अलोह धातुकर्म

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यह ठीक है कि विश्व में लोहस पदार्थों का उत्पादन ही सर्वाधिक है और ये अन्य धातुओं की तुलना में सस्ते पड़ते हैं, परंतु आज के वैज्ञानिक युग में बहुत से ऐसे उपयोग है जहाँ लोह पदार्थों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। ऐसे स्थानों पर अलोह धातु अथवा उनकी मिश्रधातुओं का उपयोग होता है। अलोह धातुओं में अनेकानेक धातु सम्मिलित हैं, जिनमें ताम्र, ऐल्यूमिनियम, स्वर्ण, रजत, सीसा, जस्ता, वंग, निकल, मैंगनीज़ इत्यादि प्रमुख हैं। इन धातुओं के धातुकर्म को अलोह धातुकर्म (Non-ferrous Metallurgy) कहते हैं।

इनमें से महत्वपूर्ण कुछेक नीचे दी जाती हैं।

एल्यूमिनियम

आधुनिक युग में ऐल्यूमिनियम का अलोह धातुओं में विशिष्ट स्थान होता जा रहा है। आधुनिक विमानों का प्रादुर्भाव ऐल्यूमिनियम के कारण ही संभव हो सका। अब तो इस धातु का उपयोग ऑटोमोबाइल तथा विद्युतीय उद्योगों में भी अधिकाधिक होने लगा है। यद्यपि पृथ्वी के धरातल में ऐल्यूमिनियम धातु की बहुलता है, फिर भी इसका प्रमुख अयस्क 'बॉक्साइट' है जिससे ऐल्यूमिनियम का व्यापारिक उत्पादन होता है। यह जलयोजित ऐल्यूमिनियम ऑक्साइड होता है, जिसमें सिलिका, लौह-ऑक्साइड, टाइटेनियम-ऑक्साइड इत्यादि अपद्रव्य के रूप में विद्यमान रहते हैं।

स्वर्ण

आदिकाल से ही भारत में स्वर्ण धातु का प्रचलन रहा है, इसलिए यह मानना पड़ता है कि उस समय में भी लोग स्वर्ण उत्पादन की विधियों से अवगत थे। आज स्वर्ण धातुकर्म का आधार अधिक वैज्ञानिक हो गया है और मुख्यत: दो विधियाँ उपयोग में लाई जाती हैं :

  • (1) संरसन (Amalgamation) तथा
  • (2) सायनाइडीकरण (Cyanidation)

चाँदी या रजत

साधारणत: रजत आरजेंटाइट (Argentite, Ag2 AS) नामक रजत अयस्क से निकाला जाता है। इसके उत्पादन के लिए 'सायनाइड विधि' (Cyanide Process) ही अधिकाधिक उपयोग में लाई जाती है। इस विधि में रजत अयस्क के आरंभिक दलन के पश्चात्‌ सायनाइड विलयन में उसका जल के साथ पेषण किया जाता है। इस प्रकार जो लुगदी सा द्रव्य प्राप्त होत है उसे विशाल टंकियों में भेजा जाता है। यहाँ पर और सायनाइड मिलाकर विलयन का सांद्रण, 0.25 प्रति शत सोडियम सायनाइड तक, किया जाता है और लगभग तीन दिन तक संपीड़ित वायु द्वारा उसका मंथन किया जाता है। विलयन को छानने के पश्चात्‌ निर्वात उत्पन्न करके उसमें से घुली हवा को निकालते हैं और फिर 'जस्ता चूर्ण' के पायस में से इसे पारित कर रजत का अवक्षेपण करते हैं। इस क्रिया में अवक्षिप्त रजत के भार का 60 प्रतिशत जस्ता व्यय होता है। अवक्षिप्त विलयन शोधकों में पंप किया जाता है जहाँ से अवक्षेप अलग करके सुखाए जाते हैं। इसमें 75 से 90 प्रति शत तक रजत तथा कुछ अपद्रव्य और अतिरिक्त जस्ता होता है। इसे सीधे सीधे परावर्तक भ्राष्ट में पिघलाया जाता है, अथवा जस्त को निष्कासित करने के लिए पहले आरंभिक अम्ल क्रिया की जाती है।

सीस, जस्ता, ताम्र अथवा निकेल धातुओं के अयस्क न्यूनाधिक मात्रा में रजत धातु से अधिकतर मिश्रित होते हैं, जो इन धातुओं के परिष्करण के समय उप-उत्पाद के रूप में प्राप्त होता है। केवल सीस-जस्ता-अयस्क के परिष्कर से 45 प्रतिशत रजत प्राप्त किया जाता है। सीस-अयस्क से ताम्र, आर्सेनिक, ऐंटीमनी इत्यादि को दूर करने के बाद मृदु सीस (soft lead) को जस्ता द्वारा विरजतीकरण (desilverization) करने के लिए 200 टन धारितावाली केतलियों में पंप किया जाता है। रजतमय जस्ते की जो परत पड़ती है उसे निकालक रिटॉर्ट में गरम करते हैं। इस प्रकार जस्ते का आसवन हो जाता है और रिटॉर्ट में जो अवशेष बचता है उसे खर्परित (cupel) करके रजत की प्राप्ति की जाती है।

धातुओं और मिश्रधातुओं को आकार देना

अयस्कों से धातुओं का उत्पादन कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। मानव उपयोग के लिए उन्हें सुलभ बनाने में उनको आकार देना (Shaping of Metals & Alloys) आवश्यक है। धातुओं को आकार देने की विधियों की मुख्यत: चार भागों में बाँटा जा सकता है :

(1) ढलाई (Casting), (2) लुंठन (Rolling), (3) गढ़ाई (Forging) तथ (4) बहिर्वेधन (Extrusion)।

ढलाई

जो आकार अत्यंत जटिल होते हैं उन्हें इस विधि से बनाया जाता है। इसके लिए लकड़ी अथवा धातुओं के प्रतिरूप (pattern) की सहायता से साँचे बनाए जाते हैं। ये साँचे बहुधा सिलिका के बनाए जाते हैं, परंतु धातुओं के स्थायी साँचे भी काम में आते हैं। साँचे तैयार हो जाने पर धातु को द्रवित अवस्था में उसमें डाल देते हैं और जब वह जम जाती है तब उसे बाहर निकालकर उसका यंत्रन (machining) करते हैं।

लुंठन

जो आकार सममितीय होते हैं उनको आकार देने का कार्य इस विधि से किया जाता है। इसमें दो घूमते हुए बेलनों के बीच से धातुपिंडक को प्रविष्ट कराया जाता है, जिससे पिंडक लुंठित हो जाता है। लुंठन उष्ण अथवा शीतावस्था में किया जा सकता है। उष्ण लुंठन में धातुपिंडक को एक निश्चित ताप तक गरम करते हैं, जब कि शीत लुंठन में गरम करने की आवश्यकता नहीं होती।

गढ़ाई

इस विधि में तप्त धातुपिंडकों का विशाल हथौड़े से कुट्टन किया जाता है। रेल के धुरे इसी विधि से बनाए जाते हैं। बहुधा छोटे छोटे आकार बनाने के लिए ठप्पों (डाइयों, dies) का उपयोग होता है। औजारी इस्पात के बने दो ठप्पों के बीच तप्त धातु पिंडकों को रखकर उनपर चोट पहुँचाई जाती है, जिससे वे ठप्पों में बने आकार के हो जाते हैं।

बहिर्वेधन

इस विधि में तप्त धातु को उच्च दाब की सहायता से ठप्पों के बीच से निकाला जाता है। इस क्रिया के द्वारा अनेक जटिल आकार, जो लुंठन विधि से नहीं बनाए जा सकते, बनाए जाते हैं। छड़े, नालियाँ तथा अन्य आकार इस विधि से सरलतापूर्वक बनते हैं।

धातुकर्मीय भ्राष्ट्र (Metallurgical Furnaces)

धातुकर्मीय भ्राष्ट्र उपयोग तथा आकृति की दृष्टि से इतने प्रकार के हैं कि उनका वर्गीकरण नितांत कठिन है। मुख्यत: इन्हें प्रयुक्त ईधंन तथा कार्य प्रणाली के आधार पर विभाजित किया जाता है। इन भ्राष्ट्रों में विभिन्न प्रकार के ईधंन (ठोस, द्रव अथवा गैसीय) उपयोग में लाए जा सकते हैं। यहाँ पर धातुकर्मीय उद्योगों में अधिकाधिक काम आनेवाले कुछ भ्राष्ट्रों का स्थूल वर्णन किया जाता है।

घड़िया भट्ठी

यह कई प्रकार की होती है। अलोह-धातु-उद्योग में कोक अथवा तैल से गरम होनेवाली भट्ठियाँ अधिक प्रचलित हैं। इनमें अंदर ऊष्मसह ईटों का अस्तर लगा होता है। तेल से जलनेवाली भट्ठियों में ज्वालक लगे होते हैं। घड़िया में धातु द्रवित की जाती है। अवनमन (tilting) भट्ठियों में घड़ियों को बाहर निकालने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वरन्‌ इन्हें अवनमित करके धातु को दर्वी में निकाल लेते हैं।

वातभट्ठी (Wind Furnace)

इसे भी घड़िया भट्ठी कहा जा सकता है। ये अचल होती हैं और अधिकांश अग्निसह ईटों से बनाई जाती हैं। इन भट्ठियों में झर्झरी (grate) पर कोयला अथवा कोक जलाया जाता है और धातु की घड़ियों में रखकर दहकते अंगारों पर रख दिया जाता है। ईधंन जलने से जो दहन-गैस निकलती है वह चिमनी के द्वारा बाहर निकल जाती है।

मफल भट्ठी

इस प्रकार की भट्ठी में दहन-उत्पाद को प्रभार के संपर्क में नहीं आने दिया जाता। इसके लिए एक छादन (muffle) लगा दिया जाता है, जिसके अंदर प्रभार रहता है और दहन-उत्पाद उसके चारों ओर बाहर से ऊष्मा प्रदान करते हैं। इस प्रकार के भ्राष्ट ठोस, तरल, गैसीय अथवा विद्युतीय ईधंनों द्वारा गरम किए जा सकते हैं। इनका उपयोग अधिकांश ऊष्मोपचार में होता है।

परावर्तनी भट्ठी

यह भट्ठी अग्निसह ईटों से बनती है। इसमें एक दहनकक्ष होता है जहाँ ईधंन जलता है और उसकी ज्वाला प्रद्रावण अथवा तापन कक्ष को ले जाई जाती है, जहाँ प्रभार को प्रद्रवित अथवा तप्त किया जाता है। इन भट्ठियों में ठोस, तरल अथवा गैसीय ईधंन का उपयोग किया जाता है। इनकी छतें झुकावदार होती हैं, जिसके कारण ज्वाला प्रभार की ओर परावर्तित होती है।

वात्याभट्ठी

लोह-उत्पादन-क्रिया का वर्णन करते समय वात्याभट्ठी का विस्तृत विवरण दिया जा चुका है। वात्याभट्ठी (blast furnace) का मुख्य उपयोग लोह उत्पादन में ही होता है। परंतु कुछ अलोह धातुओं (जैसे ताम्र, सीस, वंग इत्यादि) के उत्पादन में भी इसका उपयोग होता है। अलोह धातु-उत्पादन में जो भट्ठियाँ उपयोग में आती है, वे अधिकतर आयताकार तथ लोहभट्ठी से बहुत छोटी होती हैं। उन भट्ठियों में लोहभट्ठी की तुलना में उष्मा भी काफी कम रहती है। इसलिए बहुत अच्छे अग्निसह पदार्थों की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। शेष कार्यप्रणाली तथा रचना का सिद्धांत लोहभट्ठी के समान ही है।

चुल्ली भट्ठी

इस प्रकार की भट्ठी इस्पात बनाने के लिए अधिक उपयुक्त सिद्ध हुई है। इसमें एक खुली चुल्ली होती है जिसमें प्रभार का प्रद्रावण होता है। यहाँ प्रभार और ईधंन की ज्वालाएँ एक दूसरे के संपर्क में आती हैं और इस प्रकार ज्वाला अपनी उष्मा प्रभार को प्रदान करती है। इस भट्ठी में ईधंन तैल, अलकतरा अथवा उत्पादक गैस का उपयोग किया जाता है।

पुनर्योजी भट्ठी (Regenerative Furnace)

जिन भट्ठियों में पुनर्जनन प्रणाली प्रयुक्त होती है उन्हें पुनर्योजी भट्ठी कहते हैं। इनमें दहन-उत्पाद तथा तप्त गैस पुनर्योंजी द्वारा होकर बाहर जाती है और इस प्रकार अपनी उष्मा को पुनर्योजी में रखी रोधक ईटों (checker bricks) को देती जाती है। कुछ समय पश्चात्‌ इस ऊष्मा का उपयोग उस गैस अथवा वायु को गरम करने में किया जाता है जो प्रभार के लिए भट्ठी में भेजी जाती है। इस प्रकार ईधंन की बचत तथा उच्चताप की प्राप्ति होती है।

विद्युत भट्ठी (Electric Furnace)

जिन भट्ठियों में विद्युत्‌ शक्ति का उपयोग ईधंन के रूप में किया जाता है उन्हें विद्युत्‌ भट्ठी कहते हैं। ये अनेक प्रकार की होती हैं और इनकी उपयोगिता के अनुसार इनका नामकरण किया गया है। इन भट्ठियों में ताप का नियंत्रण बहुत अच्छी तरह होता है, परंतु ये काफी व्ययसाध्य होती हैं।

इन्हें भी देखें