के अंतर्गत जिला मुख्यालय से लगभग 6 कि. मी. की दूरी पर बसा था। इस स्थान पर वर्तमान में मण्डौर नगर के अवशेस मात्र है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह स्थान पौराणिक काल में लंकापति रावण की धर्मपत्नी मंदोदरी का पीहर था।

मण्डौर में सर्वप्रथम प्रतिहार राजा हरिचंद्र हुए। क्षत्राणी रानी भद्रा प्रतिहार से उत्पन्न हुए पुत्र अपनी महत्वाकांक्षा को रोक न सके। चारों कुमारों ने मण्डौर का दुर्ग जीतकर उसकी प्राचीरों को ऊँचा किया। इस प्रतिहार सत्ता का प्रारम्भ मेढ़ता से हुआ । मण्डौर मेढ़ता राज्य के नाम से स्थापित घटियाला अभिलेख से प्राप्त होता है की प्रथम परिहार राज्य का संस्थापक रज्जिल परिहार था। उसने मेढ़ता और मरूडाम में नवीन दुर्गो की रचना करवाई और अपने तीनो भाइयों की सहायता से सैन्य संगठन किया तथा समीपवर्ती ६ राज्यों को को जीत लिया। शासन व्यवस्था सुदृण हो जाने पर अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र नरभट परिहार का राज्य तिलक बड़े समारोह के साथ करवाया |

कर्नल टाड ने अपने राजस्थान के इतिहास में उल्लेख किया है कि प्रतिहारों का प्रादुर्भाव आदि में मण्डौर से हुआ है। किन्तु बात तब की है जब मण्डौर का राजा मुकुल परिहार था । उसकी सिंसोंध में बाड़ के राजा से प्रतिदंद्विता थी। राहुप ने मण्डौर पे चढ़ाई कर मुकुल परिहार को बंदी बना सिंसोंध ले आया था । मुकुल से राणा की उपाधि तथा एक नगर जोहबाढ़ लेकर उसे मुक्त कर दिया । स्वयं राहुप राणा की उपाधि धारण करने लगा । राहुप सिंसोंध के जागीरदार माहप का अनुज था |

राणा की उपाधि की पुष्टि गौरीशंकर हीराचंद ओझा लिखित 'राजपूतों का इतिहास' के इस अंश से भी होती है कि बाउक प्रतिहार को राणा की उपाधि से विभूषित किया गया था । मण्डौर के प्रतिहारों से ली हुई राणा की पदवी के कारण ही कालान्तर में चितौड़ के सिसोदिया शासक 'महाराणा' कहलाने लगे। अंतिम मण्डौर शासक हम्मीर जिसे चारणों ने राणा लिखा है , राठौर चूड़ा ने 1394 ई. में दुर्ग छीना था । मण्डौर के प्रतिहारों की ज्येष्ठ शाखा गुजरत्रा क्षेत्र का जालौर था। भीनमाल में राजधानी स्थापित कर शासन करने की पुष्टि इतिहासकारों के मतानुसार होती है।

डा. के. सी. जैन अपनी पुस्तक 'राजपूतों के इतिहास' मेंइस बात से सहमत हैं कि इस शाखा की स्थापना राजा हरिचंद्र के द्वारा की गयी है। इसने अपना राज्य जोधपुर के आस पास 550 ई. के लगभग स्थापित किया था। इससे लगभग 850 ई. के राजाओं का अल्प सक्षिप्त इतिहास प्राप्त होता है।

मंडोर दुर्ग

यह दुर्ग एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित था, जिसकी ऊँचाई ३०० से ३५० फुट थी। यह दुर्ग अब खंडहर हो चुका है इसके भग्नावशेष आज भी विद्यमान हैं। विघटित अवस्था में विद्यमान दुर्ग को देखकर यद्यपि उसकी वास्तविक निर्माण विधि का पूरा आकलन नही किया जा सकता तथापि इस विषय में कुछ अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है। पहाड़ी पर स्थित इस दुर्ग के चारों ओर पाषाण निर्मित दीवार थी। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए एक मुख्य मार्ग था।

घटियाला से प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि मण्डोर दुर्ग का निर्माण ७वीं शताब्दी के पूर्व हो चुका था। शिलालेखों के अनुसार विप्र हरिचन्द्र partihar gurjar के पुत्रों ने मण्डौर पर अधिकार कर लिया तथा ६२३ ई० में उन्होंने इसके चारों ओर दीवार बनवाई। दुर्ग की पोल पर लकड़ी से निर्मित विशाल दरवाजा था। दुर्ग के शासकों के निवास के लिए महल, भण्डार, सामंतो व अधिकारियों के भवन आदि बने हुए थे। जिस मार्ग द्वारा नीचे से पहाड़ी के ऊपर किले तक पहुँचा जाता था, वह उबड़-खाबड़ था। दुर्ग की प्राचीर में जगह-जगह चौकोर छिद्र बने हुए थे। यह दुर्ग सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से अपने समय में काफी सुदृढ़ एवं महत्वपूर्ण समझा जाता था। शत्रु की सेना को पहाड़ी पर अचानक चढ़ाई करने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था। दुर्ग में प्रवेश-द्वार इस तरह से निर्मित किए गए थे कि उन्हें तोड़ना शत्रु के लिए असम्भव सा था। किले में पानी की प्रयाप्त व्यवस्था होती थी जिससे आक्रमण के समय सैनिकों एवं रक्षकों को जल की कमी का सामना न करना पड़े।

इस दुर्ग की प्राचीर चौड़ी एवं सुदृढ़ थी। दुर्ग के पास ही एक विशाल जलाशय का निर्माण करवाया गया था। इस जलाशय की सीढियों पर नाहरदेव नाम अंकित है जो मण्ड़ोर का अंतिम partiहाr gurjar शासक था। दुर्ग की दीवारें पहाड़ी के शीर्ष भाग से ऊपर उठी हुई थीं। बीच के समुन्नत भाग पर विशाल महल बने थे जो नीचे के मैदानों पर छाये हुए थे। मण्ड़ोर दुर्ग के बुर्ज गोलाकार न होकर अधिकांशतः चौकोर थे।

मण्ड़ोर दुर्ग ७८३ ई० तक परिहार शासकों के अधिकार में रहा। इसके बाद नाड़ोल के चौहान शासक रामपाल ने मण्ड़ोर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। १२२७ ई० में गुलाम वंश के शासक इल्तुतनिश ने मण्ड़ोर पर अधिकार कर लिया। यद्यपि परिहार शासकों ने तुर्की आक्रांताओं का डट कर सामना किया पर अंतत: मण्ड़ोर तुर्कों के हाथ चला गया। लेकिन तुर्की आक्रमणकारी मण्डोर को लम्बे समय तक अपने अधिकार में नही रख सके एंव दुर्ग पर पुनः प्रतिहारों का अधिकार हो गया। १२९४ ई० में फिरोज खिलजी ने परिहारों को पराजित कर मण्ड़ोर दुर्ग अधिकृत कर लिया, परन्तु १३९५ ई० में परिहारों की इंदा शाखा ने दुर्ग पर पुन: अधिकार कर लिया। इन्दों ने इस दुर्ग को चूंडा राठौड़ को सौंप दिया जो एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने आस-पास के कई प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया। १३९६ ई० में गुजरात के फौजदार जफर खाँ ने मण्डोर पर आक्रमण किया। एक वर्ष के निरन्तर घेरे के उपरान्त भी जफर खाँ को मंडोर पर अधिकार करने में सफलता नही मिली और उसे विवश होकर घेरा उठाना पड़ा। १४५३ ई० में राव जोधा ने मण्डोर दुर्ग पर आक्रमण किया। उसने मरवाड़ की राजधानी मण्डोर से स्थानान्तरित करके जोधपुर ले जाने का निर्णय लिया। राजधानी हटने के कारण मण्ड़ोर दुर्ग धीरे-धीरे वीरान होकर खंडहर में तब्दील हो गया।।

इन्हें भी देखें