ठिकाना चांग
नेविगेशन पर जाएँ
खोज पर जाएँ
चांग, पाली जिले का प्रमुख गांव है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ब्यावर के पश्चिम में ६ किलोमीटर दूर स्थित ग्राम चांग ऐतिहासिक गांव रहा है। पूर्व मध्यकाल में इस क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का शासन रहा। वर्तमान पश्चिमी राजस्थान एवं गुजरात के एक बड़े भाग पर गुर्जर-प्रतिहार राज्य का अस्तित्व होने के साहित्यिक एवं पुरातात्विक प्रमाण पर्याप्त संख्या में उपलब्ध है।
७वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध (६२९-६४४ ई.) में भारत भ्रमण पर आए चीनी यात्री ह्रेनसांग ने भीनमाल की यात्रा की थी। उसने गुजरात की राजधानी के रूप में भीनमाल का उल्लेख किया है। भीनमाल के लिए 'पीलोमोलो' तथा गुर्जर प्रतिहारो के लिए कुचेलो शब्दों का प्रयोग करते हुए ह्रेनसांग ने गुर्जरात्रा को पश्चिमी भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य कहा है। उसने राजधानी पीलोमोली (भीनमाल) से लगभग ३०० मील तक उत्तर दिशा में कुबेलो राज्य के विस्तृत होने का उल्लेख भी किया है। भीनमाल से ३०० मील उत्तर दिशा में बढ़ा जाए तो यह दूरी चांग को पार कर जाती है। ह्रेनसांग के उपर्युक्त वर्णन से यह सिद्ध होता है कि चांग गांव भी निश्चित रूप से गुर्जरात्रा के अंतर्गत ही स्थित था। गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिरभोज प्रथम (८३६-८८५ ई.) के एक दानपत्र में उल्लेख मिलता है कि उसने गुर्जरात्रा भूमि के डेडवानक विषय का सिवा गांव के एक मंदिर में होने वाले खर्च के प्रयोजन हेतु दान किया था। उक्त दानपत्र नागौर जिले में डीडवाना कस्बे से ७ किलोमीटर दूर स्थित सेवा नामक गांव में एक भग्न मंदिर से प्राप्त हुआ है। इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने दानपत्र में उल्लिखित 'डेडवानक' का समीकरण डीडवाना के साथ करते हुए उसके समीप स्थित वर्तमान सेवा गांव को ही दानपत्र का सिवा ग्राम बताया है। दानपत्र के साक्ष्य से स्पष्ट होता है कि भीनमाल से लेकर वर्तमान डीडवाना तक का क्षेत्र गुर्जरात्रा का ही भाग था। इसी प्रकार नागौर जिले में जायल तहसील के गोठमांगलोद कस्बे में स्थित दधिमाता मंदिर शिलालेख में भी गुर्जर-प्रतिहार राज्य का उल्लेख हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है कि चांग एवं समीपवर्ती भूभाग भी इसी गुर्जरात्रा के अधीन रहे थे। कालान्तर में गुर्जर प्रतिहारों की रूचि उत्तर भारत के कन्नोज में बढ़ गई और वे कन्नोज को प्राप्त करने हेतु पाल एवं राष्ट्रकूट वंशों के साथ त्रिपक्षीय संघर्ष में उलझ गए। इधर गुर्जरात्रा में उनकी शक्ति का पराभाव होने लगा। चौहानों की नाडोल शाखा के संस्थापक राव लाखनसी के दो पुत्र राव अनहल व राव अनूप ने ९९८ ई. में देवगढ़ के समीप चेता गांव में अपना ठिकाना स्थापित किया। बाद में इन दोनों भाईयों में बड़े भाई राव अनहल (चीता साख) ने चांग के समीपवर्ती क्षेत्रों पर अधिकार करके चांग से शासन का संचालन आरंभ किया। अनहलराव के अधीन किशनगढ़ के समीप नरवर से लेकर टोगी (भीम) तक का क्षेत्र था।
ऐतिहासिकता के साक्षी
घोड़े के नाल की आकृति में बसे चांग गांव में स्थित खण्डहर इसकी ऐतिहासिकता के साक्षी है। तीन ओर पहाड़ियों से घिरे गांव के बाहर सुरक्षा चौकियां बनी हुई थी जहां से चौकस निगाहें आसानी से खतरे को भांप सकती थी। गांव के बीच पहाड़ी की तलहटी में पुरातन महल के खण्डहर आज भी विद्यमान है। इन खण्डहरों को आज भी गांव तथा समीपवर्ती क्षेत्र के लोग दरबार के नाम से पुकारते है। महल में बने कक्षों का आकार छोटा ही है परंतु फिर भी आकर्षक है। इनके निर्माण में स्थानीय पत्थरों का ही प्रयोग किया गया है परंतु दीवारों पर कुछ ऐसे पत्थर भी दिखाई देते है जो बारीकी से गढ़े हुए है तथा स्थानीय प्रतीत नहीं होते है। संभवतः राज्य के अन्य भागों से इन्हें मंगवाया गया हो। महल में प्रवेश हेतु एक तंग रास्ता बना हुआ था। रास्ता संकरा बनाने के पीछे संभवतः यह सोच थी कि आक्रमणकारी दुश्मन आसानी से महल के मुख्य भाग तक न पहुंच पाए। पहाड़ी की तलहटी में स्थित महल को नीचे से देखने पर ऐसा लगता है मानो वह एकाधिक मंजिलों से युक्त हो। कक्षों की छत में प्रयुक्त पत्थर की पट्टियां काफी चौड़ी एवं भारी है जो चूने से बना प्लास्टर उखड़ जाने के कारण वर्तमान में स्पष्ट दिखाई दे रही है। भग्नमहल में शयनकक्षों के अतिरिक्त खाद्य सामग्री भण्डारण एवं अन्य प्रयोजनों की व्यवस्था भी थी। महल के नीचे की तरफ एक बावड़ी के साक्ष्य भी विद्यमान है जिसका पेयजल हेतु उपयोग किया जाता था। गांव के बाहर पूर्वी छोर पर पहाड़ी की चोटी पर स्थित एक मयूराकृति की चट्टान बहुत ही आकर्षक है जिसका तत्कालीन समय में बड़ा महत्व था। चट्टान के नुकीले अग्रभाग पर खतरे की सूचना देने हेतु एक बड़े घंटे को लटकाया जाता था। संकट संकेतक घण्टा लटकाने से बना निशान आज भी चट्टान के अग्रभाग पर स्पष्ट अंकित है। घण्टा बजाकर किसी भी अनहोनी अथवा आक्रमण की सूचना लोगों तक पहुंचाई जाती थी ताकि वे तुरंत अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर मोर्चा संभाल सके। १५६८ ई. में अकबर के मेवाड़ आक्रमण के समय जयमल राठौड़ उसके साथियों के साथ मगरांचल राज्य के राजपूत सैनिक भी शामिल हो गए तथा जयमल और पत्ता के साथ मुगलों से वीरतापूर्वक लड़कर मगरांचल राज्य का गौरव बढा़या। इस प्रकार सदियों से तमाम उतार-चढ़ावों एवं उत्थान-पतन का साक्षी रहा यह गांव आज भी इतिहास में रूचि रखने वाले लोगों का बरबस ही ध्यान आकृष्ट कर लेता है। सैंकड़ों वर्षों की घटनाओं के गवाह यहां के खंडहर वर्तमान में उपेक्षा का दंश झेल रहे है। जनसहयोग की दिशा में बढ़े कुछ कदम पूर्वजों के इन चिन्हों को नवजीवन प्रदान कर सकते है। यदि समय रहते इन पर ध्यान दिया जाए तो वे सदियों तक हमारी गौरवगाथाओं को अपने में समेटकर खड़े रहेंगे और पीढ़ियों को प्रेरित करते रहेंगे।