क्या भूलूं क्या याद करूँ
क्या भूलूं क्या याद करूँ हरिवंश राय बच्चन की बहुप्रशंसित आत्मकथा तथा हिन्दी साहित्य की एक कालजयी कृति है। यह चार खण्डों में हैः 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ', नीड़ का निर्माण फिर', 'बसेरे से दूर' और 'दशद्वार से सोपान तक'। इसके लिए बच्चनजी को भारतीय साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार 'सरस्वती सम्मान' से सम्मनित भी किया जा चुका है। हिन्दी प्रकाशनों में इस आत्मकथा का अत्यंत ऊचा स्थान है।
डॉ॰ धर्मवीर भारती ने इसे हिन्दी के हज़ार वर्षों के इतिहास में ऐसी पहली घटना बताया जब अपने बारे में सब कुछ इतनी बेबाकी, साहस और सद्भावना से कह दिया है। डॉ॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार इसमें केवल बच्चन जी का परिवार और उनका व्यक्तित्व ही नहीं उभरा है, बल्कि उनके साथ समूचा काल और क्षेत्र भी अधिक गहरे रंगों में उभरा है। डॉ॰ शिवमंगल सिंह सुमन की राय में ऐसी अभिव्यक्तियाँ नई पीढ़ी के लिए पाठेय बन सकेंगी, इसी में उनकी सार्थकता भी है।
- आत्मकथा की प्रसिद्ध पंक्तियाँ
- क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
- अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
- अगणित अवसादों के क्षण हैं,
- रजनी की सूनी घड़ियों को
- किन-किन से आबाद करूँ मैं!
- क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
- याद सुखों की आँसू लाती,
- दुख की, दिल भारी कर जाती,
- दोष किसे दूँ जब अपने से
- अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
- क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
- दोनों करके पछताता हूँ,
- सोच नहीं, पर मैं पाता हूँ,
- सुधियों के बंधन से कैसे
- अपने को आज़ाद करूँ मैं!
- क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!