रामभद्राचार्य

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी महाराज

अक्टूबर २५, २००९ के दिन जगद्गुरु रामभद्राचार्य प्रवचन देते हुए
जन्म साँचा:br separated entries
मृत्यु साँचा:br separated entries
गुरु/शिक्षक पण्डित ईश्वरदास महाराज
दर्शन विशिष्टाद्वैत वेदान्त
खिताब/सम्मान धर्मचक्रवर्ती, महामहोपाध्याय, श्रीचित्रकूटतुलसीपीठाधीश्वर, जगद्गुरु रामानन्दाचार्य, महाकवि, प्रस्थानत्रयीभाष्यकार, इत्यादि
साहित्यिक कार्य प्रस्थानत्रयी पर राघवकृपाभाष्य, श्रीभार्गवराघवीयम्, भृंगदूतम्, गीतरामायणम्, श्रीसीतारामसुप्रभातम्, श्रीसीतारामकेलिकौमुदी, अष्टावक्र, इत्यादि
कथन मानवता ही मेरा मन्दिर मैं हूँ इसका एक पुजारी ॥ हैं विकलांग महेश्वर मेरे मैं हूँ इनका कृपाभिखारी ॥[१]
धर्म हिन्दू
दर्शन विशिष्टाद्वैत वेदान्त
के लिए जाना जाता है साँचा:if empty
हिन्दी उच्चारण:रामभद्राचार्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य (साँचा:lang-sa) (१९५०–), पूर्वाश्रम नाम गिरिधर मिश्र चित्रकूट (उत्तर प्रदेश, भारत) में रहने वाले एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं।[२] वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर १९८८ ई से प्रतिष्ठित हैं।[३][४][५] वे चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष हैं।[६] वे चित्रकूट स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन कुलाधिपति हैं।[७][८] यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य दो मास की आयु में नेत्र की ज्योति से रहित हो गए थे और तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं।[३][४][९][१०]

अध्ययन या रचना के लिए उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का प्रयोग नहीं किया है। वे बहुभाषाविद् हैं और २२ भाषाएँ बोलते हैं।[९][११][१२] वे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में आशुकवि और रचनाकार हैं। उन्होंने ८० से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में), रामचरितमानस पर हिन्दी टीका, अष्टाध्यायी पर काव्यात्मक संस्कृत टीका और प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रधान उपनिषदों) पर संस्कृत भाष्य सम्मिलित हैं।[१३] उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है,[१०][१४][१५] और वे रामचरितमानस की एक प्रामाणिक प्रति के सम्पादक हैं, जिसका प्रकाशन तुलसी पीठ द्वारा किया गया है।[१६] स्वामी रामभद्राचार्य रामायण और भागवत के प्रसिद्ध कथाकार हैं – भारत के भिन्न-भिन्न नगरों में और विदेशों में भी नियमित रूप से उनकी कथा आयोजित होती रहती है और कथा के कार्यक्रम संस्कार टीवी, सनातन टीवी इत्यादि चैनलों पर प्रसारित भी होते हैं।[१७][१८][१९][२०][२१][२२]

२०१५ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया।

जन्म एवं प्रारम्भिक जीवन

माता शची देवी और पिता पण्डित राजदेव मिश्र के पुत्र जगद्गुरु रामभद्राचार्य का जन्म एक वसिष्ठगोत्रिय सरयूपारीण ब्राह्मण परिवार में भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के जौनपुर जिले के सांडीखुर्द नामक ग्राम में हुआ। माघ कृष्ण एकादशी विक्रम संवत २००६ (तदनुसार १४ जनवरी १९५० ई), मकर संक्रान्ति की तिथि को रात के १०:३४ बजे बालक का प्रसव हुआ। उनके पितामह पण्डित सूर्यबली मिश्र की एक चचेरी बहन मीरा बाई की भक्त थीं और मीरा बाई अपने काव्यों में श्रीकृष्ण को गिरिधर नाम संबोधित करती थीं, अतः उन्होंने नवजात बालक को गिरिधर नाम दिया।[९][२३]

दृष्टि बाधन

गिरिधर की नेत्रदृष्टि दो मास की अल्पायु में नष्ट हो गयी। मार्च २४, १९५० के दिन बालक की आँखों में रोहे हो गए। गाँव में आधुनिक चिकित्सा उपलब्ध नहीं थी। बालक को एक वृद्ध महिला चिकित्सक के पास ले जाया गया जो रोहे की चिकित्सा के लिए जानी जाती थी। चिकित्सक ने गिरिधर की आँखों में रोहे के दानों को फोड़ने के लिए गरम द्रव्य डाला, परन्तु रक्तस्राव के कारण गिरिधर के दोनों नेत्रों की ज्योति चली गयी।[२४] आँखों की चिकित्सा के लिए बालक का परिवार उन्हें सीतापुर, लखनऊ और मुम्बई स्थित विभिन्न आयुर्वेद, होमियोपैथी और पश्चिमी चिकित्सा के विशेषज्ञों के पास ले गया, परन्तु गिरिधर के नेत्रों का उपचार न हो सका।[२३] गिरिधर मिश्र तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं। वे न तो पढ़ सकते हैं और न लिख सकते हैं और न ही ब्रेल लिपि का प्रयोग करते हैं – वे केवल सुनकर सीखते हैं और बोलकर लिपिकारों द्वारा अपनी रचनाएँ लिखवाते हैं।[२४]

प्रथम काव्य रचना

गिरिधर के पिता मुम्बई में कार्यरत थे, अतः उनका प्रारम्भिक अध्ययन घर पर पितामह की देख-रेख में हुआ। दोपहर में उनके पितामह उन्हें रामायण, महाभारत, विश्रामसागर, सुखसागर, प्रेमसागर, ब्रजविलास आदि काव्यों के पद सुना देते थे। तीन वर्ष की आयु में गिरिधर ने अवधी में अपनी सर्वप्रथम कविता रची और अपने पितामह को सुनाई। इस कविता में यशोदा माता एक गोपी को श्रीकृष्ण से लड़ने के लिए उलाहना दे रही हैं।[२३]

Insert the text of the quote here, without quotation marks.

गीता और रामचरितमानस का ज्ञान

एकश्रुत प्रतिभा से युक्त बालक गिरिधर ने अपने पड़ोसी पण्डित मुरलीधर मिश्र की सहायता से पाँच वर्ष की आयु में मात्र पन्द्रह दिनों में श्लोक संख्या सहित सात सौ श्लोकों वाली सम्पूर्ण भगवद्गीता कण्ठस्थ कर ली। १९५५ ई में जन्माष्टमी के दिन उन्होंने सम्पूर्ण गीता का पाठ किया।[१०][२३][२५] संयोगवश, गीता कण्ठस्थ करने के ५२ वर्ष बाद नवम्बर ३०, २००७ ई के दिन जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने संस्कृत मूलपाठ और हिन्दी टीका सहित भगवद्गीता के सर्वप्रथम ब्रेल लिपि में अंकित संस्करण का विमोचन किया।[२६][२७][२८][२९] सात वर्ष की आयु में गिरिधर ने अपने पितामह की सहायता से छन्द संख्या सहित सम्पूर्ण श्रीरामचरितमानस साठ दिनों में कण्ठस्थ कर ली। १९५७ ई में रामनवमी के दिन व्रत के दौरान उन्होंने मानस का पूर्ण पाठ किया।[२३][२५] कालान्तर में गिरिधर ने समस्त वैदिक वाङ्मय, संस्कृत व्याकरण, भागवत, प्रमुख उपनिषद्, संत तुलसीदास की सभी रचनाओं और अन्य अनेक संस्कृत और भारतीय साहित्य की रचनाओं को कण्ठस्थ कर लिया।[१०][२३]

उपनयन और कथावाचन

गिरिधर मिश्र का उपनयन संस्कार निर्जला एकादशी के दिन जून २४, १९६१ ई को हुआ। अयोध्या के पण्डित ईश्वरदास महाराज ने उन्हें गायत्री मन्त्र के साथ-साथ राममन्त्र की दीक्षा भी दी। भगवद्गीता और रामचरितमानस का अभ्यास अल्पायु में ही कर लेने के बाद गिरिधर अपने गाँव के समीप अधिक मास में होने वाले रामकथा कार्यक्रमों में जाने लगे। दो बार कथा कार्यक्रमों में जाने के बाद तीसरे कार्यक्रम में उन्होंने रामचरितमानस पर कथा प्रस्तुत की, जिसे कईं कथावाचकों ने सराहा।[२३]

औपचारिक शिक्षा

उच्च विद्यालय

७ जुलाई १९६७ के दिन जौनपुर स्थित आदर्श गौरीशंकर संस्कृत महाविद्यालय से गिरिधर मिश्र ने अपनी औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ की, जहाँ उन्होंने संस्कृत व्याकरण के साथ-साथ हिन्दी, आंग्लभाषा, गणित, भूगोल और इतिहास का अध्ययन किया।[३०] मात्र एक बार सुनकर स्मरण करने की अद्भुत क्षमता से सम्पन्न एकश्रुत गिरिधर मिश्र ने कभी भी ब्रेल लिपि या अन्य साधनों का सहारा नहीं लिया। तीन महीनों में उन्होंने वरदराजाचार्य विरचित ग्रन्थ लघुसिद्धान्तकौमुदी का सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर लिया।[३०] प्रथमा से मध्यमा की परीक्षाओं में चार वर्ष तक कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने के बाद उच्चतर शिक्षा के लिए वे सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय गए।[२५]

संस्कृत में प्रथम काव्यरचना

आदर्श गौरीशंकर संस्कृत महाविद्यालय में गिरिधर ने छन्दःप्रभा के अध्ययन के समय आचार्य पिंगल प्रणीत अष्टगण का ज्ञान प्राप्त किया। अगले ही दिन उन्होंने संस्कृत में अपना प्रथम पद भुजंगप्रयात छन्द में रचा।[३०]

महाघोरशोकाग्निनातप्यमानं पतन्तं निरासारसंसारसिन्धौ।
अनाथं जडं मोहपाशेन बद्धं प्रभो पाहि माँ सेवकक्लेशहर्त्तः ॥

हे सर्वसमर्थ प्रभु, सेवक के क्लेशों को हरनेवाले! मैं इस महाघोर शोक की अग्नि द्वारा तपाया जा रहा हूँ, निरासार संसार-सागर में गिर रहा हूँ, अनाथ और जड़ हूँ और मोह के पाश से बँधा हूँ, मेरी रक्षा करें।
युवावस्था में गिरिधर मिश्र

शास्त्री (स्नातक) तथा आचार्य (परास्नातक)

१९७१ में गिरिधर मिश्र वाराणसी स्थित सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत व्याकरण में शास्त्री (स्नातक उपाधि) के अध्ययन के लिए प्रविष्ट हुए।[३०] १९७४ में उन्होंने सर्वाधिक अंक अर्जित करते हुए शास्त्री (स्नातक उपाधि) की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् वे आचार्य (परास्नातक उपाधि) के अध्ययन के लिए इसी विश्वविद्यालय में पंजीकृत हुए। परास्नातक अध्ययन के दौरान १९७४ में अखिल भारतीय संस्कृत अधिवेशन में भाग लेने गिरिधर मिश्र नयी दिल्ली आए। अधिवेशन में व्याकरण, सांख्य, न्याय, वेदान्त और अन्त्याक्षरी में उन्होंने पाँच स्वर्ण पदक जीते।[३] भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्रिणी श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने उन्हें पाँचों स्वर्णपदकों के साथ उत्तर प्रदेश के लिए चलवैजयन्ती पुरस्कार प्रदान किया।[२५] उनकी योग्यताओं से प्रभावित होकर श्रीमती गाँधी ने उन्हें आँखों की चिकित्सा के लिए संयुक्त राज्य अमरीका भेजने का प्रस्ताव किया, परन्तु गिरिधर मिश्र ने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।[२४] १९७६ में सात स्वर्णपदकों और कुलाधिपति स्वर्ण पदक के साथ उन्होंने आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की।[२५] उनकी एक विरल उपलब्धि भी रही – हालाँकि उन्होंने केवल व्याकरण में आचार्य उपाधि के लिए पंजीकरण किया था, उनके चतुर्मुखी ज्ञान के लिए विश्वविद्यालय ने उन्हें ३० अप्रैल १९७६ के दिन विश्वविद्यालय में अध्यापित सभी विषयों का आचार्य घोषित किया।[२४][३१]

विद्यावारिधि (पी एच डी) एवं वाचस्पति (डी लिट्)

आचार्य की उपाधि पाने के पश्चात् गिरिधर मिश्र विद्यावारिधि (पी एच डी) की उपाधि के लिए इसी विश्वविद्यालय में पण्डित रामप्रसाद त्रिपाठी के निर्देशन में शोधकार्य के लिए पंजीकृत हुए। उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से शोध कार्य के लिए अध्येतावृत्ति भी मिली, परन्तु आगामी वर्षों में अनेक आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।[२४] संकटों के बीच उन्होंने अक्टूबर १४, १९८१ को संस्कृत व्याकरण में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से विद्यावारिधि (पी एच डी) की उपाधि अर्जित की। उनके शोधकार्य का शीर्षक था अध्यात्मरामायणे अपाणिनीयप्रयोगानां विमर्शः और इस शोध में उन्होंने अध्यात्म रामायण में पाणिनीय व्याकरण से असम्मत प्रयोगों पर विमर्श किया। विद्यावारिधि उपाधि प्रदान करने के बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उन्हें सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के व्याकरण विभाग के अध्यक्ष के पद पर भी नियुक्त किया। लेकिन गिरिधर मिश्र ने इस नियुक्ति को अस्वीकार कर दिया और अपना जीवन धर्म, समाज और विकलांगों की सेवा में लगाने का निर्णय लिया।[२४]

१९९७ में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय ने उन्हें उनके शोधकार्य अष्टाध्याय्याः प्रतिसूत्रं शाब्दबोधसमीक्षणम् पर वाचस्पति (डी लिट्) की उपाधि प्रदान की। इस शोधकार्य में गिरिधर मिश्र नें अष्टाध्यायी के प्रत्येक सूत्र पर संस्कृत के श्लोकों में टीका रची है।[३०]

विरक्त दीक्षा और तदनन्तर जीवन

१९७६ में गिरिधर मिश्र ने करपात्री महाराज को रामचरितमानस पर कथा सुनाई। स्वामी करपात्री ने उन्हें विवाह न करने, वीरव्रत धारण करके आजीवन ब्रह्मचारी रहने और किसी वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षा लेने का उपदेश दिया।[३२] गिरिधर मिश्र ने नवम्बर १९, १९८३ के कार्तिक पूर्णिमा के दिन रामानन्द सम्प्रदाय में श्री श्री १००८ श्री रामचरणदास महाराज फलाहारी से विरक्त दीक्षा ली। अब गिरिधर मिश्र रामभद्रदास नाम से आख्यात हुए।[३२]

चित्रकूट में मन्दाकिनी नदी के तट पर षाण्मासिक पयोव्रत के दौरान सुखासन और ध्यानमुद्रा में ध्यानस्थ जगद्गुरु रामभद्राचार्य

पयोव्रत

गिरिधर मिश्र ने गोस्वामी तुलसीदास विरचित दोहावली के निम्नलिखित पाँचवे दोहे के अनुसार १९७९ ई में चित्रकूट में छः महीनों तक मात्र दुग्ध और फलों का आहार लेते हुए अपना प्रथम षाण्मासिक पयोव्रत अनुष्ठान सम्पन्न किया।[३२][३३][३४]

पय अहार फल खाइ जपु राम नाम षट मास।
सकल सुमंगल सिद्धि सब करतल तुलसीदास ॥

केवल दूध और फलों का आहार लेते हुए छः महीने तक राम नाम जपो। तुलसीदास कहते हैं कि ऐसा करने से सारे सुन्दर मंगल और सिद्धियाँ करतलगत हो जाएँगी।

१९८३ ई में उन्होंने चित्रकूट की स्फटिक शिला के निकट अपना द्वितीय षाण्मासिक पयोव्रत अनुष्ठान सम्पन्न किया।[३२] यह पयोव्रत स्वामी रामभद्राचार्य के जीवन का एक नियमित व्रत बन गया है। २००२ ई में अपने षष्ठ षाण्मासिक पयोव्रत अनुष्ठान में उन्होंने श्रीभार्गवराघवीयम् नामक संस्कृत महाकाव्य की रचना की।[३५][३६] वे अब भी तक नियमित रूप से षाण्मासिक पयोव्रत का अनुष्ठान करते रहते हैं, २०१०-२०११ में उन्होंने अपने नवम पयोव्रत का अनुष्ठान किया।[३७][३८][३९]

अक्टूबर २५, २००९ के दिन जगद्गुरु रामभद्राचार्य चित्रकूट स्थित तुलसी पीठ में संत तुलसीदास की प्रतिमा पर माल्यार्पण करते हुए

तुलसी पीठ

१९८७ में उन्होंने चित्रकूट में एक धार्मिक और समाजसेवा संस्थान तुलसी पीठ की स्थापना की, जहाँ रामायण के अनुसार श्रीराम ने वनवास के चौदह में से बारह वर्ष बिताए थे।[४०] इस पीठ की स्थापना हेतु साधुओं और विद्वज्जनों ने उन्हें श्रीचित्रकूटतुलसीपीठाधीश्वर की उपाधि से अलंकृत किया। इस तुलसी पीठ में उन्होंने एक सीताराम मन्दिर का निर्माण करवाया, जिसे काँच मन्दिर के नाम से जाना जाता है।[४०]

जगद्गुरुत्व

जगद्गुरु सनातन धर्म में प्रयुक्त एक उपाधि है जो पारम्परिक रूप से वेदान्त दर्शन के उन आचार्यों को दी जाती है जिन्होंने प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और मुख उपनिषद्) पर संस्कृत में भाष्य रचा है। मध्यकाल में भारत में कई प्रस्थानत्रयीभाष्यकार हुए थे यथा शंकराचार्य, निम्बार्काचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, रामानन्दाचार्य और अंतिम थे वल्लभाचार्य (१४७९ से १५३१ ई)। वल्लभाचार्य के भाष्य के पश्चात् पाँच सौ वर्षों तक संस्कृत में प्रस्थानत्रयी पर कोई भाष्य नहीं लिखा गया।[४१]

जून २४, १९८८ ई के दिन काशी विद्वत् परिषद् वाराणसी ने रामभद्रदास का तुलसीपीठस्थ जगद्गुरु रामानन्दाचार्य के रूप में चयन किया।[५] ३ फ़रवरी १९८९ को प्रयाग में महाकुंभ में रामानन्द सम्प्रदाय के तीन अखाड़ों के महन्तों, सभी सम्प्रदायों, खालसों और संतों द्वारा सर्वसम्मति से काशी विद्वत् परिषद् के निर्णय का समर्थन किया गया।[४२] इसके बाद १ अगस्त १९९५ को अयोध्या में दिगंबर अखाड़े ने रामभद्रदास का जगद्गुरु रामानन्दाचार्य के रूप में विधिवत अभिषेक किया।[३] अब रामभद्रदास का नाम हुआ जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य। इसके बाद उन्होंने ब्रह्म सूत्र, भगवद्गीता और ११ उपनिषदों (कठ, केन, माण्डूक्य, ईशावास्य, प्रश्न, तैत्तिरीय, ऐतरेय, श्वेताश्वतर, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और मुण्डक) पर संस्कृत में श्रीराघवकृपाभाष्य की रचना की। इन भाष्यों का प्रकाशन १९९८ में हुआ।[१३] वे पहले ही नारद भक्ति सूत्र और रामस्तवराजस्तोत्र पर संस्कृत में राघवकृपाभाष्य की रचना कर चुके थे। इस प्रकार स्वामी रामभद्राचार्य ने ५०० वर्षों में पहली बार संस्कृत में प्रस्थानत्रयीभाष्यकार बनकर लुप्त हुई जगद्गुरु परम्परा को पुनर्जीवित किया और रामानन्द सम्प्रदाय को स्वयं रामानन्दाचार्य द्वारा रचित आनन्दभाष्य के बाद प्रस्थानत्रयी पर दूसरा संस्कृत भाष्य दिया।[४१][४३]

संयुक्त राष्ट्र को सम्बोधन

अगस्त २८ से ३१, २००० ई के बीच न्यू यॉर्क में संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित सहस्राब्दी विश्व शान्ति शिखर सम्मलेन में भारत के आध्यात्मिक और धार्मिक गुरुओं में जगद्गुरु रामभद्राचार्य सम्मिलित थे। संयुक्त राष्ट्र को उद्बोधित करते हुए अपने में उन्होंने भारत और हिन्दू शब्दों की संस्कृत व्याख्या और ईश्वर के सगुण और निर्गुण स्वरूपों का उल्लेख करते हुए शान्ति पर वक्तव्य दिया। इस वक्तव्य द्वारा उन्होंने विश्व के सभी विकसित और विकासशील देशों से एकजुट होकर दरिद्रता उन्मूलन, आतंकवाद दलन और निःशस्त्रीकरण के लिए प्रयासरत होने का आह्वान किया। वक्तव्य के अन्त में उन्होंने शान्ति मन्त्र का पाठ किया।[४४][४५]

अयोध्या मसले में साक्ष्य

जुलाई २००३ में जगद्गुरु रामभद्राचार्य इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सम्मुख अयोध्या विवाद के अपर मूल अभियोग संख्या ५ के अन्तर्गत धार्मिक मामलों के विशेषज्ञ के रूप में साक्षी बनकर प्रस्तुत हुए (साक्षी संख्या ओ पी डब्लु १६)।[४६][४७][४८] उनके शपथ पत्र और जिरह के कुछ अंश अन्तिम निर्णय में उद्धृत हैं।[४९][५०][५१] अपने शपथ पत्र में उन्होंने सनातन धर्म के प्राचीन शास्त्रों (वाल्मीकि रामायण, रामतापनीय उपनिषद्, स्कन्द पुराण, यजुर्वेद, अथर्ववेद, इत्यादि) से उन छन्दों को उद्धृत किया जो उनके मतानुसार अयोध्या को एक पवित्र तीर्थ और श्रीराम का जन्मस्थान सिद्ध करते हैं। उन्होंने तुलसीदास की दो कृतियों से नौ छन्दों (तुलसी दोहा शतक से आठ दोहे और कवितावली से एक कवित्त) को उद्धृत किया जिनमें उनके कथनानुसार अयोध्या में मन्दिर के तोड़े जाने और विवादित स्थान पर मस्जिद के निर्माण का वर्णन है।[४९] प्रश्नोत्तर के दौरान उन्होंने रामानन्द सम्प्रदाय के इतिहास, उसके मठों, महन्तों के विषय में नियमों, अखाड़ों की स्थापना और संचालन और तुलसीदास की कृतियों का विस्तृत वर्णन किया।[४९] मूल मन्दिर के विवादित स्थान के उत्तर में होने के प्रतिपक्ष द्वारा रखे गए तर्क का निरसन करते हुए उन्होंने स्कन्द पुराण के अयोध्या महात्म्य में वर्णित राम जन्मभूमि की सीमाओं का वर्णन किया, जोकि न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल द्वारा विवादित स्थल के वर्तमान स्थान से मिलती हुई पायी गयीं।[४९]

जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय

जनवरी २, २००५ ई के दिन विकलांग विश्वविद्यालय के परिसर में मुख्य भवन के सामने अस्थि विकलांग विद्यार्थियों के साथ कुलाधिपति जगद्गुरु रामभद्राचार्य

२३ अगस्त १९९६ ई के दिन स्वामी रामभद्राचार्य ने चित्रकूट में दृष्टिहीन विद्यार्थियों के लिए तुलसी प्रज्ञाचक्षु विद्यालय की स्थापना की।[२४][४०] इसके बाद उन्होंने केवल विकलांग विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा प्राप्ति हेतु एक संस्थान की स्थापना का निर्णय लिया। इस उद्देश्य के साथ उन्होंने सितम्बर २७, २००१ ई को चित्रकूट, उत्तर प्रदेश, में जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय की स्थापना की।[५२][५३] यह भारत और विश्व का प्रथम विकलांग विश्वविद्यालय है।[५४][५५] इस विश्वविद्यालय का गठन उत्तर प्रदेश सरकार के एक अध्यादेश द्वारा किया गया, जिसे बाद में उत्तर प्रदेश राज्य अधिनियम ३२ (२००१) में परिवर्तित कर दिया गया।[५६][५७][५८][५९] इस अधिनियम ने स्वामी रामभद्राचार्य को विश्वविद्यालय का जीवन पर्यन्त कुलाधिपति भी नियुक्त किया। यह विश्वविद्यालय संस्कृत, हिन्दी, आंग्लभाषा, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, संगीत, चित्रकला (रेखाचित्र और रंगचित्र), ललित कला, विशेष शिक्षण, प्रशिक्षण, इतिहास, संस्कृति, पुरातत्त्वशास्त्र, संगणक और सूचना विज्ञान, व्यावसायिक शिक्षण, विधिशास्त्र, अर्थशास्त्र, अंग-उपयोजन और अंग-समर्थन के क्षेत्रों में स्नातक, स्नातकोत्तर और डॉक्टर की उपाधियाँ प्रदान करता हैं।[६०] विश्वविद्यालय में २०१३ तक आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र (मेडिकल) का अध्यापन प्रस्तावित है।[६१] विश्वविद्यालय में केवल चार प्रकार के विकलांग – दृष्टिबाधित, मूक-बधिर, अस्थि-विकलांग (पंगु अथवा भुजाहीन) और मानसिक विकलांग – छात्रों को प्रवेश की अनुमति है, जैसा कि भारत सरकार के विकलांगता अधिनियम १९९५ में निरूपित है। उत्तर प्रदेश सरकार के अनुसार यह विश्वविद्यालय प्रदेश के प्रमुख सूचना प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रानिक्स शैक्षणिक संस्थाओं में से एक है।[६२] मार्च २०१० ई में विश्वविद्यालय के द्वितीय दीक्षांत समारोह में कुल ३५४ विद्यार्थियों को विभिन्न शैक्षणिक उपाधियाँ प्रदान की गईं।[६३][६४][६५] जनवरी २०११ ई में आयोजित तृतीय दीक्षांत समारोह में ३८८ विद्यार्थियों को शैक्षणिक उपाधियाँ प्रदान की गईं।[६६][६७]

रामचरितमानस की प्रामाणिक प्रति

जगद्गुरु रामभद्राचार्य अपने द्वारा सम्पादित रामचरितमानस की प्रामाणिक प्रति (भावार्थबोधिनी टीका सहित) भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को अर्पित करते हुए

गोस्वामी तुलसीदास ने अयुताधिक पदों से युक्त रामचरितमानस की रचना १६वी शताब्दी ई में की थी। ४०० वर्षों में उनकी यह कृति उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय बन गयी और इसे पाश्चात्य भारतविद् बहुशः उत्तर भारत की बाईबिल कहते हैं।[६८][६९] इस काव्य की अनेकों प्रतियाँ मुद्रित हुई हैं, जिनमें श्री वेंकटेश्वर प्रेस (खेमराज श्रीकृष्णदास) और रामेश्वर भट्ट आदि पुरानी प्रतियाँ और गीता प्रेस, मोतीलाल बनारसीदास, कौदोराम, कपूरथला और पटना से मुद्रित नयी प्रतियाँ सम्मिलित हैं।[७०] मानस पर अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं, जिनमें मानसपीयूष, मानसगूढार्थचन्द्रिका, मानसमयंक, विनायकी, विजया, बालबोधिनी इत्यादि सम्मिलित हैं।[७१] बहुत स्थानों पर इन प्रतियों और टीकाओं में छन्दों की संख्या, मूलपाठ, प्रचलित वर्तनियों (यथा अनुनासिक प्रयोग) और प्रचलित व्याकरण नियमों (यथा विभक्त्यन्त स्वर) में भेद हैं।[७१] कुछ प्रतियों में एक आठवाँ काण्ड भी परिशिष्ट के रूप में मिलता है, जैसे कि मोतीलाल बनारसीदास और श्री वेंकटेश्वर प्रेस की प्रतियों में।[७२][७३]

२०वी शताब्दी में वाल्मीकि रामायण और महाभारत का विभिन्न प्रतियाँ के आधार पर सम्पादन और प्रामाणिक प्रति (साँचा:lang-en) का मुद्रण क्रमशः बड़ौदा स्थित महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय और पुणे स्थित भण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान द्वारा किया गया था,[७४][७५] स्वामी रामभद्राचार्य बाल्यकाल से २००६ ई तक रामचरितमानस की ४००० आवृत्तियाँ कर चुके थे।[७१] उन्होंने ५० प्रतियों के पाठों पर आठ वर्ष अनुसन्धान करके एक प्रामाणिक प्रति का सम्पादन किया।[७०] इस प्रति को तुलसी पीठ संस्करण के नाम से मुद्रित किया गया। आधुनिक प्रतियों की तुलना में तुलसी पीठ प्रति में मूलपाठ में कई स्थानों पर अन्तर है - मूल पाठ के लिए स्वामी रामभद्राचार्य ने पुरानी प्रतियों को अधिक विश्वसनीय माना है।[७०] इसके अतिरिक्त वर्तनी, व्याकरण और छन्द सम्बन्धी प्रचलन में आधुनिक प्रतियों से तुलसी पीठ प्रति निम्नलिखित प्रकार से भिन्न है।[७१][७६]

  1. गीता प्रेस सहित कईं आधुनिक प्रतियाँ २ पंक्तियों में लिखित १६-१६ मात्राओं के चार चरणों की इकाई को एक चौपाई मानती हैं, जबकि कुछ विद्वान एक पंक्ति में लिखित ३२ मात्राओं की इकाई को एक चौपाई मानते हैं।[७७] रामभद्राचार्य ने ३२ मात्राओं की एक चौपाई मानी है, जिसके समर्थन में उन्होंने हनुमान चालीसा और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा पद्मावत की समीक्षा के उदाहरण दिए हैं। उनके अनुसार इस व्याख्या में भी चौपाई के चार चरण निकलते हैं क्यूंकि हर १६ मात्राओं की अर्धाली में ८ मात्राओं के बाद यति है। परिणामतः तुलसी पीठ प्रति में चौपाइयों की गणना फ़िलिप लुट्गेनडॅार्फ़ की गणना जैसी है।[७८]
  2. कुछ अपवादों (पादपूर्ति इत्यादि) को छोड़कर तुलसी पीठ की प्रति में आधुनिक प्रतियों में प्रचलित कर्तृवाचक और कर्मवाचक पदों के अन्त में उकार के स्थान पर अकार का प्रयोग है। रामभद्राचार्य के मतानुसार उकार का पदों के अन्त में प्रयोग त्रुटिपूर्ण है, क्यूंकि ऐसा प्रयोग अवधी के स्वभाव के विरुद्ध है।
  3. तुलसी पीठ की प्रति में विभक्ति दर्शाने के लिए अनुनासिक का प्रयोग नहीं है जबकि आधुनिक प्रतियों में ऐसा प्रयोग बहुत स्थानों पर है। रामभद्राचार्य के अनुसार पुरानी प्रतियों में अनुनासिक का प्रचलन नहीं है।
  4. आधुनिक प्रतियों में कर्मवाचक बहुवचन और मध्यम पुरुष सर्वनाम प्रयोग में संयुक्ताक्षर न्ह और म्ह के स्थान पर तुलसी पीठ की प्रति में क्रमशः न और म का प्रयोग है।
  5. आधुनिक प्रतियों में प्रयुक्त तद्भव शब्दों में उनके तत्सम रूप के तालव्य शकार के स्थान पर सर्वत्र दन्त्य सकार का प्रयोग है। तुलसी पीठ के प्रति में यह प्रयोग वहीं है जहाँ सकार के प्रयोग से अनर्थ या विपरीत अर्थ न बने। उदाहरणतः सोभा (तत्सम शोभा) में तो सकार का प्रयोग है, परन्तु शंकर में नहीं क्यूँकि रामभद्राचार्य के अनुसार यहाँ सकार कर देने से वर्णसंकर के अनभीष्ट अर्थ वाला संकर पद बन जाएगा।[७९]

नवम्बर २००९ में तुलसी पीठ की प्रति को लेकर अयोध्या में एक विवाद हो गया था। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् और राम जन्मभूमि न्यास ने मानस से छेड़छाड़ का आरोप लगाते हुए स्वामी रामभद्राचार्य से क्षमायाचना करने को कहा था।[७०][८०] उत्तर में स्वामी रामभद्राचार्य का कथन था कि उन्होंने केवल मानस की प्रचलित प्रतियों का संपादन किया था, मूल मानस में संशोधन नहीं।[८१][८२] यह विवाद तब शान्त हुआ जब स्वामी रामभद्राचार्य ने अखाड़ा परिषद् को एक पत्र लिखकर उनके पहुँचे कष्ट और पीड़ा पर खेद प्रकट किया। पत्र में रामभद्राचार्य ने अखाड़ा परिषद् से निवेदन किया कि वे पुरानी प्रतियों को ही मान्य मानें, अन्य प्रतियों को नहीं।[८३]

साहित्यिक कृतियाँ

जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने ८० से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें से कुछ प्रकाशित और कुछ अप्रकाशित हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं।[१३]

काव्य

अक्टूबर ३०, २००२ को श्रीभार्गवराघवीयम् का लोकार्पण करते हुए भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी। जगद्गुरु रामभद्राचार्य बायीं ओर हैं।
महाकाव्य
  • श्रीभार्गवराघवीयम् (२००२) – एक सौ एक श्लोकों वाले इक्कीस सर्गों में विभाजित और चालीस संस्कृत और प्राकृत के छन्दों में बद्ध २१२१ श्लोकों में विरचित संस्कृत महाकाव्य। स्वयं महाकवि द्वारा रचित हिन्दी टीका सहित। इसका वर्ण्य विषय दो राम अवतारों (परशुराम और राम) की लीला है। इस रचना के लिए कवि को २००५ में संस्कृत के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।[८४][८५] जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • अष्टावक्र (२०१०) – एक सौ आठ पदों वाले आठ सर्गों में विभाजित ८६४ पदों में विरचित हिन्दी महाकाव्य। यह महाकाव्य अष्टावक्र ऋषि के जीवन का वर्णन है, जिन्हें विकलांगों के पुरोधा के रूप में दर्शाया गया है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • अरुन्धती (१९९४) – १५ सर्गों और १२७९ पदों में रचित हिन्दी महाकाव्य। इसमें ऋषि दम्पती वसिष्ठ और अरुन्धती के जीवन का वर्णन है। राघव साहित्य प्रकाशन निधि, राजकोट द्वारा प्रकाशित।
खण्डकाव्य
  • आजादचन्द्रशेखरचरितम् – स्वतन्त्रता सेनानी चन्द्रशेखर आज़ाद पर संस्कृत में रचित खण्डकाव्य (गीतादेवी मिश्र द्वारा रचित हिन्दी टीका सहित)। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • लघुरघुवरम् – संस्कृत भाषा के केवल लघु वर्णों में रचित संस्कृत खण्डकाव्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • सरयूलहरी – अयोध्या से प्रवाहित होने वाली सरयू नदी पर संस्कृत में रचित खण्डकाव्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • भृंगदूतम् (२००४) – दो भागों में विभक्त और मन्दाक्रान्ता छन्द में बद्ध ५०१ श्लोकों में रचित संस्कृत दूतकाव्य। दूतकाव्यों में कालिदास का मेघदूतम्, वेदान्तदेशिक का हंससन्देशः और रूप गोस्वामी का हंसदूतम् सम्मिलित हैं। भृंगदूतम् में किष्किन्धा में प्रवर्षण पर्वत पर रह रहे श्रीराम का एक भँवरे के माध्यम से लंका में रावण द्वारा अपहृत माता सीता को भेजा गया सन्देश वर्णित है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • काका विदुर – महाभारत के विदुर पात्र पर विरचित हिन्दी खण्डकाव्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
पत्रकाव्य
  • कुब्जापत्रम् – संस्कृत में रचित पत्रकाव्य। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
गीतकाव्य
  • राघव गीत गुंजन – हिन्दी में रचित गीतों का संग्रह। राघव साहित्य प्रकाशन निधि, राजकोट द्वारा प्रकाशित।
  • भक्ति गीत सुधा – भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण पर रचित ४३८ गीतों का संग्रह। राघव साहित्य प्रकाशन निधि, राजकोट द्वारा प्रकाशित।
  • गीतरामायणम् (२०११) – सम्पूर्ण रामायण की कथा को वर्णित करने वाला लोकधुनों की ढाल पर रचित १००८ संस्कृत गीतों का महाकाव्य। यह महाकाव्य ३६-३६ गीतों से युक्त २८ सर्गों में विभक्त है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
रीतिकाव्य
  • श्रीसीतारामकेलिकौमुदी (२००८) – १०९ पदों के तीन भागों में विभक्त प्राकृत के छः छन्दों में बद्ध ३२७ पदों में विरचित हिन्दी (ब्रज, अवधी और मैथिली) भाषा में रचित रीतिकाव्य। काव्य का वर्ण्य विषय बाल रूप श्रीराम और माता सीता की लीलाएँ हैं। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
शतककाव्य
  • श्रीरामभक्तिसर्वस्वम् – १०० श्लोकों में रचित संस्कृत काव्य जिसमें रामभक्ति का सार वर्णित है। त्रिवेणी धाम, जयपुर द्वारा प्रकाशित।
  • आर्याशतकम्आर्या छन्द में १०० श्लोकों में रचित संस्कृत काव्य। अप्रकाशित।
  • चण्डीशतकम्चण्डी माता को अर्पित १०० श्लोकों में रचित संस्कृत काव्य। अप्रकाशित।
  • राघवेन्द्रशतकम् – श्री राम की स्तुति में १०० श्लोकों में रचित संस्कृत काव्य। अप्रकाशित।
  • गणपतिशतकम् – श्री गणेश पर १०० श्लोकों में रचित संस्कृत काव्य। अप्रकाशित।
  • श्रीराघवचरणचिह्नशतकम् – श्रीराम के चरणचिह्नों की प्रशंसा में १०० श्लोकों में रचित संस्कृत काव्य। अप्रकाशित।
स्तोत्रकाव्य
  • श्रीगंगामहिम्नस्तोत्रम्गंगा नदी की महिमा का वर्णन करता संस्कृत काव्य। राघव साहित्य प्रकाशन निधि, राजकोट द्वारा प्रकाशित।
  • श्रीजानकीकृपाकटाक्षस्तोत्रम्सीता माता के कृपा कटाक्ष का वर्णन करता संस्कृत काव्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • श्रीरामवल्लभास्तोत्रम् – सीता माता की प्रशंसा में रचित संस्कृत काव्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • श्रीचित्रकूटविहार्यष्टकम् – आठ श्लोकों में श्रीराम की स्तुति करता संस्कृत काव्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • भक्तिसारसर्वत्रम् – संस्कृत काव्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • श्रीराघवभावदर्शनम् – आठ शिखरिणीयों में उत्प्रेक्षा अलंकार के माध्यम से श्रीराम की उपमा चन्द्रमा, मेघ, समुद्र, इन्द्रनील, तमालवृक्ष, कामदेव, नीलकमल और भ्रमर से देता संस्कृत काव्य। कवि द्वारा ही रचित अवधी कवित्त अनुवाद और खड़ी बोली गद्य अनुवाद सहित। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
सुप्रभातकाव्य
  • श्रीसीतारामसुप्रभातम् – चालीस श्लोकों (८ शार्दूलविक्रीडित, २४ वसन्ततिलक, ४ स्रग्धरा और ४ मालिनी) में रचित संस्कृत सुप्रभात काव्य। कवि द्वारा रचित हिन्दी अनुवाद सहित। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित। कवि द्वारा ही गाया हुआ काव्य संस्करण युकी कैसेट्स, नयी दिल्ली द्वारा विमोचित।
भाष्यकाव्य
  • अष्टाध्याय्याः प्रतिसूत्रं शाब्दबोधसमीक्षणम् – पद्य में अष्टाध्यायी पर संस्कृत भाष्य। विद्यावारिधि शोधकार्य| राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान द्वारा प्रकाश्यमान|

नाटक

नाटककाव्य
  • श्रीराघवाभ्युदयम् – श्रीराम के अभ्युदय पर संस्कृत में रचित एकांकी नाटक। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • उत्साह – हिन्दी नाटक। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।

गद्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य द्वारा रचित कुछ पुस्तकें और ग्रन्थ (सम्पादित श्रीरामचरितमानस की प्रति सहित)
प्रस्थानत्रयी पर संस्कृत भाष्य
  • श्रीब्रह्मसूत्रेषु श्रीराघवकृपाभाष्यम् – ब्रह्मसूत्र पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • श्रीमद्भगवद्गीतासु श्रीराघवकृपाभाष्यम् – भगवद्गीता पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • कठोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्कठोपनिषद् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • केनोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्केनोपनिषद् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • माण्डूक्योपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्माण्डूक्योपनिषद् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • ईशावास्योपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्ईशावास्योपनिषद् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • प्रश्नोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्प्रश्नोपनिषद् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • तैत्तिरीयोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्तैत्तिरीयोपनिषद् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • ऐतरेयोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्ऐतरेयोपनिषद् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • श्वेताश्वतरोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्श्वेताश्वतरोपनिषद् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • छान्दोग्योपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्छान्दोग्योपनिषद् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • बृहदारण्यकोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्बृहदारण्यकोपनिषद् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • मुण्डकोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्मुण्डकोपनिषद् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
अन्य संस्कृत भाष्य
  • श्रीनारदभक्तिसूत्रेषु श्रीराघवकृपाभाष्यम्नारद भक्ति सूत्र पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट, सतना, मध्य प्रदेश द्वारा प्रकाशित।
  • श्रीरामस्तवराजस्तोत्रे श्रीराघवकृपाभाष्यम् – रामस्तवराजस्तोत्रम् पर संस्कृत में रचित भाष्य। श्री तुलसी पीठ सेवा न्यास, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
हिन्दी भाष्य
  • महावीरीहनुमान् चालीसा पर हिन्दी में रचित टीका।
  • भावार्थबोधिनी – श्रीरामचरितमानस पर हिन्दी में रचित टीका।
  • श्रीराघवकृपाभाष्य – श्रीरामचरितमानस पर हिन्दी में नौ भागों में विस्तृत टीका। रच्यमान।
विमर्श
  • अध्यात्मरामायणे अपाणिनीयप्रयोगानां विमर्शः – अध्यात्म रामायण में पाणिनीय व्याकरण से असम्मत प्रयोगों पर संस्कृत विमर्श। वाचस्पति उपाधि हेतु शोधकार्य। अप्रकाशित।
  • श्रीरासपंचाध्यायीविमर्शः (२००७) – भागवत पुराण की रासपंचाध्यायी पर हिन्दी विमर्श। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
प्रवचन संग्रह
  • तुम पावक मँह करहु निवासा (२००४) – रामचरितमानस में माता सीता के अग्नि प्रवेश पर सितम्बर २००३ में दिए गए नवदिवसीय प्रवचनों का संग्रह। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • अहल्योद्धार (२००६) – रामचरितमानस में श्रीराम द्वारा अहल्या के उद्धार पर अप्रैल २००० में दिए गए नवदिवसीय प्रवचनों का संग्रह। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।
  • हर ते भे हनुमान (२००८) – शिव के हनुमान रूप अवतार पर अप्रैल २००७ में दिए गए चतुर्दिवसीय प्रवचनों का संग्रह। जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट द्वारा प्रकाशित।

पुरस्कार और सम्मान

विरक्त दीक्षा के उपरान्त

२००६ में तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी द्वारा वाणी अलंकरण पुरस्कार से सम्मानित किए जाते हुए जगद्गुरु रामभद्राचार्य
मार्च ३०, २००६ के दिन तत्कालीन राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम द्वारा प्रशस्ति पत्र से पुरस्कृत किए जाते हुए जगद्गुरु रामभद्राचार्य
  • २०११। हिमाचल प्रदेश सरकार, शिमला की ओर से देवभूमि पुरस्कार। हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जोसेफ़ कुरियन द्वारा प्रदत्त।[८६]
  • २००८। श्रीभार्गवराघवीयम् के लिए के के बिड़ला प्रतिष्ठान की ओर से श्री वाचस्पति पुरस्कार। राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल शैलेन्द्र कुमार सिंह द्वारा प्रदत्त।[८७][८८]
  • २००७। तुलसी शोध संस्थान, इलाहाबाद नगर निगम की ओर से गोस्वामी तुलसीदास समर्चन सम्मान। भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश रमेश चन्द्र लाहोटी द्वारा प्रदत्त।[८९]
  • २००६। हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग की ओर से संस्कृत महामहोपाध्याय।[९०]
  • २००६। जयदयाल डालमिया श्री वाणी ट्रस्ट की ओर से श्रीभार्गवराघवीयम् के लिए श्री वाणी अलंकरण पुरस्कार। तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी द्वारा प्रदत्त।[२]
  • २००६। मध्य प्रदेश संस्कृत संस्थान, भोपाल, की ओर से श्रीभार्गवराघवीयम् के लिए बाणभट्ट पुरस्कार।[९]
  • २००५। श्रीभार्गवराघवीयम् के लिए संस्कृत में साहित्य अकादमी पुरस्कार।[८४]
  • २००४। बादरायण पुरस्कार। तत्कालीन भारतीय राष्ट्रपति अब्दुल कलाम द्वारा प्रदत्त।[९१]
  • २००३। मध्य प्रदेश संस्कृत अकादमी की ओर से राजशेखर सम्मान।[९१]
  • २००३। लखनऊ स्थित भाऊराव देवरस सेवा न्यास की ओर से भाऊराव देवरस पुरस्कार।[९२][९३]
  • २००३। दीवालीबेन मेहता चैरीटेबल ट्रस्ट द्वारा धर्म और संस्कृति में प्रगति के लिए दीवालीबेन पुरस्कार। भारत के भूतपूर्व प्रमुख न्यायाधीश पी एन भगवती द्वारा प्रदत्त।[९४]
  • २००३। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ की ओर से अतिविशिष्ट पुरस्कार।[९१]
  • २००२। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, की ओर से कविकुलरत्न की उपाधि।[९१]
  • २०००। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ की ओर से विशिष्ट पुरस्कार।[९५]
  • २०००। लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, नयी दिल्ली की ओर से महामहोपाध्याय की उपाधि।[९६]
  • १९९९। कविराज विद्या नारायण शास्त्री अर्चन-सम्मान समिति, भागलपुर (बिहार) द्वारा संस्कृत भाषा को योगदान हेतु कविराज विद्या नारायण शास्त्री अर्चन-सम्मान पुरस्कार।[९७]
  • १९९९। अखिल भारतीय हिन्दी भाषा सम्मेलन, भागलपुर (बिहार) द्वारा हिन्दी भाषा, साहित्य और संस्कृति को अमूल्य योगदान और उनके प्रचार-प्रसार हेतु महाकवि की उपाधि।[९८]
  • १९९८। विश्व धर्म संसद द्वारा धर्मचक्रवर्ती की उपाधि।[९१][९९]

पूर्वाश्रम में प्राप्त

  • १९७६। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में कुलाधिपति स्वर्ण पदक।[२५]
  • १९७६-७७। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में आचार्य की परीक्षा में सात स्वर्ण पदक।[२५][३०]
  • १९७५। अखिल भारतीय संस्कृत वाद विवाद प्रतियोगिता में पाँच स्वर्ण पदक।[३][२५]
  • १९७४। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में शास्त्री की परीक्षा में स्वर्ण पदक।[३०]

टिप्पणियाँ

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ

साँचा:commons cat


  1. साँचा:cite web
  2. साँचा:cite web
  3. साँचा:cite journal
  4. अग्रवाल २०१०, पृष्ठ ११०८-१११०।
  5. दिनकर २००८, पृष्ठ ३२।
  6. नागर २००२, पृष्ठ ९१।
  7. साँचा:cite web
  8. साँचा:cite book
  9. साँचा:cite web
  10. साँचा:cite web
  11. दिनकर २००८, पृष्ठ ३९।
  12. साँचा:cite web
  13. दिनकर २००८, पृष्ठ ४०–४३।
  14. प्रसाद १९९९, पृष्ठ xiv: "Acharya Giridhar Mishra is responsible for many of my interpretations of the epic. The meticulousness of his profound scholarship and his extraordinary dedication to all aspects of Rama's story have led to his recognition as one of the greatest authorities on Tulasidasa in India today ... that the Acharya's knowledge of the Ramacharitamanasa is vast and breathtaking and that he is one of those rare scholars who know the text of the epic virtually by heart." (मेरे द्वारा इस ग्रंथ के किए गए अनेकानेक अर्थों के पीछे आचार्य गिरिधर मिश्र की प्रेरणा है। उनके गहनतम पाण्डित्य का अवधान और रामायण के सभी पक्षों के प्रति उनकी विलक्षण लगन के कारण आज वे भारत में तुलसीदास पर सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में अग्रगण्य हैं। ... आचार्य का रामचरितमानस का ज्ञान व्यापक और आश्चर्यजनक हैं और वे उन विरल विद्वानों में से हैं जिन्हें यह ग्रन्थ पूर्णतः कण्ठस्थ है।)
  15. साँचा:cite book
  16. रामभद्राचार्य (ed) २००६।
  17. साँचा:cite web
  18. साँचा:cite web
  19. साँचा:cite web
  20. साँचा:cite web
  21. साँचा:cite web
  22. साँचा:cite web
  23. दिनकर २००८, पृष्ठ २२–२४।
  24. साँचा:cite web
  25. साँचा:cite book
  26. साँचा:cite web
  27. साँचा:cite webसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
  28. साँचा:cite web
  29. साँचा:cite web
  30. दिनकर २००८, पृष्ठ २५–२७
  31. साँचा:cite web
  32. दिनकर २००८, पृष्ठ २८–३१।
  33. साँचा:cite book
  34. साँचा:cite web
  35. साँचा:cite book
  36. दिनकर २००८, पृष्ठ १२७।
  37. साँचा:cite web
  38. साँचा:cite web
  39. साँचा:cite web
  40. साँचा:cite web
  41. साँचा:cite web
  42. अग्रवाल २०१०, पृष्ठ ७८१।
  43. साँचा:cite book
  44. साँचा:cite webसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
  45. साँचा:cite web
  46. साँचा:cite web
  47. साँचा:cite web
  48. साँचा:cite web
  49. अग्रवाल २०१०, पृष्ठ. ३०४, ३०९, ७८०-७८८, ११०३-१११०, २००४-२००५, ४४४७, ४४४५-४४५९, ४५३७, ४८९१-४८९४, ४९९६।
  50. शर्मा २०१०, पृष्ठ २१, ३१.
  51. शर्मा २०१०, पृष्ठ २७३.
  52. साँचा:cite web
  53. साँचा:cite web
  54. साँचा:cite web
  55. साँचा:cite news
  56. साँचा:cite web
  57. साँचा:cite web
  58. साँचा:cite book
  59. साँचा:cite book
  60. साँचा:cite web
  61. साँचा:cite web
  62. साँचा:cite web
  63. साँचा:cite web
  64. साँचा:cite web
  65. साँचा:cite web
  66. साँचा:cite web
  67. साँचा:cite web
  68. साँचा:cite book
  69. साँचा:cite book
  70. साँचा:cite web
  71. रामभद्राचार्य २००६, पृष्ठ १-२७।
  72. प्रसाद १९९९, पृष्ठ ७९५–८५२
  73. साँचा:cite web
  74. साँचा:cite web
  75. साँचा:cite book
  76. साँचा:cite web
  77. साँचा:cite book
  78. साँचा:cite book
  79. रामभद्राचार्य २००६, पृष्ठ १३-१४।
  80. साँचा:cite web
  81. साँचा:cite web
  82. साँचा:cite web
  83. साँचा:cite web
  84. साँचा:cite web
  85. साँचा:cite web
  86. साँचा:cite web
  87. साँचा:cite web
  88. साँचा:cite web
  89. साँचा:cite webसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
  90. साँचा:cite webसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
  91. साँचा:cite journal
  92. साँचा:cite web
  93. साँचा:cite web
  94. साँचा:cite webसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
  95. साँचा:cite webसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
  96. साँचा:cite web
  97. नागर २००२, पृष्ठ १८४।
  98. नागर २००२, पृष्ठ १८३।
  99. नागर २००२, पृष्ठ १८२।