बाघदेव सिंह
15वीं सदी ई. के प्रारंभ में शिवदास कर्ण एक महत्त्वपूर्ण नागवंशी शासक हुआ | उसने 1401 ई. में घाघरा (गुमला जिला) में हापामुनि मंदिर की स्थापना की और उसमें भगवान विष्णु की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा राज्य के राजगुरु सियानाथ देव, जो कि एक मराठा ब्राह्मण थे, के हाथों करवाई | दिल्ली सल्तनत के लोदी वंश (1451 – 1527 ई.) सुल्तानों के समकालीन नागवंशी राजाओं के नाम थे – प्रताप कर्ण (1451-69 ई.), छत्र कर्ण (1469-96 ई.) एवं विराट कर्ण | प्रताप कर्ण के समय में नागवंशी राज्य अनेक घटवार राजाओं के विद्रोह से त्रस्त था | तमाड़ के राजा ने राजधानी खुखरागढ़ की घेराबंदी कर प्रताप कर्ण को किले का बंदी बना दिया | प्रताप कर्ण ने खैरागढ़ के खरवार राजा बाघदेव की सहायता से किले की घेराबंदी से मुक्ति पाई | बाघदेव ने तमाड़ के राजा के विद्रोह का दमन किया | पुरस्कारस्वरूप उसे कर्णपुरा का क्षेत्र दिया गया | छत्र कर्ण के समय में वासुदेव (विष्णु) की मूर्ति कोराम्बे में प्रतिष्ठापित की गई | इस मूर्ति से आकृष्ट होकर बंगाल के प्रसिद्ध वैष्णव संत चैतन्य महाप्रभु (1485-1527 ई.) मथुरा जाने के क्रम में 16वीं सदी के आरंभ में झारखण्ड आये | किंवदन्ती है कि चैतन्य महाप्रभु नागवंशी राज्य के पंचपरगना क्षेत्र में कुछ दिनों के लिए रुके थे और जनजातियों के बीच अपने मत का प्रचार किया था | 1498 ई. में संध्या के राजा ने नागवंशी राज्य पर आक्रमण कर कुछ इलाकों पर अधिकार जमा लिया | नागवंशी राजा ने खैरागढ़ के राजा लक्ष्मीनिधि कर्ण की सैनिक सहायता से अपने खोये हुए प्रदेश को वापस पाया | नागवंशी राजा विभिन्न स्थलों को राजधानी बनाकर आधुनिक काल तक राज्य करते रहे | नागवंशी राज्य की राजधानियों का क्रम इस प्रकार रहा – सुतियाम्बे, चुटिया, खुखरा, दोइसा, पालकोट, पालकोट भौंरो एवं रातूगढ़ | सुतियाम्बे नागवंश की प्रथम राजधानी थी और रातूगढ़ अंतिम राजधानी |