तबाशीर
amrutam अमृतमपत्रिका, ग्वालियर से साभार
वंशलोचन क्या होता है और कहां से निकलता है।
वंशलोचन के फायदे क्या हैं।
वंशलोचन किसे खाना चाहिए।
वंशलोचन के साइड इफ़ेक्ट कौनसे से हैं?
वंशलोचन से बनने वाली अमृतम की आयुर्वेदिक ओषधियाँ कौनसे हैं और इसके फायदे क्या हैं?
- वंशलोचन के 12 फायदे जाने। बांस से निकलता है। फेफड़ों की परेशानी, सनकन, पुरानी खांसी, पेट की तकलीफ आदि दूर करने के लिए वंशलोचन ओषधियाँ का सेवन करना चाहिए।
- वंशलोचन के बारे आयुर्वेद की सभी किताबों में उल्लेख है। amrutam द्वारा यह लेख भावप्रकाश ग्रन्थ से लिया गया है। संस्कृत के एक श्लोकनुसार
वंशस्य रोचना वा लोचना। अर्थात बांस को सुशोभित करने के कारण इसे वंशरोचन कहते हैं।
- अन्य भाषाओं में वंशलोचन के नाम… हि०-वंशलोचन, वंशलोचन। व०-बांस काबर म०-वंसलोचन गु०-वंशकपूर, बांसकपूर। क०-वंशलोचना, वंशरोचना, वंशरोचना ते० तवक्षीरी, तरक्षीरी वंशलोचनमु ता०-वंशलोचनम् । फा०- तवासीर, तवासीर। अ०-तवाशीर। अं०-Bamboo Manna (बाम्बू मन्त्रा)। ले०-Bambusa arundinacia Willd. (बांबुजा अरूण्डिनेसिया) Gramineae (ॲमिनी); Syn. Poaceae ग्रांस के वृक्ष भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रान्तों में उत्पन्न होते हैं, विशेषकर बंगाल की तरफ इसकी खेती होती है।
- वंशलोचन की पहचान….मोटे और दृढ़ बांस के भीतर एवं बड़े मोटे पोली जाती के पहाड़ी बांसों के भीतर जिसे नजला बांस कहते हैं जब सफेद रस सुखकर कंकर के समान बन जाता है, तब इस सफेद कंकरी को वंशलोचन कहते हैं। यह केवल मादा जाति के ही बांसों में जमता है।
- बांसों को काटकर जब फाड़ते हैं तब किसी किसी बांस के भीतर से यह निकलता है। कहते हैं कि स्वाती नक्षत्र का जल बांस के भीतर पड़ने से उसमें वंशलोचन उत्पन्न होता है।
- असली वंशलोचन नीलापन युक्त सफेद रक्त का होता है, लकड़ी पर घिसने पर रेशा नहीं उभरता तथा जल में डालने पर पारदर्शक हो जाता है। लेकिन मिट्टी के तेल डालने पर पारदर्शकता कम हो जाती है।
- स्वाद में यह फीका होता है। लेकिन आजकल बाजार में प्राय: नकली वंशलोचन ही बिकता है जो देखने में बहुत सुन्दर नीली आभा युक्त बड़े-बड़े कंकड़ों के रूप में होता है। पहले असली वंशलोचन जावा, सिङ्गापुर आदि से आता था।
- अब तो शायद किसी रासायनिक विधि से यह तैयार करके असली के नाम पर बिका करता है जिसका स्वाद कुछ तीक्ष्ण रहता है। वंशलोचन के अतिरिक्त बांस के कोमल प्रांकुर, पत्र, गांठ, बीज तथा मूल का व्यवहार किया जाता है।
- रासायनिक संगठन-वंशलोचन में सिलिका (Silica) ९०% या सिलिसिक एसिड के हाइड्रेट के रूप में सिलिकम् (Silicum as hydrate of silicic acid), मंडूर (Peroxide of iron), पोटॅश (Potash), चूना, अॅल्यूमिनिया (Aluminia) तथा कुछ वानस्पतिक पदार्थ जैसे कोलिन (Colin), ब्रिटेन (Betain), न्यूक्लिएस (Nuclease), यूरिएस (Urease), प्रभूजिन एवं कार्बोज के पाचक किण्व तथा स्नेहविलेयक किण्व (Proteolytic, diastatic and emulsifying enzymes), तथा सायनोजेनिटक् ग्लुकोसाइड (Cyanogenetic glucoside) आदि पदार्थ पाये जाते हैं।
- बांस की राख में सिलिका २८, चूना ४, मॅग्नेशिया ६, पोटेशियम् ३४, सोडियम् १२, क्लोरीन २, गंधक १० भाग और कुछ जल रहता है। कुछ लोग इसके क्षार को तथा असली वंशलोचन को गरम करके जल में डालते हैं और सूखने पर वंशलोचन के स्थान पर बेचते हैं।
- वंशलोचन के गुण-लाभ और प्रयोग- वंशलोचन उत्तेजक, ज्वरहर, कफनि:सारक, बल्य, वृष्य, प्यासशमन करने वाला, उद्वेष्ठननिरोधि एवं माही होता है।
- वंशलोचन से वसनसंस्थान की श्लेष्मलकला को पुष्टि मिलती है तथा कफ की मात्रा कम होती है।
- वंशलोचन से बने हुए सितोपलादि चूर्ण का व्यवहार जीर्णज्वर, श्वास, कास, क्षय, मन्दाग्नि, कमजोरी, कफ में खून जाना, दाह, पूयमेह, मूत्रदाह तथा वातविकार एवं सर्पदंश में किया जाता है।
- वंशलोचन को ग्राही औषधियों के साथ जीर्ण संग्रहणी तथा आन्तरिक रक्तस्त्रावों में इसका उपयोग करते हैं।
- इसकी कोमल गांठ तथा पत्रों का क्वाय गर्भाशय संकोचक होता है। इसका उपयोग प्रसूता में आतंवशुद्धि के लिए एवं अन्य आर्तव विकारों में किया जाता है।
- वंशलोचन के कोमलपत्र का उपयोग कफ से खून जाना, कुष्ठ, ज्वर तथा बच्चों के सूत्रकृमि में किया जाता है।
- वंशलोचन के प्रांकुर (Shoots) का रस निकालकर कृमियुक्त थावों पर डाला जाता है तथा बाद में उसका पुल्टिस उन पर बाँध दिया जाता है।
- जिन लोगों का पाचन ठीक नहीं होता उनको इसके कोमल प्रांकुरों से बने सिरके का उपयोग मांस-मछली के साथ देना उपयोगी होता है। इससे भूख बढ़ती है तथा पाचन भी ठीक होता है।
- वंशलोचन की गाँठों को पीसकर जोड़ों के दर्द पर उसका बन्धन उपयोगी है।
- वंशलोचन के बीज को गरीब लोग चावल के रूप में खाते हैं।
- वंशलोचन का मूल विस्फोटक व्याधियों (Eruptive affections) में बहुत उपयोगी है तथा दाद पर लाभदायक है।
- वंशलोचन के पुष्परस का उपयोग कर्णबिन्दु के रूप में कर्णशूल एवं बाधिर्य आदि में किया जाता है।
सेवन विधि एवं मात्रा- वंशलोचन चूर्ण १ ग्राम सादे जल या गुनगुने दूध से लेना हितकारी रहता है।
अमृतम द्वारा निर्मित लोजेन्ज माल्ट में वंशलोचन का विशेष पध्दति द्वारा मिश्रण किया जाता है।
तबाशीर या बंसलोचन बांस की कुछ नस्लों के जोड़ों से मिलने वाला एक पारभासी (ट्रांसलूसॅन्ट) सफ़ेद पदार्थ होता है। यह मुख्य रूप से सिलिका और पानी और कम मात्रा में खार (पोटैश) और चूने का बना होता है।[१] भारतीय उपमहाद्वीप की आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा प्रणालियों की दवा-सूचियों में इसका अहम स्थान है।[२] पारम्परिक चीनी चिकित्सा के कई नुस्ख़ों में भी इसका प्रयोग होता है।[३]
तथाकथित स्वास्थ्य-लाभ
पारम्परिक चिकित्सा विधियों में तबाशीर के कई फ़ायदे बताए जाते हैं, जैसे कि बुख़ार उतारना, स्पैज़्म (अकड़न की लहरें) से राहत दिलाना, लकवे में सहायता करना और कामोत्तेजक बनना (यानि काम-इच्छा तीव्र करना)।[४] बंसलोचन का उपयोग भारत में गर्भवती महिलाओं को जी मत्लने की अवस्था में एक टुकड़ा मुह में रखकर चूसने से लाभ मिलता है।साँचा:cn
तबाशीर के प्रकार
हलकी नीलिमा वाले तबाशीर (जिसे आम तौर पर "नील" या "नीलकंठ" बुलाया जाता है) साधारण पीले या सफ़ेद तबाशीर से उत्तम माना जाता है।[५]
तबाशीर ढूंढना
हर बांस की डंडी में तबाशीर नहीं होता। तबाशीर ढूँढने के लिए डंडियों को हिलाया जाता है। अगर अंदर तबाशीर बना हुआ हो तो अक्सर उसके डले खड़कने की आवाज़ पैदा करते हैं। इन बांसों को चीरकर तबाशीर निकला जाता है।[५][६]
इतिहास
हालांकि तबाशीर प्राचीन आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली का हिस्सा है, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इसका पहला प्रयोग भारत की आदिवासी समुदायों में शुरू हुआ।[१] हज़ारों साल तक भारत से तबाशीर निर्यात होता था और मध्य काल में यह अक्सर अरब सौदागरों के द्वारा किया जाता था।[१] बारहवी शताब्दी ईसवी में भारत के पश्चिमी तट के क़रीब स्थित ठाणे शहर में निर्यात होने वाले तबाशीर की मंदी लगा करती थी।[७] रोम में नीरो के ज़माने में रहने वाले पेदानियोस दिओस्कोरीदिस (Πεδάνιος Διοσκουρίδης) नामक यूनानी चिकित्सक ने अपनी लिखाइयों में तबाशीर को साख़ारोन (σάκχαρον) का नाम दिया।[४]
नामोत्पत्ति और अन्य नाम
"तबाशीर" शब्द संस्कृत के "त्वक्षीर" शब्द से आया है, जिसका अर्थ "त्वचा का क्षीर" यानि "(पेड़ की) छाल का दूध" है।[४][८] इस के लिए कुछ अन्य संस्कृत नाम भी प्रयोग होते हैं, जैसे कि "वंस शर्कर" (यानि "बांस की शक्कर") और वंस कर्पूर ("बांस का कपूर")।[७] मैंडारिन चीनी भाषा में इसे "तिआन झु हुआंग" कहा जाता है, जिसका मतलब "दिव्य बांस पीला" (यानि बांस का दिव्य पीला पदार्थ) है।[३]
सन्दर्भ
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