हरित क्रांति
हरित क्रांति सन् १९४०-६० के मध्य कृषि क्षेत्र में हुए शोध विकास, तकनीकि परिवर्तन एवं अन्य कदमों की श्रृंखला को संदर्भित करता है जिसके परिणाम स्वरूप पूरे विश्व में कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इसने हरित क्रांति के पिता कहे जाने वाले नौरमन बोरलोग के नेतृत्व में संपूर्ण विश्व तथा खासकर विकासशील देशों को खादान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया। उच्च उत्पादक क्षमता वाले प्रसंसाधित बीजों का प्रयोग, आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल, सिंचाई की व्यवस्था, कृत्रिम खादों एवं कीटनाशकों के प्रयोग आदि के कारण संभव हुई इस क्रांति को लाखों लोगों की भुखमरी से रक्षा करने का श्रेय दिया जाता है।[१]
हरित क्रांति का पारिभाषिक शब्द के रूप में सर्वप्रथम प्रयोग १९६८ ई. में पूर्व संयुक्त राज्य अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी (USAID) के निदेशक विलियम गौड द्वारा किया गया जिन्होंने इस नई तकनीक के प्रभाव को चिन्हित किया।
भारत के हरित क्रांति के जनक एम॰ के॰ स्वामीनाथन हैं। ऐसी दिशा में उठाए गए कुछ महत्वपूर्ण कदमों ने सूखा, बाढ़, चक्रवात, आग, तथा बीमारी के लिए फसल बीमा के प्रावधान और किसानों को कम दर पर सुविधाएं प्रदान करने के लिए ग्रामीण बैंक, सहकारी समितियों और बैंकों की स्थापना सम्मिलित थे। किसानों के लाभ के लिए भारत सरकार ने किसान क्रेडिट कार्ड और दुर्घटना बीमा योजना (पीएआईएस) भी शुरू की।