तारों का विकास

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तारों का बेध करते समय हमें बहुत-सी नीहारिकाएँ उपलब्ध होती हैं, जिनके विश्लेषण से हमें पता चला है कि उनमें से बहुत-सी गैस या धूल के मेघ हैं। तारों के वर्णक्रम की रखाओं में भी सामान्य वर्णक्रम से कुछ भिन्ऩताएँ होती हैं, जिसका कारण तारामध्यवर्ती गैस या धूल समझा गया है। यह तारामध्यवर्ती गैस या धूल ही हमारी तारा प्रणालियों को जन्म देने वाली है। जब तक विश्व में ये पदार्थ विद्यमान रहेंगे, नए तारों तथा ताराप्रणालियों का जन्म होता रहेगा। इनका मूल तत्व प्राय: हाइड्रोजन है। इन मेघों का व्यास 10 पारसेक या उससे कम होता है। विश्व में गैस या धूल की कुल द्रव्य मात्रा अनुमानत: सूर्य की द्रव्य मात्रा की 20 अरब गुनी है।

तारों का संघटन

अधिकांश तारे मुख्य क्रम के हैं, जिनमें सूर्य एक है। इन तारों में भी अधिकांश तारे धुंधले हैं। इन तारों के मूल तत्व प्राय: एक से रहते हैं। द्रव्य मात्रा के कम या अधिक होने से इनका स्थान मुख्य क्रम वक्र में नीचे या ऊपर निश्र्चित किया जाता है। तारों की संख्या की दृष्टि से दूसरा स्थान श्वेतवामन तारों का है। इसके अतिरिक्त़ दानव तथा अतिदानव तारों के वर्ग हैं। मध्यवर्ती वर्ग भी श्उपलब्ध होते हैं। यथा उपदानव तथा उपवामन आदि। इन वर्गीकरणों का तारों के विकास से घनिष्ठ संबंध है।

तारों के मूल तत्व

अधिकांश तारों के मूल तत्वों में हाइड्रोजन का प्रथम स्थान है तथा हीलियम का दूसरा, किंतु तारों में अन्य मूल तत्व भी विद्यमान हैं। सभी तारों में इन तत्वों का विभाजन एक सा नहीं है। इसलिए इनके संघटन में भी अंतर दिखलाई देता है। मुख्य क्रम के तारों के मूल तत्वों में हाइड्रोजन की द्रव्य मात्रा 70-90 प्रतिशत तथा हीलियम 10-30 प्रतिशत रहती है। धातु तत्व द्वितीय पॉपुलेशन के तारों में नगण्य तथा प्रथम पॉपुलेशन के तारों में तीन प्रतिशत तक रहते हैं।

तारों की ऊर्जा

तारों को मुख्यतया कार्बनचक्र अथवा प्रोटीन से प्रोटोन अभिक्रिया की विधियों से आण्विक ऊर्जा प्राप्त होती है। इस प्रक्रिया में तारों के हाइड्रोजन के कण हीलियम में विखंडित होते रहते हैं। इसके पश्र्चात्‌ तारे संकोचन से ऊष्मा प्राप्त करते है। संकोचन से जब भीतरी ताप अत्यधिक बढ़ जाता है तब हीलियम के अणुओं में भी आण्विक अभिक्रिया प्रारंभ हो जाती है। इससे भी तारे बहुत समय तक ऊर्जा प्राप्त करते हैं। इस प्रक्रिया के अनुसार तारों के जीवन का मुख्य आधार उनमें उपलब्ध हाइड्रोजन का भंडार ही है। तारों का ऊर्जा प्रसारण उनकी द्रव्य मात्रा के घन का अनुपाती होता है, जिसके फलस्वरूप अधिक द्रव्य मात्रा के तारों का जीवनकाल कम द्रव्य मात्रा के तारों के जीवनकाल की अपेक्षा कम रहता है।

तारों के विकास के सिद्धांत

आज से लगभग 50-60 वर्ष पहले तारों के सतत प्रकाश का कारण केवल संकोचन विधि ही समझा जाता था। सर नारमन लाकेयर ने इसी आधार पर तारों के विकास का सिद्धांत प्रस्तुत किया था। इस सिद्धांत के अनुसार तारे प्रारंभिक अवस्था में विशाल (दानवाकार) तथा ठंढे कल्पित किए गए, जो संकोचन द्वारा ताप के बढ़ने से वर्णक्रम के ऊपर की ओर बढ़ते गए तथा फिर ठंढे होते हुए लाल रंगवाले वामन बनकर, बिल्कुल ठंढे होकर लुप्त हो गए। उस समय तक ज्योतिषियों ने दानवाकार तथा वामनाकार तारों का अध्ययन नहीं किया था। इसके पश्र्चात्‌ विकासवागद का प्रसिद्ध सिद्धांत हेनरी नोरिस रसेल ने 1913 ई. में प्रस्तुत किया। इसमें कल्पना की गई कि तारों का विकास लाल रंगवाले दानवाकार तारों से हुआ जो धीरे-धीरे नीले दानवाकार तारे बनकर मुख्य क्रम-वक्र के नीचे की ओर आते हैं तथा प्रकाशहीन हो जाते हैं। यह सिद्धांत लगभग 20 वर्ष तक प्रचलित रहा। इसी बीच अणुशक्ति का ज्ञान हो जाने से संकोचन का स्थान आण्विक अभिक्रिया को मिला।

तारों के विकास का क्रम

वर्तमान काल में तारों के विकास के संबंध में अधिकांश ज्योतिषियों की धारणा है कि तारों का प्रारंभिक विकास मुख्य क्रम के तारे के रूप में होता है। कुछ समय तक कम द्रव्य मात्रा के तारे मुख्य क्रम-वक्र के साथ चलते रहते हैं। तत्पश्र्चात् अपनी हाइड्रोजन द्रव्य मात्रा का अधिक उपभोग करने लगते हैं तथा इनका ताप और आकार बढ़ने लगता है। तब वे मुख्य क्रम-वक्र को छोड़कर वामावर्त से, वक्र के दाहिनी ओर से, शीघ्रता से ऊपर की ओर बढ़ने लगते हैं। अधिक द्रव्य मात्रा के तारे दक्षिणावर्त से नीचे की ओर आने लगते हैं। चरम सीमा पर पहुँचने तक इनका हाइड्रोजन भंडार समाप्त हो जाता है। फिर वे ठंढे होने लगते तथा मुख्य क्रम की ओर बढ़ने लगते हैं। इस समय इनमें संकोच का प्रारंभ होने से इनके हीलियम भंडार में भी आण्विक अभिक्रिया आरंभ हो जाती है। इनके केंद्र स्थित हीलियम में आण्विक अभिक्रिया तीब्र होती है तथा इनके भीतर दबाव में गड़बड़ी आ जाती है। कदाचित्‌इसी कारण इनमें आवर्तन से संकोचन और प्रसारण उत्पन्ऩ हो जाता है तथा यै चलतारों का रूप ले लेते हैं। जब ये सब प्रकार के आण्विक ऊर्जा स्रोतों का उपभोग कर लेते हैं तो ये संकोचन से कुछ देर तक जीवित रहते हैं। इस अवस्था के तारे श्वेत वामन होते हैं। इनके सभी द्रव्याणु विकृत अवस्था में होते हैं तथा नामिकों से अत्यासन्ऩ होने से इनका घनत्व

अत्यंत बढ़ जाता है। तारों के जीवन की यह अंतिमासन्ऩ अवस्था होती है। तारे बिना विरोध के मृत्यु मुख में नहीं आते। अत:अंतिम रूप से बुझने से पूर्व इनमें भयानक विस्फोट होता है तथा तारे, नवतारों के रूप में क्षणिक उज्वल जीवन धारण कर सदा, के लिए ज्योतिहीन हो जाते हैं। विकृत गैसों के सिद्धांत से पता चलता है कि केवल वे ही तारे श्वेतवामन बन सकते हैं, जिनकी द्रव्य मात्रा सूर्य की द्रव्य मात्रा के लगभग 1.4 से कुछ कम हो। बहुत से तारों की द्रव्य मात्रा इस सीमा से कम बैठती है। इससे अधिक द्रव्य मात्रा के तारे तभी श्वेतवामन बन सकते हैं, जब वे अपनी कुछ द्रव्य मात्रा खो दें। ऐसे तारे अतिनव तारे ही देखे गए हैं, जो विस्फोट से अपनी द्रव्य मात्रा खो देते हैं। इस विश्र्लेषण से इन्हें अतिपुराण होना चाहिए किंतु इनमें पापूलेशन द्वितीय जैसा तीव्र वेग नहीं है और इनमें कुछ आकाशगंगीय तारापुंजों में भी

दिखलाई पड़े हैं, जो अपेक्षाकृत नवीन है। इस प्रकार देखने से श्वेतवामन तारो के विकास की अवस्था रहस्यमय प्रतीत होती है।

यदि हम तारों के विकास के लिए उनके व्यक्तिगत स्वरूप को न लेकर, उनके सामूहिक स्वरूप पर विचार करें, तो हमें पॉपुलेशन प्रथम तथा पॉपुलेशन द्वितीय के वर्गों का विश्र्लेषण करना पड़ेगा। ये दोनों विकास की दो चरम अवस्थाएं हैं। पॉपुलेशन द्वितीय में न तो अतिदानवाकार तारे हैं, न गैस, न धूल, न तीव्र घूर्णन। पॉपुलेशन प्रथम में धूल, गैस, चमकीले तारे तथा तीव्र घूर्णन हैं। ये तारे सर्पिल भुजाओं में उपलब्ध होते हैं।

इसका अर्थ यह हुआ कि पॉपुलेशन द्वितीय की नवनिर्माण की शक़्ति समाप्त हो चुकी है तथा पॉपुलेशन प्रथम अभी विकास की प्रारंभिक अवस्था में है। आकाशगंगीय पुंजों का विकास गैस मेघों से होता है। गैस मेघ के भीतरी अणुओं में उथल-पुथल होती रहती है। अणुओं के इस संघर्ष के कारण इसमे कभी-कभी भाग घूर्णन के कारण अतिदावनाकार तारे बन जाएंगे, किंतु कम द्रव्य मात्रा के टुकड़े अत्यधिक होंगे, जो मुख्य क्रम के तारे बनेंगे। अतिविश्वास द्रव्य भाग आकाशगंगीय पुंज बनेंगे। पूर्णत: विद्यमान तारे पॉपुलेशन द्वितीय के सदस्य बन जाएंगे। तारों के विकास की प्रणाली को हम आकाशगंगाओं के विकास से भी ज्ञात कर सकते हैं। सर्वप्रथम अनियमित आकाशगंगाओं का विकास होता है। जब ये किसी अक्ष के ईद-गिर्द घूर्णन प्रारंभ कर देती हैं तो वह गैस धूल जो अभी तारा नहीं बनी, इनके अक्ष पर लंब समतल के चारों ओर इकट्ठा होने लगती है। जब तक गैस का धूल उपलब्ध रहती है, नए तारे जन्म लेकर पॉपुलेशन प्रथम के सदस्य बनते रहते हैं तथा पुराने तारे गुणों में पॉपुलेशन द्वितीय के तारों जैसे होते जाते हैं। जब गैस या धूल समाप्त हो जाती है तो ये आकाशगंगाएं दीर्घवृत्ताकार हो जाती है।

छोटी आकाशगंगाएं कदाचित्‌कभी भी सर्पिल नहीं होतीं। बड़ी आकाशगंगाएं घूर्णन से सर्पिल भुजाओं को उत्पन्ऩ कर लेती हैं। घूर्णन की तीव्रता के कारण सर्पिल आकाशगंगाएं भी जो पॉपुलेशन द्वितीय की सदस्य हैं। अपनी सर्पिल भुजाओं को धीरे-धीरे खो देती हैं तथा उनका अंतिम रूप दीर्घवृत्ताकार है। मुख्य क्रम के तारों में घूर्णनात्मक गति रहती है। अपने विकास की अवस्था में ये संकोचन के समय तीव्र

घूर्णनात्मक गति प्राप्त कर लेते हैं और इनके कुछ भाग इनसे पृथक्‌होकर नए तारे बन जाते हैं। कदाचित्‌यही कारण है कि हमें दोहरे तारे अधिक मात्रा में मिलते हैं। मुख्य क्रम के जिन तारों की घूर्णनात्मक गति कम होती है, वे धूल या गैस के कणों से अपने आकार को बढ़ाकर दानवाकार तारों का रूप ले लेते हैं। कदाचित्‌ इसीलिए इनका वायुमंडल अधिक विस्तृत होता है।

तारों के विकास के सभी सिद्धांत अभी परोक्षणावस्था में हैं। इनके विषय में और परीक्षण तथा अनुसंधान हो रहे हैं। अत: इन सिद्धातों की सत्यता भविष्य के परीक्षण की सिद्ध कर सकेंगे।

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