अवेस्ता

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अवेस्ता या ज़ेंद अवेस्ता नाम से भी धार्मिक भाषा और धर्म ग्रन्थ दोनों का बोध होता है। जिस भाषा के माध्यम का आश्रय लेकर जरथुस्त्र धर्म (फारस/ईरान में इस्लामी अरबों की विजय के पहले का मूल धर्म) का विशाल साहित्य निर्मित हुआ था उसे भी 'अवेस्ता' या 'अवस्ताई भाषा' कहते हैं।

उपलब्ध साहित्य में इसका प्रमाण नहीं मिलता कि पैगम्बर (ज़रथुस्त्र) अथवा उनके समकालीन अनुयायियों के लेखन अथवा बोलचाल की भाषा का नाम क्या था। परन्तु परम्परा से यह सिद्ध है कि उस भाषा और साहित्य का भी नाम "अविस्तक" था। अनुमान है कि इस शब्द के मूल में "विद्" (जानना) धातु है जिसका अभिप्राय 'ज्ञान' अथवा 'बुद्धि' है।

अवेस्ता साहित्य की रचना एक लम्बे काल तक हुई। प्रारम्भ में यह साहित्य मौखिक रूप में (अलिपिबद्ध) था किन्तु बाद में लिपिबद्ध किया गया था। समय के प्रवाह में इस विशाल साहित्य का बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया किन्तु अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ है। अवेस्ता, अपने वर्तमान स्वरूप में, विभिन्न स्रोतों से प्राप्त सामग्रियों का संकलन है। इस संकलित सामग्री के विभिन्न भाग अलग-अलग कालों में रचित हैं और उनकी प्रकृति भी एक-दूसरे से बहुत भिन्न है। इसके अलावा, केवल अवस्ताई भाषा की सामग्री को ही 'अवेस्ता' माना जाता है। इसमें धार्मिक सामग्री के अलावा सामान्य (गैर-धार्मिक) सामग्री भी है। अलग अलग लोग अवेस्ता की सकल सामग्री का अलग-अलग तरह से वर्गीकरण करते हैं। जीन केलेन्स ने इसे यस्न, विस्पेरद, वेन्दिदाद, यश्त, सिरोज़ा, न्यायेश, गह, अफ्रिनगन और विविध (Fragments) के रूप में विभाजित किया है।

इतिहास

यद्यपि आर्यों से सम्बन्धित इतिहास अत्यन्त विवाद का विषय है, किन्तु एक मान्यता के अनुसार बहुत प्राचीन काल में आर्य जाति अपने प्राचीन आवास "आर्य वजेह" में रहा करती थी जो सुदूर उत्तरी प्रदेश में अवस्थित था "जहाँ का वर्ष एक दिन के बराबर" होता था। उस स्थान को निश्चयात्मक रूप से बतला पाना कठिन है। बाल गंगाधर तिलक ने अपने ग्रंथ "दि आर्कटिक होम" में इस भूमि को उत्तरी ध्रुव प्रदेश में बतलाया है जहाँ से आर्यों ने पामीर की शृंखला में प्रवास किया। बहुत समय पर्यन्त एक सुगठित जन के रूप में वे एक स्थान में रहे, एक ही भाषा बोलते, विश्वासों, रीतियों और परंपराओं का समान रूप से पालन करते रहे। जनसंख्या में वृद्धि तथा उत्तरी प्रदेश के शीत तथा अन्य कारणों ने उनकी शृंखला छिन्न-भिन्न कर दी। आर्यजन के विविध कुलों में दो कुलों के लोग, जो आगे चलकर भारतीय (इंडियन) और ईरानी शाखाओं के नाम से विख्यात हुए, पूर्वी ईरान में दीर्घ काल तक और निकटतम संपर्क में रहे। आगे चलकर एक जत्थे ने हिंदूकुश की पर्वतमाला पार कर पंजाब में लगभग 2000 ई.पू. प्रवेश किया। शेष जन आर्यों की आदिभूमि की परम्परा का निर्वाह करते हुए ईरान में ही रह गए। अवेस्तास, विशेषतः अवेस्ता के गाथासाहित्य और वैदिक संस्कृत में निकटतम समानता वर्तमान है। भेद केवल ध्वन्यात्मक (फ़ोनेटिक) और निरुक्तगत (लेक्सिकोग्राफ़िकल) हैं। दो बहन भाषाओं के व्याकरण और रचनाक्रम (सिंटैक्स) में भी निकट साम्य है।

प्राचीन ईरान और भारत दोनों ही देशों में लेखन के आविष्कार के पूर्व मौखिक परम्परा विद्यमान थी। अवेस्ता ग्रंथों में मौखिक शब्दों, छंदों, स्वरों, भाष्यों एवं प्रश्नों और उत्तरों का उल्लेख हुआ है। एक ग्रंथ (यस्न, 29.8) में अहुरमज्द अपने संदेशवाहक ज़रथुस्त्र को वाणी की संपत्ति प्रदान करते हैं क्योंकि "मानव जाति में केवल उन्होंने ही दैवी सन्देश प्राप्त किया था जिन्हें मानवों के बीच ले जाना था।" ज्ञान के देवता ने उन्हें सच्चा "अथ्रवन" (पुरोहित) कहा है जो सारी रात ध्यानावस्थित रहकर और अध्ययन में समय बिताकर सीखे गए पाठ को जनता के बीच ले जाते हैं। प्राचीन भारत के ब्राह्मणों की तरह अथ्रवन ही प्राचीन ईरान में शिक्षा तथा धर्मोपदेश के एकामत्र अधिकारी समझे जाते थे। इन पुराहितों में वंशानुगत रूप में धर्मग्रंथों की मौखिक परंपरा चली आया करती थी।

पैगम्बर (ज़रथुस्त्र) के स्तवन गाथाएँ गाथा में, जो बोलचाल की भाषा थी, पाए जाते हैं और जनश्रुति तथा शास्त्रीय साहित्य के अनुसार ज़रथुस्त्र को अनेक ग्रंथों का रचयिता बतलाया जाता है। अरब इतिहासकारों का कथन है कि ये ग्रथ 12,000 गाय के चर्मों पर अंकित थे। प्राचीन ईरानी तथा आधुनिक पारसी लेखकों के अनुसार पैंगंबर ने 21 "नस्क" अथवा ग्रंथ लिखे थे। ऐसा कहा जाता है कि सम्राट् विश्तास्प ने इन ग्रंथों का दो यथातथ्य अनुलेख कराकर दो पुस्तकालयों में संगृहीत किया था। जब सिकंदर ने पर्सापालिस का राजप्रासाद जला दिया तब इनमें से एक अनुलेखवाली सामग्री अग्नि में भस्म हो गई। साहित्यिक विवरणों के आधार पर कहा जाता है कि दूसरी अनुलेख की समग्री विजेता सैनिक अपने देश को लेते गए जहाँ उसका अनुवाद यूनानी भाषा में हुआ। प्रारंभिक ससानी काल में संग्रहीत ये बिखरे हुए ग्रंथ फिर सातवीं शती में ईरानी साम्राज्य के ह्रास के कारण विलुप्त हो गए। वर्तमान समय में उपलब्ध कुल साहित्य लगभग 83 हजार पद्यों में सीमित रह गया है जब कि मौलिक पद्यों की संख्या 20 लाख थी। इसके बारे में प्लिनी का कथन है कि महान दार्शनिक हर्मिप्पस ने तीन शती ईसापूर्व अध्ययन कर डाला था।

अवेस्ता भाषा का धीरे-धीरे अखामनी साम्राज्य के ह्रास के कारण उत्पन्न हुए ईरान में उथल-पुथल के कारण ह्रास प्रारम्भ हो गया। जब उसका प्रचार बिलकुल लुप्त हो गया, अवेस्ता ग्रंथों के अनुवाद और भाष्य "पहलवी" भाषा में प्रस्तुत किए जाने लगे। इस भाषा की उत्पत्ति इसी काल में हुई जो ससानियों की राजभाषा बन गई। उन भाष्यों को पहलवी में ज़ेंद कहा जाता है और व्याख्याएँ अब "अवेस्तक-उ-ज़ेंद अथवा अवेस्ता तथा उसके भाष्य के नाम से विख्यात हैं। विपर्यय से इसी को "ज़ेंद-अवेस्ता" कहा गया। अनुमान किया गया है कि धार्मिक विषयों पर रचित पहलवी ग्रंथ, जो विनाश से बचे रहे उनकी शब्दसंख्या 4,46,000 के लगभग होगी।

पहलवी का प्रचार आधुनिक पारसी वर्णमाला के प्रारम्भ से बिलकुल कम हो गया। उसका लिखित स्वरूप आर्य एवं सामी बनावट का मिश्रण था। सामी शब्दों को हटाकर उनके स्थानों में उनका ईरानी पर्यायवाची शब्द रखकर उसका सरलीकरण किया गया था। कालान्तर में पहलवी ग्रंथों को जब समझाने की आवश्यकता का अनुभव किया गया, हुज़वर शब्दों को हटाकर उनके स्थान पर ईरानी पर्यायवाची रखकर दुरूह पहलवी भाषा भी सीधी बनाई गई। अपेक्षाकृत सरल की गई भाषा और आगे रचित भाष्य एवं व्याख्याएँ "पज़ंद" (अवेस्ता की पैंती-ज़ैंती) के नाम से विख्यात हुई। पज़ंद के ग्रंथ अवेस्ता वर्णमालाओं में अंकित हुए (जिस प्रकार इस्लाम द्वारा विजित ईरान में अरबी वर्णमाला के उपयोग से पहलवी लिपि का ह्रास हुआ)।

पज़ंद भाषा ही आगे चलकर पहलवी तथा आधुनिक फारसी के बीच की कड़ी बनी। अंतिम ज़रथुस्त्र साम्राज्य के ह्रास के अनन्तर विजेताओं की अरबी लिपि ने अवेस्ता की पहलवी लिपि को उत्क्षिप्त कर दिया। अरबी अक्षर, आधुनिक फारसी वर्णमाला के अक्षर मान लिए गए जिसका प्रचार हुआ। ग्रंथरचना जब अवेस्ता में होती थी तो उसे "पज़ंद" कहते थे और जब पुस्तकें अरबी अक्षरों में लिखी जाने लगीं, उसे "पारसी" कहने लग गए।

अवेस्ता के जो ग्रंथ पैगंबर के अनुयायियों (जरथुस्त्र धर्मावलम्बियों) के पास अवशिष्ट हैं, वे अपने सामी रूप में पाए जाते हैं। वे ऐसे अक्षरों में मिलते हैं जो ससानी पहलवी से लिए गए हैं, जिनका मूल आधार संभवत: प्राचीन अरमेक वर्णमाला का कोई न कोई प्रकार है। यह लिपि दाहिनी ओर से बाईं ओर को लिखी जाती है और इसमें प्राय: 50 भिन्न चिह्नों (साइन्स) का समावेश पाया जाता है।

ज़रथुस्त्र मतावलंबी ईरान लगभग पाँच शती पर्यन्त सिल्यूसिड और पार्थियन शासनों के अन्तर्गत रहा। धार्मिक ग्रंथों की मौखिक वंशक्रमानुगत परम्परा ने लुप्तप्राय ग्रंथों के पुररुद्धार के कार्य को सरल कर दिया। ससानी साम्राज्य के संस्थापक अर्दशिर ने विद्वान् पुरोहित तनसर के बिखरे हुए सूत्रों को, जो मौखिक रूप से प्रचलित थे, एक प्रामाणिक संग्रह में निबद्ध करने का आदेश किया था। ग्रंथों की खोज शापुर द्वितीय (309-379 ई.) के राजत्वकाल पर्यन्त होती रही जिसमें प्रसिद्ध दस्तूर अदरबाद महरस्पंद की सहायता सराहनीय है।

अवेस्ता साहित्य

अवेस्ता युग की रचनाओं में प्रारम्भ से लेकर 200 ई. तक तिथिक्रम से आनेवाली सर्वप्रथम रचनाएँ गाथा कहलाती हैं, जिनकी संख्या पाँच है। अवेस्ता साहित्य के वे ही मूल ग्रंथ हैं जो पैगंबर (जरथुस्त्र) के भक्तिसूत्र हैं और जिनमें उनका मानव का तथा ऐतिहासिक रूप प्रतिबिंबित है, न कि काल्पनिक व्यक्ति का, जैसा कि बाद में कुछ लेखकों ने अपने अज्ञान के कारण उन्हें अभिव्यक्त करने की चेष्टा की है। उनकी भाषा बाद के साहित्य की अपेक्षा अधिक आर्ष है और वाक्यविन्यास (सिंटैक्स), शैली एवं छंद में भी भिन्न है, इसी लिए उनकी रचना का काल विद्वानों ने प्राचीनतम वैदिक मंत्रों की रचना का समय निर्धारित किया है। नपे तुले स्वरों में रचे होने के कारण वे सस्वर पाठ के लिए ही हैं। उनमें न केवल गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यानुभूतियाँ वर्तमान हैं, वे विषयप्रधान ही न होकर व्यक्तिप्रधान भी हैं जिनमें पैगंबर के व्यक्तित्व की विशेष रूप से चर्चा की गई है, उनके ईश्वर के साथ तादात्म्य स्थापित करने और उस विशेष अवस्था के परिज्ञान के लिए वांछनीय आशा, निराशा, हर्ष, विषाद, भय, उत्साह तथा अपने मतानुयायियों के प्रति स्नेह और शत्रुओं से संघर्ष आदि भावों का भी समावेश पाया जाता है। यद्यपि पृथ्वी पर के मनुष्य का जीवन वासना से घिरा हुआ है, पैगंबर ने इस प्रकार शिक्षा दी है कि यदि मनुष्य वासना का निरोध कर सात्विक जीवन व्यतीत करे तो उसका कल्याण अवश्यभावी है।

गाथाओं के बाद "यस्न" आते हैं जिनमें 72 अध्याय हैं जो "कुश्ती" के 72 सूत्रों के प्रतीक हैं। कुश्ती कमरबंद के रूप में बुनी जाती है जिसे प्रत्येक ज़रथुस्त्र मतावलंबी "सूद्र" अथवा पवित्र कुर्ता के साथ धारणा करता है जो धर्म का बाह्य प्रतीक है। यस्न उत्सव के अवसर पर पूजा संबंधी "विस्पारद" नामक 23 अध्याय का ग्रंथ पढ़ा जाता है। इसके बाद संख्या में 23 "यश्तों" का संगायन किया जाता है जो स्तुति के गान हैं और जिनके विषय अहुमरज्द तथा अमेष-स्पेंत, जो दैवी ज्ञान एवं ईश्वर के विशेषण हैं और "यज़ता", पूज्य व्यक्ति जिनका स्थान अमेष स्पेंत के बाद हैं।

अवेस्ता काल के धार्मिक ग्रंथों की सूची के अंत में "वेंदीडाड", "विदेवो दात" (राक्षसों के विरुद्ध कानून) का उल्लेख हुआ है। यह कानून विषयक एक धर्मपुस्तक है जिसमें 22 "फरगरद" या अध्याय हैं। इसके प्रधान वर्ण्य विषय इस प्रकार हैं--अहुरमज्द की रचना तथा अंग्र मैन्यु की प्रति-रचनाएँ, कृषि, समय, शपथ, युद्ध, वासना, अपवित्रता, शुद्धि एवं दाहसंस्कार।

प्राचीन पारसी रचनाकाल (800 ई.पू. से लगभग 200 ई.) के बीच लिखित साहित्य का सर्वथा अभाव था। उस समय केवल कीलाक्षर (क्यूनीफ़ॉर्म) अभिलेख भर थे जिनमें हखामनी सम्राटों ने अपने आदेश अंकित कर रखे थे। उनकी भाषा अवेस्ता से मिलती है, परन्तु लिपि से बाबुली और असीरियन उत्पत्ति का अनुमान हाता है।

पहलवी युग (ईसा की प्रथम शीती से लेकर नवीं शती तक) में कई प्रसिद्ध पुस्तकें लिखी गईं जैसे "बुंदहिश्न" जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति दी हुई है, "दिनकर्द" जिसमें बहुत से नैतिक और सामाजिक प्रश्नों की मीमांसा की गई है, "शायस्त-ल-शायस्त" जो सामाजिक और धार्मिक रीतियों एवं संस्कारों का वर्णन करता है, "श्कंद" गुमानि विजर" (संदेहनिवाणार्थक मंजूषा) जिसमें वासना की उत्पत्ति की समस्या का विवेचन किया गया है तथा "सद दर" जिसमें विविध धार्मिक और सामाजिक प्रश्नों की व्याख्या की गई है।

आधुनिक पारसी वर्णमाला के आविष्कार से पहलवी का प्रचार लुप्त हो गा। ज़रथुस्त्र मत के ग्रंथ भी अब प्राय: आधुनिक फारसी में लिखे जाने लग गए।

ऋग्वेद के साथ समानता

अवेस्ता के तत्वों में हिन्दू धर्म के ऋग्वेद के साथ समानता है; उदाहरण के लिए: अहुरा से असुर,देवा डेवा से, अहुरा मज़्दा से हिंदू एकेश्वरवाद, वरुण, विष्णु और गरुड़, अग्नि से अग्नि मंदिर, स्वर्गीय रस सोमा - हाओमा नामक पेय से, समकालीन भारतीय और फारसी युद्ध से देवासुर का युद्ध, अरिया से आर्य, मिथरा से मित्र, द्यौष्पिता और ज़ीउस से बृहस्पति, यज्ञ से यज्ञ, नरिसंग से नरसंगसा, इंद्र, गंधर्व से गंधर्व, वज्र, वायु, मंत्र , यम, अहुति, हमता से सुमति इत्यादि।[१][२]

वैदिक संस्कृत अवस्ताई सामान्य अर्थ
āp āp "water," āpas "the Waters"[३]
Apam Napat, Apām Napāt Apām Napāt the "water's offspring"[३]
aryaman airyaman "Arya-hood" (lit:** "member of Arya community")[३]
rta asha/arta "active truth", extending to "order" & "righteousness"[३][४]
atharvan āϑrauuan, aϑaurun Atar "priest"[४]
ahi azhi, (aži) "dragon, snake", "serpent"[३]
daiva, deva daeva, (daēuua) a class of divinities
manu manu "man"[३]
mitra mithra, miϑra "oath, covenant"[३][४]
asura ahura another class of spirits[३][४]
sarvatat Hauruuatāt "intactness", "perfection"[५][६]
Sarasvatī Haraxvaitī (Ārəduuī Sūrā Anāhitā) a controversial (generally considered mythological) river, a river goddess[७][८]
sauma, soma haoma a plant, deified[३][४]
svar hvar, xvar the Sun, also cognate to Greek helios, Latin sol, Engl. Sun[५]
Tapati tapaiti Possible fire/solar goddess; see Tabiti (a possibly Hellenised Scythian theonym). Cognate with Latin tepeo and several other terms.[५]
Vrtra-/Vr̥tragʰná/Vritraban verethra, vərəϑra (cf. Verethragna, Vərəϑraγna) "obstacle"[३][४]
Yama Yima son of the solar deity Vivasvant/Vīuuahuuant[३]
yajña yasna, object: yazata "worship, sacrifice, oblation"[३][४]
Gandharva Gandarewa "heavenly beings"[३]
Nasatya Nanghaithya "twin Vedic gods associated with the dawn, medicine, and sciences"[३]
Amarattya Ameretat "immortality"[३]
Póṣa Apaosha "'demon of drought'"[३]
Ashman Asman "'sky, highest heaven'"[५]
Angira Manyu Angra Mainyu "'destructive/evil spirit, spirit, temper, ardour, passion, anger, teacher of divine knowledge'"[३]
Manyu Maniyu "'anger, wrath'"[३]
Sarva Sarva "'Rudra, Vedic god of wind, Shiva'"[५]
Madhu Madu "'honey'"[३]
Bhuta Buiti "'ghost'"[३]
Mantra Manthra "'sacred spell'"[३]
Aramati Armaiti "'piety'"
Amrita Amesha "'nectar of immortality'"[३]
Sumati Humata "'good thought'"[५][३]
Sukta Hukhta "'good word'"[३]
Narasamsa Nairyosangha "'praised man'"[३]
Vayu Vaiiu "'wind'"[३]
Vajra Vazra "'bolt'"[३]
Ushas Ushah "'dawn'"[३]
Ahuti azuiti "'offering'"[३]
púraṁdhi purendi[३]
bhaga baga "'"lord, patron, wealth, prosperity, sharer/distributor of good fortune'"[३]
Usij Usij "'"priest'"[३]
trita thrita "'"the third'"[३]
Mas Mah "'"moon, month'"[३]
Vivasvant Vivanhvant "'" lighting up, matutinal'"[३]
Druh Druj "'"Evil spirit'"[३]

सन्दर्भ

  1. साँचा:cite book
  2. साँचा:cite book
  3. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Ror नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  4. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Mmm नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  5. साँचा:cite book
  6. साँचा:cite book
  7. साँचा:cite book
  8. साँचा:cite book

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बाहरी कड़ियाँ