प्रियप्रवास

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(प्रिय प्रवास से अनुप्रेषित)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

प्रियप्रवास, अयोध्यासिंह "हरिऔध" की हिन्दी काव्य रचना है। हरिऔध जी को काव्यप्रतिष्ठा "प्रियप्रवास" से मिली। इसका रचनाकाल सन् 1909 से सन् 1913 है। यह खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है

वर्ण्य-विषय

प्रियप्रवास विरहकाव्य है। कृष्णकाव्य की परम्परा में होते हुए भी, उससे भिन्न है। "हरिऔध" जी ने कहा है - मैंने श्री कृष्णचंद्र को इस ग्रंथ में एक महापुरुष की भाँति अंकित किया है, ब्रह्म करके नहीं। कृष्णचरित को इस प्रकार अंकित किया है जिससे आधुनिक लोग भी सहमत हो सकें।

महापुरुष के रूप में अंकित होते हुए भी "प्रियप्रवास" के कृष्ण में वही अलौकिक स्फूर्ति है जो अवतारी ब्रह्मपुरुष में। कवि ने कृष्ण का चरित्रचित्रण मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किया है, उनके व्यक्तित्व में सहानुभूति, व्युत्पन्नमतित्व और कर्मकौशल है।

कृष्ण के चरित्र की तरह "प्रियप्रवास" की राधा के चरित्र में भी नवीनता है। उसमें विरह की विकलता नहीं है, व्यथा की गंभीरता है। उसने कृष्ण के कर्मयोग को हृदयंगम कर लिया है। कृष्ण के प्रति उसका प्रेम विश्वात्म और उसकी वेदना लोकसेवा बन गई है। प्रेमिका देवी हो गई है, वह कहती हैं :

आज्ञा भूलूँ न प्रियतम की, विश्व के काम आऊँ
मेरा कौमार-व्रत भव में पूर्णता प्राप्त होवे।

"प्रियप्रवास" में यद्यपि कृष्ण महापुरुष के रूप में अंकित हैं, तथापि इसमें उनका यह रूप आनुषंगिक है। वे विशेषत: पारिवारिक और सामाजिक स्वजन हैं। जैसा पुस्तक के नाम से स्पष्ट है, मुख्य प्रसंग है - "प्रियप्रवास", परिवार और समाज के प्रिय कृष्ण का वियोग। अन्य प्रसंग अवांतर हैं। यद्यपि वात्सल्य, सख्य और माधुर्य का प्राधान्य है और भाव में लालित्य है, तथापि यथास्थान ओज का भी समावेश है। समग्रत: इस महाकाव्य में वर्णनबाहुल्य और वाक्वैदग्ध्य का आधिक्य है। जहाँ कहीं संवेदना तथा हार्दिक उद्गीर्णता है, वहाँ रागात्मकता एवं मार्मिकता है। विविध ऋतुओं, विविध दृश्यों विविध चित्तवृत्तियों और अनुभूतियों के शब्दचित्र यत्रतत्र बड़े सजीव हैं।

भाषा, छन्द एवं शैली

इसके पहिले से ही हिंदी कविता में ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली की स्थापना हो गई थी। मैथिलीशरण गुप्त का "जयद्रथवध" (खंडकाव्य) प्रकाशित हो चुका था। फिर भी खड़ी बोली में भाषा, छंद और शैली का नवीन प्रयोग किया जा रहा था। "प्रियप्रवास" भी ऐसा ही काव्यप्रयोग है। यह 'भिन्न तुकांत' अथवा अतुकांत महाकाव्य है। इसके पूर्व खड़ी बोली में महाकाव्य के रूप में अतुकांत का अभाव था। हरिऔध जी ने "प्रियप्रवास" की विस्तृत भूमिका में अपने महाकाव्य के लिए अतुकांत की आवश्यकता और उसके लिए उपयुक्त छंद पर विचार किया है। अतुकांत उनके लिए "भाषासौंदर्य" का "साधन" है। छंद और भाषा के संबंध में उन्होंने कहा हैं - "भिन्न तुकांत कविता लिखने के लिए संस्कृत वृत्त बहुत ही उपयुक्त हैं - कुछ संस्कृत वृत्तों के कारण और अधिकतर मेरी रुचि के कारण इस ग्रंथ की भाषा संस्कृतगर्भित है"।

"प्रियप्रवास" यद्यपि संस्कृतबहुल और समासगुंफित है, तथापि इसकी भाषा में यथास्थान बोलचाल के शब्दों का भी समावेश है। अतुकांत होते हुए भी इसके पदप्रवाह में प्राय: सानुप्रास कविता जैसा संगीत है, छंद और भाषा में लयप्रवाह है, फिर भी वर्णिक छंद के कारण यत्रतत्र भाषा हिंदी की पष्टि से कृत्रिम हो गई है, जकड़ सी गई है।

"प्रियप्रवास" द्विवेदी युग में प्रकाशित हुआ था। खड़ी बोली की काव्यकला (भाषा, छंद, अतुकांत, इत्यादि) में बहुत परिवर्तन हो चुका है। किंतु एक युग बीत जाने पर भी खड़ी बोली के काव्य-विकास में "प्रियप्रवास" का ऐतिहासिक महत्व है।

सन्दर्भ

अन्य परियोजनाओं पर

बाहरी कड़ियाँ