बनगाँव, सहरसा
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दुर्गा मंदिर की गुम्बद (मई 2007 मे लिया गया चित्र) | |
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निर्देशांक: साँचा:coord | |
देश | साँचा:flag/core |
प्रान्त | बिहार |
ज़िला | सहरसा ज़िला |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | ३०,०६१ |
• घनत्व | साँचा:infobox settlement/densdisp |
भाषाएँ | |
• प्रचलित | हिन्दी, मैथिली |
समय मण्डल | भामस (यूटीसी+5:30) |
पिनकोड | 852212 |
दूरभाष कोड | 06478 |
बनगाँव (Bangaon) भारत के बिहार राज्य के सहरसा ज़िले में स्थित एक बड़ा गाँव है।[१][२][३]
विवरण
बनगाँव सहरसा ज़िले के पश्चिम मे अवस्थित एक गाँव है, जिसकी पहचान सदियों से रही है। जनसँख्या और क्षेत्रफल के हिसाब से ये गाँव ना सिर्फ राज्य के बल्कि देश के सबसे बड़े गांवों मे एक हैं। यह गाँव कोसी प्रमंडल के कहरा प्रखंड के अंतर्गत आता है। इस गाँव से तीन किलोमीटर पूर्व मे बरियाही बाजार, आठ किलोमीटर पश्चिम मे माँ उग्रतारा की पावन भूमि महिषी और उत्तर मे बिहरा गाँव अवस्थित है। इस गाँव मे तीन पंचायतें हैं। हर पंचायत के एक मुखिया हैं। सरकार द्वारा समय समय पर पंचायती चुनाव कराये जातें है। इन्ही चुनावों से हर पंचायत के सदस्यों का चुनाव किया जाता है। वक्त के हर पड़ाव पर इस गाँव का योगदान अपनी आंचलिक सीमा के पार राज्य, देश और दुनिया को मिलता रहा है। इन योगदानों मे लोक शासन, समाज सेवा, साहित्य, पत्रकारिता, राजनीति, देशसेवा और भक्ति मे योगदान प्रमुख हैं। भक्ति और समाजसेवा के ऐसे की एक स्तंभ, संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं, जिन्होंने इस गाँव को अपनी कर्मभूमि बनाई, को लोग भगवान की तरह पूजते है। उनका मंदिर गाँव के प्रमुख दार्शनिक स्थलों मे से एक है। गाँव के बोलचाल की भाषा मैथिली है और यहाँ हिंदू तथा इस्लाम धर्मों को माननेवाले सदियों से आपसी सामंजस्य और धार्मिक सहिष्णुता से साथ रहते हैं।
इतिहास
बनगांव का लिखित इतिहास काफी पुराना है। ऐसी धारणा है की बुद्ध के समय मे इस जगह का नाम आपन निगम था। ज्ञान की खोज और आध्यात्म के विस्तार के सिलसिले मे गौतम बुद्ध भी यहाँ आये थे। पडोसी गाँव महिषी के मंडन मिश्र और कन्दाहा के प्रसिद्ध सूर्यमंदिर की वजह से ये गाँव और आसपास के क्षेत्र सदियीं से ज्ञान, धर्म और दर्शन के केंद्र रहे हैं। गाँव का नाम बनगांव होने के बारे मे कई किम्वदंतियाँ हैं। कहा जाता है गाँव के सबसे पहले वाशिंदों मे से एक का नाम बनमाली खां था। और उन्ही के नाम से शायद इस गाँव की पहचान बनगांव के रूप मे हुई। गाँव की खासियत से भी है की ये देश का अकेला गाँव है जहाँ के लोगों का हिंदू होने के बावजूद भी उपनाम खां है। बनगांव के प्राचीन इतिहास से सम्बंधित कई उल्लेख प्रसिद्ध इतिहासकार राम शरण शर्मा के कई किताबों के संग्रह प्राचीन बिहार का वृहत इतिहास है और उसमे दी गयी जानकारियों को लेखक कुछ महीनो के उपरान्त उपलब्ध कराएँगे. गाँव के कई लोगो ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मे सक्रिय सहयोग दिया। वो या तो आन्दोलन मे सक्रिय रूप से संलग्न रहे या फिर कविताओं के माध्यम से समकालीन आंदोलनकारियों को ओजरस देते रहे। स्वर्गीय पंडित छेदी जा द्विजवर ने उन दिनों मैथिल आंदोलकारियों को वीररस की ऐसी ही कविताओं से जोश भरा जैसा की हिंदी कविताओं के माध्यम से राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर कर रहे थे।
संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं और बनगांव
१८वीं शताब्दी मे बनगांव के उत्तर मे स्थित गाँव परसरमा मे जन्मे लक्ष्मीनाथ गोसाईं के ज़िक्र के बिना बनगांव का परिचय अधूरा है। लक्ष्मिनाथ गोसाईं को आदर से बाबाजी के नाम से संबोधित किया जाता है। बाबाजी साधू, योगी, दार्शनिक, कवि, लोकसेवक और चमक्तारिक शक्तियों के धारक थे। उनकी असाधारण शक्तियों, लोकसेवा और गाँव के लोगो की उन्नति के प्रयासों की वजह से लोग उन्हें ईश्वर का रूप मानते हैं और ईश्वर की तरह नित्य पूजा करते है। लोगो की मान्यता है बाबाजी क आशीर्वाद गाँव के साथ सदा रहा है। उनकी असीम अनुकम्पा से गाँव ने जीवन के कई क्षेत्रो मे योगदान दिया है और अपनी पहचान बनाई है। हाल के वर्षों मे बिहार के निवर्तमान मुख्यमंत्री नितीश कुमार बाबाजी के मंदिर मे आशीष लेने आये थे।[४]
बाबाजी का आरंभिक जीवन और बनगांव आगमन
बाबाजी का जन्म १७९३ इस्वी मे सहरसा जिले के परसरमा गाँव मे हुआ। इनके बचपन का नाम लक्ष्मीनाथ झा था। कुजिलवार दिगौन मूल के कात्यायन गोत्रीय बाबाजी के पिता का नाम श्री बच्चा झा था। गुरु श्री रत्ते झा के अधीन ज्योतिष की आरंभिक शिक्षा पाकर बाबाजी अपने पैत्रिक गाँव परसरमा वापस आ गए। गाँव वापसी के उपरान्त बाबाजी के स्वभाव मे काफी बदलाव पाया गया। उनके पिता ने इन्हें काफी एकाकी और मन की गहराइयों मे खोया हुआ पाया। स्वाभाव मे आये इस बदलाव मे निजात पाने के लक्ष्य से इनके पिता ने इनकी शादी ये सोच कर तय कर दी की गार्हस्थ जीवन मे रमने के बाद उन्हें इस अकेलेपन से मुक्ति मिल जायेगी. मिथिला मे अपने अपने माता-पिता गुरु और बुजुर्गो की सलाहों का आदर धर्म की तरह किया जाता है। बाबाजी ने पिता की इच्छा का पालन करते हुए ब्याह तो किया लेकिन गार्हस्थ जीवनमे उनकी रूचि नहीं थी। शीघ्र ही वो घने जंगलो मे एक गुरु की तलाश मे चले गए। उन दिनों बड़े बड़े गुरु और ज्ञानी ऐसे ही किसी घने जंगलों गुफाओं, कंदराओं और अगम्य पर्वत शिखरों पर योग साधना किया करते थे। इस अन्वेषण की वजह से इनकी मुलाकात गुरु लम्ब्नाथ से हुई जो खुद गुरु गोरखनाथ के शिष्य के शिष्य थे। उन्ही से शिक्षा के दरम्यान बाबाजी को गुरु गोरखनाथ का दर्शन हुआ। गुरु लम्ब्नाथ से योग, साधना और तंत्र की शिक्षा लेने के बाद बाबाजी शुरू मे दरभंगा आये। योग और साधना के अन्वेषण और विस्तार के सिलसिले मे बाबाजी एक बार बनगांव आये। उन दिनों गाँव मे कुश्ती का खेल बहुत ही दिलचस्पी से खेला जाता था। गाँव के लोगो ने इनके सुगठित शरीर और कौशल को देख कर उनमे एक पहुंचे हुए पहलवान को देखा। गांववालों के गर्मजोशी से किये गए स्वागत और स्नेह के चलते उन्होंने इसी गाँव मे रहने का निश्चय किया। गांववालों ने उनके रहने के लिये एक कुटिया बनाई। गाँव के ही श्री करी झा ने उन्हें एक गाय दी ताकि वो गो सेवा कर अपनी दूध आदि की जरूरतों को पूरा कर सकें।[५]
बाबाजी का जीवन एक लेखक के रूप में
बाबाजी ने अपने जीवनकाल मे कई भजन लिखे जो काफी लोकप्रिय हुए. इनके भजनों का एक संकलन भजनावली नाम के एक संग्रह मे संग्रहित है। उनके भजनों को स्वर्गीय महावीर झा ने मूल रूप मे संग्रहित और संरक्षित रखा और बाद मे स्वर्गीय पंडित छेदी झा द्विजर से इन्हें विषयवार रूप मे क्रमबध किया। भजनावली के अलावा बाबाजी की एक और कृति विवेक रत्नावली भी प्रकाशित है। भजनावली मे कई भक्ति भाव पेश किये हैं। इनमे, राम, कृष्ण, शिव, होली के विषय पर के भजन प्रमुख है। इसके अलावा गुरु वंदना और लोकशिक्षा की बातें भी कही गयी है। खासकर आलस त्याग पर विशेष जोर है। बाबाजी के भजनों का एक ऑडियो कैसेट का निर्माण स्वर्गीय भवेश मिश्र ने १९८० के दशक मे किया था। उसके गायकी मे इसी गाँव के गायक नंद जी ने भी योगदान दिया था। इसके भजनों मे से कई- जैसे उठी भोरे कहूँ हरि हरि हरि हरि, हे राम लखी केवट ओट खड़े काफी लोकप्रिय हुए थे। बाद के वर्षों मे बाबाजी रचित गुरु वंदना -प्रथम देव गुरु देव जगत मे को प्रसिद्द गायिका रंजन झा के द्वारा भी गाया गया। मैथिली के सुप्रसिद्ध गायक हेमकांत झा की स्मृति मे जारी गीतों की श्रंखला मे भी इनके लिखित एक भजन को शामिल किया गया है। इसमें उनके भजन- कहन लागे मोहन मैया मैया (यशोदा जी पूछति के शीर्षक से नामबद्ध) को हेमकांत झा ने बहुत ही सुरीले अंदाज मे गाया है। उनके कुछ चर्चित भजन निम्न हैं-
मन रे कहाँ फिरत बौराना
मन रे कहाँ फिरत बौराना
अबहूँ सीख सिखावन मेरो, चोला भयो है पुराना
मानुष जनम पदारथ पाए, भजत ना क्यों भगवाना
अंत काल पामर पछ्तैहें, यमपुर जबहीं ठिकाना
कियो करार भजन करिबे को, सो बात भूलना
केश सफ़ेद भयो सब तेरो, पहुंचा यम परवाना
नारी नेह देह से छाड़ो, नैनन जोती झपलाना
कुल परिवार बात नहीं पूछत कहत बात कटूलाना
बहुत कमाई असोच भये है, ले ले धरात खजाना
‘लक्ष्मीपति’ नर राम भजन बिनु, माटी मोल बिकाना
अम्बे आब उचित नहीं देरी
अम्बे आब उचित नहीं देरी
मित्र बंधू सब टक-टक ताकय, नहीं सहाय अहि बेरी
योग यज्ञ जप कय नहीं सकलों, परलहूं कालक फेरी
केवल द्वन्द फंद मैं फैस कय, पाप बटोरल ढेरी
नाम उचारब दुस्तर भय गेल, कंठ लेल कफ घेरी
एक उपाय सुझे ऐछ अम्बे, आहाँ नयन भैर हेरी
शुध्ह भजन तुए हे जगदम्बे, देब बजाबथि भेड़ी
‘लक्ष्मीपति ‘ करुणामयी अम्बे, बिसरहूँ चूक घनेरी.
बाबाजी और क्रिश्चियन जॉन
बाबाजी का समय वो समय था जब भारत का ज्यदातर हिस्सा अंग्रेजो के नियंत्रण मे था। बिहार राज्य का अस्तित्व नहीं था। सारा क्षेत्र बंगाल प्रान्त के अधीन आता था। अंग्रेजो ने प्रशासन के लिये जगह जगह पर अपनी कोठियां बना रखी थी। बनगांव से तीन किलोमीटर पूर्व मे ऐसी ही एक कोठी थे जिसे लोग बरियाही कोठी के नाम से जानते थे। उसी से एक अंग्रेज जिनका नाम क्रिश्चियन जॉन था, बाबाजी के संपर्क मे आये। इनके संपर्क मे आने के कि वजह दोनों का आध्यात्म के लिये लगाव था। क्रिश्चियन जॉन ईसाई धर्मावलंबी थे। दोनों के बीच अगाढ़ दोस्ती हो गयी। क्रिश्चियन जॉन ने भी बाबाजी कि शैली मे अवधी मे भक्ति भाव लिखे हांलाकि उनके भक्ति के केंद्र मे इशा मसीह थे। जब बाबाजी ने शरीर त्याग किया तो क्रिश्चियन जॉन को इस बात् कि इल्म नहीं थी। जब उन्हें बाबाजी के देहावसान के बारे मे पता चला तो उन्हें बहुत दुख हुआ। जिसके बाद श्रधांजलि के तौर पे उन्होंने ये पंकियां लिखी[५]- साँचा:cquote
बाबाजी समरोह
प्रति वर्ष ५ दिसम्बर को बाबाजी कुटी प्रांगण मे बाबाजी समरोह मनाया जाता है। इस दिन पूरे प्रांगण को खास तौर पर सजाया जाया करता है और बाबाजी की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। समारोह का आगाज जिले के किसी विशिष्ठ व्यक्ति या पधाधिकारी के द्वारा किया जाता है। तदुपरांत कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा बाबाजी के जीवन, उनके कार्य और समाजसेवा की बातें की जाती है। समारोह का एक मुख्य आकर्षण रहता है इसमें होने वाले सांकृतिक कार्यक्रम. गुजरे सालों मे मिथिला के शीर्ष कलाकार इस समारोह मे शिरकत करने आते थे। इनके हास्य कलाकार अमिय हलाहल, गायक महेंद्र, प्रसिद्ध गीतकार रवीन्द्र, मैथिली के लोकप्रिय गायक हेमकांत झा और अपने ही गाँव के नन्द-नवल की जोड़ी अपनी हुनर से सबका दिल जीतते थे। सन १९९० तक स्वर्गीय भवेश मिश्र इसका आयोजन करते थे। १९९१ मे उनके आकस्मिक निधन और ऊपरलिखित कलाकारों मे से कुछ के (सव्गीय महेंद्र, स्वर्गीय रवीन्द्र और स्वर्गीय हेमकांत झा) दिवंगत हो जाने बाद बस उनकी यादें ही शेष रह गयी हैं। हालंकि इस कार्यक्रम का आयोजन अबाध चलता रहा है। इस समरोह मे बाबाजी रचित भजन भी गाये जाते थे।
ग्राम जीवन
गाँव मे रहने वाले अधिकाँश लोगों के जीवन-यापन का जरिया कृषि है। कोसी का पश्चिमी तटबंध सिर्फ आठ किलोमीटर की दूरी पर है। कोसी नदी पर बाँध बनने से पहले हर वर्ष नदी की मदमस्त बहती धाराएं उपजाऊ मिट्टिया ले के आती थीं। लेकिन बाँध बनने के बाद इन धाराओं पर काफी नियंत्रण रहा है जिसने लोगो के जीवन मे सुविधा लाई है। खास कर के सडक मार्ग का सुचारू रूप से चलना. इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज से तीन दशक पहले मात्र आठ किलोमीटर दूर स्थित गाँव महिषी जाने के लिये तीन बार (मनुआ धार, गोरहो धार और हरसंखिनी धार) नाव का सहारा लेना पड़ता था। गाँव के कृषक मुख्य रूप से धान और गेहूं की खेती करते हैं। लेकिन इसके अलावा, मकई, मूंग, पटसन और गरमा धान की खेती की जाती है। धान की कटाई के समय हर घर मे खुशहाली देखी जा सकती है। इसके कई कारण है। एक तो सबके घर मे अनाज का आना और मौसम मे आये परिवर्तन. मानसून के मौसम के जाने के बाद उमस से थोड़ी निजात के साथ दशहरा, दीवाली और छठ लोगो का मन खुशनुमा बना देते हैं। मकर संक्रांति के दिन लोग लोग नए धान से बने चूड़ा और दही एवं गुड का आस्वादन करते हैं। समय के साथ गाँव मे बहुत तरक्की हुई है। सड़क अच्छे हुए हैं। गाँव मे दूरभाष और इंटरनेट की सेवाएं है और जन यातायात की सुविधा दिन के २४ घन्टे उपलब्ध रहते हैं। गाँव मे स्वगीर्य रमेश झा के प्रयासों से उनके समय मे पानी की लाइने भी बिछाई गयी थी। लेकिन कोसी की नजदीकी की वजह से पानी का स्तर जमीन के स्तर के काफी पास है और इस वजह से लोग चापाकल का पानी ही इस्तेमाल करते है क्योंकि वो ज्यादा ताजा होता है। गाँव मे कई प्राथमिक और मध्य विद्यालय हैं। लड़कों एवं लड़कियों के लिये एक अलग अलग उच्च विद्यालय है जिनकी सूची नीचे दे हुई है। गाँव की विशालता के कारण हर रोज कई जगहों पर पूजा, जप, तप कीर्तन भजन चलता रहता है। इसलिए यहाँ का माहौल काशी जैसा रहता है जहाँ हर वक्त जप ताप पूजा पाठ चलता रहता है। भजन कीर्तन शाम के कार्यक्रमों का हिस्सा होते है और कई युवा इसमें शरीक होते हैं।
समाज, धर्मं और सुरक्षा
मैथिल ब्राह्मण गाँव के बहुसंख्यक है। हालाँकि अन्य जाति के लोग भी इस गाँव में रहते हैं। मैथिल ब्राह्मण मे ज्यदातर कुजिलवार मूल के हैं। इस मूल के लोगो का उपनाम खां है। खां उपनाम वैसे मुस्लिम धर्मावलंबियों मे पाया जाता है। हिंदी धर्माव्ब्लाम्बियों के बीच खां उपनाम शायद देश भर के लिये अनूठी बात् है। खां उपनाम कैसे आया इसके बारे मे कई राय हैं। कुछ लोग मानते हैं कि कि मुग़ल सल्तनत के शासको के कुजिल्वारों के कर वसूली के कौशल से प्रभावित होकर उन्हें खां उपनाम से नवाज़ा.दूसरी धारणा ये है कि एक बार किसी अंग्रेज ने गाँव की किसी युवती के सौंदर्य से प्रभावित होकर जर्बदस्ती शादी करने की योजना बनाई। लेकिन लड़की के घरवालों ने ये जब सुना तो उनका खून खौल उठा। अतः उन्होंने उस अंग्रेज को छद्म से मारने की योजना बनाई। उन्होंने कहा कि शादी पारंपरिक तरीके से की जाए। बारात के साथ उस अंग्रेज को फूस से घिरे पंडाल में जला के मार डाला गया। जब अंग्रेजी हुकुमत के लोगो ने गांववालों की तलाश शुरू की तो उन्हें धोखा देने के लिये उन्होंने अपना उपनाम खां कह के बताना शुरू किया टामी उन्होंने ये पता लगे कि ये लोग मुस्लिम हैं और इस तरह वो अंग्रेजों से बच् जाएँ. सत्य क्या है ये किसी को पता नहीं है क्योंकि इसका कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। गौरतलब है कि १६वीं सहताब्दी मे अकबर ने दरभंगा राज को उत्तरी बिहार के कर वसूली का जिम्मा दिया था। उस से पहले दिल्ली सल्तनत के शासकों ने, जिनका राज्य १३वीं शताब्दी से ही कायम था, बिहार पर शाशन किया था। इसलिए ये उपनाम १३वीं से १८वीं के बीच कभी आया होगा। ब्राह्मण के अलावा कई दूसरी जाति के लोग भी रहते है। मसलन नाइ, कुम्हार, पसीबा इत्यादि. इसके अवाला कुछ इस्लाम धर्मावलंबी भी गाँव के मियाँटोली इलाके रहते हैं। इनका मुख्य पेशा सब्जी की खेती करना है और इसी से वो अपना गुजारा चलाते हैं। इन्हें लोग कुजरा भी कहते हैं। सबसे अनूठी बात् ये है कि इन दोनों हिंदू और मुस्लिम काफी प्रेम भाव के साथ आपस मे रहते है। हिंदू, मुसलमानों के ताजिया मे शरीक होते हैं और मुसलमान हिंदू पर्व त्योहारों और मेलों मे दिख जाते हैं। यह बात् आज के परिप्रेस्क्ष्य मे खास है क्योंकि विश्व के अधिकतर हिस्सों मे धर्म के नाम पे जंग छिड़ी है। गाँव की विशालता के चलते कई शादियाँ गाँव के दो परिवारों के बीच ही हो जाती हैं। ये बात भी अपने आप मे निराली है। गाँव काफी सुरक्षित है। छोटे मोटे मतभेदों को छोड़ कोई लड़ाई नहीं होती है। कई लोगो कि धारणा है कि इस गाँव कि रक्षा बाबाजी स्वयं करते हैं। गाँव के घनत्व को देखकर कोई चोर गाँव कि और डग भरने से डरता है। माना जाता है सालों पहले गाँव के दूरदर्शी बबुआ खां ने गाँव के सड़कों की रूपरेखा कुछ ऐसी रखी थी किसी को भी कुकृत्य करके भाग जाना आसान नहीं होता। बबुआ खां ने ही सौ साल से पहले गाँव मे धर्मसभा की शुरुआत की थी जो आज भी जारी है। इस सभा मे धर्म और आध्यात्म की बातें होती है।[६]
प्राकृतिक आपदाएँ
बनगांव मे हुई प्राकृतिक आपदाओं की दो मुख्य वजहें हैं। पहला कारण है कोसी नदी मे आई बाद. कोसी नदी एक मन्मत्त नदी है जो अपनी धारा और दिशा बदलती रहती. लोकगीतों मे इसे "बतैहिया मैया" यानी उन्मादी मा की संज्ञा दी गयी है। हिमालय के गोद से निकली ये नदी धरती पर आते है अजीबोगरीब घुमाव लेते हुए आख़िरकार गंगा नदी मे आ मिलती है और गंगा की सहायक नदियों मे एक है। यह नदी दो हिस्सों मे विभक्त है। नदी का पश्चिमी हिस्सा गाँव से ८ किलोमीटर पश्चिम है। इस नदी पर बाँध १९५० के दशक मे बना था। बाँध बनने से पहले कोसी की कई छोटी धाराएं गाँव या इर्द गिर्द से हो के बहती थी। बाँध बनने के बाद यह काफी नियंत्रित हो गयी है लेकिन नदी के पुराने बहाव के निशान आज भी बहुतयात मे मिलने वाली बड़े बड़े गड्ढों के रूप मे मौजूद हैं। बाँध बनने से पूर्व गाँव मे बाढ आना आम बात थी। लेकिन इसके बाद से विकराल रूप में सिर्फ एक बार गाँव मे बाढ आयी है। ऐसा सन १९८४ मे सुपौल जिले के नवहट्टा के पास बाँध के टूट जाने से हुआ था। इस वजह से आयी बाढ के कारण गाँव के ज्यादातर हिस्से मे पानी घुस आया था। बाढ की वजह से संपत्ति का बहुत नुकसान हुआ था। गाँव के एक दो लोग बाढ की तेज धारा मे आ के बह गए थे। हालांकि इस बाद भी गाँव पूरी तरह नहीं डूबा था। गाँव के मध्य का हिस्सा, जो काफी ऊँचा है और पठार की आकृति का है, पानी मे नहीं डूबा था। प्रकृति की एक और आपदा का गवाह ये गाँव रहा और वो है भूकंप. इस गाँव मे दो बार भूकंप आये हैं जिससे गाँव मे क्षति हुई हो। सन १९३४ मे आया भूकंप बहुत खतरनाक था। गाँव के कई हिस्से मे दरारें आ गयी थी। रिक्टर पैमाने पे इसकी तीव्रता ८.१ मापी गयी थी। ये भूकंप ना सिर्फ बिहार के बल्कि भारत से सबसे भयानक भूकंपों मे एक है। इसके बाद १९८८ मे एक बार फिर से भूकंप आया। इसकी वजह से गाँव के कई घरों को नुकसान हुआ था। रिक्टर पैमाने पे इसकी तीव्रता ६.६ थी। वैसे ये गाँव गाँव हिमालय से काफी दूर है लेकिन इसके बावजूद पृथ्वी के गर्भ के अंदर हो रही उथल की वजह से भूकंप यहाँ आते रहते है। माना जाता है कि प्लेट टेक्टोनिक्स कि वजह से ऐसा होता है। पृथ्वी के अंदर इस क्षेत्र मे यूरोप का प्लेट, एशिया के प्लेट के अंदर आ रहा है और उसकी वजह सेभूकंप आते हैं। १९८८ मे ऐसे ही एक सुबह कुत्ते अचानक से भौंकने लगे और बिजली गुल हो गयी। इसके कुछ देर बाद, चापाकलो और कुओं का पानी बाहर आने लगा। लोगो के घरों कि दीवारों मे दरारें आ गयी थी। लेकिन किसी को चोट तक नहीं आयी।
पर्व और त्योहार
हिंदुओं के कई पर्व त्योहार है। इनमे से कई ऐसे है जो क्षेत्र विशेष मे मनाये जाते और कई सारे ऐसे पर्व है जो उत्तर भारतीयों के ज्यादा उल्लास के साथ मनाया जाया. ऐसे कई सारे पर्व (होली, दीवाली, दुर्गा पूजा, छठ, भरदूतिया, सिरुआ, काली पूजा, सरस्वती पूजा आदि) इस गाँव मे भी मनाये जाते है।
होली
इस गाँव मे मनाये जाने वाले पर्वों मे होली का स्थान सबसे ऊपर है होली के पर्व पर गांववालों मे बहुत उत्साह देखने को मिलता है। गाँव से दूर रहने वाले लोग इस मौके पर गाँव आने की पूरी कोशिश करते है। गाँव के लोगो में ये कहावत काफी प्रचलित है "जे जीबा से खेला फौग " जिसका हिंदी मे शाब्दिक अर्थ है की जो भी जिन्दा हैं वो होली के दिन जरूर खेलें. घर घर मे मालपूआ पकाया जाते है और लोग रंग या गुलाल के साथ एक दूसरे से होली खेलते है। होली यहाँ कई बार दो दिनों तक मनाया जाता है। पहले धुरखेल खेला जाता है जिसमे लोग धूल गर्दे, मिटटी और कीचड के साथ एक दूसरे के साथ होली खेलते हैं। दूसरे दिन रंग और गुलाल के साथ होली खेली जाती है। कई बार धुरखेल और रंग दोनों एक ही दिन खेले जाते हैं। होली की एक और खास बात यह है की यहाँ होली पूरे देश से एक दिन पहले मनाया जाता है। होली के दिन दिन बड़े बुजुर्गो के बीच भांग पीना आम बात है। कई युवा इस दिन मद्यपान किया करते है। भांग पीना पिलाना आम बात है। इस इलाके के भूमि पर भांग अपने आप उपजता है। भांग की रसायनिक संरचना के मुताबिक़ पश्चिमी देशों मे वर्जित मारिजुआना के काफी सामान है और दोनों ही वनस्पति शास्त्र के मुताबिक़ मादा कैन्नाबिस सताइवा प्रजाति मे हैं। दोनों टेट्राहांइड्रोकार्बिनोल रासायनिक प्रजाति मे आते है। इसके पान के बाद आये मद का अपना अलग मज़ा है। होली के दिन कई लोग भांग पीते है और कई परिवारों मे होली के दिन भांग पीना बुरा नहीं समझा जाता है। भारतीय समाज मे नशापान सामाजिक रूप से तिरस्कार की नजर से देखा जाता है। भांग वितरण का एक ऐसा अड्डा मयूरी खां के आढ़ हैं। वहाँ बड़े बुजुर्गो को आदर के साथ बुलाकर भांग पिलाया जाया है।होली का दिन "जोगीरा सारा रा रा" से गुंजायमान रहता है। होली के बाद सांकृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन होता है। इस कार्यक्रम मे शास्त्रीय संगीत मे पारंगत कलाकारों को बुलाया जाता है। इस कार्यक्रम मे पूर्व के वर्षों मे पंडित राजन मिश्र और साजन मिश्र जैसे कलाकार आ चुके हैं। इस कार्यक्रम का आयोजन जमशेदपुर मे रहने वाले ग्रामीण श्री कामेश्वर चौधरी इसका आयोजन कार्य करते थे।
कृष्णाष्टमी
होली मार्च महीने मे मनाया जाता. उसके बाद गाँव मे सिरुआ और रामनवमी का त्योहार मनाया जाता है। ये त्योहार छोटे स्तर पर मनाये जाते हैं। कृष्णाष्टमी गाँव मे मनाये जाने पर्वों मे एक है। पहला दिन भगवान के जन्मदिन के तौर पे मनाया जाता है। दूसरे दिन गाँव मे बुत बड़ा मेला देखने को मिलता है। तीसरा दिन भसान का होता है जिसमे सारे भगवान की प्रतिमाओं को विसर्जित किया जाता है। इस अवसर पर्, श्रीकृष्ण, यशोदा, सुदामा, बासुधर जैसे कृष्ण के जीवन से जुड़े तमाम लोगो की भव्य प्रतिमाओं को बाबाजी कुटी प्रांगण मे बने एक खास स्थल, जो इसी निमित्त निर्मित हुआ था, पर प्रदर्शित किया जाता है। मेले के दिन खूब उत्साह देखने को मिलता है। बच्चे, बड़े, बूढ़े, जवान और महिलायें सब मिलकर इसमें हिस्सा लेते हैं। खास कर के बच्चों और छोटी उम्र के लोगो का उत्साह देखने को बनता है। बच्चों को बड़ों से मेला देखने के लिये पैसे मिलते है और बहुत ही उत्साह से वो अपनी आकांक्षा की चीजें खरीदते. इस मेले में बच्चों की दुनिया में आनंद लाने की सारी चीजें होती है। रंग बिरंगे, गुब्बारे, खिलौने, बांसुरी, डिगडिगया गाड़ी, झूला, रंग बिरंगे चश्मे और कुछ खाने पीने की चीजें उनकी दुनिया मे खुशी लाने के लिये काफी होते है। गाँव के बुजुर्ग अपने पोते पोतियों या दौहित्र नातिनो के साथ मेले मे आकर आनद लेते हैं। महिलाओं को भी अपने श्रृंगार प्रसाधन या घरेलू कामकाज की चीजें आसानी से मिल जाती. है। इस मेले मे कई सालों तक "मौत का कुआँ" काफी आकर्षण का केंद्र हुआ करता था। इसके अलावा कई लोग सिनेमा दिखाने का भी इन्तेजाम करते हैं। विसर्जन से पहली रात नृत्य संगीत का कार्यक्रम भी होता है। मनुआ धार मे मूर्ती विसर्जन के साथ की इस मेले का समापन हो जाता है।
दुर्गा पूजा
गाँव मे मनाये जाने वाले पर्वों मे दुर्गा पूजा एक अहम पर्व है। यह पर्व दस दिनों तक चलता. गाँव स्थित माँ दुर्गा के भव्य मंदिर मे दिन भर गाँववासी भगवती की अर्चना मे मग्न रहते हैं। इस दौरान दुर्गा सप्तशती का अहर्निश पाठ किया जाता है। पूजा का आठवां दिन काफी खास होता है क्योंकि इस दिन कई लोग माँ भगवती को मेमनों की बलि चढाते हैं और बाद मे उसे प्रसाद मान कर खाया जाता है। इस दिन करीब हजार मेमनों की बलि दी जाती है। ये काम सुबह से दोपहर तक चलता है। शाम मे भैंसे की बलि दी जाती है। इस मे एक या दो भैंसों की बलि चढाई जाती है। इन दोनों पशुओं की बलि प्रतीकात्मक है क्योंकि भगवती ने भी काम और क्रोध का अंत किया था। . मेमनों को काम और भैंसों को क्रोध का प्रतीक माना जाता है। ब्राह्मणों के दो समुदाय हैं। एक वो जो मांस खाते हैं और वो शक्त ब्राह्मण कहलाते हैं। दोस्सरे जो मांस नहीं खाते हैं वो वैष्णव ब्राह्मण कहलाते है। यहाँ के लोग इस तरह शक्त ब्राह्मण है। वैसे गाँव के कई लोग बलि की परंपरा को पशुओं के खिलाफ अत्याचार मानते हैं और उनका मत हैं कि ऐसे पुराणी परम्पराओं का अंत होना चाहिए। वैसे गाँव के अधिकाँश लोग इस परंपरा को बढाते आये है और उनका कहना है कि सदियों से चली आ रही परंपरा गलत नहीं हैं। दुर्गा पूजा के दसवें दिन विजया दशमी का पर्व मनाया जाता है। इस दिन छोटे लोग बड़े बुजुर्गों को प्रणाम करते हैं और उन्हें लोग दीर्घायु होने या विजयी होने का आशीर्वाद मिलता है। दुर्गा पूजा के बाद कोजगरा और फिर दीवाली का पर्व मनाया जाता है। उसके बाद छठ का पर्व भी यहाँ बहुत की श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। वैसे दुर्गा मंदिर मे लोग साल भर आते जाते रहते हैं। हजारों की संख्या मे लोग नित्य दुर्गा मंदिर आते हैं। खासकर गाँव की कुछ महिलायें अपनी मनोकामना पूरा होने की आस मे भगवती से मदद की गुहार लगाने आती है। दुर्गा मंदिर से ठीक सता माँ काली का मंदिर है और उनकी पूजा भी लोग नित्य रूप से करते हैं।
सुविधाएँ
बैंक
- बैंक ऑफ इंडिया
- स्टेट बैंक ऑफ इंडिया
ग्राहक सेवा केंद्र
- स्टेट बैंक ऑफ इंडिया - बनगांव दक्षिण
- स्टेट बैंक ऑफ इंडिया - बनगांव उत्तर
- आईसीआईसीआई बैंक - बनगांव पूर्वी
कुछ मुख्य स्थान
- बाबाजी कुटी
- भगवती दुर्गा का मंदिर
- विषहरी स्थान
- देवना शिव मंदिर
- शहीद रमण स्मारक
भाषाएँ
शैक्षणिक स्थान
महाविद्यालय
- संस्कृत महाविद्यालय
स्कूल
- कलावती उच्च विद्यालय
- फूलदाई कन्या उच्च विद्यालय
- मौजे लाल शर्मा राम मध्य विद्यालय
- मनितारा शिक्षा निकेतन
- सरस्वती शिशु मंदिर
- दिल्ली पब्लिक स्कूल
- जवाहर नवोदय विद्यालय
- माहेश्वर अनंत मध्य विद्यालय
- द्रौपदी कन्या प्राथमिक विद्यालय
- राजकीय संस्कृत प्राथमिक विद्यालय
- मल्हू स्कूल
- बंगला गाछी प्राथमिक विद्यालय
- संस्कृत उच्च विद्यालय
- सर्वरानी मध्य विद्यालय
- ज्ञान भारती
- संत लक्ष्मीनाथ विद्यापीठ
व्सोसाईटी फ़ॉर प्रोमोशन एन्ड एडवांसमेंट ऑफ कम्युनिटीज एम्पावरमेंट (स्पेस)
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ "Tourism and Its Prospects in Bihar and Jharkhand स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।," Kamal Shankar Srivastava, Sangeeta Prakashan, 2003
- ↑ "Bihar Tourism: Retrospect and Prospect स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।," Udai Prakash Sinha and Swargesh Kumar, Concept Publishing Company, 2012, ISBN 9788180697999
- ↑ "Revenue Administration in India: A Case Study of Bihar," G. P. Singh, Mittal Publications, 1993, ISBN 9788170993810
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- ↑ अ आ इ ई साँचा:cite book
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