चीन-ताइवान सम्बन्ध
Cross-Strait relations | |||||||||||||||||||||||||||
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बाएँ: चीनी जनवादी गणतंत्र का ध्वज तथा दाएँ ताइवान का ध्वज | |||||||||||||||||||||||||||
पारम्परिक चीनी | साँचा:lang | ||||||||||||||||||||||||||
सरलीकृत चीनी | साँचा:lang | ||||||||||||||||||||||||||
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चीन-ताइवान सम्बन्ध[१]) से आशय चीन (जिसका आधिकारिक नाम 'चीनी जनवादी गणतंत्र' है) तथा ताइवान (जिसका आधिकारिक नाम 'चीनी गनतंर' है) के बीच राजनयिक सम्बन्ध से है।
चीन (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना) और ताइवान (रिपब्लिक ऑफ़ चाइना) एक-दूसरे की संप्रभुता को मान्यता नहीं देते। दोनों स्वयं को आधिकारिक चीन मानते हुए मुख्यभूमि चीन और ताइवान द्वीप का आधिकारिक प्रतिनिधि होने का दावा करते रहे हैं।
व्यावहारिक तौर पर ताइवान ऐसा द्वीप है जो 1950 से ही स्वतंत्र रहा है लेकिन चीन इसे अपना विद्रोही राज्य मानता है। एक ओर जहां ताइवान स्वयं को स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र मानता है, वहीं चीन का मानना है कि ताइवान को चीन में शामिल होना चाहिए और फिर इसके लिए चाहे बल प्रयोग ही क्यों न करना पड़े।
चीन में वर्ष 1644 में चिंग वंश सत्ता में आया और उसने चीन का एकीकरण किया। वर्ष 1895 में चिंग ने ताइवान द्वीप को जापानी साम्राज्य को सौंप दिया। 1911 में चिन्हाय क्रांति हुई जिसमें चिंग वंश को सत्ता से हटना पड़ा। इसके बाद चीन में कॉमिंगतांग की सरकार बनी। जितने भी इलाके चिंग रावंश के अधीन थे, वे कॉमिंगतांग सरकार को मिल गए। कॉमिंगतांग सरकार के दौरान चीन का आधिकारिक नाम 'रिपब्लिक ऑफ चाइना' कर दिया गया था।
वर्ष 1683 से 1895 तक मुख्यभूमि चीन पर ताइवान का शासन था। वर्ष 1895 में, जापान ने प्रथम चीन-जापान युद्ध जीता। युद्ध के बाद ताइवान जापान के नियंत्रण में आ गया। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की पराजय के बाद पाट्सडैम (1945), काहिरा (1946) की घोषणाओं के अनुसार ताइवान पर राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी का अधिकार फिर से मान लिया गया।
अगले कुछ वर्षों में चीन में हुए गृहयुद्ध से माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने चियांग काई शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी को पराजित कर दिया। १९४९ में कम्युनिस्टों से हार के बाद राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी ने ताइवान में जाकर अपनी सरकार बनाई। चीन में सत्ता में आ चुके कम्युनिस्टों की नौसैनिक शक्ति अत्यन्त क्षीण थी। यही कारण था कि माओ की सेना समुद्र पार करके ताइवान पर नियंत्रण नहीं कर सकी। वर्ष 1951 में सैन फ्रांसिस्को की संधि के अनुसार, जापान ने ताइवान से अपने स्वधिकारों को समाप्त घोषित कर दिया। वर्ष 1952 में ताइपे में चीन-जापान सन्धि वार्ता हुई किन्तु किसी भी संधि में ताइवान पर चीन के नियंत्रण का कोई संकेत नहीं किया गया।
इस बीच यह विवाद उठ खड़ा हुआ कि जापान ने ताइवान किसको दिया। ऐसा इसलिए क्योंकि चीन में कम्युनिस्ट सत्ता में थे और ताइवान में कॉमिंगतांग का शासन था। माओ का मानना था कि जीत जब उनकी हुई है तो ताइवान पर उनका अधिकार है जबकि कॉमिंगतांग का कहना था कि बेशक चीन के कुछ हिस्सों में उनकी हार हुई है मगर वे ही आधिकारिक रूप से चीन का प्रतिनिधित्व करते हैं।
वर्ष 1970 के आसपास डेंग शियाओपिंग ने चीन के शासन की बागडोर संभाली। उसने 'एक देश दो प्रणाली' (One Country Two Systems) नीति प्रस्तावित की। डेंग की इस योजना का मुख्य उद्देश्य चीन और ताइवान को एकजुट करना था। इस नीति के माध्यम से ताइवान को उच्च स्वायत्तता देने का वादा किया गया था। इस नीति के तहत ताइवान चीनी संप्रभुता के अंतर्गत अपनी पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली का पालन कर सकता है, एक अलग प्रशासन चला सकता है और अपनी सेना रख सकता है। हालाँकि ताइवान ने कम्युनिस्ट पार्टी के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
१९७१ तक ताइवान (रिपब्लिक ऑफ चाइना) संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद का भी हिस्सा था। शीतयुद्ध के दौरान ताइवान को अमरीका का पूरा समर्थन मिला हुआ था, किन्तु फिर स्थितियाँ एकदम बदल गयीं। अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने चीन को पहचान दी और कहा कि ताइवान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से हटना होगा। इस प्रकार 1971 से चीन सुरक्षा परिषद का हिस्सा हो गया और 1979 में ताइवान की संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक मान्यता खत्म हो गई। वास्तव में 1970 में आर्थिक प्रगति के बाद अमरीका नए बाजार तलाश रहा था। उस समय चीन की आबादी 60 करोड़ थी जबकि ताइवान की केवल एक करोड़ के आसपास। ऐसे में अमरीकी व्यापारी वर्ग चाहते थे कि अमरीका चीन को मान्यता दे। इस तरह से ताइवान यहां कमजोर पड़ गया।
ऐसा नहीं है कि ताइवान विश्व समुदाय से पूरी तरह कट गया है और उपेक्षित हो गया है। कूटनीतिक तौर पर अकेला पड़ जाने के बावजूद ताइवान की गिनती एशिया के सबसे बड़े कारोबारी देश के तौर पर होती है। यह कंप्यूटर टेक्नॉलजी के उत्पादन के मामले में दुनिया का अग्रणी देश है और इसकी अर्थव्यवस्था भी बहुत मज़बूत है। इस समय लगभग 80 देशों के ताइवान के साथ आर्थिक सम्बन्ध हैं, भले ही वे स्वतंत्र देश के रूप में उसे मान्यता नहीं देते।
उधर ताइवान और चीन के बीच व्यापारिक ही नहीं, सामाजिक संबंध भी गहरे हुए हैं। दोनों के बीच सीधी वायुसेवा और समुद्री जहाजों के माध्यम से आवाजाही होती रहती है लेकिन कई बार आक्रोश नजर आता है।