तिक्कन

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महाभारत के अन्तिम भाग का तेलुगु में अनुवाद करने वाले कवि तिक्कन सोमयाजी

तिक्कन्न (तिक्कन सोमयाजी ; तेलुगु : తిక్కన సోమయాజి ; 1205–1288) एक कवि थे। वे कवित्रयी में से एक थे जिन्होने शताब्दियों में महाभारत का तेलुगु में अनुवाद किया।

परिचय

तिक्कन का अवतरण आदि कवि नन्नय के दो शताब्दियों के पश्चात् हुआ। वे नेल्लूरिमंडल के राजा मनुम सिद्ध के मंत्री थे। मंत्री कोमन्न तथा अन्नमांबा तिक्कन्न के मातामिता थे। पिता भी 'गुंटॅरिविभ' थे अर्थात तिक्कन्न संपन्न तथा पंडितवंश में उत्पन्न हुए थे। इसके दादा भास्करमंत्री भी कवि हुए।

तिक्कन्न के समय में शैव तथा वैष्णव दोनों धर्म जोरों से प्रचारित थे और दोनों में संघर्ष भी खूब चल रहा था। इन धर्मो के अनुयायी परस्पर दर्शन और भाषण के भी विमुख थे। ऐसी परिस्थिति को देखकर जो हरिहरात्मक देवता की भावना निकली इसी को इष्टदेव मानकर तिक्कन्न भी इन धर्मो के सामरस्य के लिये कटिबद्ध हुए।

तिक्कन्न मनुमसिद्ध के मंत्री ही नहीं आदरणीय कवि भी थे। आरुगल्लु के राजा गणपतिदेव के साथ मनुमसिद्धि का जो भेदभाव उत्पन्न हुआ उसमें मंत्री की हैसियत से तिक्कन्न के दोनों राजाओं को युद्धरत होने से बचाया। राजनीति के अच्छे ज्ञाता होने के कारण इन्होंने श्रीकृष्ण के दौत्य का पुनरभिनय सुचारु रूप से किया।

तिक्कन्न की पहली रचना 'निर्वचनोत्तर रामायण' राजा मनुमसिद्ध को ही समर्पित थी। निर्वचन ग्रंथों में छंद ही छंद मिलते हैं, चंपू के द्योतक गद्य के अंश नहीं होते। यद्यपि यह ग्रंथ श्रीमद्रामायण के उत्तरकांड का अनुवाद रूप ही है, तिक्कन्न ने कई अंशों में स्वतंत्रता का अवलंबन किया। तिक्कन्न की दूसरी रचना आंध्र महाभारत है, जब कि सोमयाग करके वे सोमयाजी उपाधिधारी भी बन गए। अरणयपर्व के अननूदित अंश को न लेकर तिक्कन्न ने विराटपर्व से आरंभ करके अंत तक पंद्रह पर्वों का आंध्रीकरण किया और इस कार्य में नन्नय का ही मार्गानुसरण किया। पात्रों के चित्रण एवं रसों के पोषण में इन्होंनें बड़ी दक्षता प्रदर्शित की। स्वयं मंत्री होने के कारण राजनीति, युद्धवर्णन आदि में इनकी रचना में गंभीरता और सहजता प्रस्फुटित होती है। तिक्कन्न की शैली प्रधानत: संवादशैली है जिसमें पात्रों के संभाषणों द्वारा कथा का पुरोगमन होता है। नन्नय की तरह दीर्ध समासों के पक्ष में ये नहीं थे। दो तिहाई तेलुगु शब्दों और शेष संस्कृत पदावली का उन्होनें प्रयोग किया। क्लिष्ट तथा आध्यात्मिक विषय भी देशी भाषा द्वारा सुव्यक्त किए जा सकते हैं, यह बात तिक्कन्न की रचना से प्रमाणित हो जाती है। 'मार्ग' एवं देशी पद्धतियों को अपनाने के कारण इनको 'उभय कविमित्र' की उपाधि भी मिली। लोकोक्तियाँ और मुहावरे भी इनकी रचना में काफी मिलते हैं।

तिक्कन्न ने हरिहरदेव को जो शिव तथा केशव की अभिन्नता के प्रतीक हैं, अपने ग्रंथ को समर्पित किया और इस कारण धार्मिक एकता के प्रवर्तक के रूप में भी तिक्कन्न की गणना की जाती है।

पदलालित्य, अर्थगौरव, कल्पना एवं तर्क संगतता आदि गुण जो तिक्कन की रचना में पाए जाते हैं वे सभी किसी एक कवि की रचना में दुर्लभ हैं। तिक्कन्न के शिष्य केतन्न भी कवि हुए, जिन्होने अपना दशकुमार चरित नामक पद्यकाव्य गुरु को समर्पित किया।