चिरायता

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साँचा:taxobox चिरायता (Swertia chirata) ऊँचाई पर पाया जाने वाला पौधा है। इसके क्षुप 2 से 4 फुट ऊँचे एक-वर्षायु या द्विवर्षायु होते हैं। इसकी पत्तियाँ और छाल बहुत कडवी होती और वैद्यक में ज्वर-नाशक तथा रक्तशोधक मानी जाती है। इसकी छोटी-बड़ी अनेक जातियाँ होती हैं; जैसे- कलपनाथ, गीमा, शिलारस, आदि। इसे जंगलों में पाए जानेवाले तिक्त द्रव्य के रूप में होने के कारण किराततिक्त भी कहते हैं। किरात व चिरेट्टा इसके अन्य नाम हैं। चरक के अनुसार इसे तिक्त स्कंध तृष्णा निग्रहण समूह में तथा सुश्रुत के अनुसार अरग्वध समूह में गिना जाता है।

यह हिमालय प्रदेश में कश्मीर से लेकर अरुणांचल तक 4 से 10 हजार फीट की ऊँचाई पर होता है। नेपाल इसका मूल उत्पादक देश है। कहीं-कहीं मध्य भारत के पहाड़ी इलाकों व दक्षिण भारत के पहाड़ों पर उगाने के प्रयास किए गए हैं।

इसके काण्ड स्थूल आधे से डेढ़ मीटर लंबे, शाखा युक्त गोल व आगे की ओर चार कोनों वाले पीतवर्ण के होते हैं। पत्तियाँ चौड़ी भालाकार, 10 सेण्टीमीटर तक लंबी, 3 से 4 सेण्टीमीटर चौड़ी अग्रभाग पर नुकीली होती हैं। नीचे बड़े तथा ऊपर छोटी होती चली जाती है। फूल हरे पीले रंग के बीच-बीच में बैंगनी रंग से चित्रित, अनेक शाखा युक्त पुष्पदण्डों पर लगते हैं। पुष्प में बाहरी व आभ्यन्तर कोष 4-4 खण्ड वाले होते हैं तथा प्रत्येक पर दो-दो ग्रंथियाँ होती हैं। फल लंबे गोल छोटे-छोटे एक चौथाई इंच के अण्डाकार होते हें तथा बीज बहुसंख्य, छोटे, बहुकोणीय एवं चिकने होते हैं। वर्षा ऋतु में फूल आते हैं। फल जब वर्षा के अंत तक पक जाते हैं तब शरद ऋतु में इनका संग्रह करते हैं। इस पौधे में कोई विशेष गंध नहीं होती, परन्तु स्वाद तीखा होता है।

इसका पंचांग व पुष्प प्रयुक्त होते हैं। बहुत शीघ्रता से उपलब्ध न होने के कारण इसमें मिलावट काफी होते हैं। पंचांग में भी प्रधानतया काण्ड की ही होती है जो दो तीन फीट लंबा होता है। इसकी छाल चपटी, अन्दर की ओर कुछ मुड़ी हुई तथा बाहर की तरफ भूरे रंग की व अन्दर से गुलाबी रंग की ही होती है। चबाने पर छाल रेशेदार, कुरकुरी, कसैली मालूम पड़ती है। छाल के अंदर की तरफ सूक्ष्म रेखाएँ खिंची होती हैं। सुअर्सिया चिरायता की कई प्रजातियों का प्रयोग मिलावट में पंसारीगण करते हैं। इनमें कुछ हें मीठा या पहाड़ी चिरायता (सुअसिंया अंगस्टीफोलिया) सुअर्शिया अलाटा, बाईमैक-लाटा, सिलिएटा, डेन्सीफोलिया, लाबी माईनर, पैनीकुलैटा। इसके अतिरिक्त चिरायता में कालमेघ (एण्ड्रोग्राफिस पैनिकुलैटा) तथा मंजिष्ठा (रुविया कॉडियाफोलिया) की भी मिलावट की जाती है।

कालमेघ को हरा चिरायता नाम भी दिया गया है। इनकी पहचान करने का एक ही तरीका है कि दीखने में एक से होते हुए भी शेष स्वाद में अर्ध तिक्त या मीठे होते हैं। छाल के अंदर की बनावट को ध्यान से देखकर भेद किया जा सकता है। अनुप्रस्थ काट पर मज्जा का भाग स्पष्ट दिखाई देता है। यह कोमल होता है, आसानी से पृथक हो जाता है। शेष परीक्षण रासायनिक विश्लेषण के आधार पर किया जाता है। जिसके अनुसार तिक्त सत्व कम से कम 1.3 प्रतिशत होना चाहिए। मीठे चिरायते का तना आयताकार होता है तथा असली चिरायते की तुलना में मज्जा का भाग अपेक्षाकृत कम होता है। शेष सभी मिलाकर औषधियों को उनके विशिष्ट लक्षणों द्वारा पहचाना जा सकता है।

इसे लगभग सभी विद्यानों ने सन्निपात ज्वर, व्रण, रक्त, दोषों की सर्वश्रेष्ठ औषधि माना है।[१] इस प्रकार एक प्रकार की प्रतिसंक्रामक औषधि यह है, जो ज्वर उत्पन्न करने वाले मूल कारणों का निवारण करती है। इसी प्रकार यह तीखेपन के कारण कफ पित्त शामक तथा उष्ण वीर्य होने से वातशामक है। इन सभी दोषों के कारण उत्पन्न किसी भी संक्रमण से यह मोर्चा लेता है। कोढ़, कृमि तथा व्रणों को मिटाता है।

चिरायते में पीले रंग का एक कड़ुवा अम्ल-ओफेलिक एसिड होता है। इस अम्ल के अतिरिक्त अन्य जैव सक्रिय संघटक हैं। दो प्रकार के कडुवे ग्लग्इकोसाइड्स चिरायनिन और एमेरोजेण्टिन, दो क्रिस्टलीयफिनॉल, जेण्टीयोपीक्रीन नामक पीले रंग का एक न्यूट्रल क्रिस्टल यौगिक तथा एक नए प्रकार का जैन्थोन जिसे 'सुअर्चिरन' नाम दिया गया है। एमेरोजेण्टिन नामक ग्लाईकोसाइड विश्व के सर्वाधिक कड़वे पदार्थों में से एक है। इसका कड़वापन एक करोड़ चालीस लाख में एक भाग की नगण्य सी सान्द्रता पर भी अनुभव होता रहता है। यह सक्रिय घटक ही चिरायते की औषधीय क्षमता का प्रमुख कारण भी है। इण्डियन फर्मेकोपिया द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार चिरायते में तिक्त घटक 1.3 प्रतिशत होना चाहिए। इसके द्रव्य गुण पक्ष पर लिखे शोध प्रबंध में बी.एच.यू. के डॉ॰ प्रेमव्रत शर्मा ने इसके रासायनिक संघटकों में से प्रत्येक के गुण धर्मों व उनके प्रायोगिक प्रभावों पर विस्तार से प्रकाश डाला है।

सन्दर्भ

  1. भाव प्रकाश निघण्टुकार लिखता है-किरातः सारको रक्षोऽशीतलस्तिक्तको लघुः।
    सन्निपात ज्वरश्वांस कफ पित्तास्रदाहनुत्॥ कासशोथ तृषा कुष्ठ ज्वर व्रण कृमिप्रणुत॥

बाहरी कड़ियाँ

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