जय सिंह प्रथम

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

साँचा:infobox

मिर्जा राजा जयसिंह (15 जुलाई, 1611 – 28 अगस्त, 1667) आमेर रियासत के शासक थे, जिन्होंने सन् 1621-1667 (46 वर्ष) तक आमेर रियासत की गद्दी संभाली‌‌। ये आमेर के शासक के रूप में मुग़ल दरबार में सेनापति के पद पर सर्वाधिक सेवाएं (46 वर्ष) देने वाले शासक रहे है। इन्होने 3 मुग़ल बादशाहों का शासन काल देखा- जहांगीर, शाहजहां, और औरंगज़ेब। इन्हे मुग़ल बादशाह शाहजहां द्वारा 1637 ई. में मिर्जाराजा की उपाधि से सम्मानित किया गया।

शासन का शुरूआती दौर (1621-1630)

मिर्ज़ा राजा भाव सिंह का कोई पुत्र ना होने के कारण 1621 ई. में उनके छोटे भाई महासिंह के पुत्र जय सिंह प्रथम मात्र 11 वर्ष की आयु में आमेर के शासक बने। अपने शासन काल के शुरआत में इन्होने मुग़ल बादशाह जहांगीर व शाहजहां की सेवा की । 1623 ई. में जहांगीर ने इन्हें अहमदनगर के शासक मालिक अम्बर के विरुद्ध भेजा जहाँ इन्होंने सफल सैन्य अभियान चलाया। जिस कारण से 1625 ई. में इन्हें जहांगीर ने दलेल खां पठान के विद्रोह का दमन करने भेजा और वहां भी ये विद्रोह को दबाने में सफल रहे।

शाहजहां के काल में इन्होंने 1629 ई. में उज़बेगों के विद्रोह का सफलतापूर्वक दमन किया।


बीजापुर व गोलकुंडा अभियान (1636 ई.)

1636 ई. में शाहजहां ने मुग़ल सेना को जय सिंह प्रथम के नेतृत्व में बीजापुर व गोलकुंडा अभियान पर भेजा वहां इनके सैन्य कौशल के कारण मुग़ल साम्राज्य को सफलताएं मिली । इस से खुश होकर मुग़ल बादशाह ने इनके लौटने पर इन्हें चाकसू व अजमेर के परगने उपहार में दिए। और इन्हें 1639 ई.में मिर्ज़ा राजा की उपाधि से सम्मानित किया।

कंधार की सूबेदारी (1651 -1653  ई.)

प्रथम बार 1637 ई. में शाहजहां के पुत्र शुजा के साथ इन्हें कंधार अभियान पर भेजा गया। इसके बाद 1651 ई. में शाहजहां ने इन्हें सदुल्ला खां के साथ में कंधार के युद्ध में नियुक्त किया जहाँ इन्होंने मुग़ल सेना के हरावल दस्ते ( सेना का अग्रभाग) का नेतृत्व किया। इस युद्ध के बाद कंधार में मुग़ल सत्ता स्थापित हो गयी और शाहजहां ने अपने पौत्र सुलेमान शिकोह ( दारा शिकोह का पुत्र) के साथ में संयुक्त रूप से इन्हें कंधार की सूबेदारी दे दी।

मिर्ज़ा राजा जय सिंह और मुग़ल उत्तराधिकार का युद्ध (1658 -59 ई.)

1657-58 ई. में जब मुग़ल सत्ता में उत्तराधिकार को लेकर मतभेद हुए तब शाहजहां ने इन्हें 1658 ई. में इन्हें अपने पुत्र शुजा के विरुद्ध भेजा क्योंकि शाहजहां चाहते थे कि इनके ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह अगला मुग़ल बादशाह बने। मिर्ज़ा राजा जय सिंह के नेतृत्व में सेना ने बहादुरपुर ( वर्तमान बनारस, उत्तर प्रदेश के पास) के युद्ध में शुजा को पराजित कर दिया। इस से खुश होकर शाहजहां ने इनका मनसब बढ़ा के 6000 कर दिया।

धरमत का युद्ध (15 अप्रैल 1658)

शाहजहां के बाद अगला मुग़ल बादशाह बनने के लिए इनके 2 पुत्र दारा शिकोह और औरंगज़ेब के मध्य विवाद था। इन दोनों के मध्य 15 अप्रैल 1658 को धरमत(मध्य प्रदेश) की मैदान पर युद्ध हुआ। इस युद्ध में शाहजहां के निवेदन करने पर मिर्ज़ा राजा जय सिंह ने दारा शिकोह के पक्ष से मुग़ल सेना का नेतृत्व किया। लेकिन इस युद्ध में औरंगज़ेब की जीत हुई जिस से एक बात स्पष्ट हो गयी थी कि औरग़ज़ेब में ही अगला मुग़ल शासक बनने की काबिलियत है। इस कारण इन्होंने औरंगज़ेब के अगला मुग़ल शासक बनने की प्रबलता को देखते हुए 25 जून 1658 ई. को मथुरा(उत्तर प्रदेश) में औरंगज़ेब से मुलाकात की व अपना पूर्ण सहयोग औरंगज़ेब को देने का वचन दे उसके पक्ष में शामिल हो गया।

दौराई/ देवराई का युद्ध ( मार्च, 1659 )

मार्च 1659 ई. में दौराई (अजमेर की निकट) की मैदान में औरंगज़ेब व दारा शिकोह की मध्य मुग़ल सत्ता की लिए दूसरा व अंतिम युद्ध हुआ। इस युद्ध में अपने वचन अनुसार मिर्ज़ा राजा जय सिंह ने औरंगज़ेब के पक्ष से युद्ध लड़ा व उसकी सेना में हरावल दस्ते का नेतृत्व किया और इस युद्ध में औरग़ज़ेब विजयी होकर अगला मुग़ल बादशाह बना।

औरंगज़ेब काल और मिर्जा राजा जय सिंह (1659-1667)

जिस समय औरंगज़ेब शासक बना उस समय सतपुरा की दक्षिण में मराठे महाराज शिवजी के नेतृत्व में शक्तिशाली होते जा रहे थे और मुग़ल सत्ता को वहां चुनौती दे रहे थे और साथ ही में मुगलो का खजाना भी लूटा जा रहा था । इस कारण 1665 ई. में औरंगज़ेब ने मिर्ज़ा राजा जय सिंह को 1 लाख 40 हजार मुग़ल सेना देकर महाराज शिवजी को दबाने भेजा। मिर्जा राजा जय सिंह ने पुरन्धर के किले (वर्तमान पुणे के निकट) में महाराज शिवजी को घेर लिया व अपनी सैन्य कुशलता का परिचय देते हुए उन्हें मुगलों से संधि करने व उनके अधिपत्य में होना स्वीकार करने पर बाध्य कर दिया। और 11 जून 1665 ई. को महाराज शिवजी और मिर्जा राजा जय सिंह (मुगलों की तरफ से) के मध्य एक संधि हुई जिसे पुरन्धर की संधि की नाम से जाना जाता है।

इससे खुश होकर औरंगज़ेब से उनके पद में वृद्धि की और उन्हें आगे बीजापुर (कर्नाटक) अभियान पर भेज दिया।

लेकिन इस बार मिर्जा राजा जय सिंह अपनी सफलताओं का सिलसिला जारी नहीं रख पाए और इस अभियान में पूरी तरह असफल रहे जिस कारण औरंगज़ेब इनसे काफी नाराज़ हुआ और इन्हें वापस आने का हुकुम दिया। इस समय तक महाराज शिवजी का इनके पुत्र राम सिंह प्रथम की हवेली में मुग़ल कैद से भाग निकलने और बीजापुर में इनके असफल होने की कारण, मिर्जा राजा जय सिंह और औरंगज़ेब के मध्य उतने अच्छे सम्बन्ध नहीं रह गए थे और औरंगज़ेब के कहने पर मिर्जा राजा जय सिंह के ही विश्वासपात्र सामंतो ने इनकी वापसी में बुरहानपुर( मध्य प्रदेश) में जहर देकर हत्या कर दी।

मृत्यु

28 अगस्त 1667 ई. को इनकी बुरहानपुर(मध्य प्रदेश) में इनके विश्वासपात्र सामंतो द्वारा ज़हर देकर हत्या कर दी गयी। यहीं बुरहानपुर में मिर्ज़ा राजा जय सिंह की 38 खम्बों कि छतरी मौजूद है। इनकी मृत्यु की पश्चात् इनके ज्येष्ठ पुत्र राम सिंह प्रथम (1667 -1689 ) व उनके बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र बिशन सिंह( 1682 -1700) आमेर के राजा बनते है जिनके पुत्र सवाई जय सिंह/ जय सिंह द्वितीय (1700-1743) हुए ।

इन्हें भी देखें