परमाल रासो

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

साँचा:pp-template

परमाल रासो आदिकालीन हिंदी साहित्य का प्रसिद्ध वीरगाथात्मक रासोकाव्य है। वर्तमान समय में इसका केवल आल्ह खंड उपलब्ध है जो वीरगाथात्मक लोकगाथा के रूप में उत्तर भारत में बेहद लोकप्रिय रहा है। इसके रचयिता जगनिक हैं। वे कालिंजर तथा महोबा के शासक परमाल (परमर्दिदेव) के दरबारी कवि थे। आल्ह खंड में महोबा के दो प्रसिद्ध वीरों आल्हा और ऊदल के वीर चरित का विस्तृत वर्णन किया गया था।

आल्हखण्ड की जगनिक द्वारा लिखी गई कोई भी प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। अभी इसकी संकलित की गई प्रति ही उपलब्ध है जिसका संकलन विभिन्न विद्वानों ने अनेक क्षेत्रों में गाये जाने वाले आल्हा गीतों के आधार पर किया है। इसलिए इसके विभिन्न संकलनों में पाठांतर मिलता है और कोइ भी प्रति पूर्णतः प्रमाणिक नहीं मानी गई है। इस काव्य का प्रचार-प्रसार समस्त उत्तर भारत में है। उसके आधार पर प्रचलित गाथा हिन्दी भाषा भाषी प्रान्तों के गाँव-गाँव में सुनी जा सकती है। आल्हा लोकगाथा वर्षा ऋतु में विशेष रूप से गाई जाती है।[१]

आल्हा का संकलन व प्रकाशन

उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में १८६५ ई० में वहाँ के तत्कालीन कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने अनेक भाटों की सहायता से इसे लिखवाया था। सर जार्ज ग्रियर्सन ने बिहार में (इण्डियन) एण्टीक्वेरी, भाग १४, पृष्ठ २०९, २२५ और विसेंट स्मिथ ने बुन्देलखण्ड लिंग्विस्टिक सर्वे आव इण्डिया, भाग ९, १, पृ० ५०२ में भी आल्हखण्ड के कुछ भागों का संग्रह किया था। इलियट के अनुरोध पर डब्ल्यू० वाटरफील्ड ने उनके द्वारा संग्रहीत आल्हखण्ड का अंग्रेजी अनुवाद किया था, जिसका सम्पादन ग्रियर्सन ने १९२३ ई० में किया। वाटरफील्डकृत अनुवाद "दि नाइन लाख चेन" अथवा "दि मेरी फ्यूड" के नाम से कलकत्ता-रिव्यू में सन १८७५-७६ ई० में प्रकाशित हुआ था। इस रचना के आल्हखण्ड नाम से ऐसा आभास होता है कि आल्हा सम्बंधित ये वीरगीत जगनिककृत उस बड़े काव्य के एक खण्ड के अन्तर्गत थे जो चन्देलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया था।

आल्हखण्ड जनसमूह की निधि

साहित्य के रूप में न रहने पर भी जनता के कण्ठ में जगनिक के संगीत की वीर दर्पपूर्ण ध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इतने लम्बे अन्तराल में देश और काल के अनुसार आल्हखण्ड के कथानक और भाषा में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया है। आल्हा में अब तक अनेक नए हथियारों, देशों व जातियों के नाम भी सम्मिलित हो गए हैं जो जगनिक के समय अस्तित्त्व में ही नहीं थे। आल्हा में पुनरुक्ति की भरमार है। विभिन्न युद्धों में एक ही तरह के वर्णन मिलते हैं। अनेक स्थलों पर कथा में शैथिल्य और अत्युक्तिपूर्ण वर्णनों की अधिकता है।

आल्हखण्ड पृथ्वीराज रासो के महोबा-खण्ड की कथा से समानता रखते हुए भी एक स्वतंत्र रचना है। मौखिक परंपरा के कारण इसमें दोषों तथा परिवर्तनों का समावेश हो गया है। आल्हखण्ड में वीरत्व की मनोरम गाथा है जिसमें उत्साह और गौरव की मर्यादा सुन्दर रूप से निबाही गई है। इसने जनता की सुप्त भावनाओं को सदैव गौरव के गर्व से सजीव रखा है।[२] आल्हखण्ड जनसमूह की निधि है।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ