महराजगंज जिला

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महराजगंज
—  जिला  —
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०)
देश साँचा:flag
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला महराजगंज
सांसद पंकज चौधरी (मई 2014)
जिलाधिकारी सत्येंद्र कुमार
जनसंख्या
घनत्व
२१,६७,०४१ (साँचा:as of)
साँचा:convert
साक्षरता
• पुरुष
• महिला
56%
• 67%
• 45%
आधिकारिक भाषा(एँ) हिन्दी
क्षेत्रफल
ऊँचाई (AMSL)
साँचा:km2 to mi2
साँचा:m to ft
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आधिकारिक जालस्थल: maharajganj.nic.in/

साँचा:coord

महाराजगंज भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश का एक जिला है। जिले का मुख्यालय महाराजगंज है। यह भारत-नेपाल सीमा के समीप स्थित है। इसका जिला मुख्यालय महाराजगंज शहर स्थित है। पहले इस जगह को 'कारापथ' के नाम से जाना जाता था। यह जिला नेपाल के दक्षिण , गोरखपुर जिले के उत्तर , कुशीनगर जिले के पश्चिम सिद्धार्थ नगर के पूर्व व सन्त कबीर नगर जिले के उत्तर-पूर्व में स्थित है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह काफी महत्वपूर्ण स्थल है।

इतिहास

2 अक्टूबर 1989 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्म दिन के पावन पर्व पर अस्तित्व में आने वाले महराजगंज जनपद के इतिहास की रूपरेखा पुनर्गठित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। प्राचीन भारतीय साहित्य में इस क्षेत्र का कम ही उल्लेख हुआ हैं ऐसी स्थिति में तर्कपूर्ण अनुमान का आश्रय लेते हुए उपलब्ध साहित्यिक एंव पुरातात्विक स्रोतों की सम्यक समीक्षा के उपरान्त इस जनपद का इतिहास निर्विवाद रूप से प्रस्तुत कर पाना असंभव है। फिर भी इसके गौरवशाली अतीत के पुनर्निमाण का प्रयास इस लेख का अभीष्ठ है।

महाकाव्य - काल में यह क्षेत्र कारपथ के रूप में जाना जाता था, जो कोशल राज्य का एक अंग था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र पर राज्य करने वाले प्राचीनतम सम्राट इक्ष्वाकु थे, जिनकी राजधानी अयोध्या थी। इक्ष्वाकु के उपरान्त इस राजवंश को अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बांट दिया और अपने पुत्र कुष को कुषावती का राजा बनाया, जिसकी आधुनिक समता कुशीनगर के साथ स्थापित की जाती है। राम के संसार त्याग के उपरान्त कुष ने कुषावती का परित्याग कर दिया और अयोध्या लौट गये। बाल्मीकि रामायण से ज्ञात होता कि मल्ल उपाधिकारी लक्ष्मण पुत्र चन्द्रकेतु ने इसके उपरान्त इस सम्पूर्ण क्षेत्र के शासन सूत्र का संचालन करना प्रारम्भ किया।

महाभारत में वर्णित है कि युधिष्ठिर द्वारा सम्पादित राजसूय यज्ञ के अवसर पर भीमसेन को पूर्ववर्ती क्षेत्रों को विजित करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया था। फलतः भीमसेन ने गोपालक नामक राज्य को जीत लिया। जिसके बांसगांव स्थित गोपालपुर के साथ स्वीकृत किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान महराजगंज जनपद का दक्षिण भाग निष्चित रूप से भीमसेन की इस विजय यात्रा से प्रभावित हुआ होगा।

महाभारत के युग के उपरान्त इस सम्पूर्ण क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। कोशल राज्य के अधीन अनेक छोटे-छोटे गणतंत्रात्मक राज्य अस्तित्व में आये, जिसमें कपिलवस्तु के शाक्यों और रामग्राम के कोलियों का राज्य वर्तमान महराजगंज जनपद की सीमाओं में भी विस्तृत था। षाक्य एवं कोलिय गणराज्य की राजधानी रामग्राम की पहचान की समस्या अब भी उलझी हुई है। डॉ॰ राम बली पांडेय ने रामग्राम को गोरखपुर के समीप स्थित रामगढ़ ताल से समीकृत करने का प्रयास किया है किन्तु आधुनिक शोधों ने इस समस्या को निःसार बना दिया है।

कोलिय का सम्बंध देवदह नामक नगर से भी था। बौद्धगंथों में भगवान गौतम बुद्ध की माता महामाया, मौसी महाप्रजापति गौतमी एवं पत्नी भद्रा कात्यायनी (यषोधरा) को देवदह नगर से ही सम्बन्धित बताया गया है। महराजगंज जनपद के अड्डा बाजार के समीप स्थित बनसिहा- कला में 88.8 एकड़ भूमि पर एक नगर, किले एवं स्तूप के अवषेष उपलब्ध हुए हैं। 1992 में डॉ॰ लाल चन्द्र सिंह के नेतृत्व में किये गये प्रारम्भिक उत्खनन से यहां टीले के निचते स्तर से उत्तरी कृष्णवणीय मृदमाण्ड (एन.बी.पी.) पात्र- परम्परा के अवषेष उपलब्ध हुए हैं गोरखपुर विष्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ॰ सी.डी.चटर्जी ने देवदह की पहचान बरसिहा कला से ही करने का आग्रह किया। महराजगंज में दिनांक 27-2-97 को आयेाजित देवदह-रामग्राम महोत्सव गोष्ठी में डॉ॰ षिवाजी ने भी इसी स्थल को देवदह से समीकृत करने का प्रस्ताव रखा था। सिंहली गाथाओं में देवदह को लुम्बिनी के समीप स्थित बताया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि देवदह नगर कपिलवस्तु एवं लुम्बिनी को मिलाने वाली रेखा में ही पूर्व की ओर स्थित रहा होगा। श्री विजय कुमार ने देवदह के जनपद के धैरहरा एंव त्रिलोकपुर में स्थित होने की संभावना व्यक्त की है। पालि-ग्रन्थों में देवदह के महाराज अंजन का विवरण प्राप्त होता है। जिनके दौहित्र गौतम बुद्ध थे। प्रो॰ दयानाथ त्रिपाठी की मान्यता है कि महाराज अंजन की गणभूमि ही कलांतर में विकृत होकर महाराजगंज एवं अंन्ततः महाराजगंज के रूप परिणित हुई। फारसी भाषा का गंज षब्द बाजार, अनाज की मंडी, भंडार अथवा खजाने के अर्थ में प्रयुक्त है जो महाराजा अंजन के खजाने अथवा प्रमुख विकय केन्द्र होने के कारण मुस्लिम काल में गंज षब्द से जुड़ गया। जिसका अभिलेखीय प्रमाण भी उपलब्ध है। ज्ञातव्य हो कि षोडास के मथुरा पाषाण लेख में गंजवर नामक पदाधिकारी का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है।

छठी शताब्दी ई० में पूर्व में अन्य गणतंत्रों की भांति कोलिय गणतंत्र भी एक सुनिष्चित भोगौलिक इकाई के रूप में स्थित था। यहां का शासन कतिपय कुलीन नागरिकों के निर्णयानुसार संचालित होता था। तत्कालीन गणतंत्रों की शासन प्रणाली एवं प्रक्रिया से स्पष्टतः प्रमाणित होता है कि जनतंत्र बुद्ध अत्यन्त लोकप्रिय थे। इसका प्रमाण बौद्ध ग्रंथों में वर्णित षाक्यो एवं कोलियों के बीच रोहिणी नदी के जल के बटवारें को लेकर उत्पन्न विवाद को सुलझाने में महात्मा बुद्ध की सक्रिय एवं प्रभावी भूमिका में दर्षनीय है। इस घटना से यह भी प्रमाणित हो जाता है कि इस क्षेत्र के निवासी अति प्राचीन काल से ही कृषि कर्म के प्रति जागरूक थे। कुशीनगर के बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरांत उनके पवित्र अवषेष का एक भाग प्राप्त करने के उद्देष्य से जनपद के कोलियों का दूत भी कुशीनगर पहुंचा था। कोलियों ने भगवान बुद्ध क पवित्र अवषेषों के ऊपर रामग्राम में एक स्तूप निर्मित किया था, जिसका उल्लेख फाहियान एवं ह्वेनसांग ने अपने विवरणों में किया है। निरायवली-सूत्र नामक ग्रंथ से ज्ञात होता है कि जब कोशल नरेष अजातषत्रु ने वैषाली के लिच्छिवियों पर आक्रमण किया था, उस समय लिच्छिवि गणप्रमुख चेटक ने अजातषत्रु के विरूद्व युद्ध करने के लिए अट्ठारह गणराज्यों का आह्वान किया था। इस संघ में कोलिय गणराज्य भी सम्मिलित था।

छठी षताब्दी ई. पूर्व के उपरांत राजनीतिक एकीकरण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई उसकी चरम परिणति अषोक द्वारा कलिंग युद्ध के अनंतर षस्त्र का सदा के लिए तिलांजलि द्वारा हुआ। महराजगंज जनपद का यह संपूर्ण क्षेत्र नंदों एवं मौर्य सम्राटों के अधीन रहा। फाहियान एवं ह्वेनसांग ने सम्राट अशोक के रामग्राम आने एवं उसके द्वारा रामग्राम स्तूप की धातुओं को निकालने के प्रयास का उल्लेख किया है। अश्वघोष के द्वारा लिखित बुद्ध चरित (28/66) में वर्णित है कि समीप के कुण्ड में निवास करने वाले एवं स्तूप की रक्षा करने की नाग की प्रार्थना से द्रवित होकर उसने अपने संकल्प की परित्याग कर दिया था।

गुप्तों के अभ्युदय के पूर्व मगध की सत्ता के पतन के बीच का काल जनपद के ऐतिहासिक घटनाओं के विषय में अंध-युग की भांति है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुषाणों ने इस क्षेत्र पर शासन स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी। कुषाणों के उपरांत यह क्षेत्र गुप्तों की अधीनता में चला गया। चैथी षताब्दी ई. के प्रारम्भ में जनपद का अधिकांष क्षेत्र चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य में सम्मिलित था, जिसने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करके अपनी षक्ति एवं सीमा का अभूतपूर्व विस्तार किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के शासन काल में इस जनपद का क्षेत्र श्रावस्ती मुक्ति में सम्मिलित था। चीनी यात्री फाहियान (400-411 ई.) अपनी तीर्थ यात्राओं के क्रम में कपिलवस्तु एवं रामग्राम भी आया था। उसने आस-पास के वनों एवं खण्डहरों का उल्लेख किया है।

गुप्त काल के उपरांत यह क्षेत्र मौखरियों एवं हर्ष के आधिपत्य में रहा। हर्ष के शासन काल मे ह्वेनसांग (630-644 ई.) ने भी विप्पलिवन और रामग्राम की यात्राएं संपन्न की थी। हर्ष के उपरांत इस जनपद के कुछ भाग पर भरों का अधिकार हो गया। गोरखपुर के धुरियापुर नामक स्थान से प्राप्त कहल अभिलेख से ज्ञात होता है कि 9 वीं शताब्दी ई. में महराजगंज जनपद का दक्षिणी भाग गुर्जर प्रतिहार नरेषों के श्रावस्ती मुक्ति में सम्मिलित था, जहां उनके सामान्त कलचुरियों की सत्ता स्थापित की। जनश्रुतियों के अनुसार अपने अतुल ऐष्वर्य का अकूत धन-सम्पदा के लिए विख्यात थारू राजा मानसेन या मदन सिंह 900-950 गोरखपुर और उसके आस-पास के क्षेत्रों पर शासन करता था। संभव है कि उसका राज्य महराजगंज जनपद की दक्षिणी सीमाओं को भी आवेष्ठित किये रहा है। गुर्जर प्रतिहारों के पतन के उपरांत त्रिपुरी के कलचुरि-वंष के षासक लक्ष्मण कर्ण (1041-10720) ने इस जनपद के अधिकांष भूभाग को अपने अधीन कर लिया था। किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी यषकर्ण 1073-1120 इस क्षेत्र पर अधिकार जमा लिया। अभिलेखिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि गोविन्द चन्द्र गाहड़वाल 1114-1154 ई. का राज्य विकार तक प्रसारित था। उसके राज्य में महराजगंज जनपद का भी अधिकांष भाग निष्चिततः सम्मिलित रहा होगा। गोरखपुर जनपद के मगदिहा (गगहा) एवं धुरियापार से प्राप्त गोविन्द चन्द्र के दो अभिलेख उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि करते हैं। गोविन्दचन्द के पौत्र जयचन्द्र (1170-1194 ई.) की 1194 मेें मुहम्मद गोरी द्वारा पराजय के साथ ही इस क्षेत्र से गाहड़वाल सत्ता का लोप हो गया और स्थानीय षक्तियों ने शासन-सूत्र अपने हाथों में ले लिया।

12 वीं षताब्दी ई.के अंतिम चरण में जब मुहम्मद गौरी एवं उसके उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन ऐबक उत्तरी भारत में अपनी नवस्थापित सत्ता को सुदृढ़ करने में लगे हुए थे इस क्षेत्र पर स्थानीय राजपूत वंषों का राज्य स्थापित था। चन्द्रसेन श्रीनेत के ज्येष्ठ पुत्र ने सतासी के राजा के रूप में एक बड़े भूभाग पर अधिकार जमाया, जिसमें महराजगंज जनपद का भी कुछ भाग सम्मिलित रहा होगा। इसके उपरांत फिरोज षाह तुगलक के समय तक इस क्षेत्र पर स्थानीय राजपूत राजाओं का प्रभुत्व बना रहा। उदयसिंह के नेतृत्व में स्थानीय राजपूत राजाओं ने गोरखपुर के समीप षाही सेना को उपहार, भेेंट एवं सहायता प्रदान किया था। 1394 ई. में महमूद षाह तुगलक दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ। उसने मलिक सरवर ख्वाजा जहां को जौनपुर का सूबेदार नियुक्त किया। जिसने सर्वप्रथम इस क्षेत्र को अपने अधीन करके यहां से कर वसूल किया। इसके कुछ ही समय बाद मलिक सरवर ने दिल्ली सल्तनत के विरूद्ध अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए जौनपुर में षर्की- राजवंश की स्थापना की तथा गोरखपुर के साथ-साथ इस जनपद के अधिकांश भूभाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।

1526 ई. में पानीपत के युद्ध में बाबर द्वारा इब्राहिम लोदी के पराजय के साथ ही भारत में मुगल राजवंश की सत्ता स्थापित हुई, किन्तु न तो बाबर और न ही उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी हुमायूं इस क्षेत्र पर अधिकार करने का कोई प्रयास कर सके। 1556 ई. में सम्राट अकबर ने इस ओर ध्यान दिया। उसने खां जमान (अली कुली खां) के विद्रोहों का दमन करते हुए इस क्षेत्र पर मुगलों के प्रभुत्व को स्थापित करने का प्रयास किया। 1567 ई. में खां जमान की मृत्यु के उपरांत अकबर ने जौनपुर की जागीर मुनीम खां को सौंप दी। मुनीम खां के समय में इस क्षेत्र में शांति और सुव्यवस्था स्थापित हुई। अकबर ने अपने साम्राज्य का पुनर्गठन करते हुए गोरखपुर क्षेत्र को अवध प्रांत के पांच सरकारों में सम्मिलित किया गोरखपुर सरकार के अन्तर्गत चैबीस महल सम्मिलित थे, जिनमें वर्तमान महराजगंज जनपद में स्थित विनायकपुर और तिलपुर के महल भी थे। यहां सूरजवंशी राजपूतों का अधिकार था। इन महलों के मुख्यालयों पर ईटों से निर्मित किलों का निर्माण सीमा की सुरक्षा हेतु किया गया था। विनायकपुर महल षाही सेना हेतु 400 घोड़े और 3000 पदाति प्रदान करता था। जबकि तिलपुर महल 100 अष्व एवं 2000 पैदल भेजता था। तिलपुर महल के अन्तर्गत 9006 बीघा जमीन पर कृषि कार्य होता और इसकी मालगुजारी चार लाख दाम निर्धारित की गयी थी। विनायक महल में कृषि योग्य भूमि 13858 बीघा थी और उसकी मालगुजारी 6 लाख दाम थी। तिलपुर, जिसकी वर्तमान समता निचलौल के साथ स्थापित की जाती है, में स्थित किले का उल्लेख अबुल-फजल की अमरकृति आइन-ए-अकबरी में भी किया गया है।

अकबर की मृत्यु के बाद 1610 ई. में जहांगीर ने इस क्षेत्र की जागीर अफजल खां को सौंप दी। तत्पश्चात यह क्षेत्र मुगलों के प्रभुत्व में बना रहा। अठारहवीं शताब्दी ई. में प्रारम्भ में यह क्षेत्र अवध के सूबे के गोरखपुर सरकार का अंग था। इस समय से लेकर अवध में नवाबी शासन की स्थापना के समय तक इस क्षेत्र पर वास्तविक प्रभुत्व यहां के राजपूत राजाओं का था, जिनका स्पष्ट उल्लेख वीन ने अपनी बन्दोबस्त रिपोर्ट में किया है। 9 सितम्बर 1722 ई. को सआदत खां को अवध का नवाब और गोरखपुर का फौजदार बनाया गया। सआदत खां ने गोरखपुर क्षेत्र में स्थित स्थानीय राजाओं की शक्ति को कुचलने एवं प्रारम्भ में उसने वर्तमान महराजगंज क्षेत्र में आतंक मचाने वाले बुटकल घराने के तिलकसेन के विरूद्व अभियान छेड़ा, किन्तु इस कार्य में उसे पूरी सफलता नहीं मिल सकी।

19 मार्च 1739 को सआदत खां की मृत्यु हो गयी तथा सफदरजंग अवध का नवाब बना। उसने एक सेना तत्कालीन गोरखपुर के उत्तरी भाग (वर्तमान महराजगंज) में भेजा, जिसने बुटवल के तिलकसेन के पुत्र को पराजित करके उससे प्रस्तुत धनराषि वसूल किया। इसके बाद दोनों पक्षों में छिटपुट संघर्ष होते रहे और अंततः 20 वर्षों के लम्बे संघर्ष के उपरांत बुटकल के राजा ने आत्मसमर्पण कर दिया।

5 अक्टूबर 1754 को सफदरजंग की मृत्यु हुई और उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी षुजाऊद्दौला अवध का नवाब बना। उसके शासन काल में इस क्षेत्र में सुख-समृद्धि का वातावरण उत्पन्न हुआ। डॉ॰ आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव ने उसके शासन काल में इस क्षेत्र में प्रभूत मात्रा में उत्पन्न होने वाले स्निग्ध और सुगंधित चावल का विशेष रूप से उल्लेख किया है। उस समय अस्सी प्रतिषत आबादी कृषि कार्य कर रही थी। 26 जनवरी 1775 को षुजाऊद्दौला की मृत्यु हुई और उसका पुत्र आसफद्दौला गद्दी पर बैठा। उसके शासन काल में स्थानीय शासक, बाजारों की बढ़ती हुई शक्ति को कुचलने में असमर्थ रहे।


विभिन्न संधियों के द्वारा कंपनी की सेना के प्रयोग का व्यय अवध के ऊपर निंरतर बढ़ रहा था। फलतः 10 नवम्बर 1801 को नवाब ने कंपनी के कर्ज से मुक्ति हेतु कतिपय अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ गोरखपुर क्षेत्र को भी कंपनी को दे दिया। इस संधि के फलस्वरूप वर्तमान महराजगंज का क्षेत्र भी कंपनी के अधिकार में चला गया। इस संपूर्ण क्षेत्र का शासन रूटलेज नामक कलेक्टर को सौंपा गया। जिसने सर्वत्र अव्यवस्था, अषांति एवं विद्रोह का दर्शन किया।

गोरखपुर के सत्तान्तरण के पूर्व ही तत्कालीन अव्यवस्था का लाभ उठाते हुए गोरखों ने वर्तमान महराजगंज एवं सिद्धार्थनगर के सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी स्थिति सुदृढ़ करना प्रारम्भ कर दिया था। विनायकपुर एवं तिलपुर परगने के अन्तर्गत उनका अतिक्रमण तीव्रगति से हुआ जो वस्तुतः बुटवल के कलेक्टर के साथ इस जनपद में स्थित अपनी अवषिष्ट जमीदारी की सुरक्षा हेतु बत्तीस हजार रूपये सालाना पर समझौता किया था। बाद में अंग्रेजों ने उसे बकाया धनराषि न दे पाने के कारण बन्दी बना दिया। 1805 ई. में गोरखों बुटवल पर अधिकार कर लिया और अंग्रेजों की कैद से छूटने के उपरांत बुटवल नरेष की काठमाण्डू में हत्या कर दी। 1806 ई. तक इस क्षेत्र अधिकांश भू-भाग गोरखों के कब्जे में जा चुका था। यहां तक कि 1810-11 ई. में उन्होंने गोरखपुर में प्रवेष करते हुए पाली के पास स्थित कतिपय गांवों को अधिकृत कर लिया। गोरखों से इस सम्पूर्ण क्षेत्र को मुक्त कराने के लिए मेजर जे.एस.वुड के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने बुटवल पर आक्रमण किया।

वुड संभवतः निचलौल होते हुए 3 जनवरी 1815 को बुटवल पहुंचा। बुटवल ने वजीर सिंह के नेतृत्व में गोरखों ने युद्ध की तैयारी कर ली थी, किन्तु अंग्रेजी सेना के पहुंचाने पर गोरखे पहाड़ों में पलायित हो गये। वुड उन्हें परास्त करने में सफल नहीं हो सका। इसी बीच गोरखों ने तिलपुर पर आक्रमण कर दिया और वुड को उनका सामना करने के लिए तिलपुर लौटना पड़ा। उसकी ढुलमुल नीति के कारण गोरखे इस संपूर्ण क्षेत्र में धावा मारते रहे और नागरिकों का जीवन कण्टमय बनाते रहे। यहां तक कि वुड ने 17 अप्रैल 1815 को बुटवल पर कई घंटे तक गोलाबारी की किन्तु उसका अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। तत्पष्चात कर्नल निकोलस के नेतृत्व में गोरखों से तराई क्षेत्र को मुक्त कराने का द्वितीय अभियान छेड़ा गया। कर्नल निकोलस ने गोरखों के ऊपर जो दबाव बनाया, उससे 28 नवम्बर 1815 को अंग्रेजों एवं गोरखों के बीच प्रसिद्ध सगौली की संधि हुई किन्तु बाद में गोरखे संधि की षर्तो को स्वीकार करने में आनाकानी करने लगे। फलतः आक्टर लोनी के द्वारा निर्णायक रूप से पराजित किये जाने के बाद 4 मार्च 1816 को नेपाल-नरेश ने इस संधि को मान्यता प्रदान कर दी। इस संधि के फलस्वरूप नेपाल ने तराई क्षेत्र पर अपना अधिकार छोड़ दिया और यह क्षेत्र कंपनी के शासन के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिया गया।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने इस क्षेत्र में नवीन प्राण-शक्ति का संचार किया। जुलाई, 1857 में इस क्षेत्र के जमींदारों के ब्रिटिश राज्य के अंत की घोषणा की। निचलौल के राजा रण्डुलसेन ने अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलनकारियों का नेतृत्व किया। 26 जुलाई को सगौली में विद्रोह होने पर वनियार्ड (गोरखपुर के तत्कालीन जज) के कर्नल राउटन को वहां शीघ्र पहुंचने के लिए पत्र लिखा, जो काठमाण्डु से निचलौल होते हुए तीन हजार गोरखा सैनिकों के साथ गोरखपुर की ओर बढ़ रहा था, गोरखों के प्रयास के बावजूद वनियार्ड आंदोलन को पूरी तरह दबाने में असमर्थ रहा। फलतः उसने गोरखपुर जनपद का प्रशासन सतासी और गोपालपुर के राजा को सौंप दिया। किंतु आंदोलनकर्ता बहुत दिन तक इस क्षेत्र को मुक्त नहीं रख सके और अंग्रेजों ने पुनः इस क्षेत्र को अपने पूर्ण नियंत्रण में ले लिया। निचलौल के राजा कमलेश को आंदोलनकारियों का नेतृत्व करने के कारण न केवल उसको पूर्व प्रदत्त राजा की उपाधि से वंचित कर दिया गया अपितु 1845 ई. में उसे दी गई पेंषन भी छीन ली गई।

1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के उपरांत नवम्बर 1858 ई में रानी विक्टोरिया के घोषणा पत्र द्वारा यह क्षेत्र भी सीधे ब्रिटिश सत्ता के अधीन हो गया। ब्रिटिश शासन काल में भी सामान्य जनता की कठिनाइयां दूर नहीं हो सकी। भूमि संबंधी विभिन्न बन्दोबस्तों के बावजूद कृषकों को उनकी भूमि पर कोई अधिकार नहीं मिल सका, जबकि जमीदार मजदूरों एवं कृषकों के श्रम के शोषण से संपन्न होते रहे। किसान एवं जमीदार के बीच का अंतराल बढ़ता गया।

1920 ई. में गांधी जी के द्वारा असहयोग आंदोलन प्रारम्भ किया जिसका प्रभाव इस क्षेत्र पर भी पड़ा। 8 फ़रवरी 1921 को गांधी जी गोरखपुर आए जिससे यहां के लोगों में ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने के लिए उत्साह का संचार हुआ। शराब की दुकानों पर धरना दिया गया और ताड़ के वृक्षों को काट डाला गया। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार हुआ और उसकी होली जलाई गयी। खादी के कपड़े का प्रचार-प्रसार हुआ। 2 अक्टूबर 1922 को इस संपूर्ण क्षेत्र में गांधी जी का जन्मदिन अंन्यतः उत्साह के साथ मनाया गया।

1923 ई. में पं॰ जवाहर लाल नेहरू ने इस क्षेत्र का दौरा किया, जिसके फलस्वरूप कांग्रेस कमेटियों की स्थापना हुई। अक्टूबर 1929 में पुनः गांधी जी ने इस क्षेत्र का व्यापक दौरा किया। 4 अक्टूबर 1929 को घुघली रेलवे स्टेशन पर दस हजार देषभक्तों ने उनका भव्य स्वागत किया। 5 अक्टूबर 1929 को गांधी जी ने महराजगंज में एक बिशप जनसभा को संबोधित किया। महात्मा गांधी की इस यात्रा ने इस क्षेत्र के देषभक्तों में नवीन स्फूर्ति का संचार किया, जिसका प्रभाव 1930-34 तक के सविनय अवज्ञा आंदोलनों में देखने को मिला।

1930 ई. के नमक सत्याग्रह के समय भी इस क्षेत्र ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नमक कानून के विरुद्ध सत्याग्रह, हड़ताल सभा एवं जुलूस का आयेाजन किया गया। 1931 ई. में जमीदारों के अत्याचार के विरुद्ध यहां की जनता ने किसान आंदोलन में भाग लिया। उसी समय श्री सिब्बनलाल सक्सेना ने महात्मा गांधी के आह्वान पर सेण्ट एण्ड्रूज कॉलेज के प्रवक्ता पद का परित्याग कर पूर्वांचल के किसान-मजदूरों का नेतृत्व संभाला। 1931 में सक्सेना जी ने ईख-संघ की स्थापना की, जो यहां के गन्ना उत्पादकों एवं मजदूरों के हितों की सुरक्षा हेतु संघर्ष के लिए उद्यत हुई। मई 1937 में पं॰ गोविन्द वल्लभ पन्त यहां आये ओर एक जनसभा को सम्बोधित किया। फरवरी 1940 में पुनः पंडित नेहरू यहां आये और गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक विद्यालय (G.S.V.S.) की आधारशिला रखी।

1942 ई. भारतीय इतिहास में एक युगांतकारी परिवर्तन की चेतना के लिए ख्यात है। इस चेतना का संचार इस क्षेत्र में भी हुआ और यह क्षेत्र भी कुछ कर गुजरने को तैयार था। इस समय यहां के आंदोलनकारियों का नेतृत्व श्री सिब्बनलाल सक्सेना कर रहे थे। अंग्रेजों भारत छोड़ो एवं करो या मरो का नारा जन-जन की वाणी में समाहित हो रहा था। अगस्त क्रांति के दौरान गुरूधोवा गा्रम में षिब्बन लाल सक्सेना को उनकी गिरफ्तारी के समय गोली मारी गई किंतु वह गोली उनके कंधे के पास से निकलते हुए उस जमींदार को लग गई जिसने सक्सेना जी को बंदी बनाया था। गोरखपुर के तत्कालीन, जिलाधीश श्री ई.वी.डी. मास के आदेश पर 27 अगस्त 1942 को विषुनपुर गबडुआ गांव में निहत्थे एवं शांतिप्रिय नागरिकों पर गोली चलाई गई जिसमें सुखराज कुर्मी एंव झिनकू कुर्मी नामक दो कांतिकारी वीर शहीद हो गये। पुलिस की गोली से आहत काशीनाथ कुर्मी की 1943 में जेल में ही मृत्यु हो गयी। सक्सेना जी को ब्रिटिश राज के विरुद्ध षडयंत्र रचने के आरोप में 26 महीने कठोर कारावास एवं 26 महीने फांसी की कोठरी में रखा गया।

तीर्थ स्थान एवं मन्दिर

इस जिला के उत्तरी छोर पर दुर्गा माता का प्रसिद्ध लेहडा़ मन्दिर है जो अत्यन्त सुखदायिनी हैं, जिनकी कृपा से सभी मनोकामना पूर्ण होती है। सीमा एवं नेपाल पहाड़ियों से सटे होने के कारण इस जिला का स्थान पर्यटन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यहाँ का सुन्दर वातावरण सेहत के लिए अमृत वरदान है।जिले के प्रमुख स्थान इटहिया, झुलनीपुर बार्डर, परतावल बाजार, निचलौल, एवं सिसवा है।नेपाल जाने के प्रमुख रास्ते सोनौली, ठूठीबारी, भगवानपुर व झुलनीपुर है।गोरखपुर से महराजगंज यात्रा के लिए 50कि.मी की दूरी तय करनी पड़ती है।


स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान

महराजगंज जनपद में स्वतंत्रता संग्राम का अभ्युदय 1931 में प्रोफेसर षिब्बन लाल सक्सेना के पर्दापण से हुआ। इसके पूर्व जनपद में जमींदारों का वर्चस्व रहा। इन जमींदारों में रामपुर बल्डीहा के श्री रईस लक्ष्मण प्रसाद तिवारी का वर्चस्व रहा और अब वर्तमान में इनके पनाती देवांशु तिवारी जी का वर्चस्व है. और सिसवां बाजार के श्री नवल किषोर सिंह तथा श्री परमहंष सिंह, रजवल एवं करमहा के श्री भगवती प्रसाद था श्री चतुर्भुज दास एवंइनके अलावा नन्दाभार के तिवारी जी आदि की भी जमींदारियां रही हैं।


महात्मा गांधी जी के 1930 में नमक सत्याग्रह एवं 1931 में जमींदारों के अत्याचार के विरूद्ध यहां की जनता ने प्रो॰ षिब्बन लाल सक्ेसना के नेतृत्व में भाग लिया। 1930 में प्रो॰ सक्सेना जी ने ईख संघ की स्थापना करके जमींदारों एवं अंग्रेजी शासन के विरूद्व आन्दोलन छेड़ दिया।

प्रो॰ सक्सेना जी ने अपने कार्यकर्ता सर्व श्री सुदामा प्रसाद, कपिलदेव पाण्डेय, नरसिंह नारायण पाण्डेय, रामानुज पाण्डेय, हौसला प्रसाद त्रिपाठी ‘पथिका जी’ अब्दुल रउफ लारी, दुर्योधन प्रसाद के साथ पूरे जनपद में जनजागरण का कार्य प्रारम्भ किया। जमींदारों का विरोध किया और गांव-गांव में अपने समर्थकों की पंचायत गठित की। इसके अतिरिक्त सर्व श्री राधेष्याम केसरवानी, हरिषंकर प्रसाद गुप्त, राम प्रसाद भालोटिया, मनोहर लाल बैद्य, चिल्लरा, नन्दु नन्द किषोर जायसवाल, मदन पाण्डेय सिसवा बाजार, बैठवलिया के तेजई, सेखुई के श्री रामेष्वर मौनी अहिरौली के श्री राम दयाल भगत, करमी के श्री रघुनन्दन, खेसरारी के श्री राजबली व सुकई भगत दुर्गवलिया के श्री तिलक चैधरी, बलुअही के श्री जानकी षरण तिवारी (जिनका कार्यक्षेत्र सिसवां बाजार व खड्डा रहा) एवं घुघली के मुंषी छत्रधारी लाल आदि लोगों के साथ भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ें।

अंग्रेजी शासन काल मे अंग्रेजों तथा उनके सहयोगी जमींदारों तथा कांग्रेस कार्यकर्ताओं तथा जनता पर एक-एक नहीं, अपितु अनेक अत्याचार हुआ करते थे। मई 1931 में प्रो॰ षिब्बन लाल सक्सेना के गढ़ कहे जाने वाले गांव खेसरारी की जमींदारों ने इसलिए लुटवाया कि वहां के लोग दो या ढाई रूपये बीघे के स्थान पर 4 रूपये प्रति बीघा की दर से लगान देने में आना-कानी कर रहे थे। यह मामला महात्मा गांधी जी ने इंग्लैंड में होने वाले गोज मेज कांफ्रेंस मे उठाया। फलस्वरूप बाबा राघवदास जी इस मामले के निस्तारण के लिए पंच नियुक्त हुए। 1941 के सत्याग्रह के माहौल में सिसवा के जमींदार श्री परमहंस सिंह के जेष्ठ पुत्र श्री राम प्रसाद ने सत्याग्रह में भाग लिया और कांग्रेस पार्टी में सम्मिलित हो गये।

1942 में असहयोग आन्दोलन को तेज करने के लिए प्रो॰ सक्सेना जी ने क्षेत्र में जन जागृति हेतु टोलियां बनायीं। स्वतंत्रता संग्राम में विषुनपुर गबडुआ गांव के उत्साह को देखते हुए प्रो॰ सक्सेना ने गांव के श्री काषीनाथ को तहसील स्तर का मंत्री बनायातथा गांव की टोली का नायक श्री रामदेव को बनाया गया। 26 अगस्त 42 की रात्रि के जमींदार हरपुर महन्थ श्री महेन्द्रानन्द गिरि ने आन्दोलन की सम्भावित बैठक में प्रो॰ सक्सेना को पकड़ने की योजना बनायी परन्तु सक्सेना जी विषुनपुर गबडुवा में बैठक न कर परासखाड़ रात्रि में ही चले गये। बौखलाये जमींदारों ने 27 अगस्त 42 को गांव में लुटपाट एवं गोली चलवायी जिसमें श्री सुखराज एवं झिनकू की घटना स्थल पर मृत्यु हो गयी। घायल श्री काषी मृत्यु 1943 में जेल में हो गयी। सर्व श्री रामदेव, जनकराज, त्रिलोक, तिलकाधारी, रामधारी, षिवदत्त, सरजू, हरिवंष, रामजतन एवं नगई को पुलिस पकड़ ली तथा मृत क्रांतिकारियों की लाष को भी ले गयी। पकड़े गये क्रांतिकारियों को 29 सितम्बर 42 में दफा 353 व 147 ताजीराते हिन्द के अन्तर्गत एक साल सख्त कैद व 12-12 बेंत की सजा मिली।

क्रांति की मषाल जब जल चुकी तो वह क्षेत्र में फैलती गयी और सभी भागो में स्थानीय नेताओं की देख-रेख में आगे बढ़ी। प्रो॰ सक्सेना जी के विष्वास पात्र कार्यकर्ता श्री सुदामा प्रसाद जो बाद में विधायक हुए थे, लेहड़ा के अंग्रेज जमींदार के विरूद्व मोर्चा संभाला। जमींदार के अत्याचार का बुकलेट छपवाकर जन सामान्य में वितरित किया। नौतनवां क्षेत्र में श्री पूर्णमासी एवं श्री राम लगन दूबे ने जनता का नेतृत्व किया और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जन जागृति पैदा की।

ष्याम देउरवा के श्री अनजान सिंह, परतावल के श्री हेमराज, भिटौली के श्री सूर्यबली लाल, रामपुर बलडीहा के सर्व श्री गोगई, षिवनन्दन, यमुना राम, सेखई के नागेष्वर मौनी, ष्यामसुन्दर बसन्तपुर के श्री राम लगन दूबे, बैकुण्ठपुर-महराजगंज के श्री अवध बिहारी षरण, सिसवां राजा के श्री रामचन्द्र दास, खालीकगढ़ के श्री चेतन दास उर्फ छोटकन दास, गिरिहिया के चोकट, कानपुर के श्री केदार, गिरधारी लाल, महाबीर प्रसाद, दयानन्द, फरेन्दा खुर्द के अयोध्या प्रसाद मुण्डेरा कला के गंगा, बांसपार बेजौली के बन्ने, रजवल के त्रिवेनी परतावल के देवेेन्द्र गांगुली, विषुनपुर गबडुवा के छोटू, महादेव सूरज, रामलखन, मानिक, बनारसी, खुटहा भीम टोला के राम अधार, चिउरहा मउपाकड़ के मुन्नर प्रसाद, मुजुरी के उदय भान सिंह, परसौनी के बुद्धिराम, पतरेंगवा के योगी राजपत पाण्डेय, महराजगंज के अमर नाथ मिश्र, फरेन्दा खुर्द के रघुबर यादव, रूदलापुर के मुक्तिनाथ सेमरा के रामसुमेर षाहाबाद के रूपई, सिंसवा बाजार के विष्वनाथ सिंह, बीजापार के पारसनाथ पाण्डेय सिंहपुर निचलौल के षहतू प्रसाद मोहनापुर के बद्री, मिठौरा के चन्द्रभूषण नन्दना षिवपुर के सर्वजीत दास, बृजमनगंज के षंकर कलवार, सबया के गरूण लाल मझौली के उदयभान मिश्र और अन्य बहुत से सेनानियों ने जनपद जनपद के भिन्न-भिन्न भागों में जनता का नेतृत्व और प्रो॰ षिब्बन लाल सक्सेना को पूर्ण समर्थन दिया। जनजागरण अभियान में प्रो॰ सक्सेना सहित उनके सभी कार्यकर्ताओं को अनेक बाल जेल जाना पड़ा। समर्थकों को अनेक प्रकार की प्रताड़नायें हो गयी। परन्तु जब जागृति की लहर दौड़ गयी थी तो उसे रोकने की षक्ति किसी में नहीं थी और सबके सम्मिलित प्रयास में 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति हुईं।

सन्दर्भ


इस पृष्‍ठ पर यह जानकारी अधूरी है कि प्रो: सिब्‍बनलाल सक्‍सेना से पूर्व कांग्रेस की कमान किसके हाथ में थी। जहां तक मेरी जानकारी है कि प्रो: सक्‍सेना ने ईंख संघ की स्‍थापना से पूर्व उन्‍होंने कांग्रेस की कमान घुघली विकास खंड के बांसपार मिश्र निवासी पंडित मिश्र से कांग्रेस की कमान संभाली थी। पंडित मिश्र वही व्‍यक्ति थे जो पंडित नेहरू के साथ गोरखपुर जेल में बंद थे तथा प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार महराजगंज आए नेहरू जी ने पंडित मिश्र का नाम मंच से लिया था।