हल्दीघाटी

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

स्क्रिप्ट त्रुटि: "about" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।

Haldighati main battle ground Rakt Talai
हल्दीघाटी का युद्ध

साँचा:infobox

दर्रे में हल्दी रंग की मिट्टी

हल्दीघाटी का दर्रा इतिहास में महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच हुए युद्ध के लिए प्रसिद्ध है। यह राजस्थान में एकलिंगजी से 18 किलोमीटर की दूरी पर है। यह अरावली पर्वत शृंखला में खमनोर एवं बलीचा गांव के मध्य एक दर्रा (pass) है। यह राजसमन्द और पाली जिलों को जोड़ता है। यह उदयपुर से ४० किमी की दूरी पर है। इसका नाम 'हल्दीघाटी' इसलिये पड़ा क्योंकि यहाँ की मिट्टी हल्दी जैसी पीली है।[१] इसे राती घाटी भी कहते हैं।

हल्दीघाटी का युद्ध

हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 ई. को खमनोर एवं बलीचा गांव के मध्य तंग पहाड़ी दर्रे से आरम्भ होकर खमनोर गांव के किनारे बनास नदी के सहारे मोलेला तक कुछ घंटों तक चला था। युद्ध में निर्णायक विजय किसी को भी हासिल नहीं हो सकी थी। इस युद्ध मे महाराणा प्रताप के सहयोगी राणा पूंजा का सहयोग रहा ।इसी युद्ध में महाराणा प्रताप के सहयोगी झाला मान, हाकिम खान,ग्वालियर नरेश राम शाह तंवर सहित देश भक्त कई सैनिक देशहित बलिदान हुए। उनका प्रसिद्ध घोड़ा चेतक भी मारा गया था। अब यहां मुख्य रूप से देखने योग्य युद्ध स्थल रक्त तलाई,शाहीबाग,हल्दीघाटी दर्रा,प्रताप गुफा,चेतक समाधी एवं महाराणा प्रताप स्मारक देखने योग्य है। युद्धभूमि रक्त तलाई में शहीदों की स्मृति में बनी हुई है। भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित सभी स्थल निःशुल्क दर्शनीय है। सरकारी संग्रहालय नहीं होने से यहाँ निजी प्रतिष्ठान द्वारा हल्दीघाटी से 3 किलोमीटर दूर बलीचा गांव में संग्रहालय के नाम पर 100 रुपया प्रवेश शुल्क लेकर व्यापारिक मॉडल बना रखा है। पर्यटकों को मूल स्थलों से भ्रमित किया जाना सोचनीय है।

भारतीय इतिहास में लड़ाई का समग्र स्थान और महत्व

ऐसा कहा जाता है कि हल्दीघाट की लड़ाई के बाद, राणा प्रताप मुगलों पर हमला करते रहे, जिसे गुरिल्ला युद्ध की तकनीक कहा जाता है। वह पहाड़ियों में रहे और वहाँ से बड़े मुगल सेनाओं को अपने शिविरों में परेशान किया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि मेवाड़ में मुगल सैनिक कभी भी शांति से नहीं रहेंगे। प्रताप को पहाड़ों में उनके ठिकानों से बाहर निकालने के लिए अकबर की सेना द्वारा तीन और अभियान चलाए गए, लेकिन वे सभी विफल रहे। उसी दौरान, राणा प्रताप को भामाशाह नामक एक शुभचिंतक से वित्तीय सहायता मिली। भील आदिवासियों ने जंगलों में रहने के लिए अपनी विशेषज्ञता के साथ प्रताप को सहायता प्रदान की। झुलसी हुई धरती का उपयोग करते हुए युद्ध के लिए उनकी अभिनव रणनीति, दुश्मन के क्षेत्रों में लोगों की निकासी, कुओं का ज़हर, अरावली में पहाड़ी किलों और गुफाओं का उपयोग, लगातार लूटपाट, लूटपाट और दुश्मन के कैंपों को ध्वस्त करने में मदद मिली, जिससे उन्हें बहुत राहत मिली। मेवाड़ के प्रदेशों को खो दिया। उन्होंने राजस्थान के कई क्षेत्रों को मुग़ल शासन से मुक्त कर दिया। साल बीतते गए और 1597 में प्रताप की शिकार की दुर्घटना में मृत्यु हो गई। उन्होंने अपने बेटे अमर सिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाया।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ