चम्पा
चम्पा दक्षिण पूर्व एशिया (पूर्वी हिन्दचीन (192-1832) में) स्थित एक प्राचीन हिन्दू राज्य था। यहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार प्रसार था और इसके राजाओं के संस्कृत नाम थे। चम्पा के लोग और राजा शैव थे। अन्नम प्रांत के मध्य और दक्षिणी भाग में प्राचीन काल में जिस भारतीय राज्य की स्थापना हुई उसका नाम 'चंपा' था।
नृजातीय तथा भाषायी दृष्टि से चम्पा के लोग चाम (मलय पॉलीनेशियन) थे। वर्तमान समय में चाम लोग वियतनाम और कम्बोडिया के सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं।
इन्होंने हिन्दू धर्म 4थी शताब्दी ईस्वी में पड़ोसी फुनान राज्य से संघर्ष और उसपर विजय प्राप्त करने के बाद अपनाया। हिन्दू धर्म ने सदियों से चम्पा साम्राज्य की कला और संस्कृति को आकार दिया है, जैसा कि कई चाम लोग की हिंदू मूर्तियों और लाल ईंट के मंदिरों में देखा जा सकता है।
इनमें से प्रमुख हैं मी सान (Mỹ Sơn), जो पहले एक मंदिर हुआ करता था, और होई आन (Hội An) जो चम्पा के मुख्य बंदरगाह शहरों में से एक था। दोनों ही अब विश्व धरोहर स्थल हैं। आज, कई चाम लोग इस्लाम का पालन करते हैं। यह धर्मांतरण 10 वीं शताब्दी में शुरू हुआ, और 17 वीं शताब्दी तक समाज के अभिजात वर्ग ने भी पूरी तरह इसे अपना लिया। इन्हें बानी चाम कहा जाता है (अरबी के शब्द बानू से)। हालाँकि, आज भी वहाँ बालामोन चाम (संस्कृत के ब्राह्मण से उत्पन्न) हैं जो अभी भी अपने हिंदू विश्वास और रीति-रिवाजों का पालन करते हैं और त्योहार मनाते हैं। बालामोन चाम दुनिया में केवल दो जीवित गैर-इंडिक (भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर के) स्वदेशी हिंदू लोगों में से एक है, जिसकी संस्कृति हजारों साल पुरानी है। इनके अलावा इंडोनेशिया के बाली द्वीप के लोग भी हिंदू धर्म का पालन करते हैं ।[१]
इसके ५ प्रमुख विभाग थेः
इतिहास और संस्कृति
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भारतीयों के आगमन से पूर्व यहाँ के निवासी दो उपशाखाओं में विभक्त थे। जो भारतीयों के संपर्क में सभ्य हो गए वे कालांतर में चंपा के नाम पर ही चम के नाम से विख्यात हुए और जो बर्बर थे वे 'चमम्लेच्छ' और 'किरात' आदि कहलाए।
चंपा का राजनीतिक प्रभुत्व कभी भी उसकी सीमाओं के बाहर नहीं फैला। यद्यपि उसके इतिहास में भी राजनीतिक दृष्टि से गौरव की कुछ घटनाएँ हैं, तथापि वह चीन के आधिपत्य में था और प्राय: उसके नरेश अपने अधिकार की रक्षा और स्वीकृति के लिये चीन के सम्राट् के पास दूतमंडल भेजते थे। समय समय पर उसे चीन, कंबुज और उत्तर में स्थित अन्नम लोगां के आक्रमणों से अपनी रक्षा का प्रयत्न करना पड़ता था। प्रारंभ में इस प्रदेश पर चीन का प्रभुत्व था किंतु दूसरी शताब्दी में भारतीयों के आगमन से चीन का अधिकार क्षीण होने लगा। १९२ ई. में किउ लिएन ने एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। यही श्रीमार था जो चंपा का प्रथम ऐतिहासिक नरेश था। इसकी राजधानी चंपानगरी, चंपापुर अथवा चंपा कुअंग न-म के दक्षिण में वर्तमान किओ है। चंपा के प्रारंभिक नरेशों की नीति चीन के आधिपत्य में स्थित प्रदेशों को छीनकर उत्तर में सीमा का विस्तार करता था। ३३६ ई. में सेनापति फ़न वेन ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। इसी के समय में चंपा के राज्य का विस्तार इसकी सुदूर उत्तरी सीमा तक हुआ था। धर्म महाराज श्री भद्रवर्मन् जिसका नाम चीनी इतिहास में फन-हु-ता (३८०-४१३ ई.) मिलता है, चंपा के प्रसिद्ध सम्राटों में से है जिसने अपनी विजयों ओर सांस्कृतिक कार्यों से चंपा का गौरव बढ़ाया। किंतु उसके पुत्र गंगाराज ने सिंहासन का त्याग कर अपने जीवन के अंतिम दिन भारत में आकर गंगा के तट पर व्यतीत किए। फन यंग मैं ने ४२० ई. में अव्यवस्था का अंत कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया। यंग मैं द्वितीय के राजकाल में चीन के साथ दीर्घकालीन युद्ध के अंत में चीनियों द्वारा चंपापुर का विध्वंस हुआ। इस वंश का अंतिम शसक विजयवर्मन् था जिसके बाद (५२९ ई.) गंगाराज का एक वंशज श्री रुद्रवम्रन् शासक बना। ६०५ ई. में चीनियों का फिर से विध्वंसकारी आक्रमण हुआ। अव्यवस्था का लाभ उठाकर राज्य की स्त्रीशाखा के लोगों ने ६४५ ई. में प्रभासधर्म और सभी पुरुषों की हत्या कर अंत में ६५७ ई. में ईशानवर्मन् को सिंहासन दिलाया जो कंबुजनरेश ईशानवर्मन् का दोहित्र था। ७५७ ई. में रुद्रवर्मन् द्वितीय की मृत्यु के साथ इस वंश के अधिकार का अंत हुआ।
पृथिवीन्द्रवर्मन् के द्वारा स्थापित राजवंश की राजधानी चंपा ही बनी रही। इसकी शक्ति दक्षिण में केंद्रित थी और यह पांडुरंग अंश के नाम से प्रख्यात था। ८५४ ई. के बाद विक्रांतवर्मन् तृतीय के निस्संतान मरने पर सिंहासन भृगु अंश के अधिकार में चला गया जिसकी स्थापना इंद्रवर्मन् द्वितीय अथवा श्री जय इंद्रवर्मा महाराजाधिराज ने की थी। इस अंश के समय में वास्तविक राजधानी इंद्रपुर ही था। भद्रवर्मन् तृतीय के समय में विदेशों में भी चंपा का शक्तिशाली और महत्वपूर्ण राज्य के रूप में गौरव बढ़ा। उसके विद्वान् पुत्र इंद्रवर्मन् के राज्काल में ९४४ और ९४७ ई. के बीच कंबुज नरेश ने चंपा पर आक्रमण किया। ९७२ ई. में इंद्रवर्मन् की मृत्यु के बाद लगभग सौ वर्षो तक चंपा का इतिहास तिमिराच्छन्न है। इस काल में अन्नम ने, जिसने १०वीं शताब्दी में अपने को चीन के निंयत्रण से स्वतंत्र कर लिया था, चंपा पर कई आक्रमण किए जिनके कारण चंपा का आंतरिक शासन छिन्न भिन्न हो गया। ९८९ ई. में एक जननायक विजय श्री हरिवर्मन ने अव्यवस्था दूर कर विजय में अपना राज्य स्थापित किया था। उसके परवर्ती विजयश्री नाम के नरेश ने विजय को ही अपनी राजधानी बनाई जिसे अंत तक चंपा की राजधानी बने रहने का गौरव प्राप्त रहा। जयसिंहवर्मन् द्वितीय के राज्य में १०४४ ई. में द्वितीय अन्नम आक्रमण हुआ। किंतु छ: वर्षों के भीतर ही जय परमेश्वरवर्मदेव ईश्वरमूर्ति ने नए राजवंश की स्थापना कर ली। उसने संकट का साहसर्पूक सामना किया। पांडुरंग प्रांत में विद्रोह का दमन किया, कंबुज की सेना को पराजित किया, शांति और व्यवस्था स्थापित की और अव्यवस्था के काल में जिन धार्मिक संस्थाओं को क्षति पहुँची थी उनके पुनर्निर्माण की भी व्यवस्था की। किंतु रुद्रवर्मन् चतुर्थ को १०६९ ई. में अन्नम नरेश से पराजित होकर तथा चंपा के तीन उत्तरी जिलों को उसे देकर अपनी स्वतंत्रता लेनी पड़ी। चम इस पराजय का कभी भूल न सके और उनकी विजय के लिये कई बार प्रयत्न किया।
अव्यवस्था का लाभ उठाकर हरिवर्मन् चतुर्थ ने अपना राज्य स्थापित किया। उसने आंतरिक शत्रुओं को पराजित कर दक्षिण में पांडुरंग को छोड़कर संपूर्ण चंपा पर अपना अधिकार कर लिया। उसने बाह्य शत्रुओं से भी देश की रक्षा की और अव्यवस्था के कारण हुई क्षति और विध्वंस की पूर्ति का भी सफल प्रयत्न किया। परम बोधिसत्व ने १०८५ ई. में पांडुरंग पर अधिकार कर चंपा की एकता फिर से स्थापित की। जय इंद्रवर्मन् पंचम के समय से चंपा के नरेशों ने अन्नम को नियमित रूप से कर देकर उनसे मित्रता बनाए रखी।
जय इंद्रवर्मन् षष्ठ के समय में कंबुजनरेश सूर्यवर्मन् द्वितीय ने १०४५ ई. में चंपा पर आक्रमण कर विजय पर अधिकार कर लिया। दक्षिण में परम बोधिसत्व के वंशज रुद्रवर्मन् परमब्रह्मलोक ने अपने का चंपा का शासक घोषित किया। उसके पुत्र हरिवर्मन् षष्ठ ने कंबुजों और बर्बर किरातां को पराजित किया ओर आंतरिक कलहों तथा विद्रोहों को शांत किया। ११६२ ई. में, उसकी मृत्यु के एक वर्ष के बाद, ग्रामपुर विजय के निवासी श्री जयइंद्रवर्मन् सप्तम ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। उसने १०७७ ई. में कंबुज पर आक्रमण कर उसकी राजधानी को नष्ट किया। जयइंद्रवर्मन् अष्टम के राज्य में श्री सूर्यदेव ने, जो चंपा का ही निवसी था लेकिन जिसने कंबुज में शरण ली, कंबुज की ओर से ११९० ई. में चंपा की विजय की। चंपा विभाजित हुई, दक्षिणी भाग श्री सूर्यवर्मदेव को और उत्तरी कंबुजनरेश के साले जयसूर्यवर्मदेव को प्राप्त हुआ। किंतु शीघ्र ही एक स्थानीय विद्रोह के फलस्वरूप उत्तरी भाग पर से कंबुज का अधिकार समाप्त हो गया। श्री सूर्यवर्मदेव ने उत्तरी भाग को भी विजित कर अपने को कंबुजनरेश से स्वतंत्र घोषित किया किंतु उसके पितृव्य ने ही कंबुजनरेश की ओर से उसे पराजित किया। इस अवसर पर जयहरिवर्मनृ सप्तम के पुत्र जयपरमेश्वर वर्मदेव ने चंपा के सिंहासन को प्राप्त कर लिया। कंबुजों ने संघर्ष की निरर्थकता का समझकर चंपा छोड़ दी और १२२२ ई. में जयपरमेश्वरवर्मन् से संधि स्थापित की। श्री जयसिंहवर्मन्, के राज्यकाल में, जिसने सिंहासन प्राप्त करने के बाद अपना नाम इंद्रवर्मन् रखा, मंगोल विजेता कुब्ले खाँ ने १२८२ ई. में चंपा पर आक्रमण किया किंतु तीन वर्ष तक वीरतापूर्वक मंगोलों का सामना करके चंपा के राज्य से उसे संधि से संतुष्ट होने के लिय बाध्य किया। जयसिंहवर्मन् षष्ठ ने अन्नम की एक राजकुमारी से विवाह करन के लिये अपने राज्य के दो उत्तरी प्रांत अन्नम के नरेश का दे दिए। १३१२ ई. में अन्नम की सेना ने चंपा की राजधान पर अधिकार कर लिया।
उत्तराधिकारी के अभाव में रुद्रवर्मन् परम ब्रह्मलोक द्वारा स्थापित राजवंश का अंत हुआ। अन्नम के नरेश ने १३१८ ई. में अपने एक सेनापति अन्नन को चंपा का राज्यपाल नियुक्त किया। अन्नन ने अन्नम की शक्तिहीनता देखकर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। चे बोंग त्गा ने कई बार अन्नम पर आक्रमण किया और अन्नम का चंपा का भय रहने लगा। किंतु १३९० ई. में चे बोंगां की मृत्यु के बाद उसके सेनापति ने श्री जयसिंहवर्मदेव पंचम के नाम से वृषु राज़वंश की स्थापना की। १४०२ ई. में अन्नम नरेश ने चंपा के उत्तरी प्रांत अमरावती को अपने राज्य में मिला लिया। चंपा के शासकों ने विजित प्रदेशों को फिर से अपने राज्य में मिलाने के कई प्रयत्न किए, किंतु उन्हें कोई स्थायी सफलता नहीं मिली। १४७१ ई. में अन्नम लोगों ने चंपा राज्य के मध्य स्थित विजय नामक प्रांत को भी जीत लिया। १६वीं शताब्दी के मध्य में अन्नम लोगों ने फरंग नदी तक का चंपा राज्य का प्रदेश अपने अधिकार में कर लिया। चंपा एक छोटा राज्य मात्र रह गया और उसकी राजधानी बल चनर बनी। १८वीं शताब्दी में अन्नम लोगों ने फरंग को भी जीत लिया। १८२२ ई. में अन्नम लागों के अत्याचार से पीड़ित होकर चंपा के अंतिम नरेश पो चोंग कंबुज में जाकर बसे। राजकुमारी पो बिअ राजधानी में ही राजकीय कोष की रक्षा के लिय रहीं। उनकी मृत्यु के साथ बृहत्तर भारत के एक अति गौरवपूर्ण इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय की समाप्ति होती है।
चंपा के इतिहास का विशेष महत्व भारतीय संस्कृति के प्रसार की गहराई में है। नागरिक शासन के प्रमुख दो मुख्य मंत्री होते थे। सेनापति और रक्षकों के प्रधान प्रमुख सैनिक अधिकारी थे। धार्मिक विभाग में प्रमुख पुरोहित, ब्राह्मण, ज्योतिषी, पंडित और उत्सवों के प्रबंधक प्रधान थे। राज्य में तीन प्रांत थे - अमरावती, विजय और पांडुरंग। प्रांत जिलों और ग्रामों में विभक्त थे। भूमिकर, जो उपज का षष्ठांश होता था, राज्य की आय का मुख्य साधन था। राजा मंदिरों की व्यवस्था के लिये कभी कभी भूमिकर का दान दे देता था। न्यायव्यवस्था भारतीय सिद्धांतों पर आधारित थी। सेना में पैदल, अश्वारोही और हाथी होते थे। जलसेना की ओर भी विशेष ध्यान दिया जाता था।
चीनी सेना द्वारा समय समय पर चंपा की लूट की राशि और चंपा द्वारा दूतों के हाथ भेजी गई भेंट के विवरण से उसकी समृद्धि का कुछ आभास मिलता है।
चंपा की सामाजिक व्यवस्था को भारतीय आदर्शों पर निर्मित करने का प्रयत्न किया गया था किंतु स्थानीय परिस्थितियों के कारण उसमें परिवर्तन आवश्यक था। समाज चार वर्णों में बँटा था, किंतु वास्तव में समाज में दो वर्ग थे - प्रथम ब्राह्मण और क्षत्रियों का और दूसरा शेष लोगों का। अभिलेखों से यह सिद्ध नहीं होता कि केवल विजित चम ही दासकर्म या हीन उद्योगों में लगाए जाते थे। अभिजात वर्ग के द्योतक उनके विशेष अधिकार थे। केवल शरीर के अधोभाग में ही वस्त्र धारण किए जाते थे। स्त्रियाँ भी ऊपरी भाग को नग्न रखती थीं। अधोभाग के वस्त्र भी दो प्रकार के होते थे - एक लंबा और दूसरा छोटा। चम केशप्रसाधन की ओर ध्यान देते थे। केवल उच्चवर्ग के लोग ही जूते पहनते थे जो चमड़े के बने होते थे। वैवाहिक जीवन के आदर्शों, विवाह संबंधी उत्सव, सती के प्रसार, मरणोपरांत दाहक्रिया और पर्वों तथा उत्सवों के विषय में भी भारत से साम्य दिखलाई पड़ता है। चम नाविक जलदस्यु के रूप में कुख्यात थे। इसके कारण ही दास चंपा में अधिक संख्या में थे।
उदारता और सहनशीलता चंपा के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ थीं। चंपा के नरेश भी सभी धर्मों का समान रूप से आदर करते थे। यज्ञों के अनुष्ठान को महत्व दिया जाता था। संसार को क्षणभंगुर और दु:खपूर्ण समझनेवाली भारतीय विचारधारा भी चंपा में दिखलाई पड़ती है। ब्राह्मण धर्म के त्रिदेवों में महादेव की उपासना सबसे अधिक प्रचलित थी। भद्रवर्मन् के द्वारा स्थापित भद्रेश्वर स्वामिन् इतिहास में प्रसिद्ध है। ११वीं शताब्दी के मध्य में देवता का नाम श्रीशानभद्रेश्वर हो गया। चंपा के नरेश प्राय: मंदिर के पुनर्निर्माण या उसे दान देने का उल्लेख करते हैं। शक्ति, गणेश, कुमार और नंदिनी की भी पूजा होती थी। वैष्णव धर्म का भी वहाँ ऊँचा स्थान था। विष्णु के कई नामों के उल्लेख मिलते हैं किंतु विष्णु के अवतार विशेष रूप से राम और कृष्ण अधिक जनप्रिय थे। चंपा के नरेश प्राय: विष्णु से अपनी तुलना करते थे अथवा अपने को विष्णु का अवतार बतलाते थे। लक्ष्मी और गरुड़ की भी पूजा होती थी। ब्रह्मा की पूजा का अधिक प्रचलन नहीं था। अभिलेखों से पौराणिक धर्म के दर्शन और कथाओं का गहन ज्ञान परिलक्षित होता है। गौण देवताओं में इंद्र, यम, चंद्र, सूर्य, कुबेर और सरस्वती उल्लेखनीय हैं। साथ ही निराकार परब्रह्म की कल्पना भी उपस्थित थी। दोंग दुओंग, बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था। बौद्धधर्म के माननेवालों और बौद्ध भिक्षुओं की संख्या कम नहीं थी।
चंपा राज्य में संस्कृत ही दरबार और शिक्षितों की भाषा थी। चंपा के अभिलेखों में गद्य और पद्य दोनों ही भारत की आलंकारिक काव्यशैली से प्रभावित हैं। भारत के महाकाव्य, दर्शन और धर्म के ग्रंथ, स्मृति, व्याकरण और काव्यग्रंथ पढ़े जाते थे। वहाँ के नरेश भी इनके अध्ययन में रुचि लेते थे। संस्कृत में नए ग्रंथों की रचना भी होती थी।
चंपा में भी कला का विकास अधिकतर धर्म के सानिध्य में ही हुआ। मंदिर अधिक विशाल नहीं हैं किंतु कलात्मक भावना और रचनाकुशलता के कारण सुंदर हैं। ये अधिकांशत: ईटों के बने हैं और ऊँचाई पर स्थित हैं। इन मंदिरों की शैली की उत्पत्ति बादामी, काजीवरम् और मामल्लपुरम् के मंदिरों में मिलती है। फिर भी कुछ विषयों में स्थानीय कला के तत्व भी मिलते हैं। चंपा के मंदिर प्रमुख रूप से तीन स्थानों में हैं- म्यसोन, दोंग दुओंग तथा पो नगर। चंपा में मूर्तिकला भी विकसित रूप में मिलती है। मंदिरों की दीवारों पर बनी मूर्तियों के अतिरिक्त विभिन्न स्थानों से देवी देवताओं की अनेक सुंदर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। दीवारों पर अंकित अलंकरण की कुशलता के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
आगम
आरम्भ में चम्पा के लोग और राजा शैव थे लेकिन कुछ सौ साल पहले इस्लाम यहां फैलना शुरु हुआ। अब अधिक चाम लोग मुसलमान हैं पर हिन्दू और बौद्ध चाम भी हैं। जावा के अभिलेख बताते हैं कि मजापहित साम्राज्य के सम्राट कीर्तिविजय को चम्पा की राजकुमारी द्वारवती ने इसलाम की ओर धर्म-परिवर्तित किया। इसी काल में अन्य बौद्ध जातियां यहां आ बसीं।
अवशेष
चम्पा संस्कृति के अवशेष वियतनाम में अभी भी मिलते हैं। इनमें से कई शैव मन्दिर हैं।
राजवंश
राजवंश द्वितीय
- 377 भद्रवर्मन् १
- ? गंगाराज
- ? मनोरथवर्मन्
राजवंश तृतीय
- सन् 510 देववर्मन् (चम्पा)
- सन् 526/9 विजयवर्मन्
राजवंश चतुर्थ
- सन् 529 ? रुद्रवर्मन् १
- सन् 605 शंभुवर्मन्
- सन् 629 ? कन्दर्पवर्मन्
- ? -645 भासधर्म
- 645- ? भद्रेश्वरवर्मन्
- (d. 653 ? (f)
- 653- ? विक्रान्तवर्मन् १
- सन् 685-c. 730 विक्रान्तवर्मन् २
- सन् 749/58 रुद्रवर्मन् २
पाण्डुरंग वंश
- सन् 757 : पृथिवीन्द्रवर्मन्
- सन् 774 : सत्यवर्मन्
- सन् 793 : इन्द्रवर्मन्
- सन् 801 : हरिवर्मन्
- सन् 820-860 : विक्रान्तवर्मन् ३
भृगु वंश
- सन् 877 : इन्द्रवर्मन् २
- सन् 896-905 : जयसिंहवर्मन्
- 905-910 : भद्रवर्मन् २
- 911-vers 971 : इन्द्रवर्मन् ३
- 989- ? : विजय श्री हरिवर्मन् २
- सन् 989 : यंपुकु विजय श्री
दक्षिण वंश
- 1041-1059 : जयसिंहवर्मन् २
- 1059-1060 ? : भद्रवर्मन् ३
- सन् 1060 : रुद्रवर्मन् ३
- सन् 1081 : जय इन्द्रवर्मन् ४
- ? -1086 : परमबोधिसत्त्व
- 1086-1139 : जय इन्द्रवर्मन् ५
- 1139-1147 : जय इन्द्रवर्मन् ६
- 1147-1163 : जयहरिवर्मन् ६
- 1163- ? : जय इन्द्रवर्मन् ७
- ? - 1190 : जय इन्द्रवर्मन् ८
- 1226- ? : जय परमेश्वरवर्मन् ४
- ? - 1237 : जय इन्द्रवर्मन् १०
- 1266- ? : इन्द्रवर्मन् ९
- ? - 1307 : जयसिंहवर्मन् ४
- 1307- ? : महेन्द्रवर्मन्
- 1342-1360 : बो-दे Bo-dê
शक्तिरैदपुति वंश
- 1695 - 1728 शक्तिरैदपुति
चित्रदीर्घा: प्राचीन मन्दिरों के अवशेष
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सन्दर्भ ग्रन्थ
- रमेशचंद्र मजूमदार : चंपा;
- पी. बोस : दि इंडियन कालोनी ऑव चंपा ;
- एम.जी. मैस्पेरो : ल रोआइऔम द चंपा;
- पी.स्टर्न : लार्त दु चंपा
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- Proceedings of the Seminar on Champa
- Champa Revised
- Vietnam-Champa Relations and the Malay-Islam Regional Network in the 17th—19th Centuries
- The Survivors of a Lost Civilisation
- Cham Muslims: A look at Cambodia's Muslim minority
- The Cham Muslims of Indo-China स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।