मुंशी सदासुखलाल

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

मुंशी सदासुखलाल (1746 - 1824) हिन्दी लेखक थे। खड़ी बोली के प्रारंभिक गद्यलेखकों में उनका ऐतिहासिक महत्व है। फारसी एवं उर्दू के लेखक और कवि होते हुए भी इन्होंने तत्कालीन शिष्ट लोगों के व्यवहार की भाषा को अपने गद्य-लेखन-कार्य के लिए अपनाया। इस भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग करके भाषा के जिस रूप को इन्होंने उपस्थित किया, उसमें खड़ी बोली के भावी साहित्यिक रूप का आभास मिलता है। अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्त इन्होंने उस गद्य परम्परा का अनुसरण किया जो रामप्रसाद 'निरंजनी' तथा दौलतराम से चली आ रही थी।

जीवन परिचय

दिल्ली निवासी मुंशी सदासुखलाल सरल स्वभाव के हरिभक्त थे। सन्‌ 1793 के लगभग ये कंपनी सरकार की नौकरी में चुनार के तहसीलदार थे। बाद में नौकरी छोड़कर प्रयाग निवासी हो गए और अपना समय कथा वार्ता एवं हरिचर्चा में व्यतीत करने लगे। आपने श्रीमद्भागवद् का अनुवाद 'सुखसागर' नाम से किया। अपनी रचना 'मुतख़बुत्तवारीख' में अपना जीवनवृतान्त लिखा है।

भाषा शैली

खड़ी बोली का यह रूप 'भाखा' नाम से संबोधित किया जाता था। इसके प्रति इनका अगाध स्नेह था। इसीलिए फारसी मिश्रित गद्य की प्रतिष्ठा होते हुए देख इन्होंने खेद प्रकट करते हुए लिखा था 'रस्मोरिवाज भाखा का दुनिया से उठ गया'। लल्लू लाल तथा सदल मिश्र ने अंग्रेजों की अधीनता में फोर्ट विलियम कालेज में गद्यरचना की। इनकी तथा मुंशी इंशाउल्ला खाँ की स्वतंत्र रूप से 'स्वांतःसुखाय' गद्यरचना थी। इन चारों प्रारंभिक गद्यलेखकों की भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम देखते हैं कि लल्लूलाल की भाषा में ब्रजभाषा के रूपों की भरमार है। पद्यमय वाक्यविन्यास और तुकबंदियाँ होने के कारण वह व्यवहारानुकूल और संबद्ध विचारों को व्यक्त करने में यथेष्ट सक्षम नहीं है। यद्यपि मुंशी इंशाउल्ला खाँ ने 'हिंदवी छुट किसी बोली का पुट न रहे' के अपने कथनानुसार हिंदी के अतिरिक्त किसी भाषा का पुट न रखने का निश्चय किया था, फिर भी अपने लेखनकौशल के प्रदर्शन की धुन में चुलबुली भाषा में उर्दू के ढंग का वाक्यविन्यास रखने और सानुप्रास विराम की छटा दिखाने के लोभ का वे त्याग न कर सके। अतः इन चारों प्रारंभिक गद्यलेखकों में व्यवहारानुकूल गद्य लिखने का प्रयास सदासुखलाल तथा सदल मिश्र में ही दृष्टिगोचर होता है। परन्तु इन दोनों गद्यलेखकों में कुछ ऐसे दोष रह गए थे जिनसे इनकी गद्यपरंपरा का आगे अनुसरण न किया जा सका तथा इनका गद्य, गद्य साहित्य के इतिहास में ऐतिहासिक उल्लेख मात्र करने के लिए रह गया।

मुंशी सदासुखलाल की भाषा शिष्ट होते हुए भी पंडिताऊपन लिए हुए थी। उसमें 'जो है सो है' 'निज रूप में लय हूजिये' 'बहुत जाधा चूक हुई' स्वभाव करके दैत्य कहाए', 'उन्हीं लोगों से बन आवे है' जैसे रूपों का बाहुल्य है। इसी प्रकार सदल मिश्र की भाषा में पूर्वीपन है। उनकी भाषा का एक नमूना देखिए-

इससे जाना गया कि संस्कार का भी प्रमाण नही, आरोपित उपाधि है। जो क्रिया उत्तम हुई तो सौ वर्ष में चाण्डाल से ब्राह्मण हुए और जो क्रिया भ्रष्ट हुई तो वह तुरन्त ही ब्राह्मण से चाण्डाल होता है। यद्यपि ऐसे विचार से हमें लोग नास्तिक कहेंगे, हमें इस बात का डर नहीं। जो बात सत्य होय उसे कहना चाहिए कोई बुरा माने कि भला माने। विद्या इसी हेतु पढ़ते हैं कि तात्पर्य इसका (जो) सतोवृत्ति है वह प्राप्त हो और उससे निज स्वरूप में लय हुजिए। इस हेतु नहीं पढ़ते हैं कि चतुराई की बातें कह के लोगों को बहकाइए और फुसलाइए और सत्य छिपाइए, व्यभिचार कीजिए और सुरापान कीजिए और धान द्रव्य इकठौर कीजिए और मन को, कि तमोवृत्ति से भर रहा है निर्मल न कीजिए। तोता है सो नारायण का नाम लेता है, परन्तु उसे ज्ञान तो नहीं है।[१]

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ