मसूर
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मसूर दाल | |
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तीन प्रकार की मसूर, साबुत या काली, धुली या मलका और हरी मसूर | |
Scientific classification | |
Binomial name | |
Lens culinaris Medikus
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मसूर एक दलहन है। इसका वानस्पतिक नाम 'लेन्स एस्क्युलेन्टा' (Lens esculenta) है। इसकी प्रकृति गर्म, शुष्क, रक्तवर्द्धक एवं रक्त में गाढ़ापन लाने वाली होती है। दस्त, बहुमूत्र, प्रदर, कब्ज व अनियमित पाचन क्रिया में मसूर की दाल का सेवन लाभकारी होता है।
दलहनी फसलों में मसूर का एक महत्वपूर्ण स्थान है। मसूर की दाल को 'लाल दाल' के नाम से भी जाना जाता है। मसूर उत्पादन में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। मध्य प्रदेश में लगभग 39.56 प्रतिशत (5.85 लाख हेक्टेयर) में इस की बोआई होती है जो भारत में क्षेत्रफल की दृष्टि से पहले स्थान पर आता है। इस के बाद उत्तर प्रदेश व बिहार में 34.36 प्रतिशत व 12.40 प्रतिशत है। उत्पादन के अनुसार उत्तर प्रदेश में 36.65 प्रतिशत (3.80 लाख टन) व मध्य प्रदेश 28.82 प्रतिशत मसूर उत्पादन होता है। अधिकतम उत्पादकता बिहार राज्य (1124 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) है। मिश्रित फसल के रूप में मसूर की खेती करना काफी लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। मसूर के साथ सरसों, मसूर, जौमसूर की खेती सफलतापूर्वक करके काफी अच्छा लाभ कमाया जा सकता है।
मसूर में पाए जाने वाले पोषक तत्व
मसूर के 100 ग्राम दाने में औसतन 25 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम वसा, 60.8 ग्राम कार्बोहाइडेट, 3.2 ग्राम रेशा, 68 मिलीग्राम कैल्शियम, 7 मिलीग्राम लोहा, 0.21 मिलीग्राम राइबोफ्लेविन, 0.51 मिलीग्राम थाइमिन और 4.8 मिलीग्राम नियासिन पाया जाता है जो शरीर के लिए आवश्यक होते हैं।
इसके सेवन से अन्य दालों की अपेक्षा सर्वाधिक पौष्टिकता पाई जाती है। इस दाल को खाने से पेट के विकार समाप्त हो जाते हैं। रोगियों के लिए मसूर की दाल अत्यन्त लाभप्रद मानी जाती है। यह रक्तवर्धक और रक्त में गाढ़ा लाने वाली होती है। इसी के साथ दस्त, बहुमूत्र, प्रदर, कब्ज व अनियमित पाचन क्रिया में भी लाभकारी होती है। दाल के अलावा मसूर का उपयोग अनेक प्रकार की नमकीन और मिठाइयां बनाने में भी किया जाता है। इस का हरा व सूखा चारा जानवरों के लिए स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है।
मसूर की खेती
मसूर की बुवाई रबी में अक्टूबर से दिसम्बर तक होती है, परन्तु अधिक उपज के लिए मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर का समय इसकी बुवाई के लिए काफी उपयुक्त है। मसूर की खेती के लिए हल्की दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त रहती है। इसके अलावा लाल लेटेराइट मिट्टी में भी इसकी खेती अच्छी प्रकार से की जा रही है।
मसूर की अच्छी फसल के लिए मिट्टी का पीएच मान 5.8 से 7.5 के बीच होना चाहिए। पौधों की वृद्धि के लिए ठंडी जलवायु, परंतु फसल पकने के समय उच्च तापक्रम की आवश्यकता होती है। मसूर की फसल वृद्धि के लिए 18 से 30 डिग्री सेेंटीग्रेड तापमान की आवश्यकता होती है। इसके उत्पादन के लिए वे क्षेत्र अच्छे रहते हैं, जहां 80-100 सेंटीमीटर तक वार्षिक वर्षा होती है। बिना सिंचाई के भी बारानी परिस्थिति के वर्षा नमी संरक्षित क्षेत्र में भी मसूर की खेती की जा सकती है।
उन्नत प्रजातियाँ
भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लिए मसूर की नवीनतम अनुमोदित किस्में इस प्रकार हैं।
- उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र के लिए- एलएल-147, पंत एल-406, पंत एल-639, समना, एलएच 84-8, एल-4076, शिवालिक, पंत एल-4, प्रिया, डीपीएल-15, पंत लेंटिल-5, पूसा वैभव और डीपीएल-62 प्रमुख रूप से उपयोगी है।
- उत्तर-पूर्व मैदानी क्षेत्र के लिए एडब्लूबीएल-58, पंत एल-406, डीपीएल-63, पंत एल-639, मलिका के-75, के एलएस-218 और एचयूएल-671 किस्में अच्छी मानी गई हैं।
- भारत के मध्य क्षेत्र के लिए जेएलएस-1, सीहोर 74-3, मलिका के 75, एल 4076, जवाहर लेंटिल-3, नूरी, पंत एल 639 और आईपीएल-81 किस्में काफी उपयोगी साबित हुई हैं।
खेत की तैयारी, बीजोपचार, बुवाई
मसूर की खेती करने से पहले खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लें। इसके लिए खरीफ फसल काटने के बाद 2 से 3 आड़ीखड़ी जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए हैं, जिस से मिट्टी भुरभुरी व नरम हो जाए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी बारीक और समतल कर लें। यदि खेत की मिट्टी भारी मटियार मिट्टी है तो एक दो जुताइयां अधिक करनी पड़ेंगी। इस प्रकार भली प्रकार से तैयार किए गए खेत में इसकी बुवाई करें।
मसूर की समय से बुवाई के लिए उन्नत किस्मों के 30 से 35 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। देर से बुवाई के लिए 50 से 60 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत होती है। देर से बोआई करने पर 40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बोना चाहिए। मिश्रित फसल में आमतौर पर बीज की दर आधी रखी जाती है। बिजाई से पहले बीजों को थाइरम या बाविस्टिन 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें। इसके बाद बीजों को मसूर के राइजोबियम कल्चर और स्फुर घोलक जीवाणु पीएसबी कल्चर प्रत्येक को 5 ग्राम कुल 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर छायादार स्थान में सुखा कर इसकी बुवाई करें। ध्यान रहे इसकी बुवाई सुबह या शाम के समय ही करें।
अच्छी उपज के लिए केरा या पोरा विधि से कतार में बोनी करें। इस क्रिया से खेत समतल होने के अलावा बीज भी ढक जाते हैं। पोरा विधि में देशी हल के पीछे पोरा चोंगा लगा कर बोनी कतार में की जाती है। इस के लिए सीड ड्रिल का भी प्रयोग किया जाने लगा है। पोरा अथवा सीड ड्रिल से बीज उचित गहराई और समान दूरी पर गिरते हैं। अगेती फसल की बोआई पंक्तियों में 30 सेंटीमीटर की दूरी पर करनी चाहिए। पछेती फसल की बोआई के लिए पंक्तियों की दूरी 20 से 25 सेंटीमीटर रखते हैं मसूर का बीज अपेक्षाकृत छोटा होने के कारण इस की उथली 3-4 सेंटीमीटर बुवाई सही होती है। आजकल शून्य जुताई तकनीक से भी जीरो टिल सीड ड्रिल से मसूर की बोआई की जा रही है।
खाद एवं उर्वरक
सिंचित अवस्था में 20 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम सल्फर, 20 किलोग्राम पोटाश व 20 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बोआई करते समय डालना चाहिए। असिंचित दशा में क्रमश: 15:30:10:10 किलोग्राम नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश व सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के समय कूंड़ में देना सही रहता है। फास्फोरस को सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में देने से आवश्यक सल्फर तत्त्व की पूर्ति भी हो जाती है। जस्ता की कमी वाली भूमियों में जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से अन्य उर्वरकों के साथ दिया जा सकता है।
सिंचाई
मसूर में सूखा सहन करने की क्षमता होती है। आमतौर पर सिंचाई नहीं की जाती है, फिर भी सिंचित क्षेत्रों में 1 से 2 सिंचाई करने से उपज में वृद्धि होती है। पहली सिंचाई शाखा निकलते समय यानी बोआई के 40 से 45 दिन बाद और दूसरी सिंचाई फलियों में दाना भरते समय बुवाई के 70 से 75 दिन बाद करनी चाहिए। ध्यान रखें कि पानी अधिक न होने पाए। इसके लिए स्प्रिंकलर का इस्तेमाल सिंचाई के लिए किया जा सकता है। खेत में स्ट्रिप बना कर हल्की सिंचाई करना लाभकारी रहता है। अधिक सिंचाई मसूर की फसल के लिए लाभकारी नहीं रहती है। इसलिए खेत में जल निकास का उत्तम प्रबन्ध होना आवश्यक है।
खरपतवार नियंत्रण
मसूर की फसल में खरपतवारों द्वारा अधिक हानि होती है। यदि समय पर खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान नहीं दिया गया, तो उपज में 30 से 35 फीसदी तक की कमी आ सकती है। इसलिए 45 से 60 दिन अंतर में खरपतवार निकालने का कार्य करते रहना चाहिए।
कटाई
मसूर की फसल 110 से 140 दिन में पक जाती है। बोने के समय के अनुसार मसूर की फसल की कटाई फरवरी व मार्च महीने की जाती है। जब 70 से 80 प्रतिशत फलियां भूरे रंग की हो जाएं और पौधे पीले पड़ने लगें या पक जाएं तो फसल की कटाई करनी चाहिए।
पैदावार
यदि मौसम अनुकूल हो और आधुनिक तरीके से इसकी उन्नत खेती की जाए तो अच्छा उत्पादन मिलता है। मसूर दानों की उपज 20 से 25 क्विंटल और भूसे की उपज 30 से 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त की जा सकती है।
विश्व के विभिन्न देशों में मसूर उत्पादन
सर्वाधिक मसूर उत्पादक १० देश – 2007 | ||||
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देश | उत्पादन (टन) | टिप्पणी | ||
साँचा:flag/core | 1,400,000 | * | ||
साँचा:flag/core | 669,700 | |||
साँचा:flag | 580,260 | |||
साँचा:flag | 180,000 | F | ||
साँचा:flag/core | 165,000 | F | ||
साँचा:flag | 164,694 | |||
साँचा:flag/core | 154,584 | |||
साँचा:flag/core | 131,000 | |||
साँचा:flag/core | 119,000 | F | ||
साँचा:flag/core | 115,000 | F | ||
साँचा:flag | 3,873,801 | A | ||
No symbol = official figure, P = official figure, F = FAO estimate, * = Unofficial/Semi-official/mirror data, C = Calculated figure A = Aggregate(may include official, semi-official or estimates); |
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- Alan Davidson, The Oxford Companion to Food. ISBN 0-19-211579-0
- Footnotes
विस्तृत पठन
- S S Yadav et al. Lentil: An Ancient Crop for Modern Times. (2007). Springer Verlag. ISBN 9781402063121.
बाहरी कड़ियाँ
- उन्नत विधि से मसूर की खेती (कृषिसेवा)
- मसूर की खेती (एग्रोपीडिया)
- मसूर की खेती (मध्य प्रदेश सरकार)
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- साबुत मसूर की दाल (कलछुल)