मृत्तिकाशिल्प

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चीनी पोर्सलीन का पात्र (किंग वंश, १८वीं शती)
खपरैल
मेक्सिको से प्राप्त योद्धा की मृतिकाशिल्प (तीसरी शती ईसापूर्व से चौथी शती ई के बीच)

मृत्तिकाशिल्प 'सिरैमिक्स' (ceramics) का हिन्दी पर्याय है। ग्रीक भाषा के 'कैरेमिक' का अर्थ है - 'कुंभकार का शिल्प'। अमरीका में मृद भांड, दुर्गलनीय पदार्थ, कांच, सीमेंट, एनैमल तथा चूना उद्योग मृत्तिकाशिल्प के अंतर्गत हैं। गढ़ने तथा सुखाने के बाद अग्नि द्वारा प्रबलित मिट्टी या अन्य सुधट्य पदार्थ की निर्मिति को यूरोप में 'मृत्तिका शिल्प उत्पादन' कहते हैं। मृत्पदार्थो के निर्माण, उनके तकनीकी लक्षण तथा निर्माण में प्रयुक्त कच्चे माल से संबंधित उद्योग को हम मृत्तिकाशिल्प या सिरैमिक्स कहते हैं।

मिट्टी के उत्पाद अनेक क्षेत्रों में, जैसे भवन निर्माण तथा सजावट, प्रयोगशाला, अस्पताल, विद्युत उत्पादन और वितरण, जलनिकास मलनिर्यास, पाकशाला, ऑटोमोबाइल तथा वायुयान आदि में काम आते हैं।

मिट्टी के बर्तनों का वर्गीकरण

बौरी (Bourry) ने मिट्टी के बर्तनों को दो वर्गो में रखा है:

  • पारगम्य, जो जलशोषक हैं, तथा
  • अपारगम्य जो अत्यलप जलशोषक या बिलकुल अशोषक हैं।

पारगम्य तथा अपारगम्य, दोनों ही काचित (glazed) या अकाचित (unglazed) हो सकते हैं। अधिक वैज्ञानिक वर्गीकरण इस प्रकार है:

(1) टेराकोटा (Terracota) - 1,000° सें0 या इससे कम ताप पकाए, लाल या पांडु मिट्टी के सरंध्र तथा अकाचित बरतन टेराकोटा हैं। ईंट तथा छाजन के खपरैल टेराकोटा के उदाहरण हैं।

(2) मिट्टी के सामान (Earthenware) - इस वर्ग में वे समान आते हैं जो सफेद या रंगीन मिट्टी के बने, सरंध्र तथा लुक (glaze) के आवरण चढ़े होते हैं। इसके उदाहरण फ्रांस के फेयेंस (Faience), मेंजोलिका, लौह पाषाण, चकमक तथा रॉकिघम पात्र हैं। भारत में खुर्जा के नीले बरतन, चुनार के भूरे बरतन, बंगाल पॉटरीज, कलकत्ता, जामनगर तथा ग्वालियर के सफेद बरतन, इसी श्रेणी में आते हैं।

(3) पाषाण भांड (stoneware) - सफेद या रंगीन पकी हुई मिट्टी के काचित वा अपारदर्शी बरतनों को पाषाण भांड़ कहते हैं। सफेद बरतनों पर प्राय: पोर्सिलेन जैसा और रंगीन बरतनों पर भूरा या पीताभ भूरा काच होता है। निकास नलों पर लवण काच होता है।

(4) पोर्सिलेन - श्वेत, अपारगम्य, काचित तथा काट (section) में पारभासक बरतन इस वर्ग में आते हैं। इस वर्ग के निम्नलिखित उपवर्ग हैं:

(क) कठोर पोर्सिलेन - यह साधारणतया चीनी मिट्टी (kaolin), सुघट्य (ball clay), स्फटिक तथा फेलस्पार से बनता है। यह पहले 900° सें, या इससे कम ताप पर, हल्का बादामी (biscuit) तथा दूसरी बार 1,300° सें या इससे कम ताप पर पकाया जाता हे। इस पर अत्यंत कठोर काच होता है। रासायनिक पोर्सिलेन और भी कठोर होता है तथा अधिक उच्च ताप पर पकाया जाता है।
(ख) मृदु पोर्सिलेन - इसमें 20 प्रतिशत फ्रट या कांच, पिचर (पोर्सिलेन के टुकड़े) मिले रहते हैं। पहले 1,200 सें पर हल्का बादामी तथा बाद में 1,050°-1,150° सें पर पकाते हैं।
(ग) अस्थि पोर्सिलेन (Bone China) - इसमें काच, फ्रट आदि के स्थान पर अस्थिराख होती है। अस्थिराख की मात्रा 20 से 40 प्रति शत हो सकती है। इसे पहले 1,200° सें पर हलका बादामी तथा दूसरी बार 1,000°-1,100° सें पर पकाते हैं।
(घ) पेरियन पोर्सिलेन (Perion Porcelain) - यह साधारणतया चीनी मिट्टी, फेल्स्पार, तथा अल्प ज़िंक ऑक्साइड से सफेदी आती है। यह एक ही बार 1,250° सें पर पकाया जाता है तथा बेकाचित होता है। यह अधिकतर खिलौने तथा मूर्ति निर्माण के काम आता है।
(ङ) मैग्ना पोर्सिलेन (Magna China) - मिट्टी फेलस्पार, स्फटिक के अतिरिक्त सागरजल से प्राप्त अवक्षिप्त मैग्नीशियम हाइड्रॉक्साइड से बनाया जाता है। यह बिलकुल सफेद तथा आकर्षक होता है। इसे पहले ऊँचे ताप पर तथा दूसरी बार कम ताप पर पकाया जाता है।

(5) ऊष्मसह (Refractory) - इस शब्द से सरंध्र तथा अकाच उत्पादों का बोध होता है। ये बहुत ऊँचे ताप पर भी चटखते नहीं। इनका निर्माण अग्निसह मिट्टी और अन्य अग्निसह पदार्थो से होता है। ये उत्पादन भट्ठियाँ बनाने के काम आते हैं।

(6) विशेष उच्चतापसह बरतन - विशेष उच्चतापसह बरतनों में मिट्टी के स्थान पर कोई अन्य सुघट्य पदार्थ होता है। प्रधानतया ऐल्यूमिना तथा जर्कोनिया का उपयोग होता है। उदाहरण के लिये स्फुलिंग प्लग (sparking plug) का कलेवर ऐल्युमिना का होता है। अम्ल की अभिक्रिया से ऐल्युमिना सुघट्य बनाया जाता है। जेट वायुयानों में प्रयुक्त होने वाला थर्मेट्स या सर्मेट्स भी ऐसा ही है।

मृत्तिकाशिल्प का संक्षिप्त इतिहास

मृत्तिका शिल्प अति प्राचीन उद्योग है। मिट्टी के बरतन कब से आग में पकाए जाने लगे, इसका ठीक पता नहीं लगता। नील की घाटी की खुदाई में उपलब्ध पकी हुई मिट्टी के बरतन अनुमानत: 13,000 वर्ष पुराने हैं। इंग्लैड, बेल्जियम तथा जर्मनी की खुदाई से ज्ञात हुआ है कि हिमनदी अवधि में मिट्टी के बरतन हाथ से बनाए और बाद में पकाए जाते थे। इन सूत्रों से सिद्ध होता है कि 1,500 ई0 पू0 से ही मिट्टी के बरतन चले आ रहे हैं।

मृत्तिका शिल्प के विकास का तैथिक विवरण निम्नलिखित है:

विधि या तकनीकी क्रमिक विकास का काल देश जहाँ विकास पहले हुआ
चिकनी मिट्टी का प्रयोग 15,000 ई0 पू0 विश्व में सर्वत्र
मिट्टी के बरतनो का फूँका जाना 15,000 से 13,000
काचित बरतन उद्योग 5,000 ई0 पू0 मिस्र (2,700 ई0 पू0, चीन)
नीली तथा हरी चमक 3,500 ई0 पू0 1. मिस्त्र ; 2. बेबिलोनिया ; 3. एसीरिया ; 4. मीडिया की राजधानी एक्लिआताना ; 5. पर्सिया
कुम्हार का चाक 3,000 ई0 पू0 या और भी अधिक विश्व में स्वतंत्र रूप से सर्वत्र
ईटं, खपरैल, लाल मिट्टी के पाषाण बरतन नल तथा स्नान कुंड 800 ई0 पू0 रोम तथा उसके उपनिवेश
लोहा, मैंगनीज, मैग्नीशियम तथा लकड़ी के कोयले का कलेवर में उपयोग 800 ई0 पू0 रोम तथा उसके उपनिवेश
कठोर पोर्सिलेन (अपार दर्शी श्वेत) 185 ई0 पू0 चीन
कठोर पोर्सिलेन (पारभासी) 581 ई0, 1708 ई0 1.चीन ; 2. यूरोप, जर्मनी, वॉटशर
मृदु पोर्सिलेन, पारभासी 1670 ई0, 1693ई0 1. इंग्लैंड (ड्वाइट) ; 2. फ्रांस (चिकैनियन)
अस्थि पोर्सिलेन (पारभासी) 18 वीं शताब्दी इग्लैंड (शेल्टनका एस्टबरी)
स्लिप कस्टिग प्रोसेस - इंग्लैंड
ट्रांसफर डेकोरेशन 1752 ई0 इंग्लैंड (जॉन सैड्लर तथा गाय्‌ ग्रीन)
प्लास्टर साँचे 18 वीं शती इंग्लैंड
माजोंलिका 12 वीं शती मजोलिका द्वीप स्पेन (17 वीं शती, इंग्लैंड)
फेयेंस 16 वीं शती डच
लवण काचित नल 12 वीं शती जर्मनी (17 वीं शती, इंग्लैंड)
उच्च ताप शंकु (Seger Cone) 19 वीं शती जर्मनी (एच0 ए0 सेगर)
मैग्ना पोर्सिलेना 1952 ई0 जापान (सैगो चाइना)

भारतीय मृत्तिका शिल्प

मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा की खुदाई में सिंधु घाटी (3,000 ईसा पूर्व) काल के मिट्टी के बरतन उपलब्ध हुए है। इसमें घेरलू तथा कर्मकांड के सभी प्रकार के बरतन है। बरतनो पर सुंदर नक्काशी तथा रंगीन चित्र हैं। उन पर बनी आकृतियाँ ज्यामितीय तथा बरतन की आकृति के अनुरूप है। इसके अतिरिक्त पकी मिट्टी के खिलौने है, जो तत्कालीन शिल्प का परिचय देते है। भारत के अन्य एतिहासिक स्थलों मे खुदाई से प्राप्त भग्नावशेष कृतित्व और सौंदर्य मे नवपाषाणयुगीन विदेशी कक्षा के समकक्ष हैं।

मोहनजोदड़ो के काचित बरतन प्राचीनतम है। कुछ अवशेष तो इतने पुराने है कि मेसोपोटामिया या अन्यत्र कहीं भी वैसे उपलब्ध नहीं है। यह उद्योग कुछ काल के लिये भारत से लुप्त हो गया और कुषाण काल में पुन: पल्लवित हुआ। तब से काचन कला कभी नष्ट नहीं हुई, यद्यपि उसका और उत्कर्ष होता रहा।

हिंदू कुम्हारों की प्रतिभा घरेलू पात्रों के उत्पादन तक सीमित थी। मिट्टी के बरतनों का खानपान में उपयोग न होने से काचित पात्रो का विकास न हो सका।

मुसलमानों ने काचित खपरैल तैयार कर काचन कला का उत्कर्ष किया। 13 वीं शताब्दी में चगेंज खाँ के साथ काचित पदार्थ भारत में आए। कुछ कुम्हार तैमूरलंग के साथ भारत में आकर दिल्ली, मुलतान, कसूर, खुर्जा, जयपुर, रामपुर तथा सिंध में बस गए और मिट्टी के नीले बरतनो का व्यवसाय अपनाया। खुर्जा में ताम्ररहित, गहरा नीला तथा फिरोजी चित्रों से सज्जित मिट्टी के बरतन बनाने का उद्योग 1929 ई0 तक चला। स्थानीय लाल मिट्टी की निर्मितियों पर सफेद मिट्टी का आवरण (तकनीकी नाम 'एनगोव') चढ़ाया जाता था। हैदराबाद, बड़ोदा तथा गवर्नमेंट पॉटरी डेवलपमेंट सेंटर, खुर्जा के संग्रहालयों मे ऐसे मिट्टी के बरतन है। उभरी हुई नक्काशी वाला एक पात्र खुर्जा के पात्रों मे आर्कषण का क्रेंद है। सिंध भी मिट्टी के काचित बरतनों के लिए प्रसिद्ध है।

पेशावर, चुनार, निजामाबाद तथा वेल्लोर के मिट्टी के बरतन तकनीकी दृष्टि से विदेशी प्रभाव से मुक्त थे। पेशावर के कुंभकार एनगोव तकनीक का भी प्रयोग करते थे। लाल मिट्टी के कलेवर को खैबर की सफेद मिट्टी से लेपकर लेड ऑक्साइड के लुक मे डुबाया जाता था, पंरतु सजावटी, बिन पके मिट्टी के बरतनो पर मैंगनीज निर्मित रंग से खाका खीचंकर, ताम्र निर्मित रसायन से भर दिया जाता था। लाल रंग लोह ऑक्साइड से और काला एक काले खनिज से प्राप्त होता था। लोह ऑक्साइड और खनिज खैबर से मिल जाते थे। नीला रंग कोबाल्ट से प्राप्त होता था। पेशावर का उत्पादन इग्लैंड, रुस, हॉलैंड तथा चीन के कलात्मक उत्पादों के जोड़-तोड़ का होता था।

मर्तबान, चिलम, लोटे तथा प्याले लाहौर के प्रमुख उत्पादन थे। मर्तबान का आकार और रूपांकन वर्मा से प्रभावित था। जालंधर में भी कुछ अच्छे काचित बरतन बनते थे। गुजरावाला पतले काट के बरतनों के लिये, जिन्हें कागजी बरतन कहते थे, प्रसिद्ध था।

प्राचीन दक्षिण भारत के कलात्मक, मृत्तिका शिल्प उत्पादों में नक्काशीदार आभूषणों से सज्जित, पक्वमृद्भांड उल्लेखनीय हैं। उन दिनों मानव आवासों के निकट पवित्र खाँचों मे मिट्टी के विशालकाय जीवों को प्रतिष्ठित करने की प्रथा थी। ये जीव आज भी कहीं-कहीं देखे जाते है। 14वीं शताब्दी के बाद घरों और देवालयो मे मिट्टी की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा होने लगी। वेल्लोर में उजली मिट्टी के उत्पादों पर आकर्षक हरे तथा नीले रंग का काँच होता था। दक्षिण भारत के मृद्भांड के अन्य केंद्र मदुरै, उदयगिरि, सेलम तथा विशाखापत्तनम्‌ है।

भारत में उच्चतापीय श्वेत भांडो का निर्माण 20वीं शती मे प्रारंभ हुआ। श्री डी0 सी0 मजुमदार ने ग्वालियर में पहली फैक्टरी स्थापित की। इसके बाद कई फैक्टरियाँ स्थापित हुई। बर्न एण्ड कम्पनी ने सन्‌ 1859 मे उष्मसह ईटें बनाई। 1909 ई0 में 'टाटा आयरन एण्ड स्टील वर्क्स' की स्थापना के बाद देश भर में उष्मसह निर्माण फैक्टरियाँ फैल गई।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने भारत में सर्वप्रथम मृद्भांड उद्योग की शिक्षा की व्यवस्था की। 'सेंट्रल ग्लास एण्ड सिरेमिक रिसर्च इंस्टिट्यूट', 'सेंट्रल पॉटरी ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट, खुर्जा', 'सिरैमिक इंस्टिट्यूट, कलकत्ता', 'गवर्नमेंट सिरैमिक फैक्टरी, गूडूर' तथा 'गवर्नमेंट डिमांस्ट्रेशन सेंटर, बेलगाँव' भारत की प्रमुख अनुसंधान तथा प्रशिक्षण संस्थाएँ हैं।

इन्हें भी देखें

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