गुरु गोबिन्द सिंह

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ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਜੀ
गुरु गोबिंद सिंह जी
Guru Gobind Singh.jpg
Govind Singh ji
जन्म गोबिन्द राय
22 दिसंबर , 1666
पटना बिहार, भारत
मृत्यु साँचा:death date and age
नांदेड़, महाराष्ट्र, भारत
जातीयता राय सिख समुदाय
पदवी सिखों के दसवें गुरु
प्रसिद्धि कारण दसवें सिख गुरु, सिख खालसा सेना के संस्थापक एवं प्रथम सेनापति
पूर्वाधिकारी गुरु तेग बहादुर
उत्तराधिकारी गुरु ग्रंथ साहिब
धार्मिक मान्यता सिख
जीवनसाथी माता जीतो, माता सुंदरी, माता साहिब देवां
बच्चे अजीत सिंह
जुझार सिंह
जोरावर सिंह
फतेह सिंह
माता-पिता गुरु तेग बहादुर, माता गूजरी

गुरु गोबिन्द सिंह

सिख धर्म
पर एक श्रेणी का भाग

Om
सिख सतगुरु एवं भक्त
सतगुरु नानक देव · सतगुरु अंगद देव
सतगुरु अमर दास  · सतगुरु राम दास ·
सतगुरु अर्जन देव  ·सतगुरु हरि गोबिंद  ·
सतगुरु हरि राय  · सतगुरु हरि कृष्ण
सतगुरु तेग बहादुर  · सतगुरु गोबिंद सिंह
भक्त कबीर जी  · शेख फरीद
भक्त नामदेव
धर्म ग्रंथ
आदि ग्रंथ साहिब · दसम ग्रंथ
सम्बन्धित विषय
गुरमत ·विकार ·गुरू
गुरद्वारा · चंडी ·अमृत
नितनेम · शब्दकोष
लंगर · खंडे बाटे की पाहुल


गुरु गोबिन्द सिंह (गुरु गोबिंद सिंह) (जन्म:पौषशुक्ल सप्तमी संवत् 1723 विक्रमी तदनुसार 22 दिसम्बर 1666- मृत्यु 7 अक्टूबर 1708 ) आप सिखों के दसवें गुरु थे। आपके पिता जी श्री गुरू तेग बहादुर जी की शहादत के उपरान्त 11 नवम्बर सन 1675 को 10 वें गुरू बने। आप एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन 1699 में बैसाखी के दिन उन्होंने खालसा पंथ (पन्थ) की स्थापना की जो सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है।[१] आप ने इस दिन श्री आनन्दपुर साहिब जी में एक बहुत बड़े सम्मेलन का आयोजन किया और वहाँ पर शामिल लोगों से [[५|5】】 सिरों की माँग की , 5 लोग आपको सर देने के लिए तैयार हुए जिन्हें अपने अमृत पिला कर पाँच प्यारों का नाम दिया तथा अपने खुद भी उन से अमृत पान किया और तभी से आपको कहा जाने लगा " वाहो वाहो गोबिन्द सिंह आपे गुरु चेला ". तभी से पूरे सिख जगत में वैसाखी का दिन बड़े चाव से मनाया जाता है.

गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों के पवित्र ग्रंथ (ग्रन्थ) गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। विचित्र नाटक अकाल उसत्त , चण्डी दी वार उनकी आत्मकथा है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ (ग्रन्थ), गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है।

उन्होने जुलम और पापों का खत्म करने के लिए और गरीबों की रक्षा के लिए मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े। और उन्होंने सभी के सभी युद्धों में विजय प्राप्त की। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' (पूरे परिवार का दानी ) भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले, आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।

गुरु गोविन्द सिंह जहाँ विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिन्तक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रन्थों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।[२]

उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का सन्देश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है।

गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म

पटना साहिब

गुरु गोविन्द सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी और माता गुजरी के घर पटना जो आजकल बिहार की राजधानी हैं , में 22 दिसम्बर 1666 को हुआ था। जब वह पैदा हुए थे उस समय उनके पिता श्री गुरु तेग बहादुर जी असम में धर्म उपदेश को गये थे। उनके बचपन का नाम गोविन्द राय था। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था और जिसमें उन्होने अपने प्रथम चार वर्ष बिताये , वहीं पर अब तखत श्री हरिमंदर जी पटना साहिब स्थित है।[३]

1670 में उनका परिवार फिर पंजाब आ गया। मार्च 1672 में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया। चक्क नानकी ही आजकल आनन्दपुर साहिब कहलता है। यहीं पर इनकी शिक्षा आरम्भ हुई। उन्होंने फारसी, संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा।

गोविन्द राय जी नित्य प्रति आनदपुर साहब में आध्यात्मिक आनन्द बाँटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का सन्देश देते थे। आनन्दपुर वस्तुतः आनन्दधाम ही था। यहाँ पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, सम्प्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गोविन्द जी शान्ति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे।

काश्मीरी पण्डितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध फरियाद लेकर गुरु तेग बहादुर जी के दरबार में आये और कहा कि हमारे सामने ये शर्त रखी गयी है कि है कोई ऐसा महापुरुष? जो इस्लाम स्वीकार नहीं कर अपना बलिदान दे सके तो आप सब का भी धर्म परिवर्तन नहीं किया जाएगा उस समय गुरु गोबिन्द सिंह जी नौ साल के थे। उन्होंने पिता गुरु तेग बहादुर जी से कहा आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है! कश्मीरी पण्डितों की फरियाद सुन उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन से बचाने के लिए स्वयं इस्लाम न स्वीकारने के कारण 11 नवम्बर 1675 को औरंगज़ेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया। इसके पश्चात वैशाखी के दिन 29 मार्च 1676 को गोविन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए।

10वें गुरु बनने के बाद भी उनकी शिक्षा जारी रही। शिक्षा के अन्तर्गत उन्होनें लिखना-पढ़ना, घुड़सवारी तथा सैन्य कौशल सीखे 1684 में उन्होने चण्डी दी वार की रचना की। 1685 तक वह यमुना नदी के किनारे पाओंटा नामक स्थान पर रहे।

गुरु गोबिन्द सिंह की तीन पत्नियाँ थीं। 21 जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनन्दपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 पुत्र हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह। 4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुन्दरी के साथ आनन्दपुर में हुआ। उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजित सिंह। 15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। वैसे तो उनका कोई सन्तान नहीं था पर सिख पन्थ के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत प्रभावशाली रहा।

आनन्दपुर साहिब को छोड़कर जाना और वापस आना

अप्रैल 1685 में, सिरमौर के राजा मत प्रकाश के निमंत्रण पर गुरू गोबिंद सिंह ने अपने निवास को सिरमौर राज्य के पांवटा शहर में स्थानांतरित कर दिया। सिरमौर राज्य के गजट के अनुसार, राजा भीम चंद के साथ मतभेद के कारण गुरु जी को आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था और वे वहाँ से टोका शहर चले गये। मत प्रकाश ने गुरु जी को टोका से सिरमौर की राजधानी नाहन के लिए आमंत्रित किया। नाहन से वह पांवटा के लिए रवाना हुऐ| मत प्रकाश ने गढ़वाल के राजा फतेह शाह के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने के उद्देश्य से गुरु जी को अपने राज्य में आमंत्रित किया था। राजा मत प्रकाश के अनुरोध पर गुरु जी ने पांवटा में बहुत कम समय में उनके अनुयायियों की मदद से एक किले का निर्माण करवाया। गुरु जी पांवटा में लगभग तीन साल के लिए रहे और कई ग्रंथों की रचना की। <ग्रंथों की सूची >

सन 1687 में नादौन की लड़ाई में, गुरु गोबिंद सिंह, भीम चंद, और अन्य मित्र देशों की पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने अलिफ़ खान और उनके सहयोगियों की सेनाओ को हरा दिया था। विचित्र नाटक (गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रचित आत्मकथा) और भट्ट वाहिस के अनुसार, नादौन पर बने व्यास नदी के तट पर गुरु गोबिंद सिंह आठ दिनों तक रहे और विभिन्न महत्वपूर्ण सैन्य प्रमुखों का दौरा किया।

भंगानी के युद्ध के कुछ दिन बाद, रानी चंपा (बिलासपुर की विधवा रानी) ने गुरु जी से आनंदपुर साहिब (या चक नानकी जो उस समय कहा जाता था) वापस लौटने का अनुरोध किया जिसे गुरु जी ने स्वीकार किया। वह नवंबर 1688 में वापस आनंदपुर साहिब पहुंच गये।

1695 में, दिलावर खान (लाहौर का मुगल मुख्य) ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा। मुगल सेना हार गई और हुसैन खान मारा गया। हुसैन की मृत्यु के बाद, दिलावर खान ने अपने आदमियों जुझार हाडा और चंदेल राय को शिवालिक भेज दिया। हालांकि, वे जसवाल के गज सिंह से हार गए थे। पहाड़ी क्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम मुगल सम्राट औरंगज़ेब लिए चिंता का कारण बन गए और उसने क्षेत्र में मुगल अधिकार बहाल करने के लिए सेना को अपने बेटे के साथ भेजा।

खालसा पंथ की स्थापना

गुरु गोविन्द सिंह तथा पंज प्यारे(भाई थान सिंह गुरुद्वारा में)
गुरु गोबिन्द सिंह मार्ग

गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया ले कर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा जो की सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया।[४]

सिख समुदाय के एक सभा में उन्होंने सबके सामने पुछा – "कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है"? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राज़ी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पुछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राज़ी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बहार निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया।

उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने पांच कारों का महत्व खालसा के लिए समझाया और कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा।

इधर 27 दिसम्बर सन्‌ 1704 को दोनों छोटे साहिबजादे और जोरावर सिंह व फतेह सिंहजी को दीवारों में चुनवा दिया गया। जब यह हाल गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।

8 मई सन्‌ 1705 में 'मुक्तसर' नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर सन्‌ 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर आपको औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरुजी (गुरु गोबिन्द सिंह जी) नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय आपने सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी।

गुरु गोविंदजी के बारे में लाला दौलतराय, जो कि कट्टर आर्य समाजी थे, लिखते हैं 'मैं चाहता तो स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, परमहंस आदि के बारे में काफी कुछ लिख सकता था, परंतु मैं उनके बारे में नहीं लिख सकता जो कि पूर्ण पुरुष नहीं हैं। मुझे पूर्ण पुरुष के सभी गुण गुरु गोविंदसिंह में मिलते हैं।' अतः लाला दौलतराय ने गुरु गोविंदसिंहजी के बारे में पूर्ण पुरुष नामक एक अच्छी पुस्तक लिखी है।

इसी प्रकार मुहम्मद अब्दुल लतीफ भी लिखता है कि जब मैं गुरु गोविंदसिंहजी के व्यक्तित्व के बारे में सोचता हूँ तो मुझे समझ में नहीं आता कि उनके किस पहलू का वर्णन करूँ। वे कभी मुझे महाधिराज नजर आते हैं, कभी महादानी, कभी फकीर नजर आते हैं, कभी वे गुरु नजर आते हैं। सिखों के दस गुरू हैं।

गोबिंद सिंह जी  की मृत्यु  7 अक्टूबर, 1708 को हुई थी

गुरु गोबिन्द सिंह जी की रचनायें

दशम ग्रन्थ की पाण्डुलिपि का प्रथम पत्र। दशम ग्रन्थ में प्राचीन भारत की सन्त-सैनिक परम्परा की कथाएँ हैं।
  • जाप साहिब : एक निरंकार के गुणवाचक नामों का संकलन
  • अकाल उस्तत: अकाल पुरख की अस्तुति एवं कर्म काण्ड पर भारी चोट
  • बचित्र नाटक : गोबिन्द सिंह की सवाई जीवनी और आत्मिक वंशावली से वर्णित रचना
  • चण्डी चरित्र - ४ रचनाएँ - अरूप-आदि शक्ति चंडी की स्तुति। इसमें चंडी को शरीर औरत एवंम मूर्ती में मानी जाने वाली मान्यताओं को तोड़ा है। चंडी को परमेशर की शक्ति = हुक्म के रूप में दर्शाया है। एक रचना मार्कण्डेय पुराण पर आधारित है।
  • शास्त्र नाम माला : अस्त्र-शस्त्रों के रूप में गुरमत का वर्णन।
  • अथ पख्याँ चरित्र लिख्यते : बुद्धिओं के चाल चलन के ऊपर विभिन्न कहानियों का संग्रह।
  • ज़फ़रनामा : मुगल शासक औरंगजेब के नाम पत्र।
  • खालसा महिमा : खालसा की परिभाषा और खालसा के कृतित्व।

सन्दर्भ

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इन्हें भी देखें


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