बेहुला

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अपने मृत पति को लेकर नदी पार करती हुई बेहुला (मानसमंगल में चित्रित)
बांग्लादेश के बोगरा के निकट स्थित यह भग्नावशेष बेहुला और लक्ष्मीन्दर का विवाह-मण्डप के रूप में मान्य है।

सती बेहुला या बिहुला या बेहुला (बांग्ला : বেহুলা) (अंगिका : बिहुला) मध्यकालीन बांग्ला साहित्य में मनसामंगल एवं इसी प्रकार के कई अन्य काव्यकृतियों की नायिका है। तेरहवीं से अट्ठारहवीं शती की अवधि में इस कथा पर आधारिक बहुत सी रचनाएं की गयीं। इन कृतियों का धार्मिक उद्देश्य मनसा देवी की महत्ता का प्रतिपादन करना था किन्तु ये कृतियाँ बेहुला एवं एवं उनके पति बाला लखन्दर (लखिन्दर या लक्षीन्दर या लक्ष्मीन्दर) के पवित्र प्रेम के लिये अधिक जाने जाते हैं। यह बिहुला-बिषहरी की कथा प्राचीन भारत के षोडश जनपदों में से एक अंगदेश (वर्तमान बिहार के भागलपुर, मुंगेर जिलों के आसपास का क्षेत्र) की राजधानी चम्पा (वर्तमान में भागलपुर जिले के नाथनगर के चंपानगर) की है। महाभारत के समय यहाँ के राजा कर्ण हुआ करते थे ऐसा माना जाता है।

सती बिहुला की कथा अंगिका-भाषी क्षेत्र में एक गीतकथा के रूप में गाई जाती है। सामान्यतया यह निचली जातियों की कथा के रूप में प्रचलित हुआ करती थी परन्तु अब यह जाति की सीमाओं को लाँघ कर सर्वप्रिय कथा के रूप में स्थापित है और अब यह नारी मात्र के उत्सर्ग के अभूतपूर्व प्रतिमान के उद्धरण की कथा के रूप में स्थापित है।[१] क्योंकि कहानी के अनुसार अपनी कठोर तपस्या से सती बेहुला ने अपने पति को जीवित कर दिखाया था।

संक्षिप्त कथासार

बाणासुर की पुत्री उषा को प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध से प्रेम हो गया। अनिरुद्ध भगवान कृष्ण के पोते थे। उनकी शादी के बाद वे अगले जन्म में बेहुला और लक्षिन्दर के रूप में फिर से पैदा हुए और फिर से एक दूसरे से शादी की।

बेहुला चंपकनगर के चांद सदागर की बहू थी। मिथक के अनुसार, स्वर्ग के राज्य की दो खूबसूरत अप्सराओं, उषा और अनिरुद्ध को देवी मनसा की योजना के अनुसार देवताओं द्वारा शाप दिया गया था और बेहुला और लक्षिंदर-बेहुला के रूप में पृथ्वी पर भेज दिया गया था, जो सईबेने (या उजनीनगर के सावेन) की एकमात्र बेटी के रूप में थी। और लक्षिंदर चांद सदागर के सातवें पुत्र के रूप में।

चम्पा नगरी में चन्द्रधर सौदागर नामक एक धनी वैश्य था। वह परम शिव-भक्त था, किन्तु मनसा देवी से उसका बड़ा विरोध था। इसी विरोध के कारण मनसा देवी ने चन्द्रधर के छह पुत्रों को विषधर नागों से डंसवा कर मरवा डाला। सातवें पुत्र लक्ष्मीचंद्र का विवाह उज्जयिनी के धार्मिक साधु नामक वैश्य की परम सुन्दरी साध्वी कन्या बेहुला के साथ हुआ। लक्ष्मीचन्द्र की कुण्डली देखकर ज्योतिषियों ने बता दिया था कि विवाह की प्रथम रात्रि में ही सांप के काटने से इसकी मृत्यु हो सकती है। चन्द्रधर ने लोहे का ऐसा मजबूत घर बनवाया, जिसमें वायु भी प्रवेश न कर सके, मगर मनसा देवी ने भवन-निर्माता से छोटा-सा छेद छोड़ देने के लिए कह दिया। विवाह-रात्रि को नागिन ने लक्ष्मीचंद्र को डंस लिया और वह मर गया। सारे घर में शोर मच गया। तब उसकी पत्नी बेहुला ने केले के पौधे की नाव बनवाई और पति के शव को लेकर, उसमें बैठ गई। उसने लाल साड़ी पहन रखी थी और सिन्दूर लगा रखा था। नदी की लहरें उस शव को बहुत दूर ले गईं। वह अपने पति को पुनः जिन्दा करने पर तुली हुई थी। बहुत दिनों तक उसने कुछ नहीं खाया, जिससे उसका शरीर सूख गया था। लक्ष्मीचंद्र के शरीर से दुर्गन्ध भी आने लगी थी। उसके सारे शरीर में कीड़े पड़ गए थे। मात्र उसका कंकाल ही शेष रह गया था।

बेहुला नाव को किनारे की ओर ले चली। उसने वहां एक धोबिन के मुख से तेज टपकते देखा। उसके कठोर तप को देखकर ही मनसा देवी ने उसे वहां भेजा था। उसने बेहुला से कहा, "तुम मेरे साथ देवलोक में चल कर अपने नृत्य से महादेव को रिझा दो तो तुम्हारे पति पुनः जिन्दा हो जाएंगे।" बेहुला ने उसकी सलाह मान ली। वह उसके साथ चल पड़ी पति की अस्थियां उसके वक्षस्थल से चिपकी थीं। वह अपने पति की स्मृति से उन्मत्त होकर नृत्य करने लगी। सारा देव समुदाय द्रवित हो गया। मनसा देवी भी द्रवित हो गईं। लक्ष्मीचंद्र जीवित हो गया और इसके साथ ही बेहुला का नाम अमर हो गया।

सन्दर्भ