युधिष्ठिर मीमांसक

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

महामहोपाध्याय पंडित युधिष्ठिर मीमांसक (१९०९ - १९९४) संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान्, वैयाकरण तथा वैदिक वाङ्मय के निष्ठावान् समीक्षक थे। उन्होने संस्कृत के प्रचार-प्रसार में अपना अमूल्य योगदान दिया।

परिचय

पं. युधिष्ठिर मीमांसक का जन्म राजस्थान के अजमेर जिलान्तर्गत विरकच्यावास नामक ग्राम में भाद्रपद शुक्ला नवमी सं. 1966 वि. तदनुसार 22 सितम्बर 1909 को पं॰ गौरीलाल आचार्य के यहाँ हुआ। पं॰ गौरीलाल सारस्वत ब्राह्मण थे तथा आर्यसमाज के मौन प्रचारक के रूप में आजीवन कार्य करते रहे। मीमांसकजी की माता का नाम श्रीमती यमुना देवी था। माता के मन में इस बात की बड़ी आकांक्षा थी कि उसका पुत्र गुरुकुल में अध्ययन कर सच्चा वेदपाठी ब्राह्मण बने। माता की मृत्यु उसी समय हो गई जब युधिष्ठिर केवल 8 वर्ष के ही थे, परन्तु निधन के पूर्व ही माता ने अपने पतिदेव से यह वचन ले लिया था कि वे इस बालक को गुरुकुल में अवश्य प्रविष्ट करायेंगे। तदनुसार 12 वर्ष की अवस्था में युधिष्ठिर को स्वामी सर्वदानन्द द्वारा स्थापित साधु आश्रम पुल काली नदी (जिला - अलीगढ़) में 3 अगस्त 1921 को प्रविष्ट करा दिया गया। उस समय पं॰ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं॰ शंकरदेव तथा पं॰ बुद्धदेव उपाध्याय, (धार निवासी) उस आश्रम में अध्यापन कार्य करते थे। कुछ समय पश्चात् यह आश्रम गण्डासिंहवाला (अमृतसर) चला गया। यहाँ उसका नाम विरजानन्दाश्रम रक्खा गया।

परिस्थितिवश दिसम्बर 1925 में पं॰ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु तथा पं॰ शंकरदेव 12-13 विद्यार्थियों को लेकर काशी चले गए। यहाँ एक किराये के मकान में इन विद्यार्थियों का अध्ययन चलता रहा। लगभग ढ़ाई वर्ष के पश्चात् घटनाओं में कुछ परिवर्तन आया जिसके कारण जिज्ञासुजी इनमें से 8-9 छात्रों को लेकर पुनः अमृतसर आ गए। कागज के सुप्रसिद्ध व्यापारी अमृतसर निवासी श्री रामलाल कपूर के सुपुत्रों ने अपने स्वर्गीय पिता की स्मृति में वैदिक साहित्य के प्रकाशन एवं प्रचार की दृष्टि से श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट की स्थापना की थी और इसी महत्त्वपूर्ण कार्य के संचालन हेतु उन्होंने श्री जिज्ञासु को अमृतसर बुलाया था। लगभग साढ़े तीन वर्ष अमृतसर में युधिष्ठिरजी का अध्ययन चलता रहा। कुछ समय बाद जिज्ञासुजी कुछ छात्रों को लेकर पुनः काशी लौटे। उनका इस बार के काशी आगमन का प्रयोजन मीमांसा दर्शन का स्वयं अध्ययन करने तथा अपने छात्रों को भी इस दर्शन के गम्भीर अध्ययन का अवसर प्रदान कराना था। फलतः युधिष्ठिरजी ने काशी रहकर महामहोपाध्याय पं॰ चिन्न स्वामी शास्त्री तथा पं पट्टाभिराम शास्त्री जैसे मीमांसकों से इस शास्त्र का गहन अनुशीलन किया तथा गुरुजनों के कृपा प्रसाद से इस शुष्क तथा दुरूह विषय पर अधिकार प्राप्त करने में सफल रहे।

मीमांसा का अध्ययन करने के पश्चात् युधिष्ठिरजी अपने गुरु पं॰ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु के साथ 1935 में लाहौर लौटे और रावी नदी के पार बारहदरी के निकट रामलाल कपूर के परिवार में आश्रम का संचालन करने लगे। भारत-विभाजन तक विरजानन्दाश्रम यहीं पर रहा। 1947 में जब लाहौर पाकिस्तान में चला गया, तो जिज्ञासुजी भारत आ गए। 1950 में उन्होंने काशी में पुनः पाणिनी महाविद्यालय की स्थापना की और रामलाल कपूर ट्रस्ट के कार्य को व्यवस्थित किया। पं॰ युधिष्ठिर भी कभी काशी, तो कभी दिल्ली अथवा अजमेर में रहते हुए ट्रस्ट के कामों मे अपना सहयोग देते रहे। उनका सारस्वत सत्र निरन्तर चलता रहा। दिल्ली तथा अजमेर में रहकर उन्होंने ‘‘भारतीय प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान’’ के माध्यम से स्वरचित ग्रन्थों का लेखन व प्रकाशन किया। इस बीच वे 1959-1960 में टंकारा स्थित दयानन्द जन्मस्थान स्मारक ट्रस्ट के अन्तर्गत अनुसंधान विभाग के अध्यक्ष भी रहे। 1967 से आजीवन वे बहालगढ़ (सोनीपत) स्थित रामलाल कपूर ट्रस्ट के कार्यों को सम्भाला। भारत के राष्ट्रपति ने इन्हें 1976 में संस्कृत के उच्च विद्वान् के रूप में सम्मानित किया तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी ने 1989 में उन्हें महामहोपाध्याय उपाधि प्रदान की। 1985 में आर्यसमाज सान्ताक्रुज बम्बई ने मीमांसकजी को 75000 रु. की राशि भेंटकर उनकी विद्वता का सम्मान किया।

कृतियाँ

पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने प्राचीन शास्त्र ग्रन्थों के सम्पादन के अतिरिक्त ऋषि दयानन्द कृत ग्रन्थों को आलोचनात्मक ढंग से सम्पादित करने का कार्य किया है। इसके अतिरिक्त उनके मौलिक ग्रन्थों की संख्या भी पर्याप्त है।

प्रमुख कृतियाँ
  • संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास
  • स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनके कार्य
  • श्रौत यज्ञ मीमांसा : संस्कृत तथा हिन्दी

महर्षि दयानन्द कृत ग्रन्थों का सम्पादन

  • ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका - इस ग्रन्थ का सम्पादन करते समय विद्वान् सम्पादन ने भूमिका के प्रायः सभा प्रकाशित संस्करणों का निरीक्षण एवं परीक्षण किया। विस्तृत तथा अनेक महत्त्वपूर्ण पाद टिप्पणियों से युक्त (2024 वि.)।
  • संस्कार विधि - वैदिक यन्त्रालय से प्रकाशित विभिन्न संस्करणों की पूरी छानबीन करने के पश्चात् संस्कारविधि का सम्पादित संस्करण (2023 वि.)।
  • सत्यार्थप्रकाश - अद्यतन प्रकाशित संस्करणों का तुलनात्मक परिशीलन करने के पश्चात् सहस्त्रों पाद-टिप्पणियों तथा अनेक उपयोगी अनुक्रमणिकाओं सहित (2029 वि.),
  • दयानन्दीय-लघुग्रन्थ संग्रह - इसमें स्वामीजी के अन्य लघुग्रन्थों के अतिरिक्त चतुर्वेद विषयसूची भी सम्मिलित की गई है। (2030 वि.)
  • संस्कृतवाक्यप्रबोध - इस ग्रन्थ के प्रथम संस्करण की मुद्रणजन्य त्रुटियों के कारण पं॰ अम्बिकादत्त व्यास ने ‘अबोध निवारण’ पुस्तक लिखकर संस्कृतवाक्यप्रबोध पर आक्षेप किये थे। मीमांसकजी के इस संस्करण में व्यासजी के कतिपय निरर्थक आक्षेपों का समुचित उत्तर देते हुए ग्रन्थ की ऐतिहासिक विवेचना की गई है। (2026 वि.)।
  • वेदांग प्रकाश - मीमांसकजी द्वारा सम्पादित वेदांगप्रकाश के इन संस्करणों को आर्य साहित्य मण्डल अजमेर ने प्रकाशित किया था।
  • पूना प्रवचन - पूना के व्याख्यानों के उपलब्ध पाठों का तुलनात्मक अनुशीलन तथा प्रामाणिक पाठ निर्धारण (2026 वि.)।

कालान्तर में इन प्रवचनों के मूल मराठी पाठ उपलब्ध होने पर मीमांसकजी ने सीधे मराठी से इन्हें अनूदित कर 1983 में प्रकाशित किया।

  • भागवत-खण्डनम् - वर्षों से अनुपलब्ध स्वामी दयानन्द की इस मूल संस्कृत कृति का उद्धार तथा सानुवाद सम्पादन।
  • ऋग्वेद भाष्यम् - तीन खण्डों में दयानन्द कृत ऋग्वेद भाष्य (मंडल 1, 105 सूक्त पर्यन्त) का सम्पादन।
  • यजुर्वेदभाष्य संग्रह - पंजाब विश्वविद्यालय की शास्त्री परीक्षा में नियत दयानन्दीय यजुर्वेद भाष्य के प्रासंगिक अंश का सम्पादन।
  • ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का इतिहास (2006 वि.),
  • परिवद्धित संस्करण (2040 वि.), दयानन्द निर्वाण शताब्दी के अवसर पर।

सम्पादित शास्त्र ग्रन्थ

  • यजुर्वेद संहिता (2017 वि.), माध्यन्दिन संहितायाः पदपाठ (2028 वि.)।

वेदांग शास्त्रों पर लेखन कार्य

  • शिक्षा सूत्राणि - आपिशलि, पाणिनी तथा चन्द्रगोमिन विचरित शिक्षा सूत्र (2005 वि.),
  • वैदिक स्वर मीमांसा (2014 वि.),
  • वैदिक वाङमय में प्रयुक्त स्वरांकन प्रकार (2021 वि.),
  • सामवेद स्वरांकन प्रकार (2021 वि.),
  • वैदिक छन्दोमीमांसा (2016 वि.),
  • निरुक्त समुच्चय (वररुचि प्रणीत) - इस ग्रन्थ का सम्पादन मीमांसक जी ने लाहौर निवास के समय किया था।

संस्कृत व्याकरण विषयक मौलिक तथा सम्पादित ग्रन्थ

  • संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास - 3 खण्ड (2007-2030 वि.),
  • क्षीर तरंगिणी - पाणिनीय धातुपाठ के औदीच्य पाठ पर प्रणीत टीका का सम्पादन ।
  • दशपादी उणादि वृत्ति (1043),
  • देवपुरुषकार वार्तिकोपेत (पाणिनीय-धातुपाठ के लिए उपयोगी ग्रन्थ)।
  • भागवृत्ति संकलनम् - अष्टाध्यायी की प्राचीन भागवृत्ति के उपलब्ध उद्धरणों का संकलन एवं सम्पादन।
  • काशकृत्स्न धातु व्याख्यानम् - आचार्य काशकृत्स्न के धातु व्याख्यान का कन्नड़ लिपि में उपलब्ध संस्करण तथा इस पर कन्नड़ भाषा में लिखित चन्नवीर कवि कृत टीका का संस्कृत भाषान्तर (2022 वि.),
  • काशकृत्स्न व्याकरण - इस व्याकरण के उपलब्ध 138 सूत्रों का संग्रह, व्याख्या सहित।
  • उणादि कोण - (सम्पादन),
  • संस्कृत धातुकोष - विस्तृत भाषार्थ सहित (2023 वि.)।
  • पातंजल महाभाष्यम् - हिन्दी व्याख्या दो भाग (1-2-4) (2029 वि.)। द्वितीय भाग (द्वितीयाध्याय) (2031 वि.)
  • शब्द रूपावली, धातुपाठ (2026 वि.)।

कर्मकाण्ड के ग्रन्थ

  • अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त श्रौतयज्ञों का संक्षिप्त परिचय (डॉ॰ विजयपाल के सहलेखन में, 1984),
  • श्रौतयज्ञमीमांसा (1987),
  • श्रौतपदार्थ निर्वचनम् (सम्पादन, 1984).
  • वैदिक नित्य कर्म विधि (2028 वि.)।

अन्य

  • संस्कृत पठन पाठन की अनुभूत सरलतम विधि, भाग 2 - इस ग्रन्थ का प्रथम भाग पं॰ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु ने लिखा था। द्वितीय भाग मीमांसकजी ने लिखा (2027 वि.)।
  • जैमिनीय मीमांसाभाष्यम् - मीमांसा दर्शन पर सुप्रसिद्ध शाबर भाष्य का हिन्दी अनुवाद तथा उस पर ‘आर्षमतविमर्शिनी’ नामक हिन्दी टीका लिखकर मीमांसकजी ने एक बड़े कार्य को पूरा किया है। अब तक यह भाष्य पांच खण्डों खण्डों में प्रकाशित हुआ है तथा प्रथम खण्ड में प्रथम अध्याय, द्वितीय में तृतीय अध्याय के प्रथम पाद पर्यन्त, तृतीय में तृतीय अध्याय की समाप्ति तक, चतुर्थ में पंचम अध्याय तक तथा पंचम खण्ड में षष्ठ अध्याय तक की व्याख्या लिखी गई हैं। इन खण्डों का प्रकाशन क्रमशः 2034, 2035, 2037, 2041 तथा 2043 वि. में हुआ।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें