एकात्म मानववाद (भारत)
एकात्म मानववाद मानव जीवन व सम्पूर्ण सृष्टि के एकमात्र सम्बन्ध का दर्शन है। इसका पूर्ण वैज्ञानिक विवेचन पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने किया था। एकात्म मानववाद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मार्गदर्शक दर्शन है। यह दर्शन पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा 22 से 25 अप्रैल, 1965 को मुम्बई में दिये गये चार व्याख्यानों के रूप में प्रस्तुत किया गया था।
परिचय
भारतीय जनसंघ के इतिहास में यह ऐतिहासिक घटना 1965 के विजयवाड़ा अधिवेशन में हुई। इस अधिवेशन में उपस्थित सभी प्रतिनिधियों ने करतल ध्वनि से एकात्म मानव दर्शन को स्वीकार किया। इसकी तुलना साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद से नहीं की जा सकती। एकात्म मानववाद को किसी वाद के रूप में देखना भी नहीं चाहिए। इसे हम एकात्म मानव दर्शन कहें तो ज्यादा उचित होगा, किन्तु आधुनिक पद के चलते यह एकात्म मानववाद के रूप में प्रचलित है।[१]
एकात्म मानववाद एक ऐसी धारणा है जो सर्पिलाकार मण्डलाकृति द्वारा स्पष्ट की जा सकती है जिसके केंद्र में व्यक्ति, व्यक्ति से जुड़ा हुआ एक घेरा परिवार, परिवार से जुड़ा हुआ एक घेरा -समाज, जाति, फिर राष्ट्र, विश्व और फिर अनंत ब्रम्हांड को अपने में समाविष्ट किये है। इस अखण्डमण्डलाकार आकृति में एक घातक में से दूसरे फिर दूसरे से तीसरे का विकास होता जाता है। सभी एक-दूसरे से जुड़कर अपना अस्तित्व साधते हुए एक दुसरे के पूरक एवं स्वाभाविक सहयोगी है। इनमे कोई संघर्ष नहीं है।
सन्दर्भ
- ↑ दीनदयाल जी कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकते स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। (राजनाथ सिंह)
बाहरी कड़ियाँ
- एकात्म मानववाद (भाजपा की वेबसाइट पर)
- पं. दीनदयाल उपाध्याय : भारतीय संस्कृति और एकात्म मानव दर्शन (देशबन्धु)
- पंडि़त दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद (छत्तीसगढ़ शब्द)