राजनयिक इतिहास

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हारुन अल रशीद, शारलेमेन के एक प्रतिनिधिमंडल से बगदाद में मिलते हुए ( जूलिअस कोकर्ट द्वारा १८६४ में चित्रित)

राजनयिक इतिहास (Diplomatic history) से आशय राज्यों के बीच अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के इतिहास से है। किन्तु राजनयिक इतिहास अन्तराष्ट्रीय सम्बन्ध से इस अर्थ में भिन्न है कि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध के अन्तर्गत दो या दो से अधिक राज्यों के परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन होता है जबकि राजनयिक इतिहास किसी एक राज्य की विदेश नीति से सम्बन्धित हो सकता है। राजनयिक इतिहास का झुकाव अधिकांशतः राजनय के इतिहास (history of diplomacy) की ओर होता है जबकि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध समसामयिक घटनाओं पर अधिक ध्यान देता है।

राजनय एक कला है जिसे अपना कर दुनिया के राज्य अपने पारस्परिक सम्बन्धों को बढ़ाते हुए अपनी हित साधना करते हैं। राजनय के सुपरिभाषित लक्ष्य तथा उनकी सिद्धि के लिए स्थापित कुशल यंत्र के बाद इसके वांछनीय परिणामों की उपलब्धि उन साधनों एवं तरीकों पर निर्भर करती है जिन्हें एक राज्य द्वारा अपनाने का निर्णय लिया जाता ह। दूसरे राज्य इन साधनों के आधार पर ही राजनय के वास्तविक लक्ष्यों का अनुमान लगाते हैं। यदि राजनय के साधन तथा लक्ष्यों के बीच असंगति रहती है तो इससे देश कमजोर होता है, बदनाम होता है तथा उसकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा गिर जाती है। इस दृष्टि्र से प्रत्येक राज्य को ऐसे साधन अपनाने चाहिये जो दूसरे राज्यों में उसके प्रति सद्भावना और विश्वास पैदा कर सकें। इसके लिए यह आवश्यक है कि राज्य अपनी नीतियों को स्पष्ट रूप से समझाये, दूसरे राज्यों के न्यायोचित दावों को मान्यता दे तथा ईमानदारीपूर्ण व्यवहार करे। बेईमानी तथा चालबाजी से काम करने वाले राजनयज्ञ अल्पकालीन लक्ष्यों में सफलता पा लेते हैं किन्तु कुल मिलाकर वे नुकसान में ही रहते हैं। दूसरे राज्यों में उनके प्रति अविश्वास पैदा होता है तथा वे सजग हो जाते हैं। अतः राजनय के तरीकों का महत्व है।

राजनय के साधनों का निर्णय लेते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि इसका मुख्य उद्देश्य राज्य के प्रमुख हितों की रक्षा करना है। ठीक यही उद्देश्य अन्य राज्यों के राजनय का भी है। अतः प्रत्येक राजनय को पारस्परिक आदान-प्रदान की नीति अपनानी चाहिये। प्रत्येक राज्य के राजनयज्ञों की कम से कम त्याग द्वारा अधिक से अधिक प्राप्त करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके लिये विरोधी हितों के बीच समझौता करना जरूरी है। समझौते तथा सौदेबाजी का यह नियम है कि कुछ भी प्राप्त करने के लिए कुछ न कुछ देना पड़ता है। यह आदान-प्रदान राजनय का एक व्यावहारिक सत्य है। इतिहास में ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जबकि एक शक्तिशाली बड़े राज्य ने दूसरे कमजोर राज्य को अपनी मनमानी शर्तें मानने के लिए बाध्य किया तथा समझौतापूर्ण आदान-प्रदान की प्रक्रिया न अपना कर एक पक्षीय बाध्यता का मार्ग अपनाया। इस प्रकार लादी गई शर्तों का पालन सम्बन्धित राज्य केवल तभी तक करता है जब तक कि वह ऐसा करने के लिए मजबूर हो और अवसर पाते ही वह उनके भार से मुक्त हो जाता है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मित्र राष्ट्रोंं ने जर्मनी को सैनिक, आर्थिक, व्यापारिक एवं प्रादेशिक दृष्टि्र से बुरी तरह दबाया। क्षतिपूर्ति की राशि अदा करने के लिए उनसे खाली चैक पर हस्ताक्षर करा लिये गये तब जर्मनी एक पराजित और दबा हुआ राज्य था। अतः उसने यह शोषण मजबूरी में स्वीकार कर लिया किन्तु कुछ समय बाद हिटलर के नेतृत्व में जब वह समर्थ बना तो उसने इन सभी शर्तों को अमान्य घोषित कर दिया। स्पष्ट है कि पारस्परिक आदान-प्रदान ही स्थायी राजनय का आधार बन सकता है। बाध्यता, बेईमानी, धूर्तता, छल-कपट एवं केवल ताकत पर आधारित सम्बन्ध अल्पकालीन होते हैं तथा दूसरे पक्ष पर विरोधी प्रभाव डालते हैं।फलतः उनके भावी सम्बन्धों में कटुता आ जाती है।

राजनय के साधन और तरीकों का विकास राज्यों के आपसी सम्बन्धों के लम्बे इतिहास से जुड़ा हुआ है। इन पर देश-काल की परिस्थितियों ने भी प्रभाव डाला है। तदनुसार राजनीतिक व्यवहार भी बदलता रहा है। विश्व के विभिन्न देशों के इतिहास का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनयिक आचार का तरीका प्रत्येक देश का अपना विशिष्ट रहा है। यहाँ हम यूनान, रोम, इटली, फ्रांस तथा भारत में अपनाए राजनयिक आचार के तरीकों का अध्ययन करेंगे।

यूनानी राजनयिक व्यवहार (The Greek Diplomatic Practice)

राजनय का इतिहास यूनानी नगर राज्यों से प्रारम्भ होता है। प्लेटो तथा अरस्तु जैसे राजनीतिक दार्शनिकों ने नगर राज्यों की राजनीतिक स्थिति एवं अन्य राज्यों से उनके सम्बन्धों के बारे में पर्याप्त लिखा है। यूनानी सभ्यता के प्रारम्भिक चरण में नगर राज्यों के राजदूतों को अग्रदूत (Heralds) कहा जाता था। इनका कार्य केवल सन्धि वार्ता करने तक ही सीमित नहीं था वरन् ये राजकीय गृहस्थी के संचालन, सभाओं एवं परिषदों में व्यवस्था की स्थापना तथा धार्मिक अनुष्ठानों के सम्पादन आदि का कार्य भी करते थे। यूनानी सभ्यता के विकास के साथ-साथ नगर राज्यों के सम्बन्ध जटिल एवं स्पर्द्धापूर्ण बन गये। अब सन्धि वार्ता के लिये ऐसे लोगों की आवश्यकता पड़ी जो ओजस्वी तथा प्रभावशाली वक्ता हों, जिनकी तीव्र स्मरण शक्ति एवं बुलन्द आवाज हो ताकि वे दूसरे नगर राज्यों की लोक सभाओं के सम्मुख अपने नगर का दृष्टि्रकोण प्रस्तुत कर सके और उसके पक्ष में जोरदार पुष्टि्र कर सके। राजनयिक पदों पर ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया जाने लगा जो पुरात्ववेत्ता एक कुशल वक्ता, राजनीतिक सम्बन्धों का विद्यार्थी तथा मनोवैज्ञानिक हो। प्रसिद्ध इतिहासकार थ्यूसीडाइड्स (Thucidides) के विवरणों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि उस समय के राजनयज्ञों की वक्तृतायें पर्याप्त ओजस्वी तथा सुदीर्घ हुआ करती थी। इसने स्पार्टा निवासियों की एक लोक सभा का विवरण दिया है जिसमें सहयोगियों एवं मित्रों को यह तय करने के लिए आमंत्रित किया गया था कि क्या एथेन्स राज्य ने अपनी सन्धियों का उल्लंघन किया है और यदि किया है तो क्या इसके दण्ड स्वरूप उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी जाये ? इस सभा में वक्तृताओं की समाप्ति के बाद युद्ध का प्रस्ताव पहले कण्ठ स्वर से और फिर मतगणना के आधार पर पारित हो गया। उल्लेखनीय बात यह थी कि इसी समय स्पार्टा में एथेन्सवासी प्रतिनिधि-मण्डल किसी व्यापारिक सन्धि के सन्दर्भ में आया हुआ था और उक्त सभा में निमंत्रित न होते हुए भी उपस्थित था। इसे बीच-बीच में अपना मत व्यक्त करने दिया जाता था। जब युद्ध विषयक प्रस्ताव पारित हो गया तो इस प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य शत्रु राज्य के नागरिक बन गये, फिर भी इनको उस समय तक स्पार्टा में रहने दिया गया जब तक कि उन्होंने अपना सन्धि-विषयक कार्य पूरा नहीं कर लिया।

यूनानी राजनयज्ञ ये कार्य सम्पन्न करते थे - स्वागतकर्त्ता राज्य में सम्बन्धित सूचना एकत्रित करना, लोकप्रिय नगर सभाओं के सम्मुख अपने राज्य के हितों के समर्थन में सभी तरीके अपनाना, विदेशी राज्य के सम्बन्ध में सामयिक प्रतिवेदन तैयार करना, विदेशी राज्य में अपने राज्य के नागरिकों के हितों की रक्षा करना आदि। उस समय थ्यूसीडाइड्स द्वारा राजनयज्ञ के रूप में सम्पन्न किये गये कार्य हमारे अध्ययन के लिये पर्याप्त उपयोगी हैं। उसने विवादों को शान्तिपूर्वक हल करने के लिए सन्धिवार्ता और सम्मेलनात्मक राजनय के तरीके अपनाये। नगर राज्यों में स्पार्टा तथा एथेन्स प्राचीनतम थे। यहाँ अन्य राज्यों के साथ सम्बन्धों की अच्छी परम्पराएं विकसित हुईं। एथेन्स संगठन और भावना की दृष्टि्र से प्रजातंत्रात्मक था। यहाँ व्यापारिक एवं समुद्रमार्गीय सम्पर्क की दृष्टि्र से निवासियों को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया-दास, विदेशी निवासकर्त्ता और एथेन्स के नागरिक। अन्य राज्यों के साथ उसके सम्पर्क का रूप प्रजातंत्रात्मक था। यहां का राजनय व्यापार, वाणिज्य और सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं से प्रभावित था। यूनान के इन नगर राज्यों द्वारा राजनयज्ञों को अनेक उन्मुक्तियां एवं विशेषाधिकार सौंपे जाते थे। प्रारम्भ से ही विदेश सम्बन्धों की रचना में इन राजनयिकों का योगदान न केवल महत्वपूर्ण वरन् व्यापक भी था।

यूनानी नगर राज्यों के आपसी सम्बन्धों ने अनेक रीति रिवाजों एवं सिद्धान्तों को जन्म दिया। उस समय अन्तर्राष्ट्रीय कानून अपनी शिशु अवस्था में था। एथेन्स स्पार्टा एवं थेब्स आदि नगार राज्यों ने आपसी सम्बन्धों का विकास अपनी आन्तरिक नीति, सुविधा और सुरक्षा सम्बन्धी रणनीति को ध्यान में रखकर किया। आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों के बीच तत्कालीन धार्मिक और राजनीतिक संघों में देखे जा सकते है। ं उस काल में राजनयज्ञों की अनतिक्रम्यता, शरणदान का अधिकार, मृतकोें के दाह-संस्कार के लिए युद्ध विराम तथा धार्मिक मेलोें और खेलोें के समय तनाव को रोक देना आदि परम्परायें अपनाई जाती थी। नगर राज्यों की जनप्रिय सभाओं में विदेशों से स्वदंश के राजदूतों द्वारा भेजे गये प्रतिवेदनों पर आलोचनात्मक विचार किया जाता था। उनके सुझावोें द्वारा प्रस्तुत समस्याओं पर विचार करके आवश्यक निर्देश् दिये जाते थे। राज्योें के बीच विवाद उत्पन्न होने पर पंच फैसले द्वारा उसके समाधान की परम्पराएं पड़ चुकी थीं। अन्तर्राष्ट्रीय जीवन को नियमित करने की दृष्टि्र से यूनानियों द्वारा विकसित दो प्रक्रियायें उल्लेखनीय हैं -

  • (क) ये शक्ति के आधार पर शान्ति की स्थापना करते थे। बाद में रोमन सम्राटों ने भी इस व्यवहार को अपनाया।
  • (ख) वे न्यायाधिकरण द्वारा विवादों को सुलझाने के लिए शान्ति सन्धियां करते थे और उनके द्वारा स्वतन्त्र राज्यों की शक्ति को नियन्ति्रत करके शक्ति सन्तुलन की स्थापना करते थे।

यूनानी नगर राज्यों के राजनयिक व्यवहार को संक्षेप में निम्न प्रकार वर्णित किया जा सकता है-

  • (१) यूनानी काल में राजनयिक संधि वार्तायें मौखिक रूप से हुआ करती थीं। सिद्धान्त रूप में इन वार्ताओं का पूरा प्रचार किया जाता था।
  • (२) सन्धियां खुले में की जाती थीं तथा उनके अनुसमर्थन के लिए दोनों पक्ष सार्वजनिक रूप से शपथों का आदान-प्रदान करते थे। गुप्त संधियां अपवाद स्वरूप में थी। उनको उचित नहीं समझा जाता था।
  • (३) यूनानी नगर राज्य तटस्थता और पंच फैसले से पूर्ण रूप से परिचित थे। तटस्थता का अर्थ था चुप बैठ जाना। वे विवादों को तय करने के लिए पंच फैसले की प्रक्रिया अपनाते थे। 300 से लेकर 100 वर्ष ईसा पूर्व तक के काल में पंच फैसले के 46 मामलों का उल्लेख मिलता है।
  • (४) यूनानी नगर राज्यों द्वारा विकसित सर्वाधिक उपयोगी संस्था वाणिज्य दूतों (Consuls or Proxenos) की है। वे वाणिज्य दूत उसी नगर के मूल निवासी होते थे जहां इनको रखा जाता था। ये अपने राज्य में नियुक्तिकर्ता राज्य के हितों की देखभाल करते थे। उनका पद पर्याप्त सम्मानजनक समझा जाता था और अनेक प्रतिभाशाली लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक इस पद पर कार्य किया है। यह पद प्रायः वंश परम्परागत बन जाता था। इन पदाधिकारियों का कार्य न केवल सम्बन्धित देश के व्यापारियों के हितों की देखभाल करता था वरन् ये राजनयिक सन्धि वार्ताओं की पहल भी करते थे। पांचवी शताब्दी ई0 तक यूनानियों ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क का उच्च स्तर प्राप्त कर लिया था। वे आपसी सहयोग एवं सगठन के महत्व से परिचित थे। उन्होंने युद्ध की घोषणा, शान्ति स्थापना, सन्धियों का अनुसमर्थन, पंच फैसला, तटस्थता, राजदूतों का आदान-प्रदान, वाणिज्य दूतों के कार्य, युद्ध के कुछ नियम आदि से सम्बन्धित सामान्य सिद्धान्तों का विकास कर लिया था। वे विदेशियों की स्थिति नागरिकतादान, शरणदान, प्रत्यर्पण एवं समुद्र-व्यापार आदि से सम्बन्धित विषयों को परिभाषित कर चुके थे।

यूनानी काल के राजनय की आलोचना करते हुए कभी-कभी यह कहा जाता है कि यूनानी लोग अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता की धारणा से अपरिचित थे जिसके बिना श्रेष्ठ राजनयिक यंत्र भी निष्कि्रय सिद्ध होता है, औसतन यूनानी की नगर राज्य के प्रति स्वामीभक्ति इतनी गहरी होती थी कि वह अन्य नगर राज्य वासियों को अपना सम्भावित शत्रु और शेष असभ्यों को स्वाभाविक दास मानता था। राजनयिक सम्बन्धों की विभिन्न उल्लेखनीय धारणाओं के होते हुए भी यूनानियों का राजनयिक आचार कई दृष्टि्रयों से दोषपूर्ण था-

  • (१) वे परस्पर इतने ईर्ष्यालु थे कि इसके कारण उनकी आत्म रक्षा की आवश्यकता को भी हानि पहुंचती थी।
  • (२) यूनानी लोग स्वाभाववश अच्छे राजनयज्ञ नहीं थे। अत्यन्त चतुर चालाक होने के कारण वे अत्यधिक संदेहशील थे। फलतः उनके बीच अविश्वास के कारण कोई सन्धिवार्ता सफल नहीं हो पाती थी।
  • (३) यूनानी नगर राज्यों में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के दायित्वों का सही वितरण न होने के कारण राजनयिक कार्यों में कठिनाईयां एवं भ्रम पैदा हो जाते थे। यूनानी यह नहीं खोज पाये कि प्रजातंत्रात्मक राजनय को स्वेच्छाचारी राजनय की भांति कैसे कार्यकुशल बनाया जा सकता है। यही गलती उनके विनाश का कारण बन गई। प्रजातन्त्रात्मक व्यवस्था होने के कारण उनके निर्णय गुप्त नहीं होते थे और तुरन्त नहीं लिये जाते थे। उनके राजदूत सर्वशक्ति सम्पन्न नहीं होते थे। अतः छोटे-छोटे निर्णयों में भी देरी हो जाती थी। उस काल की जनसभाएं अनुत्तरदायी थी। वे स्वयं के निर्देशानुसार कार्य करने वाले राजदूत के कार्यों को भी रद्द कर देती थी।

संक्षेप में, यूनानियों ने राजनयिक आचार के क्षेत्र में काफी उन्नति कर ली थी।

रोमन राजनयिक व्यवहार

रोमन लोग यूनानियों की तुलना में अधिक बर्बर थे। अतः वे अन्तराष्ट्रीय सम्बन्धों का विकास नहीं कर सके। यूनानियों ने सन्धि वार्ता पद्धति को विकसित किया था और राजनयिक प्रक्रिया के माध्यम से विरोधियों से सम्पर्क स्थापित करने में विश्वास व्यक्त किया था, किन्तु रोमन लोगों ने सैनिक शक्ति पर अधिक विश्वास किया। वे राजनयज्ञ की बजाय विजेता अधिक थे। रोमन लोगों ने राजनयिक तौर-तरीकों के स्थान पर सीधी कार्यवाही (Direct Action) पर अधिक विश्वास किया। उन्होंने अपनी सर्वोच्चता बनाये रखने के लिए यह तरीका अपनाया कि दो या अधिक राष्ट्रोंं के बीच संघर्ष के समय वे कमजोर का पक्ष लेते, क्येंकि उनका विश्वास था कि इस नीति से दोनों ही पक्ष रोम के राजनीतिक अनुग्रह के आँकाक्षी बने रहेंगे। कमजोर का पक्ष लेने से वह तो रोम के प्रभाव को मानेगा ही, किन्तु कमजोर का पक्ष लेकर जब शक्तिशाली को उखाड़ फैंका जायेगा तो वह शक्तिशाली पक्ष भी रोम का प्रभाव मानने के लिए मजबूर हो जायेगा। रोमन लोगों ने राजनय के क्षेत्र में युद्ध की वैधानिकता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसके अनुसार उनकी दृष्टि्र में वही युद्ध वैधानिक होता था जिसकी औपचारिक घोषणा की गई हो और जिसके लिए एक विशेष धर्म-गुरु द्वारा धार्मिक समारोह का आयोजन करा लिया गया हो।

रोमन लोग युद्ध और शांति दोनों ही कार्यों में विदेशी राजनीतिज्ञों का स्वागत करते रहे। वे राजदूत को सामान्यतया लैगेटस (Legates) कहते थे और कभी-कभी फेटिअल (Fetial) भी कह देते थे। यह शब्द अधिकांशः युद्ध अथवा शान्ति के लिए वार्ताकार के साथ लगाया जाता था। रोमन सीनेट नियमित रूप से विदेशों में अपने देश के राजदूत भेजती थी। रोमन कानून राजदूतों को अनतिक्रम्यता (Inviolabiality) को मान्यता देता था। विख्यात राजनीतिक विचारक सिसरो ने, जो रोम में दूत बन कर आया था, इस सम्बन्ध में लिखा है, “राजदूतों की अनतिक्रम्यता दैवीय तथा मानवीय दोनों ही कानूनों से है। वे पवित्र और आरदयीय हैं ताकि वे अनतिक्रम्य बने रहें। ये केवल मित्र राष्ट्रं में ही नहीं है अपितु शत्रु की सेना में धिरे होने पर भी हैं” रोमन कानून के अन्तर्गत राजदूत के सहयोगी भी अनतिक्रम्य थे। राजदूतों के पत्र-व्यवहार और उनके लिए अनिवार्य वस्तुओं को अनतिक्रम्य समझा जाता था। राजदूत जब किसी तीसरे राज्य में से गुजरता तो भी उसे अनतिक्रम्य का विशेषाधिकार प्राप्त था। राजदूत पर किया गया कोई भी हमला रोमन अन्तरजार्तीय कानून (Jus Gentium) का उल्लंघन माना जाता था। राजदूत पर क्षेत्रीय-ब्राह्यता का सिद्धान्त भी लागू होता था अर्थात् कोई समझौता तोड़े जाने पर राजदूत राज्य के न्यायालय में मुकदमा नहीं चलाया जाता था, वह स्थानीय कानूनों से उन्मुक्त था। रोमन सीनेट राजदूतों को राजकीय अतिथियों जैसा सम्मान देती थी।

रोमन लोगों ने राजनय के क्षेत्र में एक प्रशिक्षित ‘पुरालेखपाल’ (Archivist) की पद्धति प्रदान की। पुरालेखपाल राजनयिक दृष्टान्तों और प्रक्रियाओं में प्रवीण व्यक्ति होते थे। आज भी राजनय की एक महत्वपूर्ण शाखा पुराने लेखों, सिंन्धयों, अभिलेखों आदि की रक्षा करना और उन्हें व्यवस्थित रखना है। रोमन लोगों ने पुरालेखागारों अथवा लेखों से सम्बन्धित कार्य को ‘राजनयिक व्यवहार’ (Diplomatic Business) की संज्ञा दी है। इस प्रकार के लेखों को व्यवस्थित रखने की पद्धति रोमन लोगों की एक महत्वपूर्ण देन है।

रोमन लोगों ने राज्यों की समानता के सिद्धान्त का कभी आदर नहीं किया। इसका कारण यह था कि रोमनव लोगों को अपनी सर्वश्रेष्ठता में विश्वास था, वे अन्य किसी राज्य को अपने समकक्ष नहीं समझते थे। यही कारण है कि रोमन काल में समानता के आधार पर राजनयिक सम्बन्धों की स्थापना करने और सन्धि-वार्ता करने के क्षेत्र में कोई विकास नहीं हो सका। रोमन लोगों ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना तो की लेकिन राजनयिक भाईचारे के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को विकसित नहीं किया। यूनानी सभ्यता के मूल तत्वों से रोमन लोग लगभग अप्रभावित थे।

डा0 शुक्रदेव प्रसाद दुबे ने राजनय के इतिहास में अपने अध्ययन में प्राचीन रोमन राजनयिक आचार पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि “रोमन विजयों ने जिस विश्व राज्य का निर्माण किया, उसमें पारर्थियन, हिन्दू और चीनी सभ्यताऐं ही ऐसी थी जो उसकी सीमा परिधि के बाहर थी। अतः इस राजनीतिक वातावरण में रोम को किसी विशेष कूटनीतिक विधान की आवश्यकता नहीं थी। उसका काम केवल अपनी राज्य सीमा को बर्बर आक्रमणों से सुरक्षित रखना था, फिर भी रोमन साम्राज्य के वैदेशिक मामले काफी दिलचस्प थे। प्राचीनकाल से ही रोम के युद्ध और शान्ति की परिस्थितियों पर जो भी कूटनीतिक वार्ता आवश्यक होती थी, वह एक विशिष्ट कूटनीतिक संस्था (Collegiuma Fetialious) अर्थात् कॉलेज ऑफ फैटियलस का सौंपी जाती थी। रोमन धारणा के अनुसार सभी युद्ध उचित थे। युद्ध के पूर्व फोटियलस कॉलेज का मुखिया जिसे पेटरस कहते थे सीनेट को सूचित करता था कि उसका शान्तिपूर्ण हल निकालने की सारी कूटनीतिक वार्ता निष्फल सिद्ध हो गई। युद्ध प्रारम्भ करने के निर्णय के उपरान्त वह एक खूनी भाला शुत्र के स्थल पर फैंकता था। यह अनुष्ठान जुपीटर आदि देवताओं के आह्वान के साथ शपथ लेकर किया जाता था। जब रोम के विस्तार के साथ ही फिटयलस का प्रतिनिधित्व राजदूत करने लगे तो भाला फैंकने की औपचारिक प्रणाली ने एक प्रतिकात्मक स्वरूप ले लिया और शत्रु के स्थल के स्थान पर अपना मीटिंयर्स प्राण अथवा बेलूना के मन्दिर क सामने फैंका जाने लगा। फिटीयलस को सन्धि स्थापना का भी कार्य दिया जाता था। विदेशी राजदूतों को सीनेट से फरवरी के महीने में कैपिटाल के निकट ग्रेकास्टि्रपेसस के अवसर पर प्रत्यक्ष वार्ता करने का भी अवसर मिलता था। साम्राज्यवादी युग आने के साथ यह कार्य सम्राट ने स्वयं अपने हाथों में ले लिया। रोम द्वारा की गई सभी सन्धियाँ असमान थी क्योंकि वे विजित प्रदेशों के शासकों पर सदैव के लिये थोप दी जाती थी। रोम का जसजेन्टि्रयम अर्थात् वह विधान जिसके अन्तर्गत उन कानूनी सिद्धान्तों का विकास हुआ था जो रोमन नागरिकों की विदेशी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनाये गये थे, सही अर्थ में अन्तर्राष्ट्रीय विधान नहीं था यद्यपि यह उन सम्बन्धों का भी मार्गदर्शन करता था जो रोमन साग्राज्य अपने पडोसियों से स्थापित करता था।

ग्रीक संस्कृति के प्रति पूर्ण सम्मान और निष्ठा रखते हुए भी रोमन साग्राज्यवादियों ने ग्रीक-अन्तर्राष्ट्रीय संहिता का अनुकरण नहीं किया। इसका कारण स्पष्ट ही था। जहां ग्रीक अन्तर्राष्ट्रीय विधान उस संस्कृति के स्वतन्त्र राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों से उत्पन्न आवश्यकता की देन थी, वहाँ रोमन साग्राज्य दूसरे देशों के प्रति एक विस्तारवादी दृष्टि्रकोण अपना चुका था और शीघ्रातिशीघ्र विजित कर उनका विलय अपने साम्राज्य में करना चाहता था अर्थात् उनका विश्व साम्राज्य ग्रीक राज्य व्यवस्था के विघटन पर ही सम्भव था। रोमन साम्राज्य अनेक जातियों एवं राष्ट्रीयताओं का संकलन था और जहाँ केन्द्रीय सत्ता ने स्थानीय राष्ट्रीयताओं को कुछ भी स्थापन अधिकार देना उचित नहीं समझा था। अतः ग्रीक राज्यों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रणाली रोमन कूटनीतिक परिस्थितियों के सर्वथा प्रतिकूल थी।” 395 ई0 में रोमन साम्राज्य का पतन हो गया।

बाइजेन्टाइन राजनीतिक व्यवहार

रोम साम्राज्य जिसका केन्द्र रोम था, छिन्न-भिन्न हो गया तब रोमनों ने कुस्तुन्तुनिया को केन्द्र मानकर वाइजेन्टाइन साम्राज्य की स्थापना की। इस साम्राज्य के चारों ओर असभ्य एवं जंगली जातियां बसी थीं। अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए रोमन सैनिक शक्ति के स्थान पर युक्ति-शाक्ति पर विश्वास करने लगे। उन असभ्यों को नियन्त्रण में रखने के लिए उन्होंने तीन तरीके अपनाये -

  • (क) उन असभ्य जातियों में परस्पर भेदभाव की भावना अथवा फूट का बीज बोना जिससे वे संगठित न हो सकें और उनके साम्राज्य पर आक्रमण करने का विचार न रख सके।
  • (ख) जो जंगली जातियां साम्राज्य के अन्तर्गत बसी हुई थी उनको धन देकर खरीद लिया गया था जिससे साम्राज्य पर आक्रमण होने पर आक्रमणकारियों का साथ न दे सके तथा
  • (ग) जो जातियाँ इसाई धर्म को न मानती थी, उनमें इसाई धर्म का प्रचार कर उन्हें इसाई बनाना था जिससे वे गैर-इसाई जातियों से मिलकर साम्राज्य पर आक्रमण न करें बाइजेन्टाइन सम्राटों ने कभी अपने विरोधियों को संगठित न होने दिया। अपनी नीति की सफलता के लिए उन्होंने राजदूतों की व्यवस्था की। इनका काम था स्वागतकर्ता राज्य में वहां की आन्तरिक परिस्थितियों का अध्ययन, महत्वाकांक्षियों एवं दुर्बलताओं की जानकारी व उनकी सूचनायें सम्राट को पहुंचाना। इस प्रकार राजनयिक आचार में परिवर्तन किया गया। अब राजदूत का कार्य विदेश में भाषण देना ही न रहा बल्कि वह वहां की आन्तरिक, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन करें और पड़ौसी राज्यों की दुर्बलताओं से अपने सम्राट को प्रतिवेदन द्वारा अवगत कराते रहें जिससे सम्राट अपनी कार्य-सिद्धि को सही रूप में निर्धारित कर सके। राजदूतों की नियुक्ति करते समय उनमें तीन गुणों का विशेष ध्यान रखा जाता था -
  • (१) गहरे अवलोकन की क्षमता
  • (२) लम्बा अनुभव तथा
  • (३) निष्पक्ष निर्णय देने की क्षमता।

निकलसन के अनुसार, “कुशल वक्ता के स्थान पर राजदूत उद्घोषक तथा प्रशिक्षित निरीक्षक रखे गये। (At the Byzantine court diplomacy as is well known, had become a fine art and the reception of foreign missions was attended by ceremonies of great pomp.) राजदूतों की संख्या काफी बढ़ गई। योग्य राजदूतों को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की गई। उनको समय-समय पर आवश्यक परामर्श देने तथा उनके कार्यों की देखभाल करने के लिए एक विदेश विभाग का संगठन किया गया। संधि व्यवस्था में भी एक नया प्रयोग जारी हुआ। जब कोई विदेशी शासक राजदूतों के माध्यम से सधि करता था तो उस समय एक विशेष समारोह का आयोजन किया जाता था। के0एम0 पणिक्कर के शब्दों में,

यह सुविदित है कि बाइजेन्टाइन के राज दरबार में राजनय एक परिमार्जित कला बन गई और विदेशों से आने वाले राजदूत-मण्डलों के स्वागत के समय बड़ी धूमधाम से समारोह होता था।
(At the Byzantine court diplomacy as is well known, had become a fine art and the reception of foreign missions was attended by ceremonies of great pomp.)

इन उपायों से बाइजेण्टाइन सम्राटों ने सूडान, अरब तथा एनासियनों को अपने पक्ष में किया तथा कार्ल सागर एवं कोकेशियन जन-जातियों को नियन्ति्रत किया। अपनी नीतियों का सहारा लेकर दुर्बल सैनिक शक्ति रखते हुए भी रूसियों एवं मगयारों का सफल सामना किया। आक्रमणकारियों की दुर्बलता से लाभ उठाया और अपने शत्रुओं को कभी संगठित होने का अवसर न दिया।

राजनयिक आचार का इटालियन तरीका

इटली को आधुनिक संगठित एवं व्यावसायिक राजनय का जनक माना जाता है। मान्यता है कि प्रथम दूतावास की स्थापना मिलान के ड्यूक फ्रांसेस्को स्फोरजा ने 1455 में जेनेवा में की थी। 1496 में वेनिस सरकार ने दो व्यापारियों का उपराजदूत बनाकर लन्दन भेजा। कुछ समयोपरान्त इटली के अन्य राज्यों ने भी लन्दन, पेरिस तथा अन्य यूरोपीय राजधानियों में अपने दूतावास स्थापित किये। 16 वीं शताब्दी के अन्त तक स्थायी दूतावास अथवा प्रणिध्यावास नियुक्त करने की परम्परा को अधिकांश यूरोपीय राज्यों ने भी अपना लिया। मध्य युग के अन्त तक इटली में वेनिस तथा फ्लोरेंस जैसे नगर बसा लिये गये थे। अब गैरधार्मिक मामलों में पोप की सर्वोच्चता नहीं रही थी। सामन्तवादी ठिकानों तथा स्वतन्त्र नगरों ने आपस में मिलकर बड़े नगरों की रचना की। इन नगरों को महत्वाकांक्षी पडोसियों तथा प्राचीन शाही परिवारों ने हमेशा सजग रहना पड़ता था। ये अपनी विलुप्त शक्ति को पुनः प्राप्त करने क लिए कोई भी तरीका अपना सकते थे। फ्रांस, स्पेन तथा जर्मनी आदि बाहरी शक्तियों के आपसी मनमुटाव ने इटली को युद्ध भूमि बना दिया। यहां शक्तिशाली एवं कमजोर राज्यों के बीच निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। इन परिस्थितियों में राजनय का महत्व बढ़ गया। कमजोर राज्य अपनी स्वतन्त्रता एवं आत्म रक्षा के लिए राजनयिक तरीकों से शक्तिशाली राज्य से मैत्री सम्बन्ध जोड़ लेते थे।

वेनिस का राजनय

मध्ययुग में राजनयिक कला में सर्वाधिक प्रवीण राज्य वेनिस गणराज्य था। 16वीं शताब्दी में उसके राजदूत वियना, पेरिस, मेड्रिड तथा रोम में कार्य कर रहे थे। वेनिस वालों का पूर्व के साथ दीर्घकालीन घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था। अब उन पर बाइजेन्टाइन की राजनीतिक विचारधारा का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। दोहराव तथा संद हे के दोष यहां के राजदूत में भी परिलक्षित होते हैं। यहां राजदूतों का चयन उनकी योग्यता के आधार पर सावधानी से किया जाता था। राजनय का संगठित व्यवहार सर्वप्रथम यहीं पर अपनाया गया। यहां के राजदूतों को सर्वाधिक व्यवहारकुशल एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति से सूचित माना जाता था। वेनिस के राजनीतिक व्यवहार की निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं :-

  • (१) राज्यभिलेखागारों को व्यवस्थित रूप में रखने के श्रीगणेश करने का श्रेय वेनिसवासियों को दिया जाता है। उनके नौ शताब्दियों (883 से 1797 तक) के राजनयिक अभिलेख उपलब्ध होते हैं। इन अभिलेखों में राजदूतों को दिये गये निर्देश, राजदूतों के अन्तिम प्रतिवेदन, समाचार-पत्र आदि शामिल हैं। वेनिसवासी यह जानते थे कि विदेश में रहने के कारण राजदूत अपने देश की गतिविधियों से अपरिचित हो जाता है। अतः उसे सामयिक सूचना भेजी जानी चाहिये। इन समाचार-पत्रों को अविसी (avvisi) कहा जाता था।
  • (२) वेनिस वालों ने राजदूतों की नियुक्ति एवं आचरण के समबन्ध में कुछ नियमों की रचना की थी। वेनिस का राजदूत केवल तीन या चार महीनों के लिए नियुक्त किया जाता था। 15वीं शताब्दी में इसके कार्यकाल की सम्भावित सीमा 2 वर्ष कर दी गई। राजदूत जिस देश को भेजा जाता था वहां पर कोई सम्पत्ति नहीं रख सकता था। यदि यहां उसे कोई भेंट या तोहफा प्राप्त हो तो स्वदेश लौटने पर वह उसे राज्य को सौंप देता था। कार्यकाल में उसे कोई अवकाश नहीं दिया जाता था। लौटने पर 15 दिन के भीतर वह अपने कार्यों का अन्तिम प्रतिवेदन प्रस्तुत करता था।
  • (३) राजदूत अपने साथ पत्नी नहीं ले जाता था क्योंकि यह आशंका थी कि गप्पे मारने में समय खराब करके उसके कार्यों में बाधक बन जायेगी। राजदूत के साथ स्वयं का रसोइया होता था ताकि विदेशी रसोइये से जहर खाने का जोखिम न उठाना पड़े।
  • (४) वेनिसवासियों की यह धारणा थी कि सभी विदेशी तथा विशेष रूप से विदेशी राजदूत जासूसी करने के लिये आते हैं। अतः उनके व्यवहार को नियमित करने के लिए विशेष नियम बनाये गये। 1481 में निर्मित एक नियम के अनुसार वेनिस के राजदूत किसी गैर-सरकारी विदेशी के साथ राजनीतिक विचार-विमर्श नहीं कर सकते थे। जो नागरिक विदेशी राजनयिकों से सार्वजनिक विषयों पर विचार-विमर्श करते थे उनको दण्ड देने की व्यवस्था थी।

राज्यों की स्थिति

वेनिस के अतिरिक्त इटली के अन्य राज्यों की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। वे सामान्यतः कमजोर थे। उनके पास राष्ट्रीय सेना नहीं थी। अपनी सुरक्षा के लिये वे भाड़े के सैनिकों की सहायता लेते थे। उनमें आन्तरिक फूट व्याप्त थी। जब उन पर विदेशी आक्रमण हुए तो उनका बिना विरोध किये ही पतन हो गया। उनकी आपसी फूट के कारण शान्ति व्यवस्था का रहना असम्भव था। सैनिक कमजोरी के कारण वे आत्म रक्षा के लिए राजनय की ओर मुड़। उस समय उनका राजनय किसी आदर्श विचार अथवा दीर्घकालीन लक्ष्य से जुड़ा हुआ नहीं था। वरन् वे तत्कालीन हितों की रक्षा के लिये प्रयत्नशील थे। उस समय के उत्तेजनापूर्ण तथा निर्दयतापूर्ण वातावरण में राजनयिक समझौतों में चालाकी, घूर्तता, छल-कपट एवं झूठ को अपनाया जाता था। इटली के इन राज्यों की राजनीतिक अस्थिरता के कारण यहाँ का जन-जीवन भी उलझा हुआ था।

राजनयिक आचार का फ्रांसीसी तरीका

फ्रांसीसी राजनय पर दो विचारकों के मत का भारी प्रभाव पड़ा। ये थे - ग्रोशियस तथा रिचलू। इनमें से एक तो अन्तर्राष्ट्रीय विधिवेत्ता था और दूसरा राष्ट्रीय राजनीतिज्ञ। दोनों के राजनय सम्बन्धी विचारों के आधार पर ही फ्रांसीसी राजनय के आचार का रूप निर्धारित हुआ।

राजनयिक आचार का भारतीय तरीका

स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। भारत में राजनय का प्रयोग अति प्राचीन काल से चलता चला आ रहा है। वैदिक काल के राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में हमारा ज्ञान सीमित है। महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन भारतीय राजनयिक विचार का केन्द्र बिन्दु राजा होता था, अतः प्रायः सभी राजनीतिक विचारकों- कौटिल्य, मनु, अश्वघोष, बृहस्पति, भीष्म, विशाखदत्त आदि ने राजाओं के कर्तव्यों का वर्णन किया है। स्मृति में तो राजा के जीवन तथा उसका दिनचर्या के नियमों तक का भी वर्णन मिलता है। राजशास्त्र, नृपशास्त्र, राजविद्या, क्षत्रिय विद्या, दण्डनीति, नीतिशास्त्र तथा राजधर्म आदि शास्त्र, राज्य तथा राजा के सम्बन्ध में बोध कराते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्र नीतिसार, आदि में राजनय से सम्बन्धित उपलब्ध विशेष विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी उपयोगी हैं। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी, छल-कपट और धोखा आदि के प्रयोग का परामर्श देते हैं। ऋग्वेद में सरमा, इन्द्र की दूती बनकर, पणियों के पास जाती है। पौराणिक गाथाओं में नारद का दूत के रूप में कार्य करने का वर्णन है। यूनानी पृथ्वी के देवता 'हर्मेस' की भांति नारद वाक चाटुकारिता व चातुर्य के लिये प्रसिद्ध थे। वे स्वर्ग और भूलोक के मध्य एक-दूसरे राजाओं को सूचना लेने व देने का कार्य करते थे। वे एक चतुर राजदूत थे। इस प्रकार पुरातन काल से ही भारतीय राजनय का विशिष्ट स्थान रहा है।

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