विद्युत मृत्यु
विद्युत आघात से जानबूझकर की गई मृत्यु या दुर्घटनावश हुई मृत्यु को विद्युन्मृत्यु या विद्युत मृत्यु (Electrocution) कहते हैं। 'एल्क्ट्रोक्यूशन' शब्द की तब सामने आया था जब १८९० में 'विद्युत कुर्सी' का उपयोग हुआ था।
परिचय
विद्युन्मृत्यु मृत्युदंड देने की विधि है, जिसका उपयोग पहली बार न्यूयॉर्क में ६ अगस्त १८९० ई. को हुआ था। माना जाता है कि इस विधि में मृत्यु बिना कष्ट के तत्काल होती है। इसमें मुख्यतः में २,३०० वोल्ट, एकल प्रावस्था (single phase), ६० साइकिल (cycle) प्रत्यावर्ती धारा का एक प्रेरण वोल्टता (induction voltage) नियंत्रक और स्वपरिणमित्र (autotransformer) होता है। साथ ही आवश्यक स्विच और मीटर होते हैं।
यह संयंत्र विद्युन्मृत्यु कुर्सी को, जिसपर दंडित व्यक्ति को बैठाया जाता है, २,००० वोल्ट की धारा प्रदान करता है और उसके सीने, भुजाओं, उरु संधि, टखने और पिंडली के बीच के पतले भाग को पट्टे से सुरक्षित रूप से बाँध दिया जाता है। उसके सिर के लिए टेक की व्यवस्था होती है और चेहरे पर नकाब डाली जाती है। नम, स्पंजरेखित (sponge lined) और समुचित रूप से ढले इलेक्ट्रोडों को सिर और एक पैर की पिंडली पर पट्ट द्वारा कसकर बाँध देते हैं। प्रारंभ में २,००० वोल्ट धारा का आघात दिया जाता है और फिर इसे तुरंत घटाकर ५०० वोल्ट कर दिया जाता है। ३० सेकंड के अंतर पर दो मिनट तक धारा को घटाया बढ़ाया जाता है। इस बीच चार से आठ ऐंपियर तक की धारा प्रवाहित की जाती है। स्विच खोल दिए जाते हैं और आधिकरिक डाक्टर शरीर की परीक्षा लेकर उसे कानूनन मृत करार देता है।
विद्युन्मृत्यु के दौरान व्यक्ति तत्क्षण निश्चेत हो जाता है, अत: मरने की क्रिया बिना कष्ट के पूरी होती है। धारा के प्रथम संपर्क में ही परिसंचरण और श्वसन बंद हो जाते हैं। देर तक धारा के अनुप्रयोग से जैव क्रियाओं का स्थायी अपविन्यास (derangement) हो जाता है और उनमें पुनरुज्जीवन की कोई संभावना नहीं रह जाती। मृत्यु के कुछ मिनट बाद तक मेरुदंड और पैर पर बंधे इलेक्ट्रोड के निकट १२० डिग्री फारेनहाइट से १२८ डिग्री फारेनहाइट तक, या इससे भी अधिक ताप पाया जाता है।