रानाबाई

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हरनावा में रानाबाई की समाधि

रानाबाई अथवा वीराँगना रानाबाई (1504-1570) प्रसिद्ध जाट वीरबाला एवं कवयित्री थीं। उनकी रचनाएं राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में लोकप्रिय हैं। वह राजस्थान की दूसरी मीरा के रूप में जानी जाती है। वह संत चतुर दास (जो कि 'खोजीजी' के नाम से भी जाने जाते हैं) की शिष्या थीं।

रानाबाई का जन्म राजस्थान के नागौर जिले के हरनावा गांव में सन् 1543 में चौधरी जालमसिंह धूण के घर में हुआ।

रानाबाई ने राजस्थानी भाषा में कई कविताओं की रचना की थी। सारी रचनाएँ सामान्य लय में रची गई हैं। उनके गानों के संग्रह को 'पदावली' कहा जाता है। उनके द्वारा रचित पदों के गायन का माध्यम ठेठ राजस्थानी था। भक्त शिरोमणि रानाबाई के पिता श्री जालम सिंह खिंयाला गाँव से कृषि का लगान भरकर अपने गाँव हरनावां लौट रहे थे तो रास्ते में गेछाला नाम के तालाब में भूतों ने उन्हें घेर लिया और कहा कि आपकी पुत्री राना का विवाह बोहरा भूत के साथ करने पर ही आपको छोड़ा जायेगा। चिंताग्रस्त जालम सिंह ने अपनी पुत्री के विवाह की सहमति भूतों को दे दी। भूत समुदाय आंधी-तूफान के रूप में जालम सिंह के घर पहुँचा। भक्त शिरोमणि रानाबाई ने अपनी ईश्वरीय शक्ति से भूत समुदाय का सर्वनाश किया। रानाबाई ने विवाह नहीं करने का प्रण लिया।उन्होंने विक्रम संवत् 1627 को फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को जीवित समाधि ली। प्रत्येक मास की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को रानाबाई की धाम पर हरनावां गाँव में मेला भरता है। भाद्रपद और माघ मास के शुक्ल पक्ष की तेरस (त्रयोदशी) को राना मंदिर में भक्तों की अपार भीड़ रहती है। रानाबाई मंदिर के वर्तमान पुजारी श्री रामा राम धूण है। रानाबाई की तपोभूमि हरनावा पट्टी के दो जांबाजों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। शहीद श्री रामकरण थाकण ने मेघदूत ऑपरेशन के दौरान सन् 1991 में जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। वीर चक्र से सम्मानित शहीद श्री मंगेज सिंह ने कारगिल युद्ध के दौरान अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए देश के लिए प्राण न्योंछावर कर दिए।

क्यों प्रसिद्ध हुई रानाबाई ?

हरनावा पट्टी नागौर की रानाबाई ने गुरु खोजी जी के सान्निध्य में रहकर श्री राम की भक्ति की। भक्ति के कारण रानाबाई जी में ईश्वरीय शक्ति आ गई थी। एक बार बोरावड़ के मेड़तिया ठाकुर श्री राज सिंह जोधपुर दरबार का साथ देने के लिए बादशाह से युद्ध करने के लिए अहमदाबाद जा रहे थे, रास्ते में हरनावा गाँव में रुके।रानाबाई जी प्रसिद्धि सुनकर वे रानाबाई के दर्शन करने गए। रानाबाई जी गोबर से थेपड़ियाँ (कंडे) बना रही थीं। ठाकुर राज सिंह ने रानाबाई जी को प्रणाम करके पूछा कि क्या मैं बादशाह से युद्ध में विजय हो सकता हूँ तब रानाबाई जी ने गोबर के हाथ का छापा ठाकुर की पीठ पर लगा दिया जो केशरिया रंग में परिवर्तित हो गया। रानाबाई जी ने कहा कि जब थक आपको मेरा यह चूड़ा सहित हाथ दिखाई दे तो निश्चिंत होकर लड़ना, अवश्य जीत होगी। बोरावड़ दरबार बादशाह से युद्ध में विजय हो गये।खुशी के कारण रानाबाई जी को भूल गए। उन्होंने रानाबाई जी को वचन दिया था कि जब जीत जाऊँगा तो आपके पास आकर प्रणाम करके घर जाऊँगा। जब बोरावड़ दरबार मय सेना गढ़ के प्रवेश द्वार पर पहुँचे तो हाथी गढ़ में प्रवेश नहीं कर पाया। फिर ठाकुर राज सिंह रानाबाई के दर्शन करने हरनावा गए तथा बाई राना से क्षमा याचना की तो रानाबाई जी ने क्षमा किया। गढ़ के प्रवेश द्वार में अब आसानी से हाथी प्रवेश कर गया। यह कहा जाता है कि गोबर के हाथ का छापा (केशरिया रंग) वाला कुर्ता आज भी बोरावड़ के गढ़ में विद्यमान है।

आज भी रानाबाई जी की ईश्वरीय शक्ति भक्तों को देखने के लिए उस समय मिलती है जब प्रसाद के रूप में चढाए गए नारियल की ऊपरी परत (दाढ़ी) एकत्र होने पर स्वतः प्रज्वलित हो जाती है।

मुगल सेनापति का सिर काट दिया रानाबाई जी ने

रानाबाई जी अविवाहित सुन्दर कन्या थी। उनकी सुन्दरता से मोहित होकर मुगल सेनापति आक्रमण कर अपहरण करना चाह रहा था लेकिन रानाबाई जी ने 500 मुगल सैनिकों सहित सेनापति का सिर धड़ से अलग कर दिया। रानाबाई जी के मंदिर में सेवा तथा पूजा का कार्य उनके परिवार के लोग ही करते हैं। वर्तमान में पुजारी श्री रामाराम जी धूण है । रामा राम जी के पिताजी का नाम मोडू राम जी था। मोडू राम जी के पिताजी अर्थात् रामाराम जी के दादाजी का नाम चतराराम जी था। दादा जी हरदेव राम जी थाकण ने पिताजी को बताया कि रामाराम जी के दादाजी चतरा राम जी के साथ भी एक चमत्कारी घटना घटी थी। जब पुजारी चतरा राम जी अपने कुए पर बैलों द्वारा की जाने वाली सिंचाई के लिए गए। हुकम पुरा गांव की तरफ इनका कुआं था। क्योंकि पूजा और कृषि कार्य एक साथ नहीं हो सकते हैं। चतरा राम जी के दोनों हाथों की उंगलियां हथेली के चिपक गई, केवल अंगूठे ही खुले रहे। फिर आजीवन चतरा राम जी ने केवल सेवा कार्य को ही चुना।उनके अंगूठे खुले इसलिए रह गए थे कि वह नारियल की चिटक आराम से तोड़ सकते थे और रानाबाई जी भक्तों द्वारा लाए गए प्रसाद को चढ़ा देते थे। रामस्नेही रानाबाई की मान्यता आस-पास के क्षेत्रों में इतनी है कि रानाबाई नाम से व्यवसाय, संस्थान,परिवहन आदि चलते हैं। इतिहासकार विजय नाहर की पुस्तक "भक्तिमयी महासती रानाबाई हरनावां" में रानाबाई की बचपन से लेकर समाधि लेने तक की जीवन गाथाओं को प्रमाणित किया गया है। इसके अनुसार रानाबाई के पूर्वज जैसलमेर की और से आये।इनका गोत्र धुन था। रानाबाई मीराबाई के समकाल थी। एक समय ऐसा था जब दोनों ही वृन्दावन में थी एवं दोनों ने भगवान श्री कृष्ण का साक्षात्कार किया। भगवान् श्री कृष्ण ने दोनों को अपनी उपस्थिति निरंतर बनाये रखने का आश्वस्त करते हुए दोनों को अपनी एक एक मूर्ति दी। हालांकि रानाबाई व मीराबाई का वृन्दावन में आपस में मिलना नहीं हुआ।[१]

सन्दर्भ

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  • डॉ पेमाराम एवं डॉ विक्रमादित्य, जाटों की गौरवगाथा, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2004