ब्रजभाषा साहित्य

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(ब्रज भाषा साहित्य से अनुप्रेषित)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

ब्रजभाषा विक्रम की १३वीं शताब्दी से लेकर २०वीं शताब्दी तक भारत के मध्यदेश की मुख्य साहित्यिक भाषा एवं साथ ही साथ समस्त भारत की साहित्यिक भाषा थी। विभिन्न स्थानीय भाषाई समन्वय के साथ समस्त भारत में विस्तृत रूप से प्रयुक्त होने वाली हिन्दी का पूर्व रूप यह ‘ब्रजभाषा‘ अपने विशुद्ध रूप में आज भी आगरा, धौलपुर, मथुरा और अलीगढ़ जिलों में बोली जाती है जिसे हम 'केंद्रीय ब्रजभाषा' के नाम से भी पुकार सकते हैं।

ब्रजभाषा में ही प्रारम्भ में हिन्दी-काव्य की रचना हुई। सभी भक्त कवियों, रीतिकालीन कवियों ने अपनी रचनाएं इसी भाषा में लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानन्द, बिहारी, इत्यादि। वस्तुतः उस काल में हिन्दी का अर्थ ही ब्रजभाषा से लिया जाता था।

सामान्य ब्रजभाषा-क्षेत्र की सीमाओं का उल्लंघन करके एक वृहत्तर क्षेत्र में ब्रजभाषा साहित्य की रचना हुई। इस बात का अनुमान रीतिकाल के कवि आचार्य भिखारीदास ने किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ब्रजभाषा का परिचय ब्रज से बाहर रहने वाले कवियों से भी मिल सकता है। इस क्षेत्र-विस्तार में भक्ति आन्दोलन का भी हाथ रहा। कृष्ण-भक्ति की रचनाओं में एक प्रकार से यह शैली रुढ़ हो गई थी। पं॰ विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने अनेक प्रदेशों के ब्रज भाषा भक्त-कवियों की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार प्रकट की है-

ब्रज की वंशी-ध्वनि के साथ अपने पदों की अनुपम झंकार मिलाकर नाचने वाली मीरा राजस्थान की थीं, नामदेव महाराष्ट्र के थे, नरसी गुजरात के थे, भारतेन्दु हरिश्चंद्र भोजपुरी भाषा क्षेत्र के थे। ...बिहार में भोजपुरी, मगही और मैथिली भाषा क्षेत्रों में भी ब्रजभाषा के कई प्रतिभाशाली कवि हुए हैं। पूर्व में बंगाल के कवियों ने भी ब्रजभाषा में कविता लिखी।

पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा। और भी पश्चिम में गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। कच्छ के महाराव लखपत बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था। इस प्रकार मध्यकाल में ब्रजभाषा का प्रसार ब्रज एवं उसके आसपास के प्रदेशों में ही नहीं, पूर्ववर्ती प्रदेशों में भी रहा। बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, काठियावाड़ एवं कच्छ आदि में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ हुई।

साहित्यिक ब्रजभाषा के सबसे प्राचीनतम उपयोग का प्रमाण महाराष्ट्र में मिलता है। तेरहवीं शताब्दी के अंत में महानुभाव सम्प्रदाय के सन्त कवियों ने एक प्रकार की ब्रजभाषा का उपयोग किया। गोकुल में वल्लभ सम्प्रदाय का केन्द्र बनने के बाद से ब्रजभाषा में कृष्ण साहित्य लिखा जाने लगा और इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि सूरदास से आधुनिक काल के वियोगी हरि तक ब्रजभाषा में प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना होती रही। साहित्यिक ब्रजभाषा का विस्तार पूरे भारत में हुआ और अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी में दूर दक्षिण में तंजौर और केरल में ब्रजभाषा की कविता लिखी गई। सौराष्ट्रकच्छ में ब्रजभाषा काव्य की पाठशाला चलायी गई, जो स्वाधीनता की प्राप्ति के कुछ दिनों बाद तक चलती रही थी। उधर पूरब में यद्यपि साहित्यिक ब्रज में तो नहीं साहित्यिक ब्रज रूपी स्थानीय भाषाओं में पद रचे जाते रहे। बंगाल और असम में इन भाषा को ‘ब्रजबुलि’ नाम दिया गया। इस ‘ब्रजबुली’ का प्रचार कीर्तन पदों में और दूर मणिपुर तक हुआ।

साहित्यिक ब्रजभाषा की कविता ही गढ़वाल, कांगड़ा, गुलेर बूंदी, मेवाड़, किशनगढ़ की चित्रकारी का आधार बनी और कुछ क्षेत्रों में तो चित्रकारों ने कविताएँ भी लिखीं। गढ़वाल के मोलाराम का नाम उल्लेखनीय है। गुरु गोविन्द सिंह के दरबार में ब्रजभाषा के कवियों का एक बहुत बड़ा वर्ग था। उत्तर भारत के संगीत में चाहे ध्रुपद, धमार, ख्याल, ठुमरी या दादरे में सर्वत्र हिन्दू-मुसलमान सभी प्रकार के गायकों के द्वारा ब्रजभाषा का ही प्रयोग होता रहा और आज भी जिसे हिन्दुस्तानी संगीत कहा जाता है, उसके ऊपर ब्रजभाषा ही छायी हुई है और आधुनिक हिन्दी की व्यापक सर्वदेशीय भूमिका इसी साहित्यिक ब्रजभाषा के कारण सम्भव हुई।

उन्नीसवीं शताब्दी तक काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा का अक्षुण्ण देशव्यापी वर्चस्व रहा। इस प्रकार लगभग आठ शताब्दी तक बहुत बड़े व्यापक क्षेत्र में मान्यता प्राप्त करने वाली साहित्यिक भाषा रही।

एक प्रकार से ब्रजभाषा ही मुक्तक काव्य भाषा के रूप में उत्तर भारत के बहुत बड़े हिस्से में एकमात्र मान्य भाषा थी। उसकी विषयवस्तु श्री कृष्ण प्रेम तक ही सीमित नहीं थी, उसमें सगुण-निर्गुण भक्ति की विभिन्न धाराओं की अभिव्यक्ति सहज रूप में हुई और इसी कारण ब्रजभाषा जनसाधारण के कंठ में बस गई। 1814 में एक अंग्रेज़ अधिकारी मेजर टॉमस ने ‘सलेक्शन फ़्रॉम दि पॉपुलर पोयट्री ऑफ़ दि हिन्दूज’ नामक पुस्तक में सिपाहियों से संग्रहीत लोकप्रिय पदों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। इस में अधिकतर दोहे, कवित्त और सवैये हैं, जो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों के द्वारा रचित हैं एवं केशवदास के भी छन्द इस संकलन में हैं।

रचना बाहुल्य के आधार पर प्राय: यह समझा जाता है कि ब्रजभाषा काव्य एकांगी या सीमित भावभूमि का काव्य है। ब्रजभाषा काव्य का विषय मूल रूप से शृंगारी चेष्टा-वर्णन तक ही सीमित है। साधारण मनुष्य के दुःख-दर्द या उनके जीवन-संघर्ष का चित्र नहीं है। पर जब हम भक्ति-कालीन काव्य का विस्तृत सर्वेक्षण करते हैं और उत्तर मध्यकाल की नीति-प्रधान रचनाओं में यह संसार बहुत विस्तृत दिखाई पड़ता है। चाहे सगुण भक्त कवि हों अथवा निर्गुण भक्त कवि; आचार्य कवि हों, स्वछन्द कवि या सूक्तिकार - सभी लोक व्यवहार के प्रति बहुत सजग हैं और इन सबकी लौकिक जीवन की समझ बहुत गहरी है।

भारतेन्दु की मुकरियों में व्यंग्य रूप में सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया, सामान्य-जीवन के बिम्ब पर आधारित प्रस्तुत मिलती है-

सीटी देकर पास बुलावै, रुपया ले तो निकट बिठावै ।
लै भागै मोहि खेलहि खेल, क्यों सखि साजन ना सखि रेल ॥
भीतर-भीतर सब रस चूसै, हंसि-हंसि तन मन धन सब मूसै ।
ज़ाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन नहिं अंगरेज़ ॥

ब्रजभाषा का गद्य साहित्य

प्रायः ब्रजभाषा साहित्य की बात करते समय उसमें गद्य का समावेश नहीं किया जाता। इसका कारण यह नहीं है कि ब्रजभाषा में गद्य और साहित्यिक गद्य है ही नहीं। वैष्णवों के वार्ता साहित्य में, भक्ति ग्रन्थों के टीका साहित्य में तथा रीतकालीन ग्रन्थों के टीका साहित्य में ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है। छापाखाने के आगमन के बाद गद्य का महत्व बढ़ा। लल्लूलाल जी ने अपने प्रेमसागर में ब्रजभाषा से भावित गद्य की रचना की और वास्तव में वह गद्य ही आधुनिक गद्य की भूमि बना।

गुरु गोरखनाथ ( १३वीं सदी ) ने सदाचार और धर्म के तत्व की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया और इसी सूत्र से हिन्दी के गद्य-साहित्य की सृष्टि कर प्रथम हिन्दी-गद्य-लेखक के रूप में वे कार्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हुए। गुरु गोरखनाथ की पद्य की भाषा में अनेक प्रान्तों के शब्दों का प्रयोग है। किन्तु गद्य की भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा है तथा उसमें संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। यथा---

सो वह पुरुष संपूर्ण तीर्थ अस्नान करि चुकौ, अरु संपूर्ण पृथ्वी ब्राह्मननि कौ दै चुकौ, अरु सह जग करि चुकौ, अरु देवता सर्व पूजि चुकौ, अरु पितरनि को संतुष्ट करि चुकौ, स्वर्गलोक प्राप्त करि चुकौ, जा मनुष्य के मन छन मात्रा ब्रह्म के विचार बैठो।

गोस्वामी विट्ठलनाथ के पुत्र गोस्वामी गोकुलनाथ ने भी 252 एवं 84 वैष्णवों की वार्ता नामक दो ग्रन्थ रचे। गोस्वामीजी की भाषा ब्रजभाषा व खड़ीबोली का मिश्र रूप है :

ऐसो पद श्री आचार्य जी महाप्रभून के आगे सूरदास जी ने गायौ सो सुनि के श्री आचार्य जी महाप्रभून ने कह्यौ जो सूर ह्वै के ऐसो घिघियात काहै को है कछू भगवल्लीला वर्णन करि। तब सूरदास ने कह्यौ जो महाराज हौं तो समझत नाहीं।
नन्ददास जी तुलसीदास के छोटे भाई हते। सो बिनकूं नाच तमासा देखबे को तथा गान सुनबे को शोक बहुत हतो।

देव महाकवि थे और साधारण सी बात को भी अत्यन्त अलंकृत शैली में लिखने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति थी। उनकी ब्रज व खड़ीबोली मिश्रित भाषा का उदाहरण प्रस्तुत है -

सिध्दि श्री 108 श्री श्री पातसाहि जी श्री दलपति जी अकबर साह जी आम खास में तषत ऊपर विराजमान हो रहे और आम खास भरने लगा है जिसमें तमाम उमराव आय आय कुर्निश बजाय जुहार कर के अपनी अपनी बैठक पर बैठ जाया करे अपनी-अपनी मिसिल से।

ब्रजभाषा के गद्य में कथा-वार्ता का एकदेशीय विकास हुआ था। लल्लू लाल जी ने प्रेमसागर की रचना की। वे आगरा के रहने वाले थे, इसलिए उनकी रचना में ब्रजभाषा के शब्दों की भरमार होना स्वाभाविक था। उस समय भाषा का कोई सर्वमान्य आदर्श उनके सामने नहीं था, लल्लूलाल जी ने प्रेम सागर अपनी अनुमानी हिन्दी में बनाई। ये उर्दू के आदर्श को त्याग कर चले, इसलिए आवश्यकता से अधिक ब्रजभाषा के शब्द उनकी रचना में प्रयोग हुए यथा-

इतना कह महादेव जी गिरिजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय, नीर में न्हाय, न्हिलाय, अति लाड़ प्यार से लगे पार्वती जी को वस्त्रा-'आभूषण पहिराने।
बालों की श्यामता के आगे अमावस्या की ऍंधोरी फीकी लगने लगी। उसकी चोटी सटकाई लख नागिन अपनी केंचुली छोड़ सटक गयी। भौंह की बँकाई निरख धानुष धकधकाने लगा। ऑंखों की बड़ाई चंचलाई पेख मृग मीन खंजन खिसाय रहे।

मुन्शी सदासुख लाल ने धार्मिक कथा का वर्णन किया तो इन्शाअल्ला खाँ ने बहुत ही रोचक और सरल तथा मुहावरेदार ठेठ भाषा में प्रेम-कहानी लिखी, उन दोनों के सामने उर्दू का आदर्श था, इसलिए उनकी भाषा विशेष परिमार्जित और खड़ी बोली के रंग में ढली हुई है, इन्शा की भाषा के दो नमूने देखिए-

एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने धयान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिन्दवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले।
सिर झुका कर नाक रगड़ता हूँ, उस अपने बनाने वाले के सामने जिसने हम सबको बनाया है और बात की बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया।

इस प्रकार पद्य की भाँति ब्रजभाषा का गद्य भी धीरे-धीरे खड़ी बोली में परिवर्तित होने लगा। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त से ब्रजभाषा का स्थान खड़ीबोली हिन्दी को मिला, उसमें गद्य की नयी भूमिका का महत्व के साथ साथ अन्य बड़ा कारण था- अंग्रेजों के द्वारा उत्तर भारत में कचहरी भाषा के रूप में उर्दू भाषा को मान्यता देना।

इस प्रकार स्वतन्त्रता पश्चात तक हिन्दी का अर्थ ब्रजभाषा ही बना रहा। देश की सांस्कृतिक एकता के लिए ब्रजभाषा एक ज़बर्दस्त कड़ी की भाँति सात शताब्दियों से अधिक समय तक बनी रही और आधुनिक हिन्दी की व्यापक सर्वदेशीय भूमिका इसी साहित्यिक ब्रजभाषा के विशद व व्यापक सर्वदेशीय प्रभाव के कारण सम्भव हुई है।

ब्रजभाषा साहित्य का इतिहास

ब्रजभाषा काव्य का व्यवस्थित इतिहास अष्टछाप के कवियों से ही प्राप्त होता है। इससे पहले यत्र-तत्र स्फुट रचनाएँ तो प्राप्त होती हैं किन्तु प्रामाणिक रूप से ब्रजभाषा की किसी भी रचना या रचनाकार का उल्लेख नहीं प्राप्त होता। भाषा की दृष्टि से सूरदास और परमानन्द दास से पहले ब्रजभाषा में रचना करने वाले किसी कवि का परिचय इतिहास नहीं देता।

अपभ्रंश काल के साथ ही साथ ब्रजभाषा के निर्माण के लक्षण भी देखे जा सकते हैं। इस प्रकार ब्रजभाषा काल को संवत् 1200 के आसपास से प्रारम्भ माना जा सकता है। मोटे तौर पर ब्रजभाषा साहित्य को चार कालखण्डों में रखा जा सकता है।

  • (१) संक्रान्तिकालीन ब्रजभाषा साहिय (सं0 1200 से 1411 वि0 तक)
  • (२) प्रारम्भिक ब्रजभाषा साहित्य (सं0 1411 से 1560 ई0 तक)
  • (३) मध्यकालीन ब्रजभाषा साहित्य (सं0 1560 से 1900 वि0 तक)
  • (४) आधुनिक ब्रजभाषा साहित्य (सं0 1900 के पश्चात)

डॉ0 अम्बाप्रसाद ‘सुमन’ ने अपनी "ब्रजभाषा का उद्गम एवं विकास" नामक रचना में संक्रान्ति कालीन ब्रजभाषा के लक्षण हेमचन्द्र व्याकरण ‘1142 ई0’ सन्देश रासक ‘12वीं-13वीं शती ई0 ‘प्राकृत पैंगलम’ ‘1300 -1325 ई 0’ आदि से उदाहरण देकर सिद्ध किये हैं।

डॉ0 शिवप्रसाद सिंह ने अपनी रचना ‘सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य’ में प्रारम्भिक ब्रजभाषा को अपभ्रंश के साहित्यिक रूप के साथ विकसित होते दिखाया है। इसमें न केवल सूरपूर्व के सभी ब्रजभाषा साहित्य को सम्मिलित कर लिया गया है बल्कि सूरकालीन रचना 'छीहल बावनी' (सं0 1584 ) को भी सम्मिलित कर लिया गया है। इसे न भी सम्मिलित किया जाये तो भी उस युग तक ब्रजभाषा का पर्याप्त विकास देखने के लिए अनेक रचनाएँ हैं। इनमें प्रद्युम्न चरित (1411 वि0) से लेकर बैताल पचीसी (1546 वि0) और छिताई वार्ता (सं0 1550 वि0) प्रमुख हैं।

डॉ0 वीरेन्द्रनाथ मिश्र के अनुसार- ‘‘उक्त रचनाओं के साथ गोरखपंथी ग्रन्थों को भी सम्मिलित किया जा सकता है।’’ मध्यकालीन ब्रजभाषा को सूर के प्रादुर्भाव के साथ जोड़ा जा सकता है। यह अकबर के दृढ़ प्रतिष्ठित शासन के काल से प्रारम्भ होती है और अत्यन्त परिनिष्ठित एवं प्रांजल रूप को धारण करती है। सूरदास के अतिरिक्त अष्टछाप के अन्यकवि और १७वीं शती के देव, घनानन्द, भिखारीदास, पद्माकर, लल्लूलाल आदि की रचनाओं में मध्यकालीन ब्रज अपने चरम उत्कर्ष में देखी जा सकती है। संवत् 1900 वि0 के पश्चात आधुनिक ब्रजभाषा के दर्शन होते हैं।

ब्रजभाषा के कवि और उनकी कृतियाँ

कवि कृतियाँ टिप्पणी
सूरदास सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी
नन्ददास रास पञ्चाध्यायी, सुदामाचरित, रस मंजरी
तुलसीदास गीतावली , विनयपत्रिका , कवितावली
नाभाजी भक्तमाल भक्त कवियों का अतिसंक्षिप्त जीवनचरित
गोकुलनाथ चौरासी वैष्णवन की वार्ता, दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता
देव भावविलास, जगद्दर्शन पचीसी, आत्मदर्शन पचीसी, शब्दरसायन
घनानन्द व्रजविलास, कृष्णकौमुदी, अनुभवचंद्रिका
गुरु गोविंदसिंह बिचित्रनाटक
भिखारीदास अमरप्रकाश, शतरंजशतिका, रससारांश, छन्दप्रकाश
बनारसीदास अर्धकथानक
केशव रतन बावनी, जहाँगीर जस चंद्रिका, वीर चरित्र
बिहारी बिहारी सतसई
पद्माकर गंगालहरी, जगद्विनोद, प्रतापसिंह विरूदावली, प्रबोध पचासा, ईश्वर-पचीसी
लल्लूलाल राजनीति, माधव विलास, लालचंद्रिका ब्रजभाषा गद्य
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र प्रेममालिका, वर्षाविनोद, कृष्णचरित
वियोगी हरि वीर सतसई मंगलाप्रसाद पारितोषिक

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ