आल्हा (गायन)
को अनुप्रेषित:
आल्हा वीरगाथाओं के लेखन और गायन की एक शैली है। इसमें रचा गया परमाल रासो का आल्ह खण्ड बहुत लोकप्रिय हुआ। आल्हा छन्द में लिखी आल्हखण्ड की ये पंक्तियाँ आज भी नौजवानों की रगों में अद्भुत जोश भर देती हैं:
गाँव की चौपालों पर वर्षा ऋतु में आल्हा का आनन्द सभी युवा, बाल और बृद्ध मिलकर उठाते हैं।[१]
आल्हा का संकलन व प्रकाशन
फर्रुखाबाद में १८६५ ई० में वहाँ के तत्कालीन कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने अनेक भाटों की सहायता से इसे लिखवाया था। सर जार्ज ग्रियर्सन ने बिहार में (इण्डियन) एण्टीक्वेरी, भाग १४, पृष्ठ २०९, २२५ और विसेंट स्मिथ ने बुन्देलखण्ड लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, भाग ९, १, पृ० ५०२ में भी आल्हखण्ड के कुछ भागों का संग्रह किया था। इलियट के अनुरोध पर डब्ल्यू० वाटरफील्ड ने उनके द्वारा संग्रहीत आल्हखण्ड का अंग्रेजी अनुवाद किया था, जिसका सम्पादन ग्रियर्सन ने १९२३ ई० में किया। वाटरफील्डकृत अनुवाद "दि नाइन लाख चेन" अथवा "दि मेरी फ्यूड" के नाम से कलकत्ता-रिव्यू में सन १८७५-७६ ई० में प्रकाशित हुआ था।
आल्हा शैली
यह आल्हा-ऊदल के वीरतापूर्ण व्यक्तित्व की मनोरम गाथा है जिसमें उत्साह और गौरव की मर्यादा का सुन्दर ढँग से निर्वाह किया गया है। इसने जनता की सुप्त भावनाओं को सदैव गौरव के गर्व से सजीव रखा है।[२]
पं० ललिता प्रसाद मिश्र ने अपने ग्रन्थ आल्हखण्ड की भूमिका में आल्हा शैली के बारे में लिखा है -
- "१२वीं विक्रमीय शताब्दी से लेकर १३वीं शताब्दी के पुर्वार्द्ध तक की सदी वीरों की सदी थी। आल्हा छन्द में लिखी उस समय की अलौकिक वीरगाथाओं को तब से लेकर आज तक लोग गाते चले आ रहे हैं। मजे की बात यह है कि कायर तक आल्हा सुनकर जोश से भर जाते हैं। यूरोपीय महायुद्ध में सैनिकों को रणमत्त करने के लिये ब्रिटिश गवर्नमेण्ट को भी इसी (आल्हा शैली) का सहारा लेना पड़ा था।"[३]
सन्दर्भ
- ↑ साँचा:cite book
- ↑ साँचा:cite book
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
बाहरी कड़ियाँ
- राष्ट्रीय चेतना का पहला महाकाव्य 'आल्हा'
- खो गए हैं कहीं आल्हा के स्वर
- आल्हा (विकीस्रोत पर)
- स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।