कश्मीरी साहित्य
परम्परागत रूप से कश्मीर का साहित्य संस्कृत में था। नीचे काश्मीर के संस्कृत के प्रमुख साहित्यकारों के नाम दिये गये हैं-
- लगध,[१][२][३][४][५][६] between 1400-1200 BC. Wrote Vedanga Jyotisha, the earliest Indian text on astronomy.
- चरक,[७][८][९][१०] c. 300 BC. One of the most important authors in Ayurveda.
- विष्णु शर्मा, पंचतन्त्र के रचयिता ; 300 ईसापूर्व
- नागसेन,[११][१२] c. 2nd century BC. One of the major figures of Buddhism, his answers to questions about the religion posed by Menander I (Pali: Milinda), the Indo-Greek king of northwestern India (now Pakistan), are recorded in the Milinda Pañha.
- तिसत, c. 500 AD. A medical writer.[१३]
- जैज्जट, 5th century, a medical writer and probably the earliest commentator (known) on the Sushruta Samhita, later quoted by Dalhana.[१४]
- कालिदास,[१५][१६][१७] c. 5th century. Widely regarded as the greatest poet and dramatist in the Sanskrit language.
- वाग्भट,[१८][१९] c. 7th century. Considered as one of the 'trinity' (with Charaka and Sushruta) of Ayurveda.
- भामह,[२०][२१][२२][२३] c. 7th century
- रविगुप्त, 700-725. "Ravigupta is, perhaps, the earliest among the Buddhist philosophers of Kashmir..."[२४]
- आनन्दवर्धन, 820-890
- वसुगुप्त, 860-925
- सोमानन्द, 875-925
- वटेश्वर,[२५][२६] b. 880, author of Vaṭeśvara-siddhānta.
- रुद्रट, c. 9th century
- जयन्त भट्ट, c. 9th century
- भट्ट नायक, c. 9th-10th century, considered by Sheldon Pollock as the greatest author on aesthetics in the pre-modern period
- मेधातिथि, c. 9th-10th century, one of the most influential commentators of the Manusmriti
- उत्पलदेव, 900-950
- अभिनवगुप्त, c. 950-1020
- वल्लभदेव,[२७][२८] c. 10th century. Wrote, amongst other works, Raghupanchika, the earliest commentary on the Raghuvamsa of Kalidasa.
- उत्पल,[२९][३०][३१][३२] c. 10th century. An important mathematician.
- क्षेमेन्द्र, c. 990-1070
- क्षेमराज, c. late 10th century/early 11th century
- कथासरित्सागर, c. 11th century
- बिल्हण, c. 11th century
- कल्हण, c. 12th century
- जल्हण,[२७] c. 12th century. He wrote the Suktimuktavali, an anthology quoting the work of 380 Sanskrit poets.
- शारंगदेव, c. 13th century. A musicologist, he wrote Sangita Ratnakara, one of the most important text when it comes to Indian music.
- Kesava Kashmiri Bhattacharya, c. 14th century, a major Vedantic philosopher.
- मम्मट
- कैहट
- जैहट
- रल्हण
- शिल्हण
- मल्हण
- रुय्यक
- कुन्तक
- रुचक
- उद्भट्ट
- शंकुक
- गुणाढ्य
- सोमदेव
- पिंगल
- जयदत्त
- वामन
- क्षीरस्वामी
- मंख
- पुष्पदन्त
- जगधर भट्ट
- रत्नाकर
- माणिक्यचन्द्र
पिछले ८०० वर्ष कश्मीरी भाषा और अब उर्दू और हिन्दी में भी यहां साहित्य की रचना हुई है।
साहित्यारम्भ
कश्मीरी साहित्य का पहला नमूना "शितिकंठ" के महानयप्रकाश (13 वीं शती) की "सर्वगोचर देशभाषा" में मिलता है। संभवत: शैव सिद्धों ने ही पहले कश्मीरी को शैव दर्शन का लोकसुलभ माध्यम बनाया और बाद में धीरे-धीरे इसका लोकसाहित्य भी लिखित रूप धारण करता गया। पर राष्ट्रीय और सांस्कृतिक आश्रय से निरंतर वंचित रहने के कारण इसकी क्षमताओं का भरपूर विकास दीर्घाकल तक रुका ही रहा। कुछ भी हो, 14वीं शती तक कश्मीरी भाषा बोलचाल के अतिरिक्त लोकदर्शन और लोकसंस्कृति का भी माध्यम बन चुकी थी और जब हम लल-वाख (1400 ई.) की भाषा को "बाणासुरवध" (1450 ई.) की भाषा से अधिक मँजा हुआ पाते हैं तो मौखिक परंपरा की गतिशीलता में ही इसका कारण खोजना पड़ता है।
लोकसाहित्य
कश्मीरी लोकसाहित्य में संतवाणी, भक्तिगीत (लीला, नात आदि), अध्यात्मगीत, प्रणयगीत, विवाहगीत, श्रमगीत, क्रीडागीत, लडीशाह (व्यंग विनोद आदि), तथा लोककथाएँ विशेष रूप से समृद्ध हैं। "सूफियाना कलाम" नाम की संगीत कृतियों में भी लोकसाहित्य का स्वर सुनाई पड़ता है।
विकासक्रम
विकासक्रम की दृष्टि कश्मीरी साहित्य के पाँच काल माने जा सकते हैं :
आदिकाल (1250-1400)
इस काल में संतों की मुक्तक वाणी प्रधान रही जिसमें शैव दर्शन, तसव्वुफ़, सहजोपासना, सदाचार, अध्यात्मसाधना, पाखंडप्रतिरोध तथा आडंबरत्याग का प्रतिपादन और प्रवचन ही अधिक रहा, संवेदनशील अभिव्यक्ति कम। इस काम की रचनाओं में से शितिकंठ का महानयप्रकाश, किसी अज्ञात शैव संत का छुम्म संप्रदाय ललद्यद के वाख, नुंदर्यो"श के श्लोक तथा दूसरे ये"शों ("ऋषियों") के पद ही अब तक प्राप्त हो सके हैं। इनमें से भी प्रथम दो रचनाओं में कश्मीरी छंदों को संस्कृत के चौखटे में कसकर प्रस्तुत किया गया है; हाँ, छुम्मं संप्रदाय में कश्मीरी छंदों से अधिक कश्मीरी "सूत्र" पाए जाते हैं जो शैव सिद्धों द्वारा कश्मीरी भाषा के लोकग्राह्य उपयोग की ओर निश्चित संकेत करते हैं।
प्रबंधकाल (1400-1550 ई.)
इस काल की इतिवृत्तप्रधान रचनाओं में पौराणिक तथा लौकिक आख्यानों को काव्य का आश्रय मिला। विशेषकर सुल्तान जैन-उल्-आबिदीन (बडशाह) (1420-70 ई.) के प्रोत्साहन से कुछ चरितकाव्य लिखे गए और संगीतात्मक कृतियों की रचना भी हुई। सुल्तान के जीवन पर आधारित एक खंडकाव्य और एक दृश्यकाव्य भी रचा गया था; पर खेद है, इनमें से अब कोई रचना उपलब्ध नहीं। केवल भट्टावतार का बाणासुरवध प्राप्त हुआ है जो हरिवंश में वर्णित उषा अनिरुद्ध की प्रणयगाथा पर आधारित होते हुए भी स्वतंत्र रचना है, विशेषकर छंदयोजना में। इस काल की एक ही और रचना मिलती है; सुल्तान के पोते हसनशाह के दरबारी कवि गणक प्रशस्त का सुख-दु:खचरित जिसमें आश्रयदाता की प्रशस्ति के पश्चात् जीवन की रीतिनीति का प्रतिपादन है।
गीतिकाल (1550-1750 ई.)
लोकजीवन के हर्षविषाद का विश्वजनीन भावचित्रण इस गतिप्रधान काल की मनोरम विशेषता है। इसके "अर्थ" और "इति" "अब" खातून (16वीं शती) और अ"रिनिमाल (18वीं शती) हैं जिनके वेदनागीतों में लोकजीवन के विरह मिलन का वह करुण मधुर सरगम सुनाई पड़ता है जो एक का होते हुए भी प्रत्येक का है। 1600 ई. के आसपास इस सरगम से सूफी रहस्यवाद का स्वर भी (विशेषकर हबीबुल्लाह नौशहरी) की गीतिकाओं में फूट पड़ा और 1650 ई. के लगभग (साहिब कौल के कृष्णावतार में) लालाकाव्य की भी उद्भावना हुई। "सूफ़ियाना कलाम" का अधिकांश इसी काल में रचा हुआ जान पड़ता है। छंदोविधान में नए प्रयोग भी इस काल की एक विशेष देन हैं।
प्रेमाख्यान काल (1750-1900 ई.)
इस काल में प्रबंध और प्रगीत के संयोजन से पौराणिक प्रणयकाव्य और प्रेममार्गा (सफी) मसनवी काव्य परिपुष्ट हुए। एक ओर रामचरित, कृष्णलीला, पार्वतीपरिणय, दमयंती स्वंयवर आदि आख्यानों पर मार्मिक लीलाकाव्य रचे गए तो दूसरी ओर फारसी मसनवियों के रूपांतरण के अतिरिक्त अरबी, उर्दू और पंजाबी प्रेमाख्यानों से भी सामग्री ली गई; साथ ही कुछ ऐसे धार्मिक प्रगीतों की भी रचना हुई जिनमें लौकिक तथा अलौकिक प्रेम के संश्लिष्ट चित्रण के साथ-साथ पारिवारिक वेदना का प्रतिफलन भी हुआ है। इस काल की रचनाओं में विशेष उल्लेखनीय ये हैं-रमज़ान बट का अकनंदुन; प्रकाशराम का रामायन; महमूद गामी के शीरीन खुसरव, लैला मजनूँ और युसुफ जुलेखा; परमानंद के रादा स्वयंवद, शेविलगन और सो"दामचर्यथ; वलीउल्लाह मत्तू तथा जरीफ़शाह की सहकृति होमाल; मक़बूल शाह क्रालवारी की गुलरेज; अज़ीज़ुल्लाह हक्कानी की मुमताज़ बेनज़ीर; कृष्ण राज़दान का श"वलगन; तथा ल"ख्ययन बठ नागाम "बुलबुल" का नलदमन।
आधुनिक काल (1900)
इस काल में कश्मीर के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन ने भी आधुनिकता की अँगड़ाई ली और भारत के दूसरे प्रदेशों की (विशेषकर पंजाब की) साहित्यिक प्रगति से प्रभावित होकर यहाँ के कवियों ने भी नई जागृति का स्वागत किया। धीरे-धीरे कश्मीरी कविता का राष्ट्रीय स्वर ऊँचा होता गया और सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन की नई गतिविधि का सजीव संगीत भी गूँज उठा। वहाब परे के शाहनामा, मक़बूल के ग्रीस्त्यनामा और रसूल मीर की गजल ने इस जागरण काल की पूर्वपीठिका बाँधी, महजूर ने इसकी प्रभाती गाई और आजाद ने नवीन चेतना देकर इसे दूसरे प्रदेशों के भारतीय साहित्य का सक्रिय सहयोगी बना दिया।
उत्तरोत्तर विकास की दृष्टि से इस आधुनिक काल के चार चरण हैं :
- (1) 1900-1920
- (2) 1920-1931
- (3) 1931-1947
- (4) 1947-से आगे
पहले चरण में सूफी पदावली की घिसी पिटी परंपरा ने ही मानववाद की हल्की सी गँज पैदा की और ऐतिहासिक (इतिवृत्तात्मक) मसवनियों ने अपने युग का परोक्ष चित्रण भी प्रतिबिंबित किया। दूसरे चरण में देशभक्ति की भावना अँगड़ा उठी और तीसरे में राजनीतिक तथा राष्ट्रीय चेतना का निखार हुआ तथा मानववाद का स्वर ऊँचा होता गया। चौथे चरण में कश्मीरी कविता ने नई करवटें लीं। पहले दो वर्षों तक शत्रु के प्रतिरोध और नई आजादी के संरक्षण की उमंग ही गूँजती रही। उसके पश्चात् नए कश्मीर के निर्माण की मूलभूत अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए आर्थिक प्रजातंत्र की स्थापना और विश्वशांति की प्रतिष्ठा पर जोर दिया जाने लगा। ऐसे महत्वपूर्ण विषयों पर कविताएँ ही नहीं, गीतिनाट्य और नृत्यगीत भी रचे गए। लोकगीतों की शैली को अपनाने के नए-नए प्रयोग भी हुए और छंदोविधान में भारी परिवर्तन आया। दूसरे चरण में प्रकृतिचित्रण की जो प्रवृत्ति जाग उठी थी वह उस चौथे चरण में एक नई कलात्मकता के अनुप्राणित हुई और प्राकृतिक परिवेश में सामाजिक सांस्कृतिक चित्रण की एक संश्लिष्ट शैली का विकास हुआ। "महजूर" और "आजाद" के बाद "मास्टर जी", "आरिफ़", "नादिम", "रोशन", "राही", "कामी", "प्रेमी" और "अलमस्त" ने इस दिशा में विशेष योग दिया। आजकल "फिराक़", "चमन", "बेकस", "आज़िम", "कुंदन", "साक़ी" और "ख़्याल" विशेष साधानाशील हैं। "फ़ाज़िल", "अंबारदार" और "फ़ानी" भी अपने-अपने रंग में प्रगीतों की सर्जना कर रहे हैं।
कश्मीरी गद्य पत्रकारिता के अभाव से विकसित नहीं हो पा रहा है। रेडियों और कुछ (अल्पायु) मासिकों का सहारा पाकर यद्यपि नाटक, कहानी, वार्ता और निबंध अवश्य लिखे जा रहे हैं; पर जब तक कश्मीरी का कोई दैनिक साप्ताहिक नहीं निकलता, कश्मीरी गद्य का विकास संदिग्ध ही रहेगा। फिर भी, लिखनेवालों की कमी नहीं है। कहानीकारों में अख़्तर मुहीउद्दीन, अमीन कामिल, सोमनाथ जुत्शी, अली मुहम्मद लोन, दीपक काल, अवतारकृष्ण रहबर, सूफ़ी गुलाम मुहम्मद, हृदय कौल भारती, उमेश कौल और बनसी निर्दोष विशेष सक्रिय हैं। नाटककारों में "रोशन", "जुत्शी", "लोन", पुश्कर भान और "कामिल" तथा उपन्यासकारों में "अख़्तर", "लोन" और "कामिल" के नाम लिए जा सकते हैं। प्रकाशन की सुविधा मिले तो बीसों उपन्यास छप जाएँ। कश्मीरी भाषा को स्कूलों के शिक्षाक्रम में अभी समुचित स्थान नहीं मिल सका है। कश्मीरी भाषा और साहित्य के समुचित विकास में यह एक बहुत बड़ी बाधा है।
कश्मीरी लेखक
संस्कृत लेखक
कश्मीरी लेखक
- लल्लेश्वरी
- हब्बा खातून
- अर्णिमाल
- दीना नाथ नादिम
- रहमान राही
- रूप भवानी
- रसूल मीर
- महमूद गामी
- परमानन्द
- गुलाम अहमद महजूर
- अब्दूल अहद आज़ाद
- मोती लाल केम्मू
उर्दू लेखक
हिन्दी लेखक
सन्दर्भ
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- ↑ Dwijendra Narayan Jha (edited by), The feudal order: state, society, and ideology in early medieval India, Manohar Publishers & Distributors (2000), p. 276
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- कश्मीरी भाषा का भाषाशास्त्रीय अध्ययन (गूगल पुस्तक ; लेखक - त्रिलोकीनाथ गंजू)