मनोज दास

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
मनोज दास
मनोज दास
स्थानीय नाममनोज दास
जन्मसाँचा:br separated entries
मृत्युसाँचा:br separated entries
मृत्यु स्थान/समाधिसाँचा:br separated entries
व्यवसायकवि, लेखक, प्राध्यापक
राष्ट्रीयताभारतीय
उल्लेखनीय सम्मानपद्म श्री (2001 में)
जीवनसाथीप्रतिज्ञा देबी

हस्ताक्षर

साँचा:template otherसाँचा:main other

मनोज दास (27 फ़रवरी 1934 - 27 अप्रैल 2021[१]) सरस्वती सम्मान से सम्मानित साहित्यकार थे। उनकी कृतियाँ ओडिया और अंग्रेजी में हैं।[२]

मनोज आपने पाठको के बिच

परिचय

मनोज दास (जन्म 1934) ओड़िआ साहित्य के बीसवीं सताब्दी के उत्तरार्द्ध के प्रमुख कहानीकार हैं। उनकी पहली कहानी ‘समुद्रर क्षुधा’ 1947 में प्रकाशित हुई थी। हालाँकि शुरू के दिनों में उन्होंने कविता, भ्रमण कहानी तथा रम्यरचना लिखा है पर उनकी साहित्य-साधना की प्रधान विधा है कहानी और कहानीकार के रूप में ही वे विशेष रूप से परिचित हैं। सन् 1971 में प्रकाशित ‘मनोज दासंक कथा ओ. कहानी’ में उनकी तब तक लिखी कहानियाँ थीं और मनोज दास को ओड़िसा के एक अग्रणी कथाकार के रूप में स्वीकृति मिल चुकी थी। इसके बाद भी उनके कई अन्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं: ‘लक्ष्मीर अभिसार’, ‘आबू पुरुष’, ‘धूमाभ दिगन्त’, आदि।

वह ओड़िया तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं के कहानीकार हैं। एक अंग्रेजी लेखक के रूप में भी वे अखिल भारतीय स्तर पर स्वीकृत हैं और उनकी अंग्रेजी कहानियाँ काफ़ी प्रशंसित हुई हैं। प्रख्यात लेखक ग्राहम ग्रीन ने उन्हें आर. के. नारायण के साथ रखकर देखा है। किसी अन्य ने के. हार्डी, साकी तथा ओ. हेनरी के साथ उनकी तुलना की है। उनके अपने विचार में वे कुछ कहानी पहले ओड़िया में लिखते हैं और कुछ पहले अंग्रेजी में। बाद में वे उस कहानी को फिर दूसरी भाषा में लिखते हैं। किस भाषा में वे सोचते हैं, इस प्रश्न पर मनोज दास का जवाब है कि वह सोचते हैं नीरव की भाषा में।

मनोज दास अंग्रेजी में लिखते हुए भी (और स्वयं अंग्रेजी के प्राध्यापक होने के बावजूद) उनके साहित्य सृजन का मूल स्रोत अंग्रेज़ी या विदेशी साहित्य नहीं है। उनकी कहानी में जिस परम्परा का विकास देखने को मिलता है, वह है संस्कृत तथा ओड़िया की लोककथा, वेद, उपनिषद की भारतीय सांस्कृतिक धारा और आधुनिक ओड़िया गद्य साहित्य के प्रवर्तक फ़क़ीर मोहन सेनापति। मनोज दास ने खुद भी अपने लेखन पर फ़क़ीर मोहन, सोमदेव, विष्णु शर्मा आदि का प्रभाव स्वीकार किया है।

साहित्य के क्षेत्र में मनोज दास को काफ़ी सफलता भी मिली। उन्हें साहित्य के क्षेत्र में प्राप्त सम्मानों में से ओड़िशा साहित्य अकादमी पुरस्कार (1965) केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार (1972)[३], सारला सम्मान (1981) तथा विषुव सम्मान (1987) हैं। इनके साथ ही इन्हें प्राप्त हुआ है अनगिनत पाठकों का अकुण्ठित समर्थन। जिन गुणों के कारण उनकी कहानियाँ आलोचकों और पाठकों दोनों को प्रिय हैं, वे हैं सशक्त कथानक, मोहक तथा धाराप्रवाह वर्णन शैली रहस्यमय किंवदन्तीय वातावरण और अन्त में एक अव्यक्त मन्तव्य और नैतिक अर्थ। मनोजदास की प्रारम्भिक कहानियों से लेकर अब तक लिखी जाने वाली कहानियों में ये सारे गुण निश्चित रूप से देखे जा सकते हैं। और इन्ही सब कारणों से उनकी कहानी एक बार पढ़ने पर उसे भूल पाना सम्भव नहीं होता।[४]

उनकी कहानी का एक सशक्त आकर्षण है उसकी बौद्धिकता व भावुकता अथवा हृदय और मन का सन्तुलन। हालाँकि उनकी सारी कहानियाँ निर्मम बौद्धिकता में सराबोर हैं, पर वे बौद्धिकता, भावुकता और आवेग को दबाती नहीं। कहानी के अन्त में नीति-शिक्षा का समाधान कहानी के पात्रों को उनकी प्रकृतिगत रोजमर्रा की दिनचर्या के बाहर नहीं खीच सकता। इसलिए ये सारे पात्र जीवन्त व सांसारिक हैं, साधारण सुख-दुःख के भागीदार हैं। केवल कथा कहने के ढँग के प्रधान होने के कारण नहीं, उनकी आभासधर्मी कहानियों में भी यह देखा जा सकता है इन पात्रों को रूप देने के लिए मनोज दास ने जिस तरह की शैली अपनायी है, वह भी उनकी निजी है। उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘धूमाभ दिगन्त’ की शुरुआत इस तरह होती है:

आँधी में तितलियाँ क्या करती हैं - अक्सर मैं इस सवाल को लेकर चिन्तित रहता हूँ।

कभी-कभी दूर हवा में आसमान में पक्षियों को किलबिलाते देख बेहद उदास हो जाता हूँ। उनकी उस समय की गति की उस छन्दहीनता में अहसास होता है किसी आधुनिक राष्ट्रीय कविता को पढ़ते समय का असहायबोध। और जब अचानक बवण्डर में कुछ सूखे पत्ते ऊपर की ओर उड़कर अदृश्य हो जाते हैं, तब ऐसा लगता-मैं भी कहीं खो गया हूँ। लेकिन वैसी आँधी, पक्षियों या सूखे पत्तों का खयाल काफ़ी अरसे बाद आज एक परी-कथा पढ़ते समय क्यों आया, मैं समझ नहीं सका। ‘‘दिगन्त के पर्वत पर था एक छिपकर रहने वाला दानव’’, पूरी-कथा में लिखा था। कहानी के प्रारम्भ में एक रहस्यमय प्रश्न है, आकाश, पक्षी तथा आँधी की सूचना और फिर एक परीकथा का उल्लेख। मानो यह किसी परीकथा में एक और परीकथा हो।

परन्तु यह कहानी परीकथा की भूल-भूलैया में खो नहीं गयी है। कहानी के सभी पात्र रक्त-माँस के है और मानवीय कमजोरियों तथा असहायता पर आश्रित हैं। कहानी का वक्ता स्वयं भी एक पात्र है। कहानी का विषय है हटू, नवीन एवं स्वयं वक्ता। काफ़ी साल पहले अपने बचपन की एक किशोरी बन्धु लिलि को पहाड़ पर करुण परिस्थितियों में खो बैठे थे। और उसी की याद अब तक उन्हें घेरे हुए है। कहानी का अन्त इस तरह होता है-

हटू सम्भवत: अपने तरीक़े से (पहाड़ की तलहटी में मन्दिर-बनवाकर) प्रायश्चित कर रहा है। लेखक नवीन ने लिलि को श्रद्धांजलि दी है परी-कहानी की बालिका के रूप में उसका चित्रण करके।
‘‘लेकिन मैं ?’’ इतना कह कर रोने लगा।
‘‘तू ? काश, तेरी तरह मैं रो पाता ! सत्तर साल की उम्र में आँसू निकलना आसान नहीं, जानता है !’’ नवीन ने कहा।

इस कहानी की तरह कई अन्य कहानियों में कहने वाला खु़द भी कहानी का एक पात्र है। इस शैली से लेखक कहानी को पाठक तक सीधा पहुँचाने में समर्थ है। इसके अलावा कई कहानियों में मनोज दास पाठकों को सीधे सम्बोधित भी करते हैं। इससे लेखक और पाठक के बीच एक संवेदनशील सम्बन्ध बन जाता है तथा कहानी के पात्र पाठक के और भी निकट आ जाते हैं।

इस परिप्रेक्ष्य में एक और बात भी दिखाई देती है, वह यह है कि इन कहानियों के पात्र अद्भुत होते हैं। एक दृष्टि से देखा जाए तो ये सभी अवास्तविक व अपार्थिव हैं-मानो ये किसी परी-लोक के निवासी हों। परन्तु फिर गम्भीरता से विचार पर करने पर लगता है कि ये बिलकुल मिट्टी के ही मनुष्य हैं, जो हमारे खू़ब क़रीब आते हैं। राजकुमार, राजकुमारियाँ संन्यासी यहाँ तक कि मनुष्येत्तर पात्र भी बेहद जीवन्त लगते हैं।

इन सब पात्रों को रहस्यमय तथा अलौकिक रूप देने के लिए मनोज दास जिस कौशल का सहारा लेते हैं, वह है पात्रों और स्थानों का नामकरण। उनके कई पात्रों के नाम हैं-पुण्डरीक, हिडिम्ब, शंखनाद, हयग्रीव। लुभुर्भा पर्वत उनकी एकाधिक कहानियों में वर्णित है। ये नाम केवल हास्यरस के संचार के लिए नहीं, देश, काल तथा पात्रों को रहस्यमय बनाने के लिए भी प्रयुक्त हुए हैं। मनोज दास की भाषा व शब्द-चयन भी उस दिशा में सहायक हैं। उनकी कहानियों में हमें मिलता है, ‘‘झलक-झलक शुभ्र विस्मय’’, ‘‘मृत्यु हिम स्तब्धता का आवरण’’, ‘‘तिमिर व क्रन्दन से बिषर्ण्ण पृथ्वी’’, ‘‘भालू-भालू अँधेरा’’, ‘‘अधमरा चाँद’’, ‘‘झोंका-झोंका ठण्ठी हवा’’ इत्यादि। शब्द-विन्यास पाठकों के आगे एक अपार्थिव परिवेश सृष्टि करते हैं।

मनोज दास की कहानियों में रहस्य की सूचना कहनी के प्रारम्भ में ही मिल जाती है। कहानी का पहला वाक्य ही पाठक के मन में पैदा कर देता है एक रहस्य तथा रोमांच जिसके मूल तत्त्व को हमें ढूँढ़ ही निकालना होता है कहानी शुरू से अन्त तक पढ़कर। यह उनकी कुछ कहानियों के निम्नलिखित प्रथम वाक्य से ही स्पष्ट है-

‘‘उम्र चार साल से कम होने पर भी पलटू कई जटिल बातें समझ लेता था और उस दिन कोई एक विशेष तरह की घटना घटित होने वाली है और वह पुलकप्रद है, यह न समझने की कोई वजह ही नहीं थी।’’
‘‘शुभेन्दु ने पाँचवीं बार गिना। पाँच वर्षों की गाढ़ी बचत है। पाँच की यह गिनती उसे सिहरित कर रही थी। वह जा रहा था पाँच पीढ़ियों के महार्घ सम्पत्ति लौटाने।’’
‘‘चाँद निकलने तक रात काफ़ी रात बीत चुकी थी। फिर भी हम हत्यारे का इन्तजार कर रहे थे।’’
‘‘खा़सकर चाँदनी रातों में निर्जन उदास कोठी का आकर्षण होता था अप्रतिरोध्य। नदी के बाँध पर से हम चुपचाप काफ़ी देर तक उस ओर देखते रहते।’’

मनोज दास की कहानियों में परी-कथा व लोक-कथा के प्रयोग के बारे में पहले ही कहा जा चुका है। इसे रूप देने में उनका शब्द-चयन तथा वर्णन शैली सम्पूर्ण सहायक होते हैं। कहानियों में शब्द योजना छन्दमय तथा बिम्ब भरपूर होते हैं। असम्पूर्ण वाक्यों का प्रयोग कई बार वर्णन को कविता की ऊष्मा देता है। उनकी उपमाएँ कवितामय काव्यमय होती हैं। इस तरह के लेखन के कुछ उदाहरण हैं-‘‘नक्षत्र दिख रहे थे मृत मछलियों की आँखों की तरह’’, सूर्य नवविवाहित तरुण ऑफ़िसर-सा चार बजते ही विदाई लेता था’’, ‘‘तिमि की तरह वपुमान मन्त्री, काले-काले रेखामय मेघों का ऊनी स्वेटर पहने चाँद’’ आदि। उनके उपमा-बिम्ब प्रयोग का एक प्रतिनिधि वर्णन उनकी ‘धूमाभ दिगन्त’ कहानी के निम्नोक्त पंक्तियों से पता चल सकता है-

‘‘शुरू में उसके संगीत शिक्षक थे कुछ भौंरे। वे उसे गुनगुनाना सिखा देने के बाद कोयल ने आगे की जिम्मेदारी ली। ऐसा नहीं था कि कोयल सिर्फ़ अपनी-अपनी कूक से ही अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रही थीं, वे उस लड़की को बुला ले जाती थीं, जंगल के एक ऐसे घने इलाके में, जहाँ किसी गुफा के अन्दर हवा तरह-तरह की ध्वनियाँ उत्पन्न करती थी, जो उसे बुला ले जाती थीं मृदु-मृदु वीणा-वादन करते झरने के किनारे भी। उसे अक्षर सिखाया था ताराओं ने, प्यार करना सिखाया था इन्द्रधनुष ने; मुस्कराना सिखाया था सूर्योदय ने और सूर्यास्त ने सिखाया था विषाद।’’

ये पंक्तियाँ शुद्ध कविता हैं और इसकी भाषा मनोज दास के प्रारम्भिक जीवन के कविता लेखन की सूचना देती है। इस भाषा में एक बात यह भी देखना है कि भाषा कई जगह गम्भीर व शास्त्रीय है तो कहीं अति सरल व प्रवाहपूर्ण भी। भाषा प्रयोग में होता है जटिल संस्कृत शब्दों के साथ सरल ग्राम्य शब्दों के प्रयोग का समन्वय।

मनोज दास की कहानी भूमिका में जो दिशा हमारे सामने पहले दृष्टि गोचर होती है वह है इसका व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण। कहानी राजनीतिक पृष्ठभूमि की हो या सामाजिक समस्या को लेकर, पात्र राजा, जमीदार या साधारण मनुष्य हों, सभी व्यंग्य के पात्र हैं। अधिकांश कहानियों में परिस्थितियाँ भी व्यंग्यात्मक हैं। जैसे कि मन्त्री की टोपी को बन्दर ले जाता है, डॉक्टर निरोग आदमी में रोग का पता लगाते हैं। सूखे के दौरान प्रजाओं के लिए चावल बचाने हेतु जमींदार साहब केवल गोश्त खाते हैं। जमींदार की मूँछ साफ होगी, इसीलिए नायक साहब हेडमास्टर, तहसीलदार सभी चिन्तित हैं। पति-पत्नी में समझौता होता है कि दोनों में से किसी एक की पहले मृत्यु हो जाये तो उसका प्रेत दूसरे को प्रेतलोक से सन्देश भेजेगा। हेडमास्टर पति अपनी पत्नी को किसी दोष के लिए बेंच पर खड़ा होने की सजा देता है। इस सब हास्यकर परिस्थितियों में सहायक होते हैं अद्भुत नामवाले पात्र जैसे: प्रोफे़सर ध्रुपद, मिसेज़ हाइफे़न, बन्दर झाण्डु, उग्रचरण, मिस्टर तिंतुली, चाकोरी कुतुरी आदि।

इस बात से यह सिद्ध करना उचित नहीं कि मनोज दास की कहानियाँ केवल हास्य-रस प्रधान हैं। हालाँकि वर्णन तथा दृष्टिकोण में व्यंग्य का प्रभाव है, पर कहानियाँ भिन्न-भिन्न परिस्थितियों, समस्याओं व पात्रों को लेकर लिखी गयी हैं। कई कहानियों में राजनीतिक नेता उनकी विद्रूपता के शिकार बने हैं। परन्तु इन सब कहानियों में वे प्रत्यक्ष या प्रचार-धर्मी नहीं हैं। मानों एक विशेष दूरी पर रहकर ही वे राजनीतिक स्वरूप का विश्लेषण करते हैं। कुछ और कहानियाँ स्वतन्त्रता के पूर्व स्वतन्त्रता आन्दोलन की पृष्ठ-भूमि पर आधारित हैं। इन कहानियों में हम पाते हैं जमींदार, रायसाहब, राजा, अंग्रेज ऑफ़िसर आदि को। ओड़िशा की ग्राम्य जीवन की तसवीर भी उनकी कई कहानियों में उभरी है। इन कहानियों में गाँव-देहात की जीवनचर्या के अलावा वहाँ के रीति-रिवाज, दरिद्रता तथा दयनीयता भी सामने आती है। फिर कई कहानियाँ पूरी तरह भौतिक तथा रहस्यमय विषय वस्तु पर आधारित हैं। कहानी की विषयवस्तु या पृष्ठभूमि जो भी कुछ क्यों न हो, प्रत्येक कहानी का पात्र सफल तथा सम्पूर्ण है, एवं पूरी कहानी एक सहज सिद्धान्त की अधिकारी है। इसके अलावा उनकी कई कहानियाँ सीधे-सादे फे़बल या परीकथा है। नीति कथा पर आधारित मनोज दास की एक लम्बी कहानी ‘आबू पुरूष’ इस तरह की कहानी का एक उत्कृष्ट उदाहरण है-

किसी भारतीय मि. शर्मा के सिर का आबू (ट्यूमर) क्रमशः उसके व्यवसाय में आर्थिक सिद्धि व राजनीतिक विजय का एक विकृत साधन बन गया है।

टी. वी. कम्पनी, खेल पत्रिका के सम्पादक, राष्ट्रपति चुनाव में राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी मि. हायना, गिद्ध टोप कम्पनी आदि सभी ने इस सीधे-सादे भारतीय के बृहत् आबू से लाभ उठाया है। मि. शर्मा ने क्रमशः अनुभव किया है कि आबू, सौभाग्य का प्रतीक है, इसलिए उसे न कटवाकर वह अपने देश लौट आया। यहाँ कम्पनी मालिक के साथ चुनाव में मि. शर्मा प्रतिद्वन्द्वी बनते हैं और जीते भी हैं। तृष्णा ज़्यादा-से-ज़्यादा बढ़ती जाती है। मन्त्री होने की आशा पनपती है। यही मानों उनका आखिरी स्वप्न तथा जीवन की सर्वश्रेष्ठ परिपूर्णता है। लेकिन अध्यात्म विश्वासी माँ उसके मन में सद्बुद्धि जगाती है। गुरु की कृपा से आबू ठीक हो जाता है। यह भारतीय विश्वास की एक वास्तविकता है। इस अति भौतिक प्रक्रिया को चुनाव के मैदान में प्रयोग करके जीतने का स्वप्न में मि. शर्मा झूम उठते हैं। परन्तु सरल विश्वासी माँ उसे उपदेश देती है-‘‘बेटे, फिर कभी ऐसी गलती मत करना। गुरु का आशीर्वाद तुझे आबू-मुक्त करने के लिए है। यह मुक्ति की बात प्रचार करके, बेचकर फायदा उठाने के लिए नहीं है।’’

इस कहानी का नीति-वाक्य अन्त में माँ के मुँह से कहलवाया गया है-‘‘तेरे इस आबू-मुक्ति के दौरान मैंने सपना देखा है कि सारी दुनिया शायद कभी आबू-तान्त्रिक राजनीति तथा व्यवसाय से एक दिन मुक्त हो जायेगी।’’ मनोज दास की कहानियों की एक और विशेषता यह है कि चूँकि कहानी का पात्र व पृष्ठ भूमि किसी एक देश व काल का (जैसे कि ओड़िशा के गाँव, स्वतन्त्रता के पूर्व का समय आदि) है, परन्तु पूरी कहानी और उसका सार तत्त्व समय तथा स्थान से परे हैं। ये कहानियाँ किसी देश या समय की हो सकती हैं। क्योंकि मनुष्य की हँसी-रुलाई आदिम प्रवृत्तियाँ, ईर्ष्या-द्वेष प्रेम-सद्भाव, किसी एक देश या काल के नहीं होते।

यह पहले ही कहा जा चुका है कि मनोज दास की कहानियों की शुरूआत एक नाटकीय चमत्कारिता से होती है। ठीक उसी तरह उनकी कहानियों के अन्त में भी होती है एक अजीब आकस्मिकता। और शुरुआत तथा अन्त के बीच में होती है एक योजनाबद्ध कथा-वस्तु। इसीलिए उनके बारे में कहा गया है: ‘‘उन्हें कहानी-लेखक की बजाय कहानी कथक कहना ज्यादा उचित होगा। उसकी कथन शैली की विदग्ध भंगिमा में होता है लघुधर्मी चपलता, फिर घटना की सृष्टि में विश्वास के अयोग्य एक प्रत्यय पाठक के मन में उत्पन्न करते हुए कथाकार ओ. हेनरी जैसा अन्त करना मनोज दास की कहानियों की विशेषता है।’’

मनोज दास के बारे में अन्त में इतना ही कहा जा सकता है कि चालीस साल पहले कहानी लेखन प्रारम्भ करके अब तक वे लेखन में सक्रिय हैं। उनका साहित्यिक योगदान बहुत बहुमूल्य है और ओड़िया साहित्य उनसे और भी अनेक कृतियों की आपेक्षा रखता है। अपने लेखन के बारे में मनोज दास ने कई साक्षात्कारों में काफ़ी कुछ कहा है। साक्षात्कारों के अंश इस संग्रह के अन्त में दिये गये हैं। इससे मनोजदास के स्रष्टा मन का कुछ आभास मिल सकता है।

सन्दर्भ