देवनागरी का इतिहास
देवनागरी लिपि की जड़ें प्राचीन ब्राह्मी परिवार में हैं। गुजरात के कुछ शिलालेखों की लिपि नागरी लिपि से बहुत मेल खाती है। ये शिलालेख प्रथम शताब्दी से चौथी शताब्दी के बीच के हैं।[१] ७वीं शताब्दी और उसके बाद नागरी का प्रयोग लगातार देखा जा सकता है।
'नागरी' शब्द का इतिहास
'नागरी' शब्द की उत्पत्ति के विषय में मतभेद है। कुछ लोग इसका केवल 'नगर की' या 'नगरों में व्यवहृत' ऐसा अर्थ करके पीछा छुड़ाते हैं। बहुत लोगों का यह मत है कि गुजरात के नागर ब्रह्मणों के कारण यह नाम पड़ा। गुजरात के नागर ब्राह्मण अपनी उत्पत्ति आदि के संबंध में स्कंदपुराण के नागर खण्ड का प्रमाण देते हैं। नागर खंड में चमत्कारपुर के राजा का वेदवेत्ता ब्राह्मणों को बुलाकर अपने नगर में बसाना लिखा है। उसमें यह भी वर्णित है कि एक विशेष घटना के कारण चमत्कारपुर का नाम 'नगर' पड़ा और वहाँ जाकर बसे हुए ब्राह्मणों का नाम 'नागर'। गुजरात के नागर ब्राह्मण आधुनिक बड़नगर (प्राचीन आनन्दपुर) को ही 'नगर' और अपना स्थान बतलाते हैं। अतः नागरी अक्षरों का नागर ब्राह्मणों से संबंध मान लेने पर भी यही मानना पड़ता है कि ये अक्षर गुजरात में वहीं से गए जहाँ से नागर ब्राह्मण गए। गुजरात में दूसरी और सातवीं शताब्दी के बीच के बहुत से शिलालेख, ताम्रपत्र आदि मिले हैं जो ब्राह्मी और दक्षिणी शैली की पश्चिमी लिपि में हैं, नागरी में नहीं। गुजरात में सबसे पुराना प्रामाणिक लेख, जिसमें नागरी अक्षर भी हैं, गुर्जरवंशी राजा जयभट (तृतीय) का कलचुरि (चेदि) संवत् ४५६ (ई० स० ३९९) का ताम्रपत्र हैं। यह ताम्रशासन अधिकांश गुजरात की तत्कालीन लिपि में है, केवल राजा के हस्ताक्षर (स्वहस्ती मम श्री जयभटस्य) उतरी भारत की लिपि में हैं जो नागरी से मिलती-जुलती है। एक बात और भी है। गुजरात में जितने दानपत्र उत्तरी भारत की अर्थात् नागरी लिपि में मिले हैं वे बहुधा कान्यकुब्ज, पाटलि, पुण्ड्रवर्धन आदि से लिए हुए ब्राह्मणों को ही प्रदत्त हैं। राष्ट्रकूट राजाओं के प्रभाव से गुजरात में उत्तरी भारत की लिपि विशेष रूप से प्रचलित हुई और नागर ब्राह्मणों के द्वारा व्यवह्वत होने के कारण वहाँ नागरी कहलाई। यह लिपि मध्य आर्यावर्त की थी। सबसे सुगम, सुंदर और नियमबद्ध होने कारण भारत की प्रधान लिपि बन गई।
'नागरी लिपि' का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता। इसका कारण यह है कि प्राचीन काल में वह 'ब्राह्मी' ही कहलाती थी, उसका कोई अलग नाम नहीं था। यदि 'नगर' या 'नागर' ब्राह्मणों से 'नागरी' का संबंध मान लिया जाय तो आधिक से अधिक यही कहना पड़ेगा कि यह नाम गुजरात में जाकर पड़ गया और कुछ दिनों तक उधर ही प्रसिद्ध रहा। बौद्धों के प्राचीन ग्रंथ 'ललितविस्तर' में जो उन ६४ लिपियों के नाम गिनाए गए हैं जो बुद्ध को सिखाई गईं, उनमें 'नागरी लिपि' नाम नहीं है, 'ब्राह्मी लिपि' नाम हैं। 'ललितविस्तर' का चीनी भाषा में अनुवाद ई० स० ३०८ में हुआ था। जैनों के 'पन्नवणा सूत्र' और 'समवायांग सूत्र' में १८ लिपियों के नाम दिए हैं जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) है। उन्हीं के भगवतीसूत्र का आरंभ 'नमो बंभीए लिबिए' (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) से होता है। नागरी का सबसे पहला उल्लेख जैन धर्मग्रंथ नंदीसूत्र में मिलता है जो जैन विद्वानों के अनुसार ४५३ ई० के पहले का बना है। 'नित्यासोडशिकार्णव' के भाष्य में भास्करानंद 'नागर लिपि' का उल्लेख करते हैं और लिखते हैं कि नागर लिपि' में 'ए' का रूप त्रिकोण है (कोणत्रयवदुद्भवी लेखो वस्य तत्। नागर लिप्या साम्प्रदायिकैरेकारस्य त्रिकोणाकारतयैब लेखनात्)। यह बात प्रकट ही है कि अशोकलिपि में 'ए' का आकार एक त्रिकोण है जिसमें फेरफार होते होते आजकल की नागरी का 'ए' बना है। शेषकृष्ण नामक पंडित ने, जिन्हें साढे़ सात सौ वर्ष के लगभग हुए, अपभ्रंश भाषाओं को गिनाते हुए 'नागर' भाषा का भी उल्लेख किया है।
सबसे प्राचीन लिपि भारतवर्ष में अशोक की पाई जाती है जो सिन्ध नदी के पार के प्रदेशों (गांधार आदि) को छोड़ भारतवर्ष में सर्वत्र बहुधा एक ही रूप की मिलती है। अशोक के समय से पूर्व अब तक दो छोटे से लेख मिले हैं। इनमें से एक तो नैपाल की तराई में 'पिप्रवा' नामक स्थान में शाक्य जातिवालों के बनवाए हुए एक बौद्ध स्तूप के भीतर रखे हुए पत्थर के एक छोटे से पात्र पर एक ही पंक्ति में खुदा हुआ है और बुद्ध के थोड़े ही पीछे का है। इस लेख के अक्षरों और अशोक के अक्षरों में कोई विशेष अंतर नहीं है। अन्तर इतना ही है कि इनमें दीर्घ स्वरचिह्नों का अभाव है। दूसरा अजमेर से कुछ दूर बड़ली नामक ग्राम में मिला हैं महावीर संवत् ८४ (= ई० स० पूर्व ४४३) का है। यह स्तम्भ पर खुदे हुए किसी बड़े लेख का खंड है। उसमें 'वीराब' में जो दीर्घ 'ई' की मात्रा है वह अशोक के लेखों की दीर्घ 'ई' की मात्रा से बिलकुल निराली और पुरानी है। जिस लिपि में अशोक के लेख हैं वह प्राचीन आर्यो या ब्राह्मणों की निकाली हुई ब्राह्मी लिपि है। जैनों के 'प्रज्ञापनासूत्र' में लिखा है कि 'अर्धमागधी' भाषा जिस लिपि में प्रकाशित की जाती है वह ब्राह्मी लिपि है'। अर्धमागधी भाषा मथुरा और पाटलिपुत्र के बीच के प्रदेश की भाषा है जिससे हिन्दी निकली है। अतः ब्राह्मी लिपि मध्य आर्यावर्त की लिपि है जिससे क्रमशः उस लिपि का विकास हुआ जो पीछे नागरी कहलाई। मगध के राजा आदित्यसेन के समय (ईसा की सातवीं शताब्दी) के कुटिल मागधी अक्षरों में नागरी का वर्तमान रूप स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
ईसा की नवीं और दसवीं शताब्दी से तो नागरी अपने पूर्ण रूप में लगती है। किस प्रकार आशोक के समय के अक्षरों से नागरी अक्षर क्रमशः रूपान्तरित होते होते बने हैं यह पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने 'प्राचीन लिपिमाला' पुस्तक में और एक नकशे के द्वारा स्पष्ट दिखा दिया है।
रुद्रपट्टण शामाशास्त्री ने भारतीय लिपि की उत्पत्ति के सम्बंध में एक नया सिद्धान्त प्रकट किया है। उनका कहना कि प्राचीन समय में प्रतिमा बनने के पूर्व देवताओं की पूजा कुछ सांकेतिक चिह्नों द्वारा होती थी, जो कई प्रकार के त्रिकोण आदि यंत्रों के मध्य में लिखे जाते थे। ये त्रिकोण आदि यंत्र 'देवनगर' कहलाते थे। उन 'देवनगरों' के मध्य में लिखे जानेवाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न कालान्तर में अक्षर माने जाने लगे। इसी से इन अक्षरों का नाम 'देवनागरी' पड़ा'।
नागरी लिपि का उद्भव और विकास
लगभग ई. 350 के बाद ब्राह्मी की दो शाखाएँ लेखन शैली के अनुसार मानी गई हैं। विन्ध्य से उत्तर की शैली उत्तरी तथा दक्षिण की (बहुधा) दक्षिणी शैली।
- (1) उत्तरी शैली के प्रथम रूप का नाम "गुप्तलिपि" है। गुप्तवंशीय राजाओं के लेखों में इसका प्रचार था। इसका काल ईसवी चौथी पाँचवीं शती है।
- (2) कुटिल लिपि का विकास "गुप्तलिपि" से हुआ और छठी से नवीं शती तक इसका प्रचलन मिलता है। आकृतिगत कुटिलता के कारण यह नामकरण किया गया। इसी लिपि से नागरी का विकास नवीं शती के अंतिम चरण के आसपास माना जाता है।
राष्ट्रकूट राजा "दंतदुर्ग" के एक ताम्रपत्र के आधार पर दक्षिण में "नागरी" का प्रचलन संवत् 675 (754 ई.) में था। वहाँ इसे "नंदिनागरी" कहते थे। राजवंशों के लेखों के आधार पर दक्षिण में 16वीं शती के बाद तक इसका अस्तित्व मिलता है। देवनागरी (या नागरी) से ही "कैथी", "महाजनी", "राजस्थानी" और "गुजराती" आदि लिपियों का विकास हुआ। प्राचीन नागरी की पूर्वी शाखा से दसवीं शती के आसपास "बँगला" का आविर्भाव हुआ। 11वीं शताब्दी के बाद की "नेपाली" तथा वर्तमान "बँगला", "मैथिली", एवं "उड़िया", लिपियाँ इसी से विकसित हुई। भारतवर्ष के उत्तर पश्चिमी भागों में (जिसे सामान्यतः आज कश्मीर और पंजाब कहते हैं) ई. 8वीं शती तक "कुटिललिपि" प्रचलित थी। कालान्तर में ई. 10वीं शताब्दी के आस पास "कुटिल लिपि" से ही "शारदा लिपि" का विकास हुआ। वर्तमान कश्मीरी, टाकरी (और गुरुमुखी के अनेक वर्णसंकेत) उसी लिपि के परवर्ती विकास हैं।
दक्षिणी शैली की लिपियाँ प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उस परिवर्तित रूप से निकली है जो क्षत्रप और आंध्रवंशी राजाओं के समय के लेखों में, तथा उनसे कुछ पीछे के दक्षिण की नासिक, कार्ली आदि गुफाओं के लेखों में पाया जाता है। (भारतीय प्राचीन लिपिमाला)।
सिद्धमात्रिका आदि अन्य लिपियों का नागरी से निकट सम्बन्ध है। सिद्धमात्रिका का उपयोग ७वीं से १०वीं शताब्दी के बीच इण्डोनेशिया, वियतनाम, जापान, तथा पूर्वी एशिया के अन्य भागों में हुआ है। [३][४]
इस प्रकार निम्नलिखित बातें सामने आती हैं -
- (1) मूल रूप में "देवनागरी" का आदिस्रोत ब्राह्मी लिपि है।
- (2) यह ब्राह्मी की उत्तरी शैली वाली धारा की एक शाखा है।
- (3) गुप्त लिपि के उद्भव के पूर्व भी अशोक ब्राह्मी में थोड़ी बहुत अनेक छोटी मोटी भिन्नताएँ कलिंग शैली, हाथीगुंफा शैली, शुंगशैली आदि के रूप में मिलती हैं।
- (4) गुप्तलिपि की भी पश्चिमी और पूर्वी शैली में स्वरूप अन्तर है। पूर्वी शैली के अक्षरों में कोण तथा सिरे पर रेखा दिखाई पड़ने लगती है। इसे सिद्धमात्रिका कहा गया है।
- (5) उत्तरी शाखा में गुप्तलिपि के अनन्तर कुटिल लिपि आती है। मंदसौर, मधुवन, जोधपुर आदि के "कुटिललिपि" कालीन अक्षर "देवनागरी" से काफी मिलते जुलते हैं।
- (6) कुटिल लिपि से ही "देवनागरी" से काफी मिलते जुलते हैं।
- (7) "देवनागरी" के आद्यरूपों का निरन्तर थोड़ा बहुत रूपान्तर होता गया जिसके फलस्वरूप आज का रूप सामने आया।
मध्यकाल में देवनागरी
देवनागरी लिपि मुसलमानी शासन के दौरान भी इस्तेमाल होती रही है। भारत की प्रचलित अतिप्राचीन लिपि देवनागरी ही रही है। विभिन्न मूर्ति-अभिलेखों, शिखा-लेखों, ताम्रपत्रों आदि में भी देवनागरी लिपि के सहस्राधिक अभिलेख प्राप्य हैं, जिनका काल खंड सन 1008 ई. के आसपास है। इसके पूर्व सारनाथ में स्थित अशोक स्तम्भ के धर्मचक्र के निम्न भाग देवनागरी लिपि में भारत का राष्ट्रीय वचन 'सत्यमेव जयते' उत्कीर्ण है। इस स्तम्भ का निर्माण सम्राट अशोक ने लगभग 250 ई. पूर्व में कराया था। मुसलमानों के भारत आगमन के पूर्व से, भारत की देशभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी या उसका रूपान्तरित स्वरूप था, जिसके द्वारा सभी कार्य सम्पादित किए जाते थे।
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मुसलमानों के राजत्व काल के प्रारम्भ (सन 1200 ई) से सम्राट अकबर के राजत्व काल (1556 ई.-1605ई.) के मध्य तक राजस्व विभाग में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का प्रचलन था। भारतवासियों की फारसी भाषा से अनभिज्ञता के बावजूद उक्त काल में, दीवानी और फौजदारी कचहरियों में फारसी भाषा और उसकी लिपि का ही व्यवहार था। यह मुस्लिम शासकों की मातृभाषा थी।
भारत में इस्लाम के आगमन के पश्चात कालान्तर में संस्कृत का गौरवपूर्ण स्थान फारसी को प्राप्त हो गया। देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भारतीय शिष्टों की शिष्ट भाषा और धर्मभाषा के रूप में तब कुंठित हो गई। किन्तु मुस्लिम शासक देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भाषा की पूर्ण उपेक्षा नहीं कर सके। महमूद गजनवी ने अपने राज्य के सिक्कों पर देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भाषा को स्थान दिया था।
औरंगजेब के शासन काल (1658 ई.- 1707 ई.) में अदालती भाषा में परिवर्तन नहीं हुआ, राजस्व विभाग में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि ही प्रचलित रही। फारसी किबाले, पट्टे रेहन्नामे आदि का हिन्दी अनुवाद अनिवार्य ही रहा। औरंगजेब राजत्व काल औरंगजेब परवर्ती मुसलमानी राजत्व काल (1707 ई से प्रारंभ) एवं ब्रिटिश राज्यारम्भ काल (23 जून 1757 ई. से प्रारंभ) में यह अनिवार्यता सुरक्षित रही। औरंगजेब परवर्ती काल में पूर्वकालीन हिन्दी नीति में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। ईस्ट इंडिया कम्पनी शासन के उत्तरार्ध में उक्त हिन्दी अनुवाद की प्रथा का उन्मूलन अदालत के अमलों की स्वार्थ-सिद्धि के कारण हो गया और ब्रिटिश शासकों ने इस ओर ध्यान दिया। फारसी किबाले, पट्टे, रेहन्नामे आदि के हिन्दी अनुवाद का उन्मूलन किसी राजाज्ञा के द्वारा नहीं, सरकार की उदासीनता और कचहरी के कर्मचारियों के फारसी मोह के कारण हुआ। इस मोह में उनका स्वार्थ संचित था। सामान्य जनता फारसी भाषा से अपरिचित थी। बहुसंख्यक मुकदमेबाज मुवक्किल भी फारसी से अनभिज्ञ ही थे। फारसी भाषा के द्वारा ही कचहरी के कर्मचारीगण अपना उल्लू सीधा करते थे।
शेरशाह सूरी ने अपनी राजमुद्राओं पर देवनागरी लिपि को समुचित स्थान दिया था। शुद्धता के लिए उसके फारसी के फरमान फारसी और देवनागरी लिपियों में समान रूप से लिखे जाते थे। देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी परिपत्र सम्राट अकबर (शासन काल 1556 ई.- 1605ई.) के दरबार से निर्गत-प्रचारित किये जाते थे, जिनके माध्यम से देश के अधिकारियों, न्यायाधीशों, गुप्तचरों, व्यापारियों, सैनिकों और प्रजाजनों को विभिन्न प्रकार के आदेश-अनुदेश प्रदान किए जाते थे। इस प्रकार के चौदह पत्र राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर में सुरक्षित हैं। औरंगजेब परवर्ती मुगल सम्राटों के राज्यकार्य से सम्बद्ध देवनागरी लिपि में हस्तलिखित बहुसंख्यक प्रलेख उक्त अभिलेखागार में द्रष्टव्य हैं, जिनके विषय तत्कालीन व्यवस्था-विधि, नीति, पुरस्कार, दंड, प्रशंसा-पत्र, जागीर, उपाधि, सहायता, दान, क्षमा, कारावास, गुरुगोविंद सिंह, कार्यभार ग्रहण, अनुदान, सम्राट की यात्रा, सम्राट औरंगजेब की मृत्यु सूचना, युद्ध सेना-प्रयाण, पदाधिकारियों को सम्बोधित आदेश-अनुदेश, पदाधिकारियों के स्थानान्तरण-पदस्थानपन आदि हैं।
मुगल बादशाह हिन्दी के विरोधी नहीं, प्रेमी थे। अकबर (शासन काल 1556 ई0- 1605 ई.) जहांगीर (शासन काल 1605 ई.- 1627 ई.), शाहजहां (शासन काल 1627 ई.-1658 ई.) आदि अनेक मुगल बादशाह हिन्दी के अच्छे कवि थे।
मुगल राजकुमारों को हिन्दी की भी शिक्षा दी जाती थी। शाहजहां ने स्वयं दाराशिकोह और शुजा को संकट के क्षणों में हिंदी भाषा और हिन्दी अक्षरों में पत्र लिखा था, जो औरंगजेब के कारण उन तक नहीं पहुंच सका। आलमगीरी शासन में भी हिन्दी को महत्त्व प्राप्त था। औरंगजेब ने शासन और राज्य-प्रबंध की दृष्टि से हिन्दी-शिक्षा की ओर ध्यान दिया और उसका सुपुत्र आजमशाह हिन्दी का श्रेष्ठ कवि था। मोजमशाह शाहआलम बहादुर शाह जफर (शासन काल 1707 इर्1-1712 ई.) का देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी काव्य प्रसिद्ध है। मुगल बादशाहों और मुगल दरबार का हिन्दी कविताओं की प्रथम मुद्रित झांकी 'राग सागरोद्भव संगीत रागकल्पद्रुम' (1842-43ई.), शिवसिंह सरोज आदि में सुरक्षित है।
१८वीं, १९वीं और २०वीं शताब्दी में देवनागरी
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यकाल में एक तरफ अँग्रेजों के आधिपत्य के कारण अँग्रेजी के प्रसार-प्रचार का सुव्यवस्थित अभियान चलाया जा रहा था तो दूसरी तरफ राजकीय कामकाज में और कचहरी में उर्दू समादृत थी। धीरे-धीरे उर्दू के फैशन और हिन्दी विरोध के कारण देवनागरी अक्षरों का लोप होने लगा। अदालती और राजकीय कामकाज में उर्दू का बोलबाला होने से उर्दू पढ़े-लिखे लोगों की भाषा बनने लगी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक उर्दू की व्यापकता थी। खड़ी बोली का अरबी-फारसी रूप ही लिखने-पढ़ने की भाषा होकर सामने आ रहा था। हिन्दी को इससे बड़ा आघात पहुँचा।
कहा जाता है कि हिन्दी वाले भी अपनी पुस्तकें फारसी में लिखने लगे थे, जिसके कारण देवनागरी अक्षरों का भविष्य ही खतरे में पड़ गया था। जैसा कि बालमुकुन्दजी की इस टिप्पणी से स्पष्ट होता है-
- जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिन्दी भाषा हिन्दी न रहकर उर्दू बन गयी। हिन्दी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी-फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी।
उस समय अनेक विचारक, साहित्यकार और सामाजकर्मी हिन्दी और नागरी के समर्थन में उस समय मैदान में उतरे। यह वह समय था जब हिन्दी गद्य की भाषा का परिष्कार और परिमार्जन नहीं हो सका था अर्थात् हिन्दी गद्य का कोई सुव्यवस्थिति और सुनिश्चित नहीं गढ़ा जा सका था। खड़ी बोली हिन्दी घुटनों के बल ही चल रही थी। वह खड़ी होने की प्रक्रिया में तो थी; मगर नहीं हो पा रही थी।
- १६७४ से १९०० तक - मराठा साम्राज्य के सिक्के देवनागरी लिपि में हैं। मुद्राएँ (मोहरें) भी देवनागरी लिपि में हैं। (देखिए, कान्होजी आंग्रे)
- सन १७८४ - कलकता की एशियाटिक सोसिएसिटी के संस्थापक अध्यक्ष विलियम जोंस के 1784 एक लेख से देवनागरी लिपि के आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ। जोंस ने इस लिपि को अन्य लिपियों की अपेक्षा श्रेष्ठ माना था।
- 01 मई 1793 - ईस्ट इंडिया कंपनी शासन का संविधान लागू हुआ, जिसके प्रथम अनुच्छेद की तृतीय धारा में देवनागरी लिपि को सरकारी स्वीकृति प्राप्त हुई ।
- सन् 1796 ई० - देवनागरी लिपि में मुद्राक्षर आधारित प्राचीनतम मुद्रण (जॉन गिलक्राइस्ट, हिंदूस्तानी भाषा का व्याकरण, कोलकाता)।
- सन १८०९ - दस्तावेजों से पता चलता है कि सन 1809 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सरकारी सिक्कों पर फारसी के साथ-साथ देवनागरी लिपि को भी अंकित किया था। लेकिन उसके मात्र 26 साल बाद सन 1835 के अधिनियम संख्या 17 के तहत देवनागरी लिपि का उन्मूलन कर दिया गया और सिक्कों पर केवल रोमन और फारसी लिपि को ही अंकित किया गया।
- १८३२ - फ्रेडरिक जॉन शोर नामक न्यायाधीश ने भाषा और लिपि पर 30 मई 1832 में एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने हिन्दुस्तानी भाषा को न्यायालय की भाषा बनाने की वकालत की। ऐसी अनुशंसा करने वाले वह पहले अंग्रेज अधिकारी थे।
- १८३४ - फ्रेडरिक जॉन शोर ने ०१ जून १८३४ को यह भी कहा कि न्याय की दृष्टि से जनता को यह मांग करने का अधिकार है कि न्यायालयों और देश का कार्य निष्पादन सामान्यतः देश की भाषा और लिपि में ही होना चाहिए।
- १८३६ - आधुनिक युग में देवनागरी के प्रथम प्रचारक गौरीदत्त का जन्म । देवनागरी और हिन्दी के प्रचार के लिए उन्होने नौकरी छोड़ दी, अपनी सारी सम्पत्ति देवनागरी के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दी और 'संन्यास' ले लिया। उन्होने अपना सारा समय देवनागरी के प्रचार-प्रसार के लिए लगाया, अनेक पुस्तकें लिखीं और 'देवनागरी प्रचारक' नामक पत्र निकाला।
- 19 अप्रैल 1849 - अदालतों की समस्त कार्यभाषा फारसी के स्थान पर हिन्दुस्तानी में परिवर्तित करने का स्पष्ट आदेश प्रदान किया गया था।
- 1859 - मोनियर विलियम्स ने यह निष्कर्ष दिया कि "यह लिपि (देवनागरी) प्रत्येक वर्ण के स्तर पर सर्वाधिक पूर्ण और व्यवस्थित है। यदि देवनागरी में कोई दोष है तो वह यह कि यह दोषरहित है।" [५]
- १८६४ - डॉ राजेन्द्र लाल मित्र पहले भारतीय थे जिन्होंने देवनागरी लिपि आन्दोलन में भाग लिया था और 1864 में पहला शोधपूर्ण लेख लिखा था।
- सन १८६७ - आगरा और अवध राज्यों के कुछ हिन्दुओं ने उर्दू के स्थान पर हिन्दी को राजभाषा बनाये जाने की माँग की।
- सन १९६८ - बनारस के बाबू शिवप्रसाद ने आरम्भिक मुसलमान शासकों पर भारत के ऊपर फारसी भाषा और लिपि थोपने का आरोप लगाया। ('इतिहासतिमिरनाशक' नामक पुस्तक में)
- सन् १८८४ - प्रयाग में मालवीयजी के प्रयास से हिन्दी हितकारिणी सभा की स्थापना की गई।
- सन् १८९३ ई. - काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना ।
- सन् १८९४ - मेरठ के पंडित गौरीदत्त ने न्यायालयों में देवनागरी लिपि के प्रयोग के लिए ज्ञापन दिया जो अस्वीकृत हो गया।
- २० अगस्त सन् १८९६ - राजस्व परिषद ने एक प्रस्ताव पास किया कि सम्मन आदि की भाषा एवं लिपि हिन्दी होगी परन्तु यह व्यवस्था कार्य रूप में परिणीत नहीं हो सकी।
- सन् १८९७ - नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा गठित समिति ने ६० हजार हस्ताक्षरों से युक्त प्रतिवेदन अंग्रेज सरकार को दिया। इसमें विचार व्यक्त किया गया था कि संयुक्त प्रान्त में केवल देवनागरी को ही न्यायालयों की भाषा होने का अधिकार है।
- १५ अगस्त सन् १९०० - शासन ने निर्णय लिया कि उर्दू के अतिरिक्त नागरी लिपि को भी अतिरिक्त भाषा के रूप में व्यवहृत किया जाये।
- १९०५ में न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्र ने एक लिपि विस्तार परिषद की स्थापना की, जिसका उद्देश्य भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि (देवनागरी) को सामान्य लिपि के रूप में प्रचलित करना था।
- १९०५ में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने नागरी प्रचारिणी सभा के वार्षिक सम्मेलन में भाषण करते हुए पूरे भारत के लिए समान लिपि के रूप में देवनागरी की वकालत की और कहा कि समान लिपि की समस्या ऐतिहासिक आधार पर नहीं सुलझायी जा सकती। उन्होने तर्कपूर्ण ढंग से दलील दी कि रोमन लिपि भारतीय भाषाओं के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है।
- १९०७ में 'एक लिपि विस्तार परिषद' के लक्ष्य को आन्दोलन का रूप देते हुए शारदाचरण मित्र ने परिषद की ओर से 'देवनागर' नामक मासिक पत्र निकाला जो बीच में कुछ व्यवधान के बावजूद उनके जीवन पर्यन्त, यानी 1917 तक निकलता रहा। देवनागर में बांग्ला, उर्दू, नेपाली, उड़ीया, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल, मलयालम और पंजाबी आदि की रचनाएँ देवनागरी लिपि में लिप्यंतरित होकर छपती थीं।
- १९३३ - अमेरिका की Mergenthaler Linotype Company ने देवनागरी लाइनोटाइप (देवनागरी टाइपराइटर) का विकास किया।[६]
- १९३५ में काका कालेलकर की अध्यक्षता में नागरी लिपि सुधार समिति बनायी गयी।
- १९३७ में हरि गोविन्द गोविल (1899 -1956) देवनागरी के लिए एक नए टाइपफेस का आविष्कार किया जिससे देवनागरी टाइप करने वाले उपकरणों एवं मशीनों के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ।[७][८]
स्वतंत्रता के बाद देवनागरी
- ९ सितम्बर १९४९ - संविधान के अनुच्छेद ३४३ में भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी निधारित की गयी।
- सन् १९७५ में आचार्य विनोबा भावे के सत्प्रयासों से नागरी लिपि परिषद्, नई दिल्ली की स्थापना हुई, जो नागरी संगम नामक त्रैमासिक पत्रिका निकालती है।
- १९८६ - भारतीय लिपियों को कम्प्यूतर पर लिखने के लिए इंस्क्रिप्ट कुंजीपटल मानकीकृत हुआ। १९८८ और १९९२ में इसमें कुछ संशोधन किए गए।
- १९९१ - भारतीय मानक ब्यूरो ने इस्की (ISCII) मानक स्वीकृत किया।
- अक्टूबर १९९१ - यूनिकोड कॉन्सोर्शियम ने यूनिकोड का प्रथम संस्करण स्वीकार किया जिसमें अन्य कई लिपियों के साथ देवनागरी के लिए भी यूनिकोड निर्धारित किए गए।
- जुलाई २०१० - में भारतीय रुपए का प्रतीक चिह्न स्वीकार किया गया। बाद में इसके लिए यूनिकोड (U+20B9) भी निर्धारित हुआ।
- अगस्त २०१४ - भारत सरकार ने वेबसाइटों के लिये .भारत देवनागरी डोमेन-नाम आरम्भ किया।[९]
- जनवरी २०२२ - महाराष्ट्र सरकार ने महाराष्ट्र में दुकानों के आगे मराठी भाषा में (देवनागरी में) साइन बोर्ड लगाना अनिवार्य किया। [१०]
विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त देवनागरी
संस्कृत, हिन्दी, मराठी, उर्दू, सिन्धी आदि को लिखने में प्रयुक्त देवनागरी में थोड़ा बहुत अन्तर पाया जाता है।[११]
- (१) फारसी के प्रभावस्वरूप कुछ परंपरागत तथा नवागत ध्वनियों के लिए कुछ लोग नागरी में भी नुक्ते का प्रयोग करते हैं।
- (२) मराठी लिपि के प्रभाव स्वरूप पुराने 'अ' के स्थान पर 'अ' या ओ अु आदि रूपों में सभी स्वरों के लिए 'अ' ही का प्रयोग होने लगा था। ये अब नहीं होता।
- (३) अंग्रेजी के प्रभाव के स्वरूप से ऑफिस, कॉलेज जैसे शब्दों में ऑ का प्रयोग होने लगा हैं।
- (४) उच्चारण के प्रति सतर्कता के कारण कभी-कभी हर्स्व ए, हर्स्व ओ को दर्शाने के लिए कुछ लोग (बहुत कम) ऍ, ऑ का प्रयोग करते है।
- (५) यूनिकोड देवनागरी में सिन्धी आदि अन्य भाषाओं को लिखने की सामर्थ्य के लिए कुछ नये 'वर्ण' भी सम्मिलित किए गये हैं (जैसे, ॻ ॼ ॾ ॿ) जो परम्परागत रूप से देवनागरी में प्रयुक्त नहीं होते थे।
कम्प्यूटर-युग में देवनागरी
देखें - देवनागरी कंप्यूटरी
कम्प्युटर युग में सबसे आरम्भ में देवनागरी के लिए विभिन्न (कृतिदेव, आकृति आदि) फॉण्टों का प्रयोग किया गया जिन्हें अब 'लिगेसी फॉण्ट' (कालातीत फॉण्ट) कहते हैं। बाद में यूनिकोड का प्रचलन हुआ। आजकल देवनागरी के लिए अनेकानेक यूनिकोड फॉण्ट (जैसे मंगल, गार्गी, आदि) उपलब्ध हैं। यूनिकोड के आगमन के कारण देवनागरी लगभग सभी ऑपरेटिंग सिस्टमों और सभी अभिकलनी युक्तियों (डेस्कटॉप्प, लैपटॉप, तैब, स्मार्टफोन आदि) पर और सभी सॉफ्टवेयरों (अनुप्रयोगों) पर काम कर रही है।
सन्दर्भ
- ↑ Gazetteer of the Bombay Presidency स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।, p. 30, at Google Books, Rudradaman’s inscription from 1st through 4th century CE found in Gujarat, India, Stanford University Archives, pages 30-45
- ↑ क्रमिक विकास का चार्ट, बंगाल की एशियाटिक सोसायटी की पत्रिका भाग-७, १८३८ [१]
- ↑ David Quinter (2015), From Outcasts to Emperors: Shingon Ritsu and the Mañjuśrī Cult in Medieval Japan, Brill, ISBN 978-9004293397स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।, pages 63–65 with discussion on Uṣṇīṣa Vijaya Dhāraṇī Sūtra
- ↑ Richard Salomon (2014), Indian Epigraphy, Oxford University Press, ISBN 978-0195356663स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।स्क्रिप्ट त्रुटि: "check isxn" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।, pages 157–160
- ↑ हिन्दी भाषा चिन्तन, पृष्ठ ५५ (लेखक -प्रो दिलीप सिंह)
- ↑ Keyboard Operation Devanagari Linotype (manual)
- ↑ Devanagari Script for the Mergenthaler Linotype
- ↑ Hari Govind Govil the Iindian American who patented the "Hindu-font"
- ↑ eGovWatch: Government launches .Bharat domain name in devanagari script
- ↑ महाराष्ट्र में छोटे-बड़े दुकानों के आगे बड़े अक्षरों में लगाने होंगे मराठी साइन बोर्ड
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
इन्हें भी देखें
- नागरी प्रचारिणी सभा
- गौरीदत्त
- नागरी संगम पत्रिका
- मदन मोहन मालवीय
- विनोबा भावे
- नागरी आन्दोलन
- देवनागरी टंकण
- देवनागरी का यूनिकोड ब्लॉक
बाहरी कड़ियाँ
- देवनागरी लिपि
- देवनागरी का उदय
- The Hindi-Nagari Movement
- देवनागरी का लंबा विकासात्मक इतिहास (डॉ॰ जुबैदा हाशिम मुल्ला, तिथिः 25 अप्रैल 2012)
- देवनागरी लिपि का ऐतिहासिक सर्वेक्षण
- देवनागरी लिपि का विकास
- राष्ट्रीयता और देवनागरी