बौद्ध संगीति

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महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के अल्प समय के पश्चात से ही उनके उपदेशों को संगृहीत करने, उनका पाठ (वाचन) करने आदि के उद्देश्य से संगीति (सम्मेलन) की प्रथा चल पड़ी। इन्हें धम्म संगीति (धर्म संगीति) कहा जाता है। संगीति का अर्थ है 'साथ-साथ गाना'।

प्रथम बौद्ध संगीति

इन संगीतियों की संख्या एवं सूची, अलग-अलग सम्प्रदायों (और कभी-कभी एक ही सम्प्रदाय के भीतर ही) द्वारा अलग-अलग बतायी जाती है। एक मान्यता के अनुसार बौद्ध संगीति निम्नलिखित हैं-

  • प्रथम बौद्ध संगीति – राजगृह में (483)
  • द्वित्तीय बौद्ध संगीति- वैशाली (383)
  • तृतीय बौद्ध संगीति- पाटलिपुत्र (251)
  • चतुर्थ बौद्ध संगीति- कुण्डलवन(कश्मीर) ई. की प्रथम शताब्दी

परिचय

बौद्ध परंपरा के अनुसार परिनिर्वाण के अनंतर ही राजगृह में प्रथम संगीति हुई थी और इस अवसर पर विनय और धर्म का संग्रह किया गया था। इस संगीति की ऐतिहासिकता पर इतिहासकारों में प्रचुर विवाद रहा है किंतु इस विषय की खोज की वर्तमान अवस्था को इस संगीति की ऐतिहासिकता अनुकूल कहना होगा, तथापि यह संदिग्ध रहता है कि इस अवसर पर कौन कौन से संदर्भ संगृहीत हुए।

दूसरी संगीति परिनिर्वाण सौ वर्ष पश्चात् वैशाली में हुई। महावंस के अनुसार उस समय मगध का राजा कालाशोक था। इस समय सद्धर्म अवंती से वैशाली और मथुरा से कौशांबी तक फैला हुआ था। संगीति वैशाली के भिक्षुओं के द्वारा प्रचारित १० वस्तुओं के निर्णय के लिए हुई थी। ये १० वस्तुएँ इस प्रकार थीं :

शृंगि-लवण-कल्प, द्वि अंगुल-कल्प, ग्रामांतरकल्प, आवास-कल्प, अनुमत-कल्प, आचीर्ण-कलप, अमंथित-कल्प, जलोगीपान-कल्प, अदशक-कल्प, जातरूप-रजत-कल्प।

इन कल्पों को वज्जिपुत्तक भिक्षु विहित मानते थे और उन्होंने आयुष्मान् यश के विरोध का तिरस्कार किया। इसपर यश के प्रयत्न से वैशाली में ७०० पूर्वी और पश्चिमी भिक्षुओं की संगीति हुई जिसमें दसों वस्तुओं को विनयविरुद्ध ठहराया गया। दीपवंस के अनुसार वज्जिपुत्तकों ने इस निर्णय को स्वीकार न कर स्थविर अर्हंतों के बिना एक अन्य 'महासंगीति' की, यद्यपि यह स्मरणीय है कि इस प्रकार का विवरण किसी विनय में उपलब्ध नहीं होता। कदाचित् दूसरी संगीति के अनंतर किसी समय महासांघिकों का विकास एवं संघभेद का प्रादुर्भाव मानना चाहिए।

दूसरी संगीति से अशोक तक के अंतराल में १८ विभिन्न बौद्ध संप्रदायों का आविर्भाव बताया गया है। इन संप्रदायों के आविर्भाव का क्रम सांप्रदायिक परंपराओं में भिन्न भिन्न रूप से दिया गया है। उदाहरण के लिए दीपवंस के अनुसार पहले महासांधिक पृथक् हुए। उनसे कालांतर में एकब्बोहारिक और गोकुलिक, गोकुलिकों से पंजत्तिवादी, बाहुलिक और चेतियवादी। दूसरी ओर थेरवादियों से महिंसासक और वज्जिपुत्तक निकले। वज्जिपुत्तकों से धम्मुत्तरिय, भद्दयातिक, छन्नगरिक, एवं संमितीय, तथा महिंसासकों से धम्मगुत्तिक, एवं सब्बत्थिवादी, सब्बत्थिवादियों से कस्सपिक, उनसे संकंतिक और संकंतिकों से सुत्तवादी। यह विवरण थेरवादियों की दृष्टि से है।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ