भारत के मूल अधिकार, निदेशक तत्त्व और मूल कर्तव्य
निम्न विषय पर आधारित एक श्रृंखला का हिस्सा |
भारत का संविधान |
---|
उद्देशिका |
मूल अधिकार, राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व और मूल कर्तव्य[१] भारत के संविधान के अनुच्छेद हैं जिनमें अपने नागरिकों के प्रति राज्य के दायित्वों और राज्य के प्रति नागरिकों के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।[note १] इन अनुच्छेदों में सरकार के द्वारा नीति-निर्माण तथा नागरिकों के आचार एवं व्यवहार के संबंध में एक संवैधानिक अधिकार विधेयक शामिल है। ये अनुच्छेद संविधान के आवश्यक तत्व माने जाते हैं, जिसे भारतीय संविधान सभा द्वारा 1947 से 1949 के बीच विकसित किया गया था।
मूल अधिकारों को सभी नागरिकों के बुनियादी मानव अधिकार के रूप में परिभाषित किया गया है। संविधान के भाग III में परिभाषित ये अधिकार नस्ल, जन्म स्थान, जाति, पंथ या लिंग के भेद के बिना सभी पर लागू होते हैं। ये विशिष्ट प्रतिबंधों के अधीन अदालतों द्वारा प्रवर्तनीय हैं।
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत सरकार द्वारा कानून बनाने के लिए दिशानिदेश हैं। संविधान के भाग IV में वर्णित ये प्रावधान अदालतों द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं, लेकिन जिन सिद्धांतों पर ये आधारित हैं, वे शासन के लिए मौलिक दिशानिदेश हैं जिनको राज्य द्वारा कानून तैयार करने और पारित करने में लागू करने की आशा की जाती है।
मौलिक कर्तव्यों को देशभक्ति की भावना को बढ़ावा देने तथा भारत की एकता को बनाए रखने के लिए भारत के सभी नागरिकों के नैतिक दायित्वों के रूप में परिभाषित किया गया है। संविधान के चतुर्थ भाग में वर्णित ये कर्तव्य व्यक्तियों और राष्ट्र से संबंधित हैं। निदेशक सिद्धांतों की तरह, इन्हें कानूनी रूप से लागू नहीं किया जा सकता।
इतिहास
मूल अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों का मूल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में था, जिसने स्वतंत्र भारत के लक्ष्य के रूप में समाज कल्याण और स्वतंत्रता के मूल्यों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष किया।[२] भारत में संवैधानिक अधिकारों का विकास इंग्लैंड के अधिकार विधेयक, अमेरिका के अधिकार विधेयक तथा फ्रांस द्वारा मनुष्य के अधिकारों की घोषणा से प्रेरित हुआ।[३] ब्रिटिश शासकों और उनकी भारतीय प्रजा के बीच भेदभाव का अंत करने के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी (INC)) के एक उद्देश्य के साथ-साथ नागरिक अधिकारों की मांग भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी। आईएनसी (INC) द्वारा 1917 से 1919 के बीच अपनाए गए संकल्पों में इस मांग का स्पष्ट उल्लेख किया गया था।[४] इन संकल्पों में व्यक्त की गई मांगों में भारतीयों को कानूनी रूप से बराबरी का अधिकार, बोलने का अधिकार, मुकदमों की सुनवाई करने वाली जूरी में कम से कम आधे भारतीय रखने, राजनैतिक शक्ति तथा ब्रिटिश नागरिकों के समान हथियार रखने का अधिकार देना शामिल था।[५]
प्रथम विश्व युद्ध के अनुभवों, 1919 के असंतोषजनक मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधारों सुधार और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एम.के.गांधी उभरते प्रभाव के कारण नागरिक अधिकारों के लिए मांगे तय करने के संबंध में उनके नेताओं के दृष्टिकोण में उल्लेखनीय परिवर्तन आया। उनका ध्यान भारतीयों और अंग्रेजों के बीच समानता का अधिकार मांगने से हट कर सभी भारतीयों के लिए स्वतंत्रता सुनिश्चित करने पर केंद्रित हो गया।[६] 1925 में एनी बीसेंट द्वारा तैयार किए गए भारत के राष्ट्रमंडल विधेयक में सात मूल अधिकारों की विशेष रूप से मांग की गई थी - व्यक्तिगत स्वतंत्रता, विवेक की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एकत्र होने की स्वतंत्रता, लिंग के आधार पर भेद-भाव न करने, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा और सार्वजनिक स्थलों के उपयोग की स्वतंत्रता।[७] 1927 में, कांग्रेस ने उत्पीड़न के खिलाफ निगरानी प्रदान करने वाले अधिकारों की घोषणा के आधार पर, भारत के लिए स्वराज संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए एक समिति के गठन का संकल्प लिया। 1928 में मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में एक 11 सदस्यीय समिति का गठन किया गया। अपनी रिपोर्ट में समिति ने सभी भारतीयों केलिए मूल अधिकारों की गारंटी सहित अनेक सिफारिशें की थीं। ये अधिकार अमेरिकी संविधान और युद्ध के बाद यूरोपीय देशों द्वारा अपनाए गए अधिकारों से मिलते थे तथा उनमें से कई 1925 के विधेयक से अपनाए गए थे। इन प्रावधानों को बाद में मूल अधिकारों एवं निदेशक सिद्धांतों सहित भारत के संविधान के विभिन्न भागों में ज्यों का त्यों शामिल कर लिया गया था।[८]
1931 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने कराची अधिवेशन में शोषण का अंत करने, सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने और भूमि सुधार लागू करने के घोषित उद्देश्यों के साथ स्वयं को नागरिक अधिकारों तथा आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा करने के प्रति समर्पित करने का एक संकल्प पारित किया। इस संकल्प में प्रस्तावित अन्य नए अधिकारों में राज्य के स्वामित्व का निषेध, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, मृत्युदंड का उन्मूलन तथा आवागमन की स्वतंत्रता शामिल थे। [९] जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार किए गए संकल्प के मसौदे, जो बाद में कई निदेशक सिद्धांतों का आधार बना, में सामाजिक सुधार लागू करने की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य पर डाली गई और इसी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन पर समाजवाद तथा गांधी दर्शन के बढ़ते प्रभाव के चिह्न दिखाई देने लगे थे।[१०] स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम चरण में 1930 के दशक के समाजवादी सिद्धांतों की पुनरावृत्ति दिखाई देने के साथ ही मुख्य ध्यान का केंद्र अल्पसंख्यक अधिकार - जो उस समय तक एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन चुका था - बन गए जिन्हें 1945 में तेज बहादुर सप्रू रिपोर्ट में प्रकाशित किया गया था। रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने पर जोर देने के अलावा "विधायिकाओं, सरकार और अदालतों के लिए ऐचरण के मानक" निर्धारित करने की भी मांग की गई थी।[११]
ब्रिटिश राज/अंग्रेजी राज के अंतिम चरण के दौरान, भारत के लिए 1946 के कैबिनेट मिशन ने सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया के भाग के रूप में भारत के लिए संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए संविधान सभा का एक मसौदा(प्रारूप) तैयार किया।[१२] ब्रिटिश प्रांतों तथा राजसी रियासतों से परोक्ष रूप से चुने हुए प्रतिनिधियों से बनी भारत की संविधान सभा ने दिसंबर 1946 में अपनी कार्यवाही आरंभ की और नवंबर 1949 में भारत के संविधान का मसौदा पूर्ण किया।[१३] कैबिनेट मिशन की योजना के मुताबिक, मूल अधिकारों की प्रकृति और सीमा, अल्पसंख्यकों की रक्षा तथा आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन के लिए सलाह देने हेतु सभा को सलाह देने के लिए एक सलाहकार समिति का गठन होना था। तदनुसार, जनवरी 1947 में एक 64 सदस्यीय सलाहकार समिति का गठन किया गया, इनमें से ही फरवरी 1947 में मूल अधिकारों पर जे.बी.कृपलानी की अध्यक्षता में एक 12 सदस्यीय उप-समिति का गठन किया गया।[१४] उप समिति ने मूल अधिकारों का मसौदा तैयार किया और समिति को अप्रैल 1947 तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी और बाद में उसी महीने समिति ने इसको सभा के सामने प्रस्तुत कर दिया, जिसमें अगले वर्ष तक बहस और चर्चाएं हुईं तथा दिसंबर 1948 में अधिकांश मसौदे को स्वीकार कर लिया गया।[१५] मूल अधिकारों का आलेखन संयुक्त राष्ट्र महासंघ द्वारा मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को स्वीकार करने, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की गतिविधियों [१६] के साथ ही साथ अमेरिकी संविधान में अधिकार विधेयक की व्याख्या में अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों से प्रभावित हुआ था।[१७] निदेशक सिद्धांतों का मसौदे, जिसे भी मूल अधिकारों पर बनी उप समिति द्वारा ही तैयार किया गया था, में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समाजवादी उपदेशों का समावेश किया गया था और वह आयरिश संविधान में विद्यमान ऐसे ही सिद्धांतों से प्रेरित था।[१८] मौलिक कर्तव्य बाद में 1976 में संविधान के 42वें संशोधन द्वारा जोड़े गए थे।[१९]
मूल अधिकार
संविधान के भाग III में सन्निहित मूल अधिकार, सभी भारतीयों के लिए नागरिक अधिकार सुनिश्चित करते हैं और सरकार को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अतिक्रमण करने से रोकने के साथ नागरिकों के अधिकारों की समाज द्वारा अतिक्रमण से रक्षा करने का दायित्व भी राज्य पर डालते हैं।[२०] संविधान द्वारा मूल रूप से सात मूल अधिकार प्रदान किए गए थे- समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म, संस्कृति एवं शिक्षा की स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार।[२१] हालांकि, संपत्ति के अधिकार को 1978 में 44वें संशोधन द्वारा संविधान के तृतीय भाग से हटा दिया गया था।[२२][note २]
मूल अधिकारों का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा समाज के सभी सदस्यों की समानता पर आधारित लोकतांत्रिक सिद्धांतों की रक्षा करना है।[२३] वे, अनुच्छेद 13 के अंतर्गत विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों की परिसीमा के रूप में कार्य करते हैं[note ३] और इन अधिकारों का उल्लंघन होने पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों को यह अधिकार है कि ऐसे किसी विधायी या कार्यकारी कृत्य को असंवैधानिक और शून्य घोषित कर सकें।[२४] ये अधिकार राज्य, जिसमें अनुच्छेद 12 में दी गई व्यापक परिभाषा के अनुसार न केवल संघीय एवं राज्य सरकारों की विधायिका एवं कार्यपालिका स्कंधों बल्कि स्थानीय प्रशासनिक प्राधिकारियों तथा सार्वजनिक कार्य करने वाली या सरकारी प्रकृति की अन्य एजेंसियों व संस्थाओं के विरुद्ध बड़े पैमाने पर प्रवर्तनीय हैं।[२५] हालांकि, कुछ अधिकार - जैसे कि अनुच्छेद 15, 17, 18, 23, 24 में - निजी व्यक्तियों के विरुद्ध भी उपलब्ध हैं।[२६] इसके अलावा, कुछ मूल अधिकार - जो अनुच्छेद 14, 20, 21, 25 में उपलब्ध हैं, उन सहित - भारतीय भूमि पर किसी भी राष्ट्रीयता वाले व्यक्ति पर लागू होते हैं, जबकि अन्य - जैसे जो अनुच्छेद 15, 16, 19, 30 के अंतर्गत उपलब्ध है - केवल भारतीय नीगरिकों पर लागू होते हैं।[२७][२८]
मूल अधिकार संपूर्ण नहीं होते तथा वे सार्वजनिक हितों की रक्षा के लिए आवश्यक उचित प्रतिबंधों के अधीन होते हैं।[२५] 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार के मामले में[note ४] सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 1967 के पूर्व निर्णय को रद्द करते हुए निर्णय दिया कि मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है, यदि इस तरह के किसी संशोधन से संविघान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन होता हो, तो न्यायिक समीक्षा के अधीन।[२९] मूल अधिकारों को संसद के प्रत्येक सदन में दो तिहाई बहुमत से पारित संवैधानिक संशोधन के द्वारा बढ़ाया, हटाया जा सकता है या अन्यथा संशोधित किया जा सकता है।[३०] आपात स्थिति लागू होने की स्थिति में अनुच्छेद 20 और 21 को छोड़कर शेष मूल अधिकारों में से किसी को भी राष्ट्रपति के आदेश द्वारा अस्थाई रूप से निलंबित किया जा सकता है।[३१] आपातकाल की अवधि के दौरान राष्ट्रपति आदेश देकर संवैधानिक उपचारों के अधिकारों को भी निलंबित कर सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप सिवाय अनुच्छेद 20 व 21 के किसी भी मूल अधिकार के प्रवर्तन हेतु नागरिकों के सर्वोच्च न्यायालय में जाने पर रोक लग जाती है।[३२] संसद भी अनुच्छेद 33 के अंतर्गत कानून बना कर, उनकी सेवाओं का समुचित निर्वहन सुनिश्चित करने तथा अनुशासन के रखरखाव के लिए भारतीय सशस्त्र सेनाओं और पुलिस बल के सदस्यों के मूल अधिकारों के अनुप्रयोग को प्रतिबंधित कर सकती है।[३३]
समानता का अधिकार
समानता का अधिकार संविधान की प्रमुख गारंटियों में से एक है। यह अनुच्छेद 14-18 में सन्निहित हैं जिसमें सामूहिक रूप से कानून के समक्ष समानता तथा गैर-भेदभाव के सामान्य सिद्धांत शामिल हैं,[३४] तथा अनुच्छेद 17-18 जो सामूहिक रूप से सामाजिक समानता के दर्शन को आगे बढ़ाते हैं।[३५] अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है, इसके साथ ही भारत की सीमाओं के अंदर सभी व्यक्तियों को कानून का समान संरक्षण प्रदान करता है।[note ५] इस में कानून के प्राधिकार की अधीनता सबके लिए समान है, साथ ही समान परिस्थितियों में सबके साथ समान व्यवहार।[३६] उत्तरवर्ती में राज्य वैध प्रयोजनों के लिए व्यक्तियों का वर्गीकरण कर सकता है, बशर्ते इसके लिए यथोचित आधार मौजूद हो, जिसका अर्थ है कि वर्गीकरण मनमाना न हो, वर्गीकरण किये जाने वाले लोगों में सुगम विभेदन की एक विधि पर आधारित हो, साथ ही वर्गीकरण के द्वारा प्राप्त किए जाने वाले प्रयोजन का तर्कसंगत संबंध होना आवश्यक है।[३७]
अनुच्छेद 15 केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान, या इनमें से किसी के ही आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। अंशतः या पूर्णतः राज्य के कोष से संचालित सार्वजनिक मनोरंजन स्थलों या सार्वजनिक रिसोर्ट में निशुल्क प्रवेश के संबंध में यह अधिकार राज्य के साथ-साथ निजी व्यक्तियों के खिलाफ भी प्रवर्तनीय है।[३८] हालांकि, राज्य को महिलाओं और बच्चों या अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति सहित सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के नागरिकों के लिए विशेष प्रावधान बनाने से राज्य को रोका नहीं गया है। इस अपवाद का प्रावधान इसलिए किया गया है क्योंकि इसमें वर्णित वर्गो के लोग वंचित माने जाते हैं और उनको विशेष संरक्षण की आवस्यकता है।[३९] अनुच्छेद 16 सार्वजनिक रोजगार के संबंध में अवसर की समानता की गारंटी देता है और राज्य को किसी के भी खिलाफ केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान या इनमें से किसी एक के आधार पर भेदभाव करने से रोकता है। किसी भी पिछड़े वर्ग के नागरिकों का सार्वजनिक सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनुश्चित करने के लिए उनके लाभार्थ सकारात्मक कार्रवाई के उपायों के कार्यान्वयन हेतु अपवाद बनाए जाते हैं, साथ ही किसी धार्मिक संस्थान के एक पद को उस धर्म का अनुसरण करने वाले व्यक्ति के लिए आरक्षित किया जाता है।[४०]
अस्पृश्यता की प्रथा को अनुच्छेद 17 के अंतर्गत एक दंडनीय अपराध घोषित कर किया गया है, इस उद्देश्य को आगे बढ़ाते हुए नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 संसद द्वारा अधिनियमित किया गया है।[३५] अनुच्छेद 18 राज्य को सैन्य या शैक्षणिक विशिष्टता को छोड़कर किसी को भी कोई पदवी दे्ने से रोकता है तथा कोई भी भारतीय नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई पदवी स्वीकार नहीं कर सकता। इस प्रकार, भारतीय कुलीन उपाधियों और अंग्रेजों द्वारा प्रदान की गई और अभिजात्य उपाधियों को समाप्त कर दिया गया है। हालांकि, भारत रत्न पुरस्कारों जैसे, भारतरत्न को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस आधार पर मान्य घोषित किया गया है कि ये पुरस्कार मात्र अलंकरण हैं और प्रप्तकर्ता द्वारा पदवी के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।[४१][४२]
स्वतंत्रता का अधिकार
संविधान के निर्माताओं द्वारा महत्वपूर्ण माने गए व्यक्तिगत अधिकारों की गारंटी देने की दृष्टि से स्वतंत्रता के अधिकार को अनुच्छेद 19-22 में शामिल किया गया है और इन अनुच्छेदों में कुछ प्रतिबंध भी शामिल हैं जिन्हें विशेष परिस्थितियों में राज्य द्वारा व्यक्तिगं स्वतंत्रता पर लागू किया जा सकता है। अनुच्छेद 19 नागरिक अधिकारों के रूप में छः प्रकार की स्वतंत्रताओं की गारंटी देता है जो केवल भारतीय नागरिकों को ही उपलब्ध हैं।[४३] इनमें शामिल हैं(19 अ ) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, (19 ब ) शांतिपूर्वक बिना हथियारों के एकत्रित होने और सभा करने की स्वतंत्रता , भारत के राज्यक्षेत्र में कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रतता, भारत के किसी भी भाग में बसने और निवास करने की स्वतंत्रता तथा कोई भी पेशा अपनाने की स्वतंत्रता। ये सभी स्वतंत्रताएं अनुच्छेद 19 में ही वर्णित कुछ उचित प्रतिबंधों के अधीन होती हैं, दिन्हें राज्य द्वारा उन पर लागू किया जा सकता है। किस स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया जाना प्रस्तावित है, इसके आधार पर प्रतिबंधों को लागू करने के आधार बदलते रहते हैं, इनमें शामिल हैं राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, अपराधों को भड़काना और मानहानि। आम जनता के हित में किसी व्यापार, उद्योग या सेवा का नागरिकों के अपवर्जन के लिए राष्ट्रीयकरण करने के लिए राज्य को भी सशक्त किया गया है।[४४]
अनुच्छेद 19 द्वारा गारंटीशुदा स्वतंत्रताओं की आगे अनुच्छेद 20-22 द्वारा रक्षा की जाती है।[४५] इन अनुच्छेदों के विस्तार, विशेष रूप से निर्धारित प्रक्रिया के सिद्धांत के संबंध में, पर संविधान सभा में भारी बहस हुई थी। विशेष रूप से बेनेगल नरसिंह राव ने यह तर्क दिया कि ऐसे प्रावधान को लागू होने से सामाजिक कानूनों में बाधा आएगी तथा व्यवस्था बनाए रखने में प्रक्रियात्मक कठिनाइयां उत्पन्न होंगी, इसलिए इसे पूरी तरह संविधान से बाहर ही रखा जाए।[४६] संविधान सभा ने 1948 में अंततः "निर्धारित प्रक्रिया" शब्दों को हटा दिया और उनके स्थान पर “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” को शामिल कर लिया।[४७] परिणाम के रूप में एक, अनुच्छेद 21,यह जापान से लिया गया है। जो विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार होने वाली कार्यवाही को छोड़ कर, जीवन या व्यक्तिगत संवतंत्रता में राज्य के अतिक्रमण से बचाता है,[note ६] के अर्थ को 1978 तक कार्यकारी कार्यवाही तक सीमित समझा गया था। हालांकि, 1978 में, मेनका गांधी बनाम भारत संघ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के संरक्षण को विधाई कार्यवाही तक बढ़ाते हुए निर्णय दिया कि किसी प्रक्रिया को निर्धारित करने वाला कानून उचित, निष्पक्ष और तर्कसंगत होना चाहिए,[४८] और अनुच्छेद 21 में निर्धारित प्रक्रिया को प्रभावी ढंग से पढ़ा।[४९] इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत "जीवन" का अर्थ मात्र एक "जीव के अस्तित्व" से कहीं अधिक है; इसमें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार तथा वे सब पहलू जो जीवन को "अर्थपूर्ण, पूर्ण तथा जीने योग्य" बनाते हैं, शामिल हैं।[५०] इस के बाद की न्यायिक व्याख्याओं ने अनुच्छेद 21 के अंदर अनेक अधिकारों को शामिल करते हुए इसकी सीमा का विस्तार किया है जिनमें शामिल हैं आजीविका, स्वच्छ पर्यावरण, अच्छा स्वास्थ्य, अदालतों में तेवरित सुनवाई तथा कैद में मानवीय व्यवहार से संबंधित अधिकार। [५१] प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के अधिकार को 2002 के 86वें संवैधानिक संशोधन द्वारा अनुच्छेद 21ए में मूल अधिकार बनाया गया है।[५२]
अनुच्छेद 20 अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण प्रदान करता है, जिनमें शामिल हैं पूर्वव्यापी कानून व दोहरे दंड के विरुद्ध अधिकार तथा आत्म-दोषारोपण से स्वतंत्रता प्रदान करता है।[५३] अनुच्छेद 22 गिरफ्तार हुए और हिरासत में लिए गए लोगों को विशेष अधिकार प्रदान करता है, विशेष रूप से गिरफ्तारी के आधार सूचित किए जाने, अपनी पसंद के एक वकील से सलाह करने, गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर एक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने और मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना उस अवधि से अधिक हिरासत में न रखे जाने का अधिकार।[५४] संविधान राज्य को भी अनुच्छेद 22 में उपलब्ध रक्षक उपायों के अधीन, निवारक निरोध के लिए कानून बनाने के लिए अधिकृत करता है।[५५] निवारक निरोध से संबंधित प्रावधानों पर संशयवाद तथा आशंकाओं के साथ चर्चा करने के बाद संविधान सभा ने कुछ संशोधनों के साथ 1949 में अनिच्छा के साथ अनुमोदन किया था।[५६] अनुच्छेद 22 में प्रावधान है कि जब एक व्यक्ति को निवारक निरोध के किसी भी कानून के तहत हिरासत में लिया गया है, ऐसे व्यक्ति को राज्य केवल तीन महीने के लिए परीक्षण के बिना गिरफ्तार कर सकता है, इससे लंबी अवधि के लिए किसी भी निरोध के लिए एक सलाहकार बोर्ड द्वारा अधिकृत किया जाना आवश्यक है। हिरासत में लिए गए व्यक्ति को भी अधिकार है कि उसे हिरासत के आधार के बारे में सूचित किया जाएगा और इसके विरुद्ध जितना जल्दी अवसर मिले अभ्यावेदन करने की अनुमति दी जाएगी।[५७]
शोषण के खिलाफ अधिकार
शोषण के विरुद्ध अधिकार, अनुच्छेद 23-24 में निहित हैं, इनमें राज्य या व्यक्तियों द्वारा समाज के कमजोर वर्गों का शोषण रोकने के लिए कुछ प्रावधान किए गए हैं।[५८] अनुच्छेद 23 के प्रावधान के अनुसार मानव तस्करी को प्रतिबन्धित है, इसे कानून द्वारा दंडनीय अपराध बनाया गया है, साथ ही बेगार या किसी व्यक्ति को पारिश्रमिक दिए बिना उसे काम करने के लिए मजबूर करना जहां कानूनन काम न करने के लिए या पारिश्रमिक प्राप्त करने के लिए हकदार है, भी प्रतिबंधित किया गया है। हालांकि, यह राज्य को सार्वजनिक प्रयोजन के लिए सेना में अनिवार्य भर्ती तथा सामुदायिक सेवा सहित, अनिवार्य सेवा लागू करने की अनुमति देता है।[५९][६०] बंधुआ श्रम व्यवस्था (उन्मूलन) अधिनियम, 1976, को इस अनुच्छेद में प्रभावी करने के लिए संसद द्वारा अधिनियमित किया गया है।[६१] अनुच्छेद 24 कारखानों, खानों और अन्य खतरनाक नौकरियों में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है। संसद ने बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986 अधिनियमित किया है, जिसमें उन्मूलन के लिए नियम प्रदान करने और बाल श्रमिक को रोजगार देने पर दंड के तथा पूर्व बाल श्रमिकों के पुनर्वास के लिए भी प्रावधान दिए गए हैं।[६२]
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 25-28 में निहित है, जो सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है और भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य सुनिश्चित करता है। संविधान के अनुसार, यहां कोई आधिकारिक राज्य धर्म नहीं है और राज्य द्वारा सभी धर्मों के साथ निष्पक्षता और तटस्थता से व्यवहार किया जाना चाहिए।[६३] अनुच्छेद 25 सभी लोगों को विवेक की स्वतंत्रता तथा अपनी पसंद के धर्म के उपदेश, अभ्यास और प्रचार की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। हालांकि, यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य तथा राज्य की सामाजिक कल्याण और सुधार के उपाय करने की शक्ति के अधीन होते हैं।[६४] हालांकि, प्रचार के अधिकार में किसी अन्य व्यक्ति के धर्मांतरण का अधिकार शामिल नहीं है, क्योंकि इससे उस व्यक्ति के विवेक के अधिकार का हनन होता है।[६५] अनुच्छेद 26 सभी धार्मिक संप्रदायों तथा पंथों को सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता तथा स्वास्थ्य के अधीन अपने धार्मिक मामलों का स्वयं प्रबंधन करने, अपने स्तर पर धर्मार्थ या धार्मिक प्रयोजन से संस्थाएं स्थापित करने और कानून के अनुसार संपत्ति रखने, प्राप्त करने और उसका प्रबंधन करने के अधिकार की गारंटी देता है। ये प्रावधान राज्य की धार्मिक संप्रदायों से संबंधित संपत्ति का अधिग्रहण करने की शक्ति को कम नहीं करते।[६६] राज्य को धार्मिक अनुसरण से जुड़ी किसी भी आर्थिक, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधि का विनियमन करने की शक्ति दी गई है।[६३] अनुच्छेद 27 की गारंटी देता है कि किसी भी व्यक्ति को किसी विशेष धर्म या धार्मिक संस्था को बढ़ावा देने के लिए टैक्स देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।[६७] अनुच्छेद 28 पूर्णतः राज्य द्वारा वित्तपोषित शैक्षिक संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा का निषेध करता है तथा राज्य से वित्तीय सहायता लेने वाली शैक्षिक संस्थाएं, अपने किसी सदस्य को उनकी (या उनके अभिभावकों की) स्वाकृति के बिना धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने या धार्मिक पूजा में भाग लेने के लिए मजबूर नहीं कर सकतीं।[६३]
सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
अनुच्छेद 29 व 30 में दिए गए सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार, उन्हें अपनी विरासत का संरक्षण करने और उसे भेदभाव से बचाने के लिए सक्षम बनाते हुए सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के उपाय हैं।[६८] अनुच्छेद 29 अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि और संस्कृति रखने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग को उनका संरक्षण और विकास करने का अधिकार प्रदान करता है, इस प्रकार राज्य को उन पर किसी बाह्य संस्कृति को थोपने से रोकता है।[६८][६९] यह राज्य द्वारा चलाई जा रही या वित्तपोषित शैक्षिक संस्थाओं को, प्रवेश देते समय किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव करने से भी रोकता है। हालांकि, यह सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए राज्य द्वारा उचित संख्या में सीटों के आरक्षण तथा साथ ही एक अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा चलाई जा रही शैक्षिक संस्था में उस समुदाय से संबंधिक नागरिकों के लिए 50 प्रतिशत तक सीटों के आरक्षण के अधीन है।[७०]
अनुच्छेद 30 सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी स्वयं की संस्कृति को बनाए रखने और विकसित करने के लिए अपनी पसंद की शैक्षिक संस्थाएं स्थापित करने और चलाने का अधिकार प्रदान करता है और राज्य को, वित्तीय सहायता देते समय किसी भी संस्था के साथ इस आधार पर कि उसे एक धार्मिक या सांस्कृतिक अल्पसंख्यक द्वारा चलाया जा रहा है, भेदभाव करने से रोकता है।[६९] हालांकि शब्द "अल्पसंख्यक" को संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या के अनुसार इसका अर्थ है कोई भी समुदाय जिसके सदस्यों की संख्या, जिस राज्य में अनुच्छेद 30 के अंतर्गत अधिकार चाहिए, उस राज्य की जनसंख्या के 50 प्रतिशत से कम हो। इस अधिकार का दावा करने के लिए, यह जरूरी है कि शैक्षिक संस्था को किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित और प्रशासित किया गया हो। इसके अलावा, अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार का लाभ उठाया जा सकता है, भले ही स्थापित की गई शैक्षिक संस्था स्वयं को केवल संबंधित अल्पसंख्यक समुदाय के धर्म या भाषा के शिक्षण तक सीमित नहीं रखती, या उस संस्था के अधिसंख्य छात्र संबंधित अल्पसंख्यक समुदाय से संबंध नहीं रखते हों।[७१] यह अधिकार शैक्षिक मानकों, कर्मचारियों की सेवा की शर्तों, शुल्क संरचना और दी गई सहायता के उपयोग के संबंध में उचित विनियमन लागू करने की राज्य की शक्ति के अधीन है।[७२]
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
संवैधानिक उपचारों का अधिकार नागरिकों को अपने मूल अधिकारों के प्रवर्तन या उल्लंघन के विरुद्ध सुरक्षा के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में जाने की शक्ति देता है।[७३] अनुच्छेद 32 स्वयं एक मूल अधिकार के रूप में, अन्य मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए गारंटी प्रदान करता है, संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को इन अधिकारों के रक्षक के रूप में नामित किया गया है।[७४] सर्वोच्च न्यायालय को मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, उत्प्रेषण और अधिकार पृच्छा प्रादेश (रिट, writ) जारी करने का अधिकार दिया गया है, जबकि उच्च न्यायालयों को अनुच्छेद 226 - जो एक मैलिक अधिकार नहीं है - मूल अधिकारों का उल्लंघन न होने पर भी इन विशेषाधिकार प्रादेशों को जारी करने का अधिकार दिया गया है।[७५] निजी संस्थाओं के खिलाफ भी मूल अधिकार को लागू करना तथा उल्लंघन के मामले में प्रभावित व्यक्ति को समुचित मुआवजे का आदेश जारी करना भी सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वप्रेरणा से या जनहित याचिका के आधार पर अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर सकता है।[७३] अनुच्छेद 359 के प्रावधानों जबकि आपातकाल लागू हो, को छोड़कर यह अधिकार कभी भी निलंबित नहीं किया जा सकता।[७४]
राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत
संविधान के चतुर्थ भाग में सन्निहित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों, में संविधान की प्रस्तावना में प्रस्तावित आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना हेतु मार्गदर्शन के लिए राज्य को निदेश uदिए गए हैं।[७६] वे संविधान सभा द्वारा भारत में परिकल्पित सामाजिक क्रांति के लक्ष्य रहे मानवीय और समाजवादी निदेशों को बताते हैं।[७७] राज्य से यह अपेक्षा की गई है कि हालांकि ये प्रकृति में न्यायोचित नहीं हैं, कानून और नीतियां बनाते समय इन सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाएगा। निदेशक सिद्धांतों को निम्नलिखित श्रेणियों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है: वे आदर्श जिन्हें प्राप्त करने के लिए राज्य को प्रयास करने चाहिएं; विधायी और कार्यकारी शक्तियों के प्रयोग के लिHKïए निदेश और नागरिकों के अधिकार जिनकी सुरक्षा करना राज्य का लक्ष्य होना चाहिए।[७६]
न्यायोचित न होने के बावजूद निदेशक सिद्धांत राज्य पर एक रोक का काम करते हैं; इन्हें मतदाताओं एवं विपक्ष के हाथों में एक मानदंड के रूप में माना गया है जिससे वे चुनाव के समय सरकार के कार्यप्रदर्शन को माप सकें।[७८] अनुच्छेद 37, यह बताते हुए कि निदेशक सिद्धांत कानून की किसी भी अदालत में प्रवर्तनीय नहीं हैं, उन्हें "देश के शासन के लिए बुनियादी" घोषित करता है और विधान के मामलों में इन्हें लागू करने का दायित्व भी राज्य पर डालता है।[७९] इस प्रकार वे संविधान के कल्याणकारी राज्य के मॉडल पर जोर देने का काम करते हैं और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को स्वीकार करते हुए लोगों के कल्याण को प्रोत्साहन देने के लिए, साथ ही अनुच्छेद 38 के अनुसार आय असमानता से लड़ने और व्यक्तिगत गरिमा को सुनिश्चित करने के लिए राज्य के सकारात्मक कर्तव्यों पर जोर देते हैं।[८०][८१]
अनुच्छेद 39 राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली नीतियों के कुछ सिद्धांत तय करता है, जिनमें सभी नागरिकों के लिए आजीविका के पर्याप्त साधन प्रदान करना, स्त्री और पुरुषों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन, उचित कार्य दशाएं, कुछ ही लोगों के पास धन तथा उत्पादन के साधनों के संकेंद्रन में कमी लाना और सामुदायिक संसाधनों का “सार्वजनिक हित में सहायक होने” के लिए वितरण करना शामिल हैं।[८२] ये धाराएं, राज्य की सहायता से सामाजिक क्रांति लाकर, एक समतावादी सामाजिक व्यवस्था बनाने तथा एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने के संवैधानिक उद्देश्यों को चिह्नांकित करती हैं और इनका खनिज संसाधनों के साथ-साथ सार्वजनिक सुविधाओं के राष्ट्रीयकरण को समर्थन देने के लिए उपयोग किया गया है।[८३] इसके अलावा, भूसंसाधनों के न्यायसंगत वितरण के सुनिश्चित करने के लिए, संघीय एवं राज्य सरकारों द्वारा कृषि सुधारों और भूमि पट्टों के कई अधिनियम बनाए गए हैं।[८४]
अनुच्छेद 41-43 जनादेश राज्य को सभी नागरिकों के लिए काम का अधिकार, न्यूनतम मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा, मातृत्व राहत और एक शालीन जीवन स्तर सुरक्षित करने के प्रयास करने के अधिकार देते हैं।[८५] इन प्रावधानों का उद्देश्य प्रस्तावना में परिकल्पित एक समाजवादी की राज्य की स्थापना करना है।[८६] अनुच्छेद 43 भी राज्य को कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने की जिम्मेदारी देता है और इसको आगे बढ़ाते हुए संघीय सरकार ने राज्य सरकारों के समन्वय से खादी, हैंडलूम आदि को प्रोत्साहन देने के लिए अनेक बोर्डों की स्थापना की है।[८७] अनुच्छेद 39ए के अनुसार राज्य को आर्थिक अथवा अन्य अयोग्यताओं पर ध्यान दिए बिना निशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध करवाकर यह सुनिश्चित करना है कि सभी नागरिकों को न्याय प्राप्त करने के अवसर मिलें।[८८] अनुच्छेद 43ए राज्य को उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में काम करने के लिए अधिकार देता है।[८६] अनुच्छेद 46 के तहत, राज्य को अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के हितों को प्रोत्साहन देने और उनके आर्थिक स्तर को ऊपर उठाने के लिए काम करने और उन्हें भैद-भाव तथा शोषण से बचाने का अधिकार दिया गया है। इस प्रावधान को प्रभावी बनाने के लिए दो संविधान संशोधनों सहित कई अधिनियम बनाए गए हैं।[८९]
अनुच्छेद 44 देश में वर्तमान में लागू विभिन्न निजी कानूनों में विसंगतियों को दूर करके सभी नागरिकों के लिए समान नगगरिक संहिता बनाने के लिए राज्य को प्रोत्साहित करता है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रावधानों को लागू करने के लिए अनेक अनुस्मारक दिए जाने के बावजूद यह एक अंधपत्र होकर रह गया है।[९०] अनुच्छेद 45 द्वारा मूल रूप में राज्य को 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को निशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का अधिकार दिया गया था;[९१] लेकिन बाद में 2002 में 86वें संविधान संशोधन के बाद इसे मूल अधिकार में परिवर्तित कर दिया गया है और छः वर्ष तक की आयु के बच्चों के बचपन की देखभाल सुनिश्चित करने का दायित्व राज्य पर डाला गया है।[५२] अनुच्छेद 47 जीवन स्तर ऊंचा उठाने, सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने तथा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नशीले पेय और दवाओं के सेवन पर रोक लगाने की प्रतिबद्धता राज्य को सौंपी गई है।[९२] परिणाम के रूप में कई राज्यों में आंशिक या संपूर्ण निषेध लागू कर दिया गया है, लेकिन वित्तीय मजबूरियों ने इसको पूर्ण रूप से लागू करने से रोक रखा है।[९३] अनुच्छेद 48 के द्वारा भी राज्य को नस्ल सुधार कर तथा पशुवध पर रोक लगा कर आधुनिक एवं वैज्ञानिक तरीके से कृषि और पशुपालन को संगठित करने की जिम्मेदारी दी गई है।[९४] अनुच्छेद 48ए राज्य को पर्यावरण की रक्षा और वनों तथा वन्यजीवों के संरक्षण का आदेश देता है, जबकि अनुच्छेद 49 राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों और वस्तुओं का संरक्षण सुनिश्चित करने का दायित्व राज्य को सौंपता है।[९५] अनुच्छेद 50 के अनुसार राज्य को न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका का कार्यपालिका से अलगाव सुनिश्चित करना है और संघीय कानून बनाकर इस उद्देश्य को प्राप्त कर लिया गया है।[९६][९७] अनुच्छेद 51 के अनुसार, राज्य को अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के संवर्धन हेतु प्रयास करने चाहिएं तथआ अनुच्छेद 253 के द्वारा संसद को अंतर्राष्ट्रीय संधियां लागू करने के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया है।[९८]
मूल कर्तव्य
नागरिकों के मूल कर्तव्य 1976 में सरकार द्वारा गठित स्वर्णसिंह समिति की सिफारिशों पर, 42वें संशोधन द्वारा संविधान में जोड़े गए थे।[१९][९९] मूल रूप से संख्या में दस, मूल कर्तव्यों की संख्या 2002 में 86वें संशोधन द्वारा ग्यारह तक बढ़ाई गई थी, जिसमें प्रत्येक माता-पिता या अभिभावक को यह सुनिश्चित करने का कर्तव्य सौंपा गया कि उनके छः से चौदह वर्ष तक के बच्चे या वार्ड को शिक्षा का अवसर प्रदान कर दिया गया है।[५२] अन्य मूल कर्तव्य नागरिकों को कर्तव्यबद्ध करते हैं कि संविधान सहित भारत के राष्ट्रीय प्रतीकों का समेमान करें, इसकी विरासत को संजोएं, इसकी मिश्रित संस्कृति का संरक्षण करें तथा इसकी सुरक्षा में सहायता दें। वे सभी भारतीयों को सामान्य भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने, पर्यावरण और सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करने, वैज्ञानिक सोच का विकास करने, हिंसा को त्यागने और जीवन के सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता की दिशा में प्रयास करने के कर्तव्य भी सौंपते हैं।[१००] नागरिक इन कर्तव्यों का पालन करने के लिए संविधान द्वारा नैतिक रूप से बाध्य हैं। हालांकि, निदेशक सिद्धांतों की तरह, ये भी न्यायोचित नहीं हैं, उल्लंघन या अनुपालना न होने पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो सकती।[९९][१०१] ऐसे कर्तव्यों का उल्लेख मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा तथा नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय लेखपत्रों में है, अनुच्छेद 51ए भारतीय संविधान को इन संधियों के अनुरूप लाता है।[९९]
आलोचना और विश्लेषण
अब कम ही बच्चे खतरनाक वातावरण में कार्यरत हैं, लेकिन गैर खतरनाक नौकरियों में उनका रोजगार, घरेलू नौकर के रूप में प्रचलन, कई आलोचकों और मानव अधिकार अधिवक्ताओं की नजरों में संविधान की भावना का उल्लंघन करता है। एक करोड़ पैंसठ लाख से अधिक बच्चे रोजगार में हैं।[१०२] सरकारी अधिकारियों और राजनीतिज्ञों में मौजूद भ्रष्टाचार के स्तर के अनुसार 2005 में भारत 159 देशों की सूची में 88वें स्थान पर था।[१०३] वर्ष 1990-1991 को बीआर अम्बेडकर की स्मृति में "सामाजिक न्याय वर्ष" घोषित किया गया था।[१०४] सरकार चिकित्सा एवं अभियांत्रिकी पाठ्यक्रमों के अनुसूचित जाति एवं जनजाति के छात्रों को निशुल्क पाठ्यपुस्तकें प्रदान करती है। 2002-2003 के दौरान रुपये 4.77 करोड़ (477 लाख) इस उद्देश्य के लिए जारी किए गए थे।[१०५] अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भेदभाव से बचाने के लिए, सरकार ने ऐसे कृत्यों के लिए कड़े दंडों का प्रावधान करते हुए 1995 में अत्याचार निवारण अधिनियम अधिनियमित किया था।[१०६]
1948 का न्यूनतम मजदूरी अधिनियम सरकार को संपूर्ण आर्थिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों की न्यूनतम मजदूरी तय करने का अधिकार देता है।[१०७] उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 उपभोक्ताओं को बेहतर सुरक्षा प्रदान करता है। अधिनियम का उद्देश्य उपभोक्ताओं की शिकायतों का सरल, त्वरित और सस्ता समाधान प्रदान करना और जहां उपयुक्त पाया जाए राहत और मुआवजा दिलाना हैं।साँचा:category handler[<span title="स्क्रिप्ट त्रुटि: "string" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।">citation needed] समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 महिलाओं और पुरुषों दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान करता है।[१०८] सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (यूनिवर्सल ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम) 2001 में ग्रामीण गरीबों को लाभदायक रोजगार प्रदान करने के उद्देश्य से शुरू किया गया था। कार्यक्रम पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से कार्यान्वित किया गया था।[१०९]
निर्वाचित ग्राम परिषदों का एक तंत्र पंचायती राज के नाम से जाना जाता है, यह लगभग भारत के सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में लागू है।[११०] पंचायती राज में प्रत्येक स्तर पर कुल सीटों की संख्या की एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं, बिहार के मामले में आधी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।[१११][११२] जम्मू एवं काश्मीर तथा नागालैंड को छोड़ कर सभी राज्यों और प्रदेशों में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया गया है।[१०५] भारत की विदेश नीति निदेशक सिद्धांतों से प्रभावित है। भारतीय सेना द्वारा संयुक्त राष्ट्र के शांति कायम करने के 37 अभियानों में भाग लेकर भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति प्रयासों में सहयोग दिया है।[११३]
सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन राजनैतिक दलों और विभिन्न धार्मिक समूहों के बड़े पैमाने पर विरोध के कारण हासिल नहीं किया जा सका है। शाह बानो मामले (1985-1986) ने भारत में एक राजनीतिक तूफान भड़का दिया था जब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक मुस्लिम महिला शाह बानो जिसे 1978 में उसके पति द्वारा तलाक दे दिया गया था, सभी महिलाओं के लिए लागू भारतीय विधि के अनुसार अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता प्राप्त करने की हकदार थी। इस फैसले ने मुस्लिम समुदाय में नाराजगी पैदा कर दी जिसने मुस्लिम पर्सनल लॉ लागू करने की मांग की और प्रतिक्रिया में संसद ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलटते हुए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित कर दिया।[११४] इस अधिनियम ने आगे आक्रोश भड़काया, न्यायविदों, आलोचकों और नेताओं ने आरोप लगाया कि धर्म या लिंग के बावजूद सभी नागरिकों के लिए समानता के मूल अधिकार की विशिष्ट धार्मिक समुदाय के हितों की रक्षा करने के लिए अवहेलना की गई थी। फैसला और कानून आज भी गरम बहस के स्रोत बने हुए हैं, अनेक लोग इसे मूल अधिकारों के कमजोर कार्यान्वयन का एक प्रमुख उदाहरण बताते हैं।[११४]
मूल अधिकारों, निदेशक सिद्धांतों और मौलिक कर्तव्यों के बीच संबंध
निदेशक सिद्धांतों को मूल अधिकारों के साथ विवाद की स्थिति में कानून की संवैधानिक वैधता को बनाए रखने के लिए इस्तेमाल किया गया है। 1971 में 25वें संशोधन द्वारा जोड़े गए अनुच्छेद 31सी में प्रावधान है कि अनुच्छेद 39(बी)-(सी) में निदेशक सिद्धांतों को प्रभावी बनाने के लिए बनाया गया कोई भी कानून इस आधार पर अवैध नहीं होगा कि वे अनुच्छेद 14, 19 और 31 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों से अवमूल्यित हैं। 1976 में 42वें संशोधन द्वारा इस अनुच्छेद का सभी निदेशक सिद्धांतों पर विस्तार किया गया था लेकिन ने इस विस्तार को शून्य घोषित कर दिया क्योंकि इससे संविधान के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन होता था।[११५] मूल अधिकार और निदेशक सिद्धांत दोनों का संयुक्त इस्तेमाल सामाजिक कल्याण के लिए कानूनों का आधार बनाने में किया गया है।[११६] केशवानंद भारती मामले में फैसले के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने यह दृष्टिकोण अपना लिया है कि मूल अधिकार और निदेशक सिद्धांत एक दूसरे के पूरक हैं, दोनों एक कल्याणकारी राज्य बनाने के लिए सामाजिक क्रांति के एक ही लक्ष्य के लिए कार्य करते हैं।[११७] इसी प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय ने मौलिक कर्तव्यों का प्रयोग मौलिक कर्तव्यों में दिए गए उद्देश्यों को प्रोत्साहित करने वाले कानूनों की संवैधानिक वैधता बनाए रखने के लिए किया है।[११८] इन कर्तव्यों को सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य ठहराया गया है, बशर्ते राज्य द्वारा उनका प्रवर्तन एक वैध कानून के द्वारा किया जाए।[१००] सर्वोच्च न्यायालय ने एक नागरिक को अपने कर्तव्य के उचित पालन के लिए प्रभावी और सक्षम बनाने हेतु प्रावधान करने की दृष्टि से राज्य को इस संबंध में निदेश जारी किए हैं।[११८]
इन्हें भी देंखें
- राज्य के नीति निर्देशक तत्व
- भारतीय कानून में प्रादेश
- भारत में मानवाधिकार
- संवैधानिक अर्थशास्त्र
- उच्चतम क़ानून के अनुसार शासन
टिप्पणी
साँचा:sidebar with collapsible lists
- ↑ According to Articles 12 and 36, the term State, for the purposes of the chapters on Fundamental Rights and Directive Principles, includes all authorities within the territory of India. It includes the भारत सरकार, the Parliament of India, the Government and legislature of the states of India. It also includes all local or other authorities such as Municipal Corporations, Municipal Boards, District Boards, Panchayats etc. To avoid confusion with the term states, the administrative divisions, State (encompassing all the authorities in India) has been capitalized and the term state is in lowercase.
- ↑ The right to property is still a Constitutionally recognised right, but is now contained outside the Part on Fundamental Rights, in Article 300A which states: साँचा:quote
- ↑ According to Article 13, साँचा:quote The term law has been defined to include not only legislation made by Parliament and the legislatures of the states, but also ordinances, rules, regulations, bye laws, notifications, or customs having the force of law.
- ↑ His Holiness Kesavananda Bharati v. State of Kerala, AIR 1973 SC 1461. This was popularly known as the Fundamental Rights Case.
- ↑ Article 14 states: साँचा:quote
- ↑ Article 21 states: साँचा:quote
पादटिप्पणी
- ↑ साँचा:cite web
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ तायल बी। बी। और जेकब, ए। (2005), इंडियन हिस्ट्री, वर्ल्ड डेवलपमेंट्स एंड सिविक्स, पृष्ठ। ए-23
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ अ आ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ अ आ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ तायल बी। बी। और जेकब, ए। (2005), इंडियन हिस्ट्री, वर्ल्ड डेवलपमेंट्स एंड सिविक्स, पृष्ठ। ए-25
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ अ आ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 259
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 260–261
- ↑ अ आ इ 86वीं अमेंडमेंट एक्ट, 2002।साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ Basu 1993, पृष्ठ 106
- ↑ Austin 1999, पृष्ठ 110–112
- ↑ Basu 1993, पृष्ठ 107
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 325
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 326
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 327
- ↑ अ आ इ साँचा:harvnb
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 327–328
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 343
- ↑ अ आ Basu 2003, पृष्ठ 345
- ↑ अ आ Basu 1993, पृष्ठ 115
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 346–347
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 348–349
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 354–355
- ↑ अ आ Basu 2003, पृष्ठ 391
- ↑ अ आ Basu 1993, पृष्ठ 122
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ अ आ Basu 1993, पृष्ठ 137
- ↑ Austin 1999, पृष्ठ 75
- ↑ Basu 1999, पृष्ठ 140–142
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ Basu 1993, पृष्ठ 141
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 448
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 448–449
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 449–450
- ↑ Basu 1993, पृष्ठ 143
- ↑ साँचा:harvnb
- ↑ अ आ Basu 2003, पृष्ठ 456
- ↑ Basu 1993, पृष्ठ 144
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 453
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 457–458
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 456–457
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 457
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 459
- ↑ Basu 1993, पृष्ठ 144–145
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 459–460
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 460
- ↑ Basu 1993, पृष्ठ 145
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 461
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 461–462
- ↑ अ आ इ Basu 2003, पृष्ठ 465
- ↑ अ आ Basu 1993, पृष्ठ 131
- ↑ तायल बी। बी। और जेकब, ए। (2005), इंडियन हिस्ट्री, वर्ल्ड डेवलपमेंट्स एंड सिविक्स, पृष्ठ। ए-35
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- ↑ ट्रांसपैरेंसी इंटरनैशनल द्वारा भ्रष्टाचार की धारणा का सूचकांक प्रकाशित।
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- ↑ अ आ तायल बी। बी। और जेकब, ए। (2005), इंडियन हिस्ट्री, वर्ल्ड डेवलपमेंट्स एंड सिविक्स, पृष्ठ। ए-45
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- ↑ 73वीं अमेंडमेंट एक्ट, 1992साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]।
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- ↑ अ आ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
- ↑ Basu 1993, पृष्ठ 142
- ↑ hindi Austin 1999, पृष्ठ 114–115
- ↑ Basu 2003, पृष्ठ 444
- ↑ अ आ Basu 2003, पृष्ठ 466
सन्दर्भ
- स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
आगे पढ़ें
- स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link] शासन करने की तिथि 15 दिसम्बर 1995
- स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- मेनका गांधी वर्सेस यूनियन ऑफ़ इंडिया, एयर (AIR) 1978 एस। सी। 597, (1978)।
- स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- युनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्युमन राइट्स एंड इंटरनैशनल कोवेनैंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स का लेख 29।
बाहरी कड़ियाँ
- Articles with dead external links from जून 2020
- Articles with invalid date parameter in template
- Articles with dead external links from सितम्बर 2010
- Articles with hatnote templates targeting a nonexistent page
- Articles with unsourced statements from फ़रवरी 2011
- Use dmy dates from सितम्बर 2010
- भारत का संविधान
- मानवाधिकार