राज योग

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Type/Phase : राज योग, भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग


योग के अलग-अलग सन्दर्भों में अलग-अलग अर्थ हैं - आध्यात्मिक पद्धति, आध्यात्मिक प्रकिया। ऐतिहासिक रूप में, कर्म योग की अन्तिम अवस्था समाधि' को ही 'राजयोग' कहते थे।

आधुनिक सन्दर्भ में, हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक का नाम 'राजयोग' (या केवल योग) है। महर्षि पतंजलि का योगसूत्र इसका मुख्य ग्रन्थ है। १९वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द ने 'राजयोग' का आधुनिक अर्थ में प्रयोग आरम्भ किया था। इस विषय पर उनके व्याख्यानों का संकलन राजयोग नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ है, जो पातञ्जल योग का प्रमुख आधुनिक ग्रंथ कहा जा सकता है।

राजयोग सभी योगों का राजा कहलाता है क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ समामिग्री अवष्य मिल जाती है। राजयोग महर्षि पतंजलि द्वारा रचित अष्टांग योग का वर्णन आता है। राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है। महर्षि पतंजलि ने समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है। इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेषों का नाश होता है, चित्तप्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और विवेकख्याति प्राप्त होती है।

योगांगानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेकख्यातेः। (1/28)

प्रत्येक व्यक्ति में अनन्त ज्ञान और शक्ति का आवास है। राजयोग उन्हें जाग्रत करने का मार्ग प्रदर्शित करता है-मनुष्य के मन को एकाग्र कर उसे समाधि नाम वाली पूर्ण एकाग्रता की अवस्था में पंहुचा देना। स्वभाव से ही मानव मन चंचल है। वह एक क्षण भी किसी वास्तु पर ठहर नहीं सकता। इस मन चंचलता को नष्ट कर उसे किसी प्रकार अपने काबू में लाना,किस प्रकार उसकी बिखरी हुई शक्तियो को समेटकर सर्वोच्च ध्येय में एकाग्र कर देना-यही राजयोग का विषय है। जो साधक प्राण का संयम कर,प्रत्याहार,धारणा द्वारा इस समाधि अवस्था की प्राप्ति करना चाहते हे। उनके लिए राजयोग बहुत उपयोगी ग्रन्थ है।

“प्रतेयक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वशीभूत कर आत्मा के इस ब्रह्म भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है।

कर्म,उपासना,मनसंयम अथवा ज्ञान,इनमे से एक या सभी उपयो का सहारा लेकर अपना ब्रह्म भाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ।

बस यही धर्म का सर्वस्व है। मत,अनुष्ठान,शास्त्र,मंदिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया कलाप तो गौण अंग प्रत्यंग मात्र है।"

  - स्वामी विवेकानंद

परिचय

योग का अर्थ है चित्तवृत्ति का निरोध। चित्तभूमि या मानसिक अवस्था के पाँच रूप हैं (१) क्षिप्त (२) मूढ़ (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध। प्रत्येक अवस्था में कुछ न कुछ मानसिक वृत्तियों का निरोध होता है। क्षिप्त अवस्था में चित्त एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है। मूढ़ अवस्था में निद्रा, आलस्य आदि का प्रादुर्भाव होता है। विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर चला जाता है। यह चित्त की आंशिक स्थिरता की अवस्था है जिसे योग नहीं कह सकते। एकाग्र अवस्था में चित्त देर तक एक विषय पर लगा रहता है। यह किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीकरण की अवस्था है। यह योग की पहली सीढ़ी है। निरुद्ध अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का (ध्येय विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक स्थिर, शान्त अवस्था में आ जाता है। इसी निरुद्व अवस्था को ‘असंप्रज्ञात समाधि’ या ‘असंप्रज्ञात योग’ कहते हैं। यही समाधि की अवस्था है।

जब तक मनुष्य के चित्त में विकार भरा रहता है और उसकी बुद्धि दूषित रहती है, तब तक तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता। राजयोग के अन्तर्गत महिर्ष पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है-

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयः।

उपर्युक्त प्रथम पाँच 'योग के बहिरंग साधन' हैं। धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन योग के अंतरंग साधन हैं। ध्येय विषय ईश्वर होने पर मुक्ति मिल जाती है। यह परमात्मा से संयोग प्राप्त करने का मनोवैज्ञानिक मार्ग है जिसमें मन की सभी शक्तियों को एकाग्र कर एक केन्द्र या ध्येय वस्तु की ओर लाया जाता है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार राजयोग

स्वामी विवेकानंद कृत पुस्तक राजयोग[१] में योग विद्या को लेकर उनके मत की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। उनकी यह किताब योग-शास्त्र के आधुनिक ग्रंथों में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। वे महर्षि पतंजलि के योग-सूत्र नामक ग्रंथ को इस विद्या का आधारभूत ग्रंथ मानते थे। राजयोग की भूमिका में वे लिखते हैं, "पातंजल-सूत्र राजयोग का शास्त्र है और उस पर सर्वोच्च प्रामाणिक ग्रन्थ है। अन्यान्य दार्शनिकों का किसी-किसी दार्शनिक विषय में पतञ्जलि से मतभेद होने पर भी, वे सभी, निश्चित रूप से, उनकी साधना-प्रणाली का अनुमोदन करते हैं।"[२]

स्वामी जी का मानना है कि अष्टांग योग एक प्रणाली है, जिसके अभ्यास से निश्चित फल अपने आप प्राप्त होता है। इसके लिए किसी तरह के बाह्यविश्वास की आवश्यकता नहीं है। इस विषय में वे कहते हैं, "अब तक हमने देखा, इस राजयोग की साधना में किसी प्रकार के विश्वास की आवश्यकता नहीं। जब तक कोई बात स्वयं प्रत्यक्ष न कर सको, तब तक उस पर विश्वास न करो–राजयोग यही शिक्षा देता है। सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिए अन्य किसी सहायता की आवश्यकता नहीं।"[३] स्वामी विवेकानंद का मत है कि योग का अनुशीलन भी ज्ञान की भाँति व्यवस्थित तरीक़े से होना चाहिए और इसमें तर्कशीलता का अवलम्बन करना चाहिए। इस विषय पर वे एक व्याख्यान में प्रकाश डालते हुए कहते हैं, "रहस्य-स्पृहा मानव-मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है। इसके कारण ही आज योगशास्त्र नष्ट-सा हो गया है। किन्तु वास्तव में यह एक महाज्ञान है। चार हजार वर्ष से भी पहले यह आविष्कृत हुआ था। तब से भारतवर्ष में यह प्रणालीबद्ध होकर वर्णित और प्रचारित होता रहा है।"[३]

विवेकानंद के मतानुसार समाधि ही अष्टांग योग का फल है, जो मानव-जीवन का लक्ष्य है। वे कहते हैं, "इस समाधि में प्रत्येक मनुष्य का, यही नहीं, प्रत्येक प्राणी का अधिकार है। इसे निम्नतर प्राणी से लेकर अत्यंत उन्नत देवता तक सभी, कभी-न-कभी, इस अवस्था को अवश्य प्राप्त करेंगे, और जब किसी को यह अवस्था प्राप्त हो जायगी, तभी हम कहेंगे कि उसने यथार्थ धर्म की प्राप्ति की है।"[४]

इन्हें भी देखें

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